बुधवार, दिसंबर 26, 2007

एक और प्रकार का चिठेरा चिठेरी संवाद (अनूपजी से प्रेरित) !!!

चिठेरी: अरे ओ रे चिठेरा, आज इठला के कहाँ चला ?

चिठेरा:अरे आज तो मेरा जीवन सफ़ल हो गया है। आज एक मीटिंग में गया था वहाँ रामसेतु के बारे में पता चला । तूने सुना है क्या इस बारे में?

चिठेरी: हाँ कुछ उडती उडती एडम ब्रिज के बारे में सुनी तो थी कि पिछली सरकार ने वहाँ एक नहर बनाने को मंजूरी दी थी । इस सरकार ने नहर बनाना शुरू किया तो बोले हम नहीं बनने देंगे ये हमारी भावनाओं का मामला है ।

चिठेरा: तू भी नाहक कम्यूनिष्टों उर्फ़ दुष्टों की बातों में आ जाती है ।

चिठेरी: पर कम्यूनिष्ट तो इस बारे में कुछ नहीं बोल रहे हैं ।

चिठेरा: फ़िर वोही बात, तू भोली है इन छ्द्म धर्म-निरपेक्ष लोगों की चतुराई नहीं समझ पाती है ।

चिठेरा: पता है आज से लगभग १.७५ वर्ष पहले नल और नील ने राम सेतु का निर्माण किया था । तभी पुष्पक विमान भी था । अभी हम उसे भी खोज रहे हैं । रामजी के जमाने में विज्ञान बहुत सुपर था ।

चिठेरी: अरे बाप से इत्ता पुराना है राम सेतु,

चिठेरा: और नहीं क्या? पता है गुणा भाग करके देख, त्रेतायुग भी लगभग तब (१.७५ वर्ष पहले) ही था, इससे साबित होता है कि भारतीय सभ्यता लाखों करोडों वर्ष पुरानी है । और अब तो इसके वैज्ञानिक प्रमाण भी मिल गये हैं ।

चिठेरी: अच्छा १.७५ वर्ष पहले, लेकिन ये किसने पता लगाया कि राम सेतु इतना पुराना है ? प्रमाण कहाँ है ?

चिठेरा: तेरी ये ही कमी है, तू सवाल बहुत करती है । मैं कह रहा हूँ न इतना पुराना है तो मान ले । और आस्था का प्रमाण कहाँ से लाऊँ ।

चिठेरी: तो १.७५ वर्ष आस्था से निकाला है, विज्ञान से नहीं ।

चिठेरा: अरे नहीं बिल्कुल वैज्ञानिक है । असल में ये शोध किसी जनरल (Journal) में इसलिये नहीं छप पाया क्योंकि पश्चिमी लोग नहीं चाहते कि भारत के लोग अपनी सभ्यता के बारे में गर्व करें कि वो इतनी पुरानी है ।

चिठेरी: लेकिन एक बात समझ नहीं आयी, विज्ञान तो कहता है कि १.७५ वर्ष पहले मनुष्य अफ़्रीका से ही नहीं निकल पाये थे वो अयोध्या कैसे आ गये ?

चिठेरा: तू समझती क्यों नहीं, बाल्मीकि जी ने लिखा है ये सब तो सत्य ही होगा । फ़िर अपने पुराणों में भी तो त्रेता युग १.७५ वर्ष पहले का ही बताया गया है ।

चिठेरी: इसका मतलब कि १.७५ लाख साल ऐसे ही बोल रहे हो, कोई खोज वोज नहीं हुयी ।

चिठेरा: तू इसको समझ नहीं पायेगी, तेरी आँखों पर मैकाले वाली शिक्षा पद्यति की पट्टी पडी हुयी है ।

चिठेरी: अब मैकाले कहाँ से आ गया, और मैं तो सरस्वती शिशु/विद्या मंदिर की पढी हूँ । हमारे स्कूल का उदघाटन खुद रज्जू भैया ने किया था ।

चिठेरा: फ़िर तेरी बुद्धि भ्रष्ट कैसे हो गयी । तुझे पता है अभी कुछ पहले ही एक वैज्ञानिक ने रामायण काल की गणना की है ।

चिठेरी: अच्छा सच में, कैसे गणना की है ।

चिठेरा: देख, बाल्मीकि जी ने रामायण में अलग अलग घटनाओं के समय की ग्रहों की स्थिति का वर्णन किया है । कि जब राम जी का जन्म हुआ तो फ़लाँ नक्षत्र फ़लाँनी स्थिति में था । और अब वैज्ञानिक Software का प्रयोग करके हमने पता कर लिया कि फ़लाँ नक्षण फ़लाँनी स्थिति में कितने साल पहले था, है न एकदम वैज्ञानिक ।

चिठेरी: बाप से बाप, ये तो मस्त बात बतायी तूने । कितने समय पहले थे रामजी अयोध्या में ।

चिठेरा: यही कोई आज से लगभग ६०००-७००० साल पहले ।

चिठेरी: लेकिन अभी तो तू १.७५ लाख साल पहले की बात कर रहा था ।

चिठेरा: वो तो मैं तुझे अपना समझ के कह रहा था, लेकिन तू तो मैकाले की बहन और कम्यूनिष्टों की सहेली निकली इसीलिये असली वैज्ञानिक डेट बता रहा हूँ । तू आस्था को नहीं समझेगी ।

चिठेरी: लेकिन रामजी हुये तो एक ही समय होंगे, या तो १.७५ लाख साल पहले या ६००० साल पहले । अब कोई एक तारीख ही पक्की कर दो ।

चिठेरा: अरे एक तारीख पक्की करने में बडी समस्या है । पुराणों का क्या करेंगे, अब उन्हे भी तो गलत नहीं कह सकते ।

चिठेरी: लेकिन "खट्टर काका" ने तो अपनी किताब में पुराणों की खूब हिन्दी की है । पुराणों की सारी बातें सच थोडे ही न हैं ।

चिठेरा: तुझे भारत के गौरव की कोई चिन्ता नहीं? अगर ६००० साल पहले रामजी हुये तो ईराक में तो लोग रामजी से पहले ही रह रहे थे । और तुझे तो पता है कि भारतीय सभ्यता सबसे पुरानी है, फ़िर ऐसा नहीं हो सकता ।

चिठेरी: तो फ़िर कह दो कि ६००० साल पुरानी तारीख गलत है ।

चिठेरा: तू पागल हो गयी है क्या? फ़िर तो रामायण ही गलत हो जायेगी । और इस शोध को करवाने में जो पैसा लगा वो अलग पानी में गया ।

चिठेरी: मुझे तो ५०००-६००० साल पुरानी बात ही सही लगती है । देख: रामायण की कुछ बातों पर ध्यान दे । उस समय धातुओं का खूब प्रयोग होता था, समाज व्यवस्था विकसित हो चुकी थी । मनुष्यों की जीवन शैली खूब बढिया थी । जानवर पालतू बन चुके थे आदि आदि

चिठेरी: किसी भी पुरानी सभ्यता को देख ले, ये सारे काम ५०००-६००० साल पहले ही हुये हैं ।

चिठेरा: तेरी बात में तो दम है, लेकिन उसके बाद युगों, ब्रह्मा के दिन, प्रलय आदि का क्या होगा । और ये सब तो ठीक है लेकिन फ़िर उसके बाद महाभारत को ५००० साल के पीछे रखना पडेगा और लोग पूछेगें कि जब महाभारत ५००० साल से भी कम पुरानी है तो उसके प्रमाण उत्खनन में क्यों नहीं मिले । नहीं, रामायण तो १.७५ लाख वर्ष पुरानी ही है, तू आसानी से मान ले वरना तेरी खैर नहीं ।

चिठेरी: चलो आस्था की बात है तो मैं मान लेती हूँ ।

चिठेरा: आस्था के अलावा अभी अभी मैने तुझे समझाया तो है कि वो वैज्ञानिक प्रमाण है और नासा वालों ने भी यही कहा था ।

चिठेरी: लेकिन नासा वालों ने तो कहा था कि उन्होने राम सेतु के केवल फ़ोटों खींचे हैं, उसकी आयु के बारे में उन्हे कुछ नहीं पता ।

चिठेरा: अरे ये तो उन्होने ईसाई मिशनरियों के दवाब में आकर किया होगा । इन मिशनरियों से अपने भारत को बहुत खतरा है ।

चिठेरी: अच्छा अभी मैं चलती हूँ, आज के लिये बहुत हो गया ।

चिठेरा: अभी तो बहुत कुछ बताना बाकी है । पता है वेदों में विमान बनाने की विधि है, परमाणु बम तक बना सकते हैं हम वेदों को पढकर । तुझे पता नहीं जर्मनी वालों ने कितनी ही चीजें वेदों से खोजकर बनायी थी ।

चिठेरी: तो तुम क्यों नहीं बना लेते, फ़िर तो परमाणु ऊर्जा वाली डील की जरूरत भी नहीं रहेगी ।

चिठेरा: वो सब हम बाद में सोचेंगे, पहले जन चेतना जगानी पडेगी कि अपना पुराना विज्ञान सबसे बढिया है । उसके बाद पाश्चात्य सभ्यता के अनुयायियों के खिलाफ़ मोर्चा खोलेंगे, इन मैकाले पुत्रों का घोर विरोध होना चाहिये ।

चिठेरी: अच्छा चल, अभी देर हो रही है । बाद में फ़ुरसत से तुझसे ज्ञान लेना पडेगा ।

चिठेरा: हाँ, अगली मीटिंग में तुझे साथ में ले के चलूँगा...

 

आगे भी जारी रहेगा......

सोमवार, दिसंबर 24, 2007

जूतों के फ़ीतों के बहाने पुरानी यादें !!!

मेरा ह्यूस्टन मैराथन १३ जनवरी को आने वाला है इसीलिये आजकल दौडना थोडा बढ गया है (रोज लगभग १० किमी.) । आजकल यूनिवर्सिटी में यीशू के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में छुट्टियाँ चल रही हैं, इस कारण जिस इमारत में मेरी प्रयोगशाला है के सभी दरवाजें बन्द रहते हैं । अगर आपको अन्दर जाना है तो अपना परिचय पत्र एक रीडर की स्लाट में से गुजारिये और दरवाजे खुल जायेगें । उसके बाद मुख्य इमारत में घुसकर प्रयोगशाला में जाने के लिये एक चाबी की आवश्यकता पडती है ।

 

यही समस्या है, मेरे दौडने वाले कपडों में एक भी जेब नहीं है और मुझे हाथ में कुछ भी पकडकर दौडना बहुत असुविधाजनक लगता है । इस कारण आजकल मुझे अपना परिचय पत्र इमारत के बाहर रखे एक गमले में छुपा कर जाना पडता है और प्रयोगशाला की चाबी को मैं अपने जूते के फ़ीतों में फ़ंसा लेता हूँ । आज जब मैं अपनी चाबी को जूते के फ़ीतों में फ़ंसा रहा था तो देखा कि मेरे फ़ीते के सिरे में लगा हुआ प्लास्टिक का कैप जैसा कुछ टूट गया (इस प्लास्टिक वाली वस्तु का कुछ विशेष नाम होता है जो याद नहीं आ रहा है ) । इसके बाद दौडते समय मैं जूते और फ़ीतों के बारे में सोचता रहा ।

 

मुझे अच्छे से याद है बचपन में मेरे जूते बहुत जल्दी टूटते थे । मुझे दौडने भागने और फ़ुटबाल खेलने का शौक था और रास्ते में पडे पत्थरों को ठोकर मारने की भी कुछ आदत सी थी । मेरे नये जूते लगभग ४-५ महीने ही चल पाते थे । बाटा हो या साटा हर तरीके के जूते खरीद कर देख चुके थे, एक बार तो पिताजी ने जूते की दुकान वाले को कहा था कि भैया तुम्हारे पास लकडी/लोहे के जूते हों तो वो दिखाओ । इसके अलावा बीच-बीच में जूते के फ़ीते टूटते रहते थे और जूते मरम्मत को भी जाते रहते थे । उस समय जूते ठीक करने वाला मेरा दोस्त सा बन गया था, अन्दर की बात बता देता था कि २.५ रूपये दर्जन तो केवल कीलें ही मिलती हैं और ज्यादा पैसे नहीं बच पाते हैं ।

 

मैं भी फ़ीतों के टूटने पर घर में आखिरी संभव समय तक नहीं बताता था, पहले आधे हुये फ़ीते को ही पिरो लेता था उससे गाँठ जरा छोटी लगानी पडती थी । उसके बाद भी काम न चले तो alternate छेदों में से फ़ीता पिरो कर काम चला लेता था । उस समय जूतों में ३-४ छेदों की पंक्तियाँ हुआ करती थी । पहली बार स्पोर्ट्स शू में ६-७ छेदों की पंक्तियाँ देखकर बडा खुश हुआ था । खैर बात फ़ीतों की, जब घर वाले फ़ीतों पर मेरी मितव्ययिता देखा करते थे तो नाराज होते थे कि पहले क्यों नहीं बताया कि फ़ीते टूट गये हैं । यही हाल मेरी जुराबों का भी होता था, कहीं से एक भी धागा देखकर मैं उसे खींच लेता था और उससे जुराबें फ़ट जाया करती थीं । उस समय घर के नुक्कड का दुकानवाला जूतों के फ़ीते भी बेचने को रखता था, पता नहीं अब भी रखता होगा क्या ?

इसी से एक बात याद आयी जो मैं बचपन में अपने आस पडौस में खूब सुना करता था । किसी भी विद्युत उपकरण/मोटर आदि के गरम होने की बात । कोई कहता था कि इसे लगातार मत चलाओ गरम हो जायेगा । शायद उन सबके डिजाइन में इन बातों का ध्यान नहीं रखा जाता होगा या फ़िर लोगो ने मरम्मत कराने के डर से ऐसा रूल आफ़ थम्ब बना लिया होगा ।

 

लेकिन अभी पिछले कई वर्षों से देखा है कि मेरे जूतों के फ़ीते टूटे नहीं हैं । या तो फ़ीतों की गुणवत्ता अच्छी हो गयी है अथवा मैं थोडा सुधर गया हूँ । आपके जूतों के फ़ीते आखिरी बार कब टूटे थे ?

शनिवार, दिसंबर 22, 2007

परीक्षण पोस्ट २: कृपया अनदेखा करें या पढें :-)

इस पोस्ट को मैं अपने कम्प्यूटर के माइक्रोसाफ़्ट आफ़िस २००७ से छाप रहा हूं ।


 

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पता नहीं, देखते हैं, अभी कुछ पक्का नहीं कह सकते ।


 

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परीक्षण पोस्ट २: कृपया अनदेखा करें या पढ भी लें :-)

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सहजता,कहीं मोल मिलती है क्या?

कभी ट्रेन के डिब्बे में अंग्रेजी किताब पढ़ने वाला इसलिए असहज कि लोग सोच रहे होंगे कि ये टशन मारने के लिए अंग्रेजी की किताब पढ़ रहा है जबकि मैं तो रोज ही अंग्रेजी की किताब पढता हूँकभी वो ये सोचकर असहज कि ये आम लोग कभी समझ नहीं पायेंगे कि इस अंग्रेजी की किताब में ऐसा क्या है जो में इसे पढ़ रहा हूँट्रेन में हिन्दी कि किताब पढ़ने वाला इसलिए असहज कि कहीं लोग ये सोच रहे हो कि मैं गंवार हूँ जबकि मेरी अंग्रेजी उतनी ही अच्छी है जितनी हिन्दीकभी वो ये सोचकर असहज कि आजकल मेरे जैसे लोग हैं ही कहाँ जो हिन्दी कि किताबे पढ़ते हैं, सब मैकाले की औलादें हैंमेरा बस चले तो सबकी अंग्रेजियत एक बार में निकाल दूं
कभी इस बात का दंभ कि मैं तो हिन्दी पढ़ रह हूँ डंके की चोट पर, जिसे गंवार कहना हो कह ले मुझे परवाह नहीं

कहाँ मेरे स्कूल में चीनी विद्यार्थी की कमजोर अंग्रेजी के कारण एक साधारण सी बात को जरा तकलीफ़ से समझाने के बाद उसके चेहरे पर आयी सहज मुस्कान और कहाँ किसी अंग्रेजीदां नौजवान की दिल्ली के कैफ़े काफ़ी डे में अमेरिकन एक्सेंट में बातचीत के दौरान असहजता से "डैम इट" और "होली शिट" ।


कहाँ है इसके बीच में मेरा नायक जो सहजता से अपनी अंगरेजी कि किताब बंद करके स्टेशन पर उतरकर वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास खरीदकर उतनी ही सहजता से पढता है तो वो बात बात में काले फिरंगियों को गरियाता है और ही उन्ही की भाषा में बात करता है ? आपने मेरे नायक को कहीं देखा है ?

सोमवार, दिसंबर 10, 2007

लखनऊ की याद में कालजयी ठुमरी: बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये

लखनऊ को ठुमरी की जननी और बनारस को उसकी महबूबा कहा जाता है । ऐसी ही एक कालजयी ठुमरी है, "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए" । इस ठुमरी की रचना अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह ने की थी । नवाब वाजिद अली शाह १८४७ से १८५६ तक नौ साल लखनऊ के नवाब रहे थे । १८५६ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उन पर कुशासन का आरोप लगाकर अवध की सत्ता अपने हाथ में ले ली थी । जब नवाब वाजिद अली शाह लखनऊ से निर्वासित होकर बंगाल जा रहे थे उस समय उन्होनें इस ठुमरी की रचना की थी ।

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए

चार कहार मिल, मोरी डोलिया सजावें (उठायें)
मोरा अपना बेगाना छूटो जाए | बाबुल मोरा ...

आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश
जाए बाबुल घर आपनो मैं चली पीया के देश | बाबुल मोरा ...

इस ठुमरी में उन्होने लखनऊ को अपना मायका माना था और सदा के लिये विदा होती एक बहू से अपनी तुलना की थी । इस ठुमरी को १९३८ में बनी फ़िल्म "स्ट्रीट सिंगर" में कुन्दन लाल सहगल ने अपनी आवाज से अमर बना दिया है । इस गीत को कितनी भी बार सुन लें मन नहीं भरता, कुन्दल लाल सहगल ने सिर्फ़ एक हारमोनियम के साथ अपनी आवाज में राग भैरवीं के ऊँचे सुरों को इतने सलीके से गाया है कि आज लगभग ७० वर्ष बाद भी किसी और की आवाज में ये ठुमरी मन को नहीं भाती ।

 

लगभग सभी महान गायक कलाकारों ने इस ठुमरी को गाया है । इस पोस्ट में आप इस ठुमरी को चार

आवाजों में सुन सकते हैं । सबसे पहले कुन्दन लाल सहगल की आवाज में,

 

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अब सुनिये जगजीत सिंह जी को, जिन्होने इसे बडे प्रभावपूर्ण तरीके से गाया है ।

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ये रही गिरिजा देवी और शोभा गुर्टु की जुगलबंदी,

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और अंत में शास्त्रीय संगीत की साम्राज्ञी किशोरी अमोनकर की आवाज में,

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शनिवार, दिसंबर 08, 2007

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अंजान

बात लगभग १९९० की है । मेरे घर में एक आडियो कैसेट आयी थी जिसका टाईटल था "सुपर हिट्स १९८९". इसमें १९८९ की हिट फ़िल्मों के कुछ गीत थे । कैसेट के प्रमुख गीत थे:

१) आ प्यार के रंग भरें (जीना तेरी गली में)

२) किसे ढूँढता है पागल सपेरे (निगाहें)

३) एक दो तीन चार पाँच (तेजाब)

इसी प्रकार के गीतों के बीच में एक गुमनाम सा गीत था ।

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अंजान (गवाही)

तब में लगभग आठ साल का था और उस समय ही इस गीत ने मन पर कुछ अजीब सा असर किया था । मैं कैसेट को आगे-पीछे करके हमेशा उसी गीत को सुनना चाहता था । इसके बाद बचपन गया और बडे होकर जिन्दगी के कारखानों में व्यस्त हो गये । लगभग ५ साल पहले जब इंटरनेट पर गाने सुनना शुरू किया तो इस गीत को खोजने का प्रयास किया और ये गीत कहीं नहीं मिला । अलबत्ता इक्का-दुक्का जगह इस फ़िल्म के बारे में जानकारी जरूर मिली ।

इस अनोखी फ़िल्म में शेखर कपूर और जीनत अमान मुख्य भूमिका में थे । फ़िल्म की कहानी के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है । संगीत उत्तम जगदीश का था और गीतों की रचना सरदार अंजुम ने की थी । पूरी फ़िल्म में केवल दो ही गीत थे और आवाजें पंकज उदास और अनुराधा पौडवाल की थीं ।

इसके बाद मैने शिद्दत से इस गीत को खोजना शुरू किया । घर पर भी वो कैसेट कहीं गुम हो चुकी थी क्योंकि अब घर पर कोई कैसेट नहीं सुनता, कैसेट प्लेयर धूल फ़ाँक रहा है । छोटी बहन के कम्प्यूटर पर गानों का कलेक्शन देखकर थोडा धक्का जरूर लगा जब उनमें से एक भी गाना मैने सुना नहीं था :-)

पिछली बार की छुट्टियों में मैने घर में इस कैसेट को खोज निकाला, लेकिन कैसेट से mp3 बनाने के बाद कुछ मजा सा नहीं आया । कई बार फ़िर से आगे-पीछे करके कैसेट पर उस गीत को सुना । मन पुरानी यादों में लौट गया और लगा कि जब हम केवल आठ साल के थे, अच्छे संगीत को चुनना हमें तब भी आता था ।

हमने इंटरनेट पर इस गीत के लिये कई अर्जियाँ डाली और ऊपर वाले के घर देर है अंधेर नहीं की तर्ज पर एक जगह से आशा की किरन आयी । "संगीत के सितारे" नामक याहू-ग्रुप पर "राबिन भट्ट" जी का सन्देश इस प्रकार आया ।

"जिस किसी का भी नाम नीरज हो (उनके बेटे का नाम भी नीरज है ) और जो गवाही के इस गीत को सुनना चाहता हो, उसे ये गीत जरूर मिलना चाहिये"

लेकिन राबिन जी को अपने गीतों के अमेजन जंगल में से इस गीत को खोजने में लगभग १.५ वर्ष लग गये । इस बीच मेरी उनसे बात होती रही और वो मुझे याद दिलाते रहे कि वो मुझे भूले नहीं हैं । और इसी तरह एक दिन उनकी ईमेल में मुझे ये गीत प्राप्त हुआ ।

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ये बहुत सुन्दर युगल-गीत है जिसको अनुराधा पौडवाल और पंकज उदास ने पूरी ईमानदारी से गाया है । इस गीत की खासियत है कि गीत की छोटी पंक्तियों के शब्दों को गायकों ने आपस में बाँटकर गाया है जो अत्यन्त प्रभावी है । अब आप मन लगाकर इस गीत को सुनें और बतायें कि क्या ये गीत आपको पसन्द आया । गीत के बोल इस प्रकार हैं ।

 

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अन्जान

खोज रहे हैं इक दूजे में जन्मों की पहचान । २

इक रस्ते को दूजा रस्ता मिल के बन जाये मंजिल,

तूफ़ानों के लाख भंवर हो न कोई डूबे साहिल,

साथ चलें तो हो जाती है हर मुश्किल आसान ।

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अन्जान । २

सौ जन्मों की भटकन दिल को तडप तडप तडपाये,

दो रूहे जो एक हो जाये स्वर्ग वहीं बन जाये,

जिस्मों की इस कैद में पूरे होते हैं अरमान ।

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अन्जान । २

दो तकदीरें रब लिखता है इक तकदीर अधूरी,

जन्म का साथी साथ न हो तो जीना है मजबूरी,

इसीलिये तो ये दिल वाले दे देते हैं जान ।

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अन्जान । २

खोज रहे हैं इक दूजे में जन्मों की पहचान । २

रविवार, दिसंबर 02, 2007

मृत्यु-दंड पर मेरे विचार

noose

मानवाधिकार संगठन सम्पूर्ण विश्व में मृत्यु-दंड के प्रावधान को जड से हटाने की माँग कर रहे हैं । ब्रिटेन, इटली और फ़्रांस जैसे अनेकों यूरोपीय देशों में मृत्यु-दंड को समाप्त कर दिया गया है । भारत में मृत्यु-दंड का प्रावधान अवश्य है लेकिन पिछले कई दशकों में मृत्यु-दंड की सजा बहुत कम सुनायी गयी है । इसके विपरीत अमेरिका में मृत्यु-दंड की सजा के नियम विभिन्न प्रदेशों में अलग अलग हैं । १९०९ से १९७६ तक अमेरिका के कई प्रदेशों में मृत्यु-दंड का प्रावधान आता और जाता रहा । १९७६ में अमेरिका के उच्चतम न्यायालय ने अपने फ़ैसले में राज्यों के मृत्यु-दंड देने के अधिकार को मान्यता दी । इसके पश्चात आज अमेरिका के ३८ राज्यों में मृत्यु-दंड की सजा का प्रावधान है ।

 

Lethal-Injection electricchair १९७६ से २००६ तक अमेरिका में १०९९ मृत्यु-दंड की सजा सुनायी जा चुकी हैं । ३३७० लोग अपनी सजा का इन्तजार कर रहे हैं । इस तथ्य का एक पहलू ये है कि इन १०९९ में से ४०५ लोगों को टेक्सास में मौत की सजा सुनायी गयी जो पूरे अमेरिका में दिये गये मृत्यु-दंड का एक तिहाई से भी ज्यादा है । टेक्सास में लगभग ३९३ अपनी मौत की सजा का इन्तजार कर रहे हैं । अमेरिका में मृत्यु-दंड पहले फ़ाँसी के माध्यम से दी जाती थी, इसके बाद बिजली वाली कुर्सी आयी जिसका आविष्कार थामस एल्वा एडीसन ने किया था । आजकल लगभग सभी जगह जहरीला मौत का इन्जेक्शन देकर मौत की नींद में सुलाया जाता है, ये इन्जेक्शन हृदय की गति को रोक देता है और जल्दी ही व्यक्ति मृत हो जाता है । यद्यपि कुछ प्रदेशों में बिजली वाली कुर्सी और जहरीला इन्जेक्शन दोनो उपलब्ध हैं । पिछले कुछ वर्षों में जहरीले इन्जेक्शन के विरुद्ध काफ़ी प्रदर्शन हुये हैं । विरोध करने वालों का दावा है कि कई बार जहरीले इन्जेक्शन को काम करने में ३० मिनट तक का समय लगा और ये अत्यधिक दर्दनाक है । इस विषय पर मामला उच्चतम न्यायालय के अधीन विचारार्थ है ।

मैं किसी भी जघन्यतम अपराध के लिये, किसी भी स्थिति में, किसी भी व्यक्ति को दिये गये मृत्यु-दंड के विरुद्ध हूँ ।

कई बार कुछ ऐसे मामले भी सामने आये हैं जब भावनाओं के बहाव में मैने सोचा है कि सम्भवत: इस मामले में मृत्यु-दंड उचित है लेकिन फ़िर सोच विचार करने पर मैं पुन: अपनी सोच पर वापस आ जाता हूँ । मेरी इस सोच के मुख्य रूप से चार कारण हैं और मेरे लिये चौथा कारण सबसे अधिक महत्वपूर्ण है ।

१ ) प्रत्येक मानव जीवन अमूल्य है और इस जीवन का अंत करने का अधिकार केवल प्रकृति अथवा उस मनुष्य को खुद है । जघन्य अपराधों के लिये मैं लम्बी कैद का हिमायती हूँ (केवल १४ वर्ष की कैद नहीं), यदि समाज को लगता है कि उसका अपराध अक्षम्य है तो उस व्यक्ति को सम्पूर्ण जीवन के लिये कारागार में डाल दीजिये जिससे वो कभी कारागार के बाहर न आ सके परन्तु समाज को जीवन छीन लेने का मेरी नजर में कोई अधिकार नहीं है ।

२) लोगों में ऐसी धारणा है कि उम्रकैद की सजा देने पर उसके सारे जीवन का खर्चा सरकार को उठाना पडेगा जबकि मृत्यु-दंड देने से उस खर्च से बचा जा सकता है । वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है । मृत्यु-दंड वाले मुकदमों में सरकारी खर्च अन्य मुकदमों के मुकाबले कहीं अधिक होता है । भारत में हुये इस खर्च पर मेरे पास कोई आधिकारिक आँकडे नहीं हैं,परन्तु अमेरिका में जहाँ मृत्यु-दंड की सजा सुनायी जाती है के आँकडे ये कहते हैं:

क) न्यू-जर्सी में १९८३ से अभी तक मृत्यु-दंड के मुकदमों और मुकदमे के फ़ैसले के बाद की अपीलों पर लगभग २५.३ करोड डालर खर्च हो चुके हैं और इन मामलों में अभी तक एक भी व्यक्ति को मृत्यु-दंड नहीं मिल पाया है । ये अलग बात है कि १० व्यक्ति अपने मृत्यु-दंड का इन्तजार कर रहे हैं । विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इतना धन पुलिस विभाग को दिया जाता तो सम्भवत: अपराधों पर अच्छी खासी लगाम लग सकती थी ।

ख) टेक्सास में जहाँ पर मृत्यु-दंड बडी उदारता से दिया जाता है, वहाँ भी मृत्यु-दंड के किसी मुकदमें पर हुआ पूरा खर्चा उस व्यक्ति को ४० वर्ष तक सबसे सुरक्षित जेल में रखने पर होने वाले खर्चे का लगभग ३ गुना है ।

३) कई बार किसी निर्दोष व्यक्ति को मुकदमें में सजा हो जाती है । अमेरिका में पिछले ४-५ वर्षों में ही सैकडों व्यक्तियों को DNA के सबूत के आधार पर मौत की सजा से छुडा ही नहीं वरन बाइज्जत बरी किया जा चुका है । अगर इन व्यक्तियों को तुरत-फ़ुरत मौत की सजा दे दी गयी होती तो सोचिये कि मानवता के प्रति हमारे समाज और अदालतों से कितना बडा अपराध हो गया होता । १५ वर्ष बाद भी मिला न्याय भी कम से कम न्याय तो है ।

४) मेरी समझ में ये सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है । समाज ने अपराध के बदले सजा का प्रावधान बनाते समय सोचा था कि सजा अन्य व्यक्तियों के लिये एक डर का कार्य करेगी । पिछले लगभग पचास वर्षों के शोधकार्य के बावजूद भी अभी तक इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है कि मृत्यु-दंड का डर अपराधियों के अपराध करते समय उम्रकैद के डर से अधिक होता है । अभी हाल में छपे शोधपत्रों में इस बात को साबित करने का प्रयास किया गया है परन्तु Academic Circle में उस शोधकार्य की पद्यति और निकाले गये निष्कर्षों पर काफ़ी उंगलियाँ उठी हैं ।

जब मृत्यु-दंड अन्य किसी दंड के मुकाबले अपराध रोकने में अधिक सक्षम नहीं है तो फ़िर मेरी नजर में अन्य पहलुओं का ध्यान में रखते हुये इसका कोई औचित्य नहीं है ।

नीरज रोहिल्ला

०२ दिसम्बर, २००७

 

चलते चलते: वैसे तो मैने पहले ही "जघन्यतम" शब्द का प्रयोग कर दिया है लेकिन स्प्ष्टीकरण के लिये मैं देशद्रोह, आतंकवाद, बलात्कार आदि प्रकार के अथवा किसी भी प्रकार के अपराध के लिये मृत्यु-दंड का हिमायती नहीं हूँ । पूर्णविराम ।

शनिवार, नवंबर 10, 2007

शादी का गोरखधन्धा (मेरी नहीं)- भाग १

मेरे एक अभिन्न मित्र पिछले एक साल से शादी करने की कोशिश कर रहे हैं । इस बार उनसे मिलना हुआ और उन्होंने अपने दुखी दिल का हाल सुनाया । उनका हाल-ए-दिल सुनकर हम भी सहम से गये और उनसे मौज लेने का विचार छोड दिया । उन्होंने हमसे इस मुद्दे पर एक पोस्ट लिखने का वायदा लिया जिससे दुनिया को आजकल के लडकों का दर्द पता चल सके ।

सबसे पहले आपको लडके के बारे में बता दें । लडका कम्प्यूटर साइंस में अच्छे कालेज से बी.टेक है । पिछले साढे पाँच वर्षों से अच्छी अच्छी कम्पनियों में काम कर रहा है । तन्ख्वाह भी मोटी है, सिगरेट/शराब/कबाब की कोई लत नहीं, नोएडा में किस्तों पर घर का मकान खरीद लिया है । गाडी पहले नहीं खरीदी थी पर जब लडकी वालों ने कहना शुरू किया कि अब तक गाडी नहीं खरीदी क्या वाकई में इतनी अच्छी तन्ख्वाह मिलती है, तो गाडी भी खरीद ली । लडके और उसके परिवार को मैं पिछले १० वर्षों से जानता हूँ तो उसके चरित्र और चालचलन की भी मैं गारंटी ले सकता हूँ । लडके और उसके परिवार वालों की दहेज की भी रत्ती भर माँग नहीं है । लडका देखने, बातचीत में एकदम स्मार्ट, चाँद का टुकडा है (ध्यान दें कि ईस्माइली का प्रयोग नहीं किया गया है )

इस सब के बाद लडका पिछले १ साल से शादी करने की असफ़ल कोशिश कर रहा है । आईये आपको उसके और कुछ लडकियों के बीच हुये दिलचस्प संवाद सुनाते हैं ।

१) लडकी (फ़रीदाबाद) : जब तक एक फ़ार्महाउस न हो, जिंदगी का मजा ही क्या है ।

२) लडकी (फ़रीदाबाद) : ५०-६० हजार रूपये महीने में कुछ होता है क्या?

३) लडकी (जगह याद नहीं) : मैं शादी तो कर लूँगी लेकिन मथुरा कभी नहीं जाऊगीं

४) लडकी (आगरा) : मैं मथुरा में एडजस्ट नहीं कर पाऊगीं ।

५) लडकी (दिल्ली) : तुम हर १५वें दिन नोएडा से मथुरा क्यों जाते हो?

लडके ने हारकर मैरिज ब्यूरो तक में पंजीकरण करा लिया है । जब मैरिज ब्यूरो वालों से मिलने मैं उसके साथ आगरा गया और ब्यूरो चलाने वाली आण्टी को पता चला कि हम किराये की नहीं बल्कि अपनी खुद की गाडी से आये हैं तो उन्होने गुस्से में कहा कि आपने फ़ोन पर पहले क्यों नहीं बताया कि आपके पास कार भी है । इस चक्कर मे ही कई रिश्ते हाथ से निकल गये हैं और ऐसा कहकर उन्होने फ़ार्म पर गाडी का मेक और माडल लिख दिया । उन्होंने रूह कंपा देने वाले कुछ किस्से और सुनाये और साथ ही कुछ अंक गणित भी सिखाया ।

मेरे एक दूसरे मित्र ने नौकरी करने वाली लडकी की क्वालिटेटिव एनालिसिस की थी । उसके हिसाब से आजकल संयुक्त परिवार तो न के बराबर हैं । घरों में पहले ने मुकाबले काफ़ी कम काम हैं (न गेंहूँ साफ़ करना, न पोंछा झाडू करना, न कपडे हाथ से धोना और न ही बडे परिवार का खाना पकाना आदि) । इस कारण अगर लडकी नौकरी नहीं करती है तो उसके पास काफ़ी खाली समय रहेगा । पहला तो खाली दिमाग शैतान का घर और दूसरा अगर खाली समय रहेगा तो वो एकता कपूर के धारावाहिक देखेगी या फ़िर और फ़ालतू के शगूफ़े खोजेगी । बडी कम्पनियों में लडकों की नौकरियाँ भी १० से ५ वाली नहीं हैं इसीलिये घर देर से ही आना हो पाता है । इसीलिये आजकल के परिवेश में नौकरी करने वाली लडकियाँ ही अच्छी हैं । उसके हिसाब से इसके दो फ़ायदे हैं । पहला कि वो खुद व्यस्त रहेगी और बोर नहीं होगी और न ही घर पर टी.वी. देखकर मोटी होगी :-) दूसरा ये कि उसे पता होगा कि पैसा कितनी मेहनत से कमाया जाता है और इस कारण वो लडके के मेहनत से कमाये हुये पैसे की कद्र करेगी ।

 

लेकिन बाद में नौकरी करने वाली लडकी की क्वांटिटेटिव एनालिसिस इस प्रकार सामने आयी । अगर लडकी ८-१० हजार महीना कमाती है तो कम से कम पाँच हजार तो उसके खुद के खर्चे में निकल जायेगें और इफ़िक्टिवली वो केवल ३-५ हजार का सहयोग करेगी । अगर ये ३-५ हजार लडके की कमाई के २५ प्रतिशत के आस-पास है तब तो ठीक परन्तु अगर ये लडके की कमाई के २५ प्रतिशत से कम है तो इससे न कमाने वाली ही बेहतर है । उनके हिसाब से वो पाँच हजार कमाकर पच्चीस हजार का रुआब दिखायेगी :-) और जब रूआब दिखाये तो कम से कम रूआब के बराबर पैसे कमाकर घर में सहयोग तो दे :-)

 

इस मुद्दे पर और किस्से भी हैं जिन्हें अगली कडी में पेश करूँगा और साथ ही लडकों की इस समस्या के मूल कारण की तह में जाने का भी प्रयास करूँगा । अगर आपके भी कुछ दिलचस्प किस्से हों तो आप टिप्पणी अवश्य करें ।

गुरुवार, नवंबर 01, 2007

ठ से ठठेरा, ज से शिप

आजकल घर में हर कोई व्यस्त है । मेरी बडी दीदी और उनका साढे तीन वर्ष का पुत्र निकुंज जब से घर में आये हैं हर तरफ़ धूम मची हुयी है । मैं निकुंज से पिछली बार मिला था तो वो १.५ वर्ष का था लेकिन अब तो उससे बातें करते करते ही सभी लोगों का समय बीत जाता है । बच्चों से बातचीत करने में मैं हमेशा से कंजूस हूँ, इस बार अपनी इस आदत को सुधारने का प्रयास भी कर रहा हूँ और सम्भवत: इसी कारण एक नये संसार से जान पहचान बढ रही है । साथ ही साथ एक अजीब सा जैनरेशन गैप भी अनुभव हो रहा है । बच्चों के सोचने समझने का एक अजीब सा ढंग होता है जिसको समझने के लिये आपको भी बच्चे की तरह बनना पडता है तब जाकर १० में से ५ पूर्वानुमान सही साबित होते हैं । लेकिन ये काम बडा मुश्किल है ।

 

आज दिल मचल उठा है किसी बच्चे की तरह,

या तो इसे सब कुछ चाहिये या कुछ भी नहीं ।

इस पर मेरा जवाब है

बच्चे सा जिद पर अडना तो नहीं मुश्किल,

बच्चे सा मासूम दिल पैदा कर तो जानूँ ।

अपना चेहरा नहीं याद मुखौटे बदलते लगाते,

बच्चे सी मुस्कान चेहरे पर ला तो जानूँ ।

घर पर ही निकुंज थोडी बहुत पढाई भी कर लेता है । गिनतियाँ याद कर ली हैं,  A ... Z लिख लेता है और सुना भी लेता है, लेकिन हिन्दी के लिये अभी उसे चित्र वाली किताब की आवश्यकता होती है । कल वो मेरे सामने जब हिन्दी वाली किताब पढ रहा था तो उसने कहा,

क से कबूतर

ख से खरगोश ....

ठ से ठठेरा

ज से शिप...(दीदी ने कहा कि ज से जहाज) लेकिन इसके बाद भी वो १-२ बार ज से शिप ही बोला ।

सम्भवत: इसका कारण है कि टी.वी. और घर में अन्य बातचीत को सुनते हुये जब भी उसने जहाज का फ़ोटो देखा होगा घर वालों ने उसे शिप ही बोला होगा और वही शिप शब्द उस चित्र के साथ उसके मस्तिष्क पर अंकित हो गया होगा ।

मैं हैरान हूँ कि आजकल के बच्चे इतना इन्फ़ार्मेशन लोड कैसे सहेज पाते हैं । साढे तीन वर्ष के बच्चे को मोबाईल, कार, कम्प्यूटर, टी.वी., फ़िल्मी गाने और पता नहीं क्या क्या पता है । बच्चों की हाजिर-जवाबी ऐसी कि आप सोचने पर मजबूर हो जायें । मेरे पास उससे करने के लिये जब बातें खत्म हो जाती हैं तो वो शैतानी पर उतर आता है । बच्चों के डर भी बडी तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं । अकेले कमरे में छोडने की धमकी २ दिन में ही बेअसर हो गयी । मार पिटाई आजकल होती नहीं (हमारे समय में तो पक्का होती होगी :-) ) ।

दिन के समय में घर पर केवल माँ और बच्चे के बीच में कितनी बाते हो सकती हैं ? अगर बच्चा दिन में सो लेगा तो रात को देर तक जागेगा । और दिन भर बैठ कर बच्चे के साथ खेला या बातें नहीं की जा सकती । अगर ये सभी अनुभव मुझे दूर से बिना इनवाल्व हुये देखने को मिलें तो काफ़ी रोचक हो सकते हैं । आजकल के बच्चों के मस्तिष्क पर इस अलग प्रकार की जीवन पद्यति का लम्बे समय में क्या प्रभाव पडेगा ? इतनी सारी जानकारी को सजेहने और दिमागी कसरत से क्या आजकल के बच्चों मस्तिष्क तेजी से विकसित हो रहे हैं ?

अभी तक तो निकुंज केवल घर पर ही है, अगले साल स्कूल में जाने पर जिस प्रकार के दवाब(स्कूल का भारी बस्ता, पढाई के नाम पर रटाई और पता नहीं क्या क्या) उसे झेलने पडेंगे ये सोचकर मैं सिहर सा जाता हूँ । मेरे मन में तो केवल सवाल ही सवाल हैं, छोटे बच्चों के साथ आपके अनुभव क्या कहते हैं ?

अन्त में निकुंज के लिये हुये कुछ चित्र (इनमें वो चित्र भी शामिल हैं, जब उसके शैतानी करने पर मैने हंसी हंसी में उसके हाथ पैर बांध दिये थे और उसके लिये ये नया खेल था । ये अलग बात है कि उसके बाद मेरी माताजी ने मुझे कंस मामा की उपाधि दे दी थी ।)

 

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बुधवार, अक्टूबर 31, 2007

इलाहाबाद में संगम और ज्ञानगंगा में डुबकी

बनारस से हम सुबह ९ बजे के आस-पास इलाहाबाद आ गये थे । अंकुर के मामाजी के घर सामान रखने के पश्चात चाय नाश्ता किया गया । इसके तुरन्त बाद ज्ञानदत्त पाण्डेयजी से सम्पर्क स्थापित कर शाम को पाँच बजे मिलने का समय निश्चित कर लिया गया । तत्पश्चात मैने ह्यूस्टन में अपने रूम-मेट अंकुर श्रीवास्तव के पिताजी से सम्पर्क साधा और उन्होनें हमें संगम स्नान करने की सलाह दी । बनारस में एक दिन रूकने के बाद भी हम काशी विश्वनाथ मंदिर (बडा वाला) नहीं देख पाये थे और केवल बी.एच.यू. कैम्पस वाले काशी विश्वनाथ मंदिर को देखकर ही संतोष कर लिया था । इसीलिये इलाहाबाद आकर मैं कम से कम संगम स्नान तो करना चाहता ही था । इस बार हमारे मित्र अंकुर ने कहा कि वो संगम नहीं जायेगा क्योंकि उसे वहाँ के पण्डों से बडा भय है । हमने यही बात जब अंकल को बतायी तो उन्होने कहा कि वो रोज सुबह शाम संगम नहाने जाते हैं और वो हमें अपने साथ ले जाकर संगम स्नान करायेंगे । आधे ही घंटे में वो हमको लेने आ गये और हम उनके साथ अपने जीवन के पहले संगम स्नान करने के लिये चल पडे ।

संगम तट पर नाव वालों से उन्होने जब उन्हीं की भाषा में बोलना प्रारम्भ किया और श्राप देकर भस्म कर देने का डर दिखाया तो नाव वाला सही दाम पर हमें नाव पर ले जाने को तैयार हो गया । गंगा और यमुना के संगम पर हमने जी भरकर स्नान किया और उन्होने हमें कई पौराणिक कथायें एवं "अष्टावक्र गीता" के बारे में भी बताया । हम लोगों ने गंगा के जल प्रदूषण एवं सरकारी इन्तजामों पर भी चर्चा की । इसके बाद अंकल ने अपने थैले में से शुद्ध चंदन घिसकर हमारा तिलक किया । जरा फ़ोटो में गौर फ़रमाईये :-)

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इसके बाद हमने एक दक्षिण भारतीय भोजनालय में जमकर भोजन कियाIMG_2083 और ह्यूस्टन से लेकर बी.एच.यू और एन.आई.टी. इलाहाबाद तक की चर्चा की । तय योजना के तहत हमने अपने रूम-मेट अंकुर की बीच बीच में जमकर तारीफ़ की :-) इसके बाद अंकल ने अपने घर ले जाकर अपने स्कूटर की चाभी हमारे सुपुर्द कर दी जिससे शहर में घूमने और आवारागर्दी करने में हमे तनिक भी समस्या न हो । हमने ध्यान दिया कि अंकल के स्कूटर की टंकी भी लगभग पूरी भरी हुयी थी जिससे मन और अधिक प्रसन्न और चिंतामुक्त हो गया :-) यहाँ पर एक बात बताते चले जिससे कि सनद रहे । मथुरा, कानपुर और बनारस की सडकों के बुरे हाल को देखते हुये हमें इलाहाबाद की सडकें एकदम हेमाजी के गालों की तरह लगीं । इतनी सपाट और गड्ढे मुक्त सडकें देखकर मन प्रसन्न हो गया और हमारे मुँह से बरबस ही निकल उठा "साधुवाद स्वीकार करें ।"

इसके बाद हमने कुछ समय अंकुर के मामाजी के घर पर बिताया और अंकुर की बहनजी ने हमें इलाहाबाद सिविल लाइन्स का चक्कर लगवाया । इस बीच समय द्रुत गति से चलता रहा और शाम होने को आ गयी । हमें ज्ञानदत्तजी के साथ मिलने के अपने वायदे का ध्यान आया और मैं अंकुर के साथ ज्ञानदत्तजी के घर पर चाय-नाश्ता करने के लिये निकल पडे । हमने ज्ञानदत्तजी के घर जाने के रास्ते का नक्शा साथ में ले रखा था इसीलिये कोई खास परेशानी न हुय़ी और हमने ज्ञानदत्तजी के घर पर दस्तक दे दी ।

ज्ञानजी से मिलकर हिन्दी ब्लागिंग के रूप पर चर्चा हुयी । ज्ञानजी ने महसूस किया कि अगर प्रौद्योगिकी के विषय पर हिन्दी में लिखना है तो फ़िर हिट्स और टिप्पणी की चिन्ता छोडकर लिखना होगा । इसके अलावा हिन्दी ब्लागिंग में अंग्रेजी के शब्दों को ठेलने को लेकर भी हम एक मत थे । मैने उनसे अपने मन की बात कही कि अधिकांश लोग हिन्दी ब्लागिंग में अपने शौक की वजह से हैं और इस पर हिन्दी की सेवा करने का दम्भ भरना बेईमानी है ।

बातों बातों में ये भी पता चला कि ज्ञानदत्तजी ने बिट्स पिलानी (BITS PilaniIMG_2089) से अभियांत्रिकी की शिक्षा प्राप्त की थी और ये भी कि उन्होनें अपनी कक्षा १२ की परीक्षा राजस्थान से वहाँ की मेरिट लिस्ट में आकर उत्तीर्ण की थी । लेकिन हमें ये बताने का मौका न मिला कि हम भी १२ की परीक्षा में उत्तर प्रदेश की मेरिट लिस्ट में ११ वें पायदान पर थे और फ़ार्म भरने में हमारी खुद की जरा सी गलती के चलते बिट्स पिलानी में दाखिला न मिल पाया था :-)

हमने ज्ञानजी से रेलवे के लाभ में लालूजी की भूमिका के बारे में बताया तो उन्होनें स्पष्ट कहा कि इसमें लालूजी का इतना ही हाथ है कि उन्होनें रेलवे अधिकारियों को उनकी योजनाओं का क्रियान्वन करने में खुला हाथ दिया और हस्तक्षेप नहीं किया । इसके अलावा रेलवे की कुछ स्थानीय समस्याये जो पूर्वी उत्तर प्रदेश से सम्बन्धित थी पर भी चर्चा हुयी ।

ज्ञानजी से भविष्य के ऊर्जा स्रोतों के विषय पर लम्बी बातचीत हुयी और मैने उन्हे "गैस हाइड्रेट्स" के बारे में बताया । गैस हाइड्रेट्स पर ज्ञानजी एक पोस्ट लिखने का वायदा पहले ही कर चुके हैं । जैविक ईधनों के विकास पर मैने अपने नकारात्मक विचार भी व्यक्त किये कि किस तरह कुछ देशों में खाद्य पदार्थों का जैविक ईधन में प्रयोग करने से खाद्य पदार्थों के दाम बढ रहे हैं जिससे गरीब जनता काफ़ी बुरी तरह प्रभावित हो रही है । इसके अलावा दक्षिणी अमेरिकी देशों में जंगलों को काटकर जैविक ईधन के लिये खेती किये जाने से पर्यावरण सम्बन्धी समस्यायें सामने आ रही हैं ।

इस सब के बीच में चाय-नाश्ता का दौर निर्बाध रूप से चलता रहा और श्रीमती पाण्डेयजी से भी बात-चीत करने का अवसर मिला । हम सभी ने जेनरेशन गैप पर अपने अपने अनुभव सुनाये । ज्ञानजी को हमने अपने दौडने के किस्से सुनाये और उन्होनें जल्दी से विषय बदल डाला जिससे हम उन्हें दौडा न पाये । इस पूरे घटनाक्रम के लिये फ़ुरसतियाजी शक के घेरे में हैं और ऐसी सम्भावना है कि ज्ञानजी को इस विषय के बारे में पूर्व सूचना मिल चुकी थी :-)

बातें करते करते काफ़ी समय बीत चुका था और ज्ञानदत्तजी से आज्ञा लेकर भविष्य में पुन: मिलने की आशा के साथ हम अपने घर के लिये निकल पडे । रास्ते में एक जगह रामलीला का मंचन हो रहा था जहाँ मैने ये चित्र भी लिया । 

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मंगलवार, अक्टूबर 30, 2007

मथुरा से कानपुर की यात्रा और एक ब्लागर मीट का विवरण

अपनी पिछली पोस्ट में मैने हवाई अड्डे से मथुरा तक आने के बारे में लिखा था । मथुरा में घरवालों के सानिध्य में दो दिन गुजारने के पश्चात मैने उन्हे अपने कानपुर, बनारस और इलाहाबाद की प्रस्तावित यात्रा के बारे में बताया । मेरी उम्मीद के विपरीत घरवाले आराम से तैयार हो गये, शायद सोचा हो कि थोडा धरम-करम करके लडका बुरी संगत से निकल जाये और कानपुर में रहने वाले मेरे मित्र अंकुर वर्मा की घर में बडी ही उत्तम छवि भी थी, सम्भवत: इसके चलते ही इजाजत मिल पायी ।

मैने अपने जीवन में पहली बार अपने पैसे खर्च कर भारतीय रेल की वातानुकूलित सेवा का लाभ उठाया :-)

मथुरा से कानपुर जाने वाली गाडी अपने निर्धारित समय से २० मिनट पहले प्लेटफ़ार्म पर खडी थी लेकिन उसके दरवाजे बन्द थे । नियत समय पर दरवाजे खुल गये और हमने अपनी सीट पर कब्जा जमा लिया और आज पास के माहौल का जायजा लेने लगे । सामने एक विदुषी सी दिखने वाली महिला ने कहा कि उनकी ऊपर वाली सीट है और अगर मुझे कोई विशेष परेशानी न हो तो मैं अपनी नीचे वाली सीट उनसे बदल लूँ । मैने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और इस प्रकार उनसे बातचीत भी प्रारम्भ हो गयी । उन्होने ये भी कहा कि रेलवे को ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये जिससे कि महिलाओं और वृद्ध नागरिकों को निचली सीटों पर वरीयता दी जाये । मैने उनकी बात पर अपना सिर हिलाया जिसे उन्होने मेरी सहमति समझकर कहा कि इतने कामन सेंस की बात रेलवे को समझ में क्यों नहीं आती है । बाद में पता चला कि वे मथुरा में चलने वाले दिल्ली पब्लिक स्कूल में इतिहास की अध्यापिका हैं ।

इसी बीच अन्य यात्री गणों ने भी अपना अपना स्थान ले लिया और एक बार फ़िर से बातचीत का दौर प्रारम्भ हो गया । वातानुकूलित डिब्बों में जिस प्रकार लोग अपनी ही टशन में रहते हैं वैसा यहाँ कुछ भी नहीं था । सामने कक्षा ११ का एक विद्यार्थी बैठा था जिसने मुझसे कुछ विज्ञान सम्बन्धी प्रश्न पूछे और मैने भी उसके ज्ञान को टटोला । कुल मिलाकर बाते करते हुये १ घंटा हो गया और अभी तक रेलगाडी मथुरा से तनिक भी नहीं खिसकी थी । मैं इस बात से बडा प्रसन्न हुआ क्योंकि गाडी के कानपुर आने का समय सुबह चार बजे का था और लेट होने की स्थिति में गाडी पाँच बजे के बाद ही कानपुर पँहुचेगी । चूँकि रात के ग्यारह बज चुके थे हम सभी लोगों ने सोने का उपक्रम किया और शीघ्र ही मैं नींद के आगोश में मधुर सपनों में खोया हुआ था । जब नींद खुली तो पता चला कि कानपुर स्टेशन आने ही वाला है और अगले दस मिनट में मैं कानपुर स्टेशन पर था । वहाँ से आई. आई. टी. कानपुर के लिये आटो रिक्शा लेकर अगले एक घंटे में मैंने अपने मित्र के रूम पर दस्तक दे दी ।

उसके बाद मैने रासायनिक अभियांत्रिकी के कई प्रोफ़ेसरों और छात्रों के साथ अपने और उनके शोधकार्य के सन्दर्भ में बातचीत की एवं वहाँ की प्रयोगशालाओं का जायजा लिया । इस सब कार्यक्रम के बीच में मुझे याद आया कि अनूपजी को फ़ोन भी करना है, अनूपजी को फ़ोन करके उनसे शाम को मिलने का कार्यक्रम पक्का किया गया । पहले सोचा था कि हम खुद ही अनूपजी के घर पर जा धमकेंगे लेकिन फ़िर हमने अनूपजी कि सरल हृदयता का फ़ायदा उठाकर उनसे होस्टल में आकर हमें ले जाने का निवेदन किया जो उन्होनें सहर्ष ही स्वीकार कर लिया । अनूपजी के घर के रास्ते में कई बार ट्रैफ़िक ने हमारा दिल दहलाया लेकिन अनूपजी इससे बिना प्रभावित हुये कुशलता से कार चलाते हुये अपने घर ले आये ।

अनूपजी के घर मे घुसते ही हमें वह बगीचा दिखा जहाँ अभय तिवारी जी ने अपने क्रिकेट के जलवे दिखाये थे, अफ़सोस हमें ऐसा कोई मौका नहीं मिला :( बातचीत का दौर शुरू हुआ, अनूपजी ने हमारे साथी अंकुर वर्मा में भावी ब्लागर बनने की संभावनायें टटोली । इस बीच चाय का दौर शुरू हुआ और अनूपजी ने अंकुर को फ़ुरसतिया टाइम्स के कुछ अंक दिखाये जिन्हे उन्होने शाहजहाँपुर में लिखा था । अंकुर ने फ़ुरसतिया टाइम्स के गुप्त रोगों सम्बन्धी विज्ञापन को देख कर धीरे से टिप्पणी की "अनूपजी की ओब्जर्वेशन बडी चाँपू है, ऐसा केवल वो ही लिख सकता है जो आस पास के माहौल को बडे ध्यान से देIMG_1981खता हो ।" हमने अंकुर से चाँपू शब्द की व्याख्या बाद में पूछ्ने का सोचा और फ़िर भूल गये :-)

 

इस बीच अनूपजी ने हमारे शोध के सन्दर्भ में कुछ सवाल पूछे जिसे मैं और अंकुर आसानी से टाल गये । अंकुर और अनूपजी के बीच में आई. आई. टी. के आईटी ठेला के बीच में भी कुछ बातचीत हुयी जिसमें हमें कुछ खास समझ नहीं आया । फ़िर कार्यक्षेत्र में होने वाले कुछ भ्रष्टाचार की भी बात हुयी जिस पर अनूपजी ने एक पोस्ट (फ़ुरसतिया)  लिखने का वादा किया । इस बीच उनकी कई दिनों से कोई फ़ुरसतिया पोस्ट न आने पर हमने अपनी शिकायत दर्ज की, जिस पर वो थोडे से संजीदा हो गये ।

हमने अनूपजी को दौडने की सलाह दी जिसको वो पूरी कुशलता से डक कर गये । हमने श्रीमती शुक्ला (शुक्लाइनजी) को भी ब्लाग शुरू करने की सलाह दी जिस पर उन्होने कहा कि ये तो कुछ कामIMG_1983 करते नहीं अब हमने भी लिखना शुरू कर दिया तो घर कैसे चलेगा :-)। फ़िर ये भी पता चला कि अनूपजी के सुपुत्र ह्रितिक रोशन के बडे वाले पंखे और कूलर हैं । उन्ही के सुपुत्र के शब्दों में "ह्रितिक रोशन से मिलने के लिये उनके घर के बर्तन माँजने को भी तैयार हूँ ।"

इस बीच हमने अनूपजी को पाडकास्टिंग के बारे में थोडा समझाया और उन्हे उनके लेपटाप में  Ram  बढवाने की सलाह दी । इसके पश्चात मुंबई से अभय तिवारी जी का फ़ोन आ गया और उनसे फ़ोन पर बातचीत हुयी । साथ ही अभयजी ने हमें मुम्बई आने का न्योता भी दिया ।

इसी प्रकार बात चीत करते करते काफ़ी समय बीत गया और विदा करते समय अनूपजी ने अंकुर को "राग दरबारी" और मुझे "गालिब छुटी शराब" की एक प्रति अपने हस्ताक्षर सहित भेंट दी जिससे हम उसे किसी अन्य को भेंट न कर सकें । तत्पश्चात अनूपजी ने मुझे और अंकुर को वापिस आई. आई. टी. के हास्टल छोडा और भविष्य में फ़िर मिलने की उम्मीद के साथ हमने अनूपजी को विदा दी ।

उसी दिन रात में ट्रेन के द्वारा हम बनारस/इलाहाबाद के लिये रवाना हो गये जहाँ हमें ज्ञानदत्त पाण्डेयजी से मिलने का मौका मिला जिसका विवरण अगली पोस्ट में अर्थात कल देंगे ।

 

चलते चलते आई. आई. टी. कानपुर के एक अत्यन्त बुद्धिमान शोधार्थी के हास्टल रूम की कुछ तस्वीरें । ये महाशय बडे सरल हृदय हैं और इलेक्टानिक्स में थ्योरिटिकल रिसर्च कर रहे हैं । थ्योरी में काम करने के कारण होस्टल का रूम ही इनका कर्म/धर्म क्षेत्र है । उस शोधार्थी की प्राइवेसी के लिये उनका नाम अथवा चित्र नहीं दिया जा रहा है ।

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सोमवार, अक्टूबर 29, 2007

भारत में अब तक के बारह दिनों का व्यौरा: भाग १

१५ अक्टूबर की दोपहर को मन में उमडते विचारों के साथ घर से निकले । चार घंटे में न्यूयार्क पंहुचे और उसके बाद १४.५ घंटे की लगातार हवाई-यात्रा करते हुये १६ अक्टूबर की रात को इन्दिरा गांधी अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर रात को ९:०० बजे उतरे । उतरने के बाद आव्रजन जाँच कराने के बाद जब अपना सामान बटोरने गये तो ३० मिनट इन्तजार करने के बाद भी हमारे बक्से कहीं नहीं दिखे । कान्टीनेन्टल वालों को पूछा तो उन्होने कहा पता लगाते हैं और इसके बाद अगले १५ मिनट में हमारा बोरिया बिस्तर हमें सौंप दिया गया ।

मैं ह्यूस्टन से अपने एक आगरा के मित्र के साथ आया था और हम दोनों को ही हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से सुबह ६:०० बजे स्वर्ण-जयन्ती एक्सप्रेस पकडनी थी । अब सोचा गया कि रात को १०:१५ बजे से सुबह ६ बजे तक का सफ़र कैसे तय किया जाये । हमने सुझाव दिया कि प्री-पेड टैक्सी लेकर रेलवे स्टेशन चलते हैं और बाकी का कार्यक्रम वहीं तय किया जायेगा । मेरे मित्र भी एकदम बिन्दास थे और कहा कि कुछ नहीं तो रेलवे प्लेटफ़ार्म पर ही रात गुजार देंगे । टैक्सी वाले भैया ने तीन-चार रेड लाईट आराम से तोडकर हमें जल्दी ही निजामुद्दीन ला पटका जबकि हमें जरा भी जल्दी नहीं थी । रेल्वे-स्टेशन सूना पडा था क्योंकि रात १०:५० की अन्तिम ट्रेन के बाद सुबह ५ बजे तक कोई ट्रेन नहीं थी । हमने भी दो बैंच झपटी और दोनो मित्र उन पर अजदकी मुद्रा (फ़ुरसतिया एट. आल. २००७) में पसर गये । एक बक्सा सिर के नीचे तकिये की तरह और दूसरा पैरों के नीचे दबाकर सामान की चिंता को हवा में मच्छरों के भरोसे उडाकर सोने का प्रयास करने लगे ।

मेरे मित्र ने इस बीच प्लेटफ़ार्म के तीन-चार चक्कर लगाकर हर चीज का सूक्ष्मता से निरीक्षण कर निष्कर्ष निकाला कि अभी भी कुछ बदला नहीं है सिवाय चाय और परांठो के दाम के । I.R.C.T.C.के काउन्टर से १० रूपये वाली चाय और ३५ रूपये का एक आलू का परांठा निपटाकर मैने भी उसके निष्कर्ष पर सहमति की मोहर लगा दी । इसके बाद मैने प्लेटफ़ार्म का एक चक्कर लगाया कि अगर कोई दुकान खुली हो तो वेदप्रकाश शर्मा का कोई उपन्यास खरीदकर रात काट ली जाये । लेकिन अफ़सोस कि I.R.C.T.C. के काउन्टर के अलावा सभी दुकाने बन्द थी ।

हमने जैसे तैसे सोने का उपक्रम करते हुये सुबह ५:३० बजे तक का समय काटा और अपनी ट्रेन में सवार होकर मथुरा पँहुच गये । मथुरा में दो दिन बिताने के बाद हम मथुरा से कानपुर> बनारस> इलाहाबाद> कानपुर> दिल्ली> नोएडा> दिल्ली> नोएडा होते हुये फ़िर से मथुरा आ गये । इस दौरान कानपुर में हमे अनूपजी और इलाहाबाद में ज्ञानदत्त पाण्डेयजी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिसकी चर्चा हम कल विस्तार से करेंगे ।

रेफ़रेन्सेज: 

  1. देख रहे हैं जो भी किसी से मत कहिये, फ़ुरसतिया, १९ जून २००७

गुरुवार, अक्टूबर 18, 2007

मथुरा से एक छोटी सी पोस्ट !!!

प्यारे ब्लागी साथियों,
मैं घर पर आराम से आ गया हूँ। इंटरनेट कनेक्शन १-२ दिन में चालू हो जाएगा उसके बाद तो रोज ही एक पोस्ट ठेल देंगे, घर पर कुछ खास काम तो है नहीं। :-)

जम कर खातिर हो रही है, काश थोडी खातिर मैं अपने साथ वापिस ले जा पाऊँ।

अगली पोस्ट में विस्तार से लिखेंगे, ये पोस्ट इस बात की सनद है कि साईबर कैफे के धीमे इंटरनेट कनेक्शन के बाद भी पोस्ट ठेली जा सकती है :-)

भारत में मेरा सम्पर्क क्रमांक है, ०९७१९६१८२७९

साभार,
नीरज

शुक्रवार, अक्टूबर 12, 2007

दौड़ने संबन्धी जानकारी

मुझे दौडना बेहद पसंद है। अफ़सोस है कि चाहकर भी उतना नहीं दौड़ पाता जितना दिल करता है। शायद जल्दी ही मैं भी हफ्ते में कम से कम ३०-३५ मील दौडना शुरू करूं, आमीन !!!

दौड़ने के लिये कुछ टिप्स:

१) अगर आप नहीं दौड़ते हैं तो आज ही शुरू कीजिये और देखिये आप कितना आनंद प्राप्त करते हैं।
२) १०० मीटर से लेकर २० मील तक दौड़ने वाले सभी धावक होते हैं। आप जितना भी दौडें आनंद से दौडें। अगर साथ में कोई साथी मिल जाये तो सोने पे सुहागा।
३) दौड़ते समय ढीले कपडे पहनें और बिना अच्छे जूतों के कभी ना दौडें।
४) अच्छे जूते का चुनाव करते समय किसी अनुभवी व्यक्ति से राय ले सकते हैं।
५) अगर आपके जूते का नंबर X है तो (X+0.5) से (x+1.0) नंबर का जूता पहनकर दौडें।
६) दौड़ते समय शरीर में जल की कमी न रखें।
७) प्रारम्भ में सदैव धीरे धीरे दौडें।

दौड़ते समय की तीन अवस्थाओं में अंतर करना सीखें।

१) थकान:

थकान का अहसास दौड़ने के अलग अलग चरणों में अलग अलग प्रकार से होता है। शुरू के दिनों में ज़रा सा दौड़ते ही थकान लगने लगती है। आप स्वयं से कहते हैं बस अब नहीं होता, थोडा पैदल चल लूं और फिर दौडना शुरू करूंगा। थोडा पैदल चलने के बाद ज़रा सा दौड़ने पर ही दम फूलने लगता है और अगर आप दौडना स्थगित कर दें तो आप फिर सामान्य हो जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर ये सभी थकान के लक्षण हैं और ये लक्षण आपकी शारीरिक बनावट, अभ्यास और दौड़ने के अनुभवों पर निर्भर करते हैं।


२) दर्द:

नया नया दौड़ना प्रारम्भ करने वाले अपने आलस्य के कारण थकान को दर्द समझते हैं और दौडना बंद करके सामन्य रुप से चलकर अपना मार्ग समाप्त करते हैं। इससे कोई नुकसान नहीं होता है और थोड़े दिनों के बाद उनका आलस्य समाप्त हो जाता है।

कभी कभी अनुभवी धावक दर्द को केवल थकान मानकर दौड़ते रहते हैं और बेवजह ही अपने दर्द को चोट में तब्दील कर लेते हैं। दौड़ते समय जरूरी नहीं कि केवल आपके पैरों की मांसपेशियों में ही दर्द हो। तलुवे, पंजे, टखने, घुटने और क़मर में दर्द होने की संभावनाएं अधिक हैं लेकिन इसके अलावा आपके कंधे, गर्दन और पेट में भी दौड़ने से दर्द हो सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि आप अपने किसी भी दर्द को मामूली न समझें। दर्द का सीधा सा अर्थ है कि आपको रूक कर इसके बारे में विचार करने की आवश्यकता है। दौड़ते समय दर्द होने के मुख्य कारण हो सकते हैं:

अ) अच्छे जूते पहनकर न दौडना
ब) अच्छे जूते पहनकर न दौडना (जानबूझकर दो बार लिखा गया है )
स) दौड़ने से पहले हाथ पैरों का व्यायाम (Stretching) न करना
द) दौड़ते समय शरीर का संतुलन सही होना
ध) दौड़ते समय शरीर में आवश्यक जल/Electrolytes की कमी
न) भोजन करने के तुरंत बाद दौडना

३) चोट:

यदि आपको दौडना पसंद है तो ईश्वर न करे आपको ये दिन देखना पडे। दौड़ने संबन्धी चोट दो प्रकार की होती हैं। अचानक से लगी हुयी चोट, जिसको आप अपनी सावधानी से टाल सकते हैं। और दूसरी लंबे समय तक किसी दर्द की अवस्था को नजरअंदाज करने के फलस्वरूप विकसित हुयी चोट। दूसरे प्रकार की चोट ठीक होने में लंबा समय लेती है और इसके पुनः लौटने की संभावना भी बनी रहती है। कई बार धावक अपनी चोट को पूरी तरह से ठीक नहीं होने देते हैं जिसके कारण उन्हें अधिक कष्ट झेलना पड़ता है।

मैंने एक बार एक बडे अनुभवी धावक से कुछ टिप्स मांगी थी तो उन्होने कहा

१) हाईड्रेट हाईड्रेट हाईड्रेट: अर्थात पानी की कमी न रखो।
२) अपनी सभी चोटों को अत्यधिक गम्भीरता से लो।

अभी के लिए बस इतना ही, अगली बार आपको दौड़ने की कुछ और टिप्स और इसके ढ़ेर सारे फ़ायदे बतायेंगे जिससे युवाओं को काफी फायदा हो सकता है :-)

ये हफ्ता कटता क्यों नहीं ??? + दौड़ो भागो खुश रहो !!! :-) :-) :-)

आज शुक्रवार हो गया है। बस तीन दिन, और उसके बाद (१५ अक्टूबर को) मैं देश के लिए रवाना हो जाऊँगा। लेकिन देश जाने के कारण दो महत्वपूर्ण गतिविधियों में भाग नहीं ले पाऊँगा। भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री ए पी जे अब्दुल कलाम १८ अक्टूबर को मेरे विश्वविद्यालय में एक भाषण देने आ रहे हैं। इस बात की काफी संभावना थी कि अगर यहाँ होता तो उनसे एक व्यक्तिगत मुलाक़ात भी हो जाती लेकिन अफ़सोस...

दूसरा ये कि अमेरिकी सरकार के वाणिज्य विभाग ने भारतीय विद्यार्थियों को अमेरिका में उच्च-शिक्षा के लिए बढावा देने हेतु एक वीडियो बनाने का निश्चय किया है। इसके लिए उन्होने कई प्रमुख विश्वविद्यालयों से सम्पर्क स्थापित किया है जिसमें से राईस विश्वविद्यालय भी एक है। इस वीडियो में हर कालेज में से चुने हुये भारतीय विद्यार्थियों के साक्षात्कार होंगे जिसे एक डीवीडी के रुप में प्रयोग किया जाएगा। राईस ने इस कार्य के लिये मेरा चयन किया था मगर अफ़सोस कि वाणिज्य विभाग की कैमरा टीम २२ अक्टूबर को आ रही है और मैं इसमे भाग नहीं ले सकूंगा और मेरे स्थान पर एक अन्य भारतीय विद्यार्थी का साक्षात्कार लिया जायेगा :-(

चलिये कोई बात नहीं, अब मुद्दे की बात पर आते हैं जिसके लिये हमने ये पोस्ट लिखी है। कुछ महीने पहले मैंने अपने दौड़ने भागने के किस्सों पर एक पोस्ट लिखी थी। पिछले महीने मैंने एक रिले दौड़ में भाग लिया था। इस दौड़ की विशेषता थी कि रास्ता बहुत ही ऊंचा नीचा और पहाड़ी जैसा था। हमारी टीम में चार सदस्य थे, दो लड़के और दो लडकियां और प्रत्येक सदस्य को २ मील (३.२ किमी) दौड़ना था। बिना किसी प्रैक्टिस के हमारी टीम ने नौवां स्थान प्राप्त किया जो काफी अच्छी बात थी। ये और भी महत्वपूर्ण इसलिये था कि लगभग ५ सालों के बाद मैंने किसी प्रतियोगी दौड़ में हिस्सा लिया था। २ मील दौड़ने में मुझे १५ मिनट लगे थे जो दौड़ के रास्ते को देखते हुये एक अच्छा समय था। हमारी टीम ने इस दौड़ को १ घंटा ७ मिनट और ४ सेकेंड्स में पूरा किया था।

अब आपको मिलवाते हें John Fredrickson से। जॉन ने १५ वर्ष की उम्र से सिगरेट पीना शुरू किया था, अपने चरम पर वो लगभग ३ डिब्बी सिगरेट रोज पीया करते थे (अमेरिका की एक डिब्बी में २० सिगरेट होती है) । जब जॉन ४० वर्ष के थे तब डाक्टर ने उन्हें बताया कि वो फेफडे की एक बीमारी से ग्रसित हैं जिसका कारण उनका धूम्रपान करना था। डाक्टर ने जॉन को लगभग एक साल का समय दिया था, बस यहीं पर जॉन ने अपनी जीवटता से सबको चकित कर दिया। जॉन ने जीवन में पहली बार दौड़ना शुरू किया, पहली बार केवल १०० मीटर दौड़ने में ही जॉन के हौसले पस्त हो गये थे। लेकिन उन्होने हिम्मत नहीं हारी और सिगरेट पीना छोड़ने के साथ दौड़ना जारी रखा। कुछ ही वर्षों में जॉन अपनी फेफडे की बीमारी से मुक्त हो चुके थे। और आपको ये जानकार प्रसन्नता होगी
कि पिछले हफ्ते जॉन ने अपने ८२ वीं मैराथन दौड़ पूरी की।

अभी इतना ही लेकिन आगे और भी है। इस लेख की अगली कडी में आप सब जानेंगे दौड़ने संबन्धी अन्य जानकारियां जैसे:

१) दौड़ते समय थकान, चोट और दर्द में फर्क कैसे करें।
२) दौड़ने का सबसे सुरक्षित तरीका क्या है ।
३) दौड़ने के अन्य फायदे क्या हैं ?
४) दौड़ने और बीयर पीने का क्या संबंध है :-)
आदि आदि...

रविवार, अक्टूबर 07, 2007

गद्य और पद्य लेखन में कन्फ्यूजन!!!

डिस्क्लेमर: ये पोस्ट मूलतः मौज लेने के लिए लिखी गयी है, कवि ह्रदय वाले लोग अन्यथा न लें | कवि अगर अन्यथा ले लें तो चिंता की कोई बात नहीं है |

कुछ दिन पहले विचारार्थ नाम के चिट्ठे पर राजकिशोरजी का "विवाह पर कुछ विचार" नामक लेख पढ | जैसे ही पढ़ना प्रारम्भ किया घोर कन्फ्यूजन ने घेर लिया कि ये लेख पद्य है या गद्य ? फिर लेख की लम्बाई और बीच बीच में पूर्ण विराम देख कर लगा कि हो न हो ये गद्य लेखन ही है | आप भी देखिए:

"जर्मनी की सबसे चमक-दमक वाली नेता गैब्रील पॉली

ने अपने चुनाव घोषणापत्र में यह प्रस्ताव शामिल कर

हड़कंप मचा दिया है कि विवाह की मीयाद सात वर्ष

होनी चाहिए। सात वर्ष के बाद भी कोई युगल अपने

वैवाहिक संबंध को बनाए रखना चाहता है, तो उसे

इस संबंध की अवधि बढ़ाने की सुविधा मिलनी

चाहिए। पॉली की उम्र पचास वर्ष है। उनका दो बार

तलाक हो चुका है। तलाक के लिए जिम्मेदार कौन

था, नहीं मालूम। इसकी खोज करने की जरूरत भी"...


लेख की लम्बाई, कविता के शिल्प पर मेरी जानकारी बहुत ही कम है इसीलिये अगर एक पंक्ति में ८-१० शब्द हों और कुल मिलाकर १६-२० पंक्तियां हों तो मैं उसे बिना वाद विवाद के कविता मान लेता हूँ । अगर ऊपर दिए हुये उदाहरण में से पूर्ण विराम और अर्ध विराम हटा दिये जायें तो क्या ये एकदम आधुनिक कविता नहीं बन जायेगी और शायद "हिन्द-युग्म" अथवा और कहीँ छपने को भेजी जाये तो प्रकाशित भी हों जाये :-) ईस्माइली लगा दी है इसलिये अन्यथा लेने की नहीं हो रही है।


ऐसा ही एक और उदाहरण देखें विचारार्थ की आज की पोस्ट से:

"भारत सरकार 2 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा

दिवस के रूप में मान्यता दिलाने में सफल रही, इस

पर वे ही खुश हो सकते हैं जो गांधी को ठीक से नहीं

जानते। यह सच है कि गांधी जी आखिरी सांस तक

यही कहते रहे कि सत्य और अहिंसा, यही मेरे दो

मूल मंत्र हैं। लेकिन सत्य को निकाल दीजिए, तो

अहिंसा लुंज-पुंज हो कर रह जाएगी। महात्मा और जो

कुछ भी थे, लुंज-पुंज नहीं थे। न वे लुंज-पुंज व्यक्ति

या बिरादरी को पसंद करते थे। बल्कि उनकी शिकायत

ही यही थी कि भारत के लोगों द्वारा हथियार रखने

पर पाबंदी लगा कर अंग्रेजों ने इस देश के लोगों को

नामर्द बना दिया। मर्द और नामर्द की शब्दावली आज

की नारीवादियों को पसंद नहीं आएगी। लेकिन गांधी

जी मर्द थे, मर्दवादी नहीं थे। वे तो अपनी संतानों की

मां और बाप, दोनों बनना चाहते थे। महात्मा की पौत्री

मनु गांधी की एक किताब का नाम है, बापू मेरी मां।"...


राजकिशोरजी के दोनो लेख काफी विचारोत्तेजक हैं इसीलिये उनके चिट्ठे पर जाकर इन लेखों को पढ़ना न भूलें |

शनिवार, अक्टूबर 06, 2007

एक अन्तराल के बाद फ़िर से चिट्ठा लेखन!!!

पिछ्ले लगभग १ महीने से चिट्ठा लेखन बन्द पडा था हालाँकि इस बीच चिट्ठे पढने का कार्य अवश्य चल रहा था । अभी कुछ दिन पहले शास्त्रीजी ने अपनी किसी टिप्पणी में कहा था कि किसी भी सक्रिय चिट्ठे को हफ़्ते में एक बार अवश्य छपना चाहिये । मैं शास्त्रीजी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ, और अब सम्भवत: आगे चिट्ठा लेखन करता रहूँगा । ये बताना भी महत्वपूर्ण है कि मुझे अपना चिट्ठा लेखन बीच में क्यों बन्द करना पडा था । इसका मुख्य कारण मेरी (Academic) व्यस्तता और अन्य कार्यों (जैसे एक लम्बी दौड़ की तैयारी में दौड़ना, अन्य समितियों (शोध-कार्य के अतिरिक्त) में अधिक कार्य का होना ) का अचानक आवंटित समय से अधिक समय की माँग करना था ।

अभी अगले ९ दिनों में भारत यात्रा का भी योग है, जिसकी वजह से पुराने अधूरे कार्यों को समाप्त करने का प्रयास चल रहा है अन्यथा छुट्टियों में भी घर से काम करना पडेगा । इसके अतिरिक्त पिछले कुछ दिनों से एक प्रश्न भी मन को विचलित कर रहा था कि मैं क्यों लिखूँ ? मैं अब भी नहीं मानता कि मेरे ब्लाग लेखन से हिन्दी की कुछ सेवा होती है या अलबत्ता मैं हिन्दी की सेवा के प्रयोजन से ब्लाग लिखता हूँ । हिन्दी ब्लाग लेखन और चिट्ठे बाँचना मेरी व्यक्तिगत रूचि है । इसी रूचि के चलते कुछ ऐसे सम्बन्ध भी बने हैं जिन्होनें मेरी सोच को काफ़ी प्रभावित किया है ।

मैं ब्लाग लेखन क्यों करूँ ? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात है तो मैं मुख्यत: विवादित मुद्दों से दूर ही रहता हूँ । अपने द्वारा अर्जित ज्ञान को बाँटने की बात है तो संगीत के अलावा ऐसे किसी मुद्दे पर मैने अभी तक कुछ लिखा ही नहीं है (तेल/गैस उद्योग पर एक साधारण सी पोस्ट का अपवाद छोडकर) । अगर ब्लाग लेखन को रोजमर्रा के मशीनी जीवन से मुक्ति कहूँ तो उसके लिये भी मैं काफ़ी अन्य गैर-पाठ्यक्रम (Extra-Curriculum) गतिविधियों में संलग्न हूँ । ये सभी बहाने काफ़ी थे एक महीने तक ब्लाग लेखन से विमुख रहने के लिये ।

खैर अब वापिस आये हैं लेकिन आज की पोस्ट में अपनी बक-बक कम और आप लोगों से कुछ सवाल करने हैं ।

१) पहली समस्या है कि भारत में रहकर घर में इन्टरनेट की सुविधा प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका क्या है ? मेरे पास अपना लैपटाप होगा, घर में एक BSNL की लैंड-लाईन है और मोबाइल भी हैं | इन सब औजारों के साथ क्या और कैसे मिलाया जाये कि इन्टरनेट चालू हो सके | मेरा घर मथुरा में है इसीलिये ब्राड-बैंड अभी वहाँ आया है कि नहीं पक्का नहीं पता | क्या कोई ऐसा सर्विस प्रोवाइडर भी है जिससे केवल एक महीने के लिए इन्टरनेट लिया जा सके ? संभवतः मुझे घर से ही अपने शोध-कार्य के सिलसिले में बड़ी फाइल्स इधर-उधर सरकानी पड सकती हैं, इसीलिये शायद काफी ज्यादा बैंड-विड्थ की जरूरत पडेगी (१ महीने में लगभग १ G.B.)।

२) दूसरा प्रश्न दिल्ली वालों से है। दिल्ली में हिंदी पुस्तकें खरीदने के लिये अपनी मन पसंद जगह बताइये, जहाँ पर सुगमता से अच्छा साहित्य मिल सके |

३) तीसरा प्रश्न आप सभी लोगों से है | अगर आप किसी को हिंदी की दो पुस्तकें खरीदने के लिये कहेंगे तो वो पुस्तकें कौन सी होंगी ?

तो देर किस बात की है, फ़टाफ़ट अपने जवाब हमें १४ अक्टूबर से पहले भेज दीजिये |



शुक्रवार, सितंबर 21, 2007

नीरज मोहे चिटठा बिसरत नाहीं !!!

पिछले कई दिनों से शोध और जीवन दोनों में ही मिड-लाइफ क्राइसिस चल रही थी | कुछ भी लिखने का मन नहीं कर रहा था, चिट्ठे पढ तो रहा था लेकिन टिप्पणी लिखने का कार्य नहीं हो पा रहा था | लिखें तो क्या लिखें...

ऐसी परिस्थितियों में मुझे संगीत अक्सर शांति देता है, इसीलिये फिर से संगीत पर ही एक प्रविष्टी लिख रहा हूँ | यूनुस भाई ने कुछ दिन पहले "मन कुंटो मौला" और "काहे को ब्याही बिदेश" पर प्रविष्टियाँ लिखी थी | मन कुंटो मौला को उन्होने अलग अलग कव्वालों की आवाज में सुनवाया था, अगर आपने उस पोस्ट को नहीं देखा है तो इस लिंक पर जाकर तुरन्त देखें | उन्होंने साबरी बंधुओं की आवाज में मन कुंटो मौला सुनवाया तो था लेकिन कव्वाली आधी से भी कम थी | इसीलिये आज हम आपको साबरी बंधुओं की आवाज में "मन कुंटो मौला" और "काहे को ब्याही बिदेश" दोनों सुनवायेंगे |

चटखा लगाइये "काहे को ब्याही बिदेश" सुनने के लिए:
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काहे को ब्याही बिदेश के बोल जल्दी ही यहाँ पर लिख भी दूंगा, तब तक ज़रा सा इन्तजार कीजिये |

चटखा लगाइये "मन कुंटो मौला" सुनने के लिए:
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इस पोस्ट को इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि संगीत पर लिखने के लिए ज्यादा सोचना नहीं पड़ता और आजकल 'तसस्वुर में कंगाली का दौर चल रहा है' :-) लेकिन आशा है धमाके के साथ जल्दी ही लौटेंगे |

साभार,
नीरज रोहिल्ला

शनिवार, सितंबर 08, 2007

सुरैया जमाल शेख के गाये कुछ अनमोल नग्मे !!!



हिन्दी फ़िल्म जगत की बेहद सुरीली गायिका और बेहतरीन अदाकारा सुरैयाजी का पूरा नाम "सुरैया जमाल शेख" था । सुरैयाजी का जन्म १९२९ में हुआ था और २००४ में वो इस जहाँ को अलविदा कह गयीं । सुरैया जी उस जमाने की अदाकारा थीं जब कुछ अदाकार अपने गाने स्वयं ही गाया करते थे जैसे कि कुन्दन लाल सहगल और तलत महमूद ।

सुरैया जी ने १९३७ से १९४१ के बीच फ़िल्मों में बाल कलाकार के रूप में काम किया और १९४२ की मशहूर फ़िल्म "ताज महल" में मुमताज महल के बचपन का किरदार निभाया । उनकी अंतिम फ़िल्म "रूस्तम सोहराब" थी जो १९६४ में आयी थी । इसी फ़िल्म का एक गीत "ये कैसी अजब दास्ताँ हो गयी है, छुपाते छुपाते बयाँ हो गयी है" मेरा पसंदीदा गीत है । उनकी फ़िल्मों की लम्बी फ़ेहरिस्त में बडी बहन, अफ़सर, प्यार की जीत, परवाना, दास्तान, दिल्लगी, शमाँ, शोखियाँ और मिर्जा गालिब प्रमुख हैं । इसके अलावा भी अनेक फ़िल्मों में उन्होनें अपनी अदाकारी बिखेरी और कितनी ही फ़िल्मों के नग्मों को अपनी सुरीली आवाज से सजाया । अधिक जानकारी के लिये IMDB के इस पृष्ठ को देखें


सुरैया और देव आनंद साहब को एक दूसरे से बेहद प्यार था । एक गीत के फ़िल्मांकन के समय नाव के डूबने की स्थिति में देव साहब ने सुरैया को डूबने से बचाया था । सुरैया के घर वाले इस प्रेम के सख्त खिलाफ़ थे । सुरैया और देव साहब का विवाह तो न हो सका और इसी वजह से सुरैया आजीवन अविवाहित रही । प्रेम के इस दुखद अंत को जानते हुये सुरैया जी की आवाज में फ़िल्म मिर्जा गालिब का "ये न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता" सुनता हूँ तो दिल भारी हुये बिना नहीं रहता । सुना है कि देव साहब ने अपनी आत्मकथा में अपने और सुरैया के समबन्धों के बारे में लिखा है | लेकिन मुझे अभी तक देव साहब की आत्मकथा पढने का मौका नहीं मिला है इसलिये विस्तार से कुछ बता नहीं सकता ।

सुरैयाजी पर लिखी इस पोस्ट को यादगार बनाने के लिये हम आपको सुरैयाजी के कुछ नग्में सुनवायेंगे । सुरैयाजी के कुछ गानों का अन्दाज कुन्दन लाल सहगल के अन्दाज से मिलता जुलता है और ऐसा स्वाभाविक भी है । कुन्दन लाल सहगल के व्यक्तित्व से कौन अछूता रहा है चाहे वो मुकेश, किशोर अथवा लताजी ही क्यों न हों ।

पहली कडी में पेश हैं सुरैयाजी के पाँच नग्में ।

१) ये कैसी अजब दास्तां हो गयी है (रूस्तम सोहराब, १९६४, संगीत निर्देशक: "सज्जाद हुसैन")

ये कैसी अजब दास्ताँ हो गयी है,
छुपाते छुपाते बयाँ हो गयी है - २
ये कैसी अजब दास्ताँ हो गयी है ।

ये दिल का धडकना, ये नजरों का झुकना,
जिगर में जलन सी, ये साँसो का रूकना,
खुदा जाने क्या दास्ताँ हो गयी है ।
छुपाते छुपाते बयाँ हो गयी है,
ये कैसी अजब दास्ताँ हो गयी है ।

बुझा दो बुझा दो, बुझा दो सितारों की शम्में बुझा दो,
छुपा दो छुपा दो, छुपा दो हंसी चाँद को भी छुपा दो,
यहाँ रोशनी मेहमाँ हो गयी है,
ये कैसी अजब दास्ताँ हो गयी है ।

इलाही ये तूफ़ान है किस बला का,
कि हाथों से छूटा है दामन हया का,
खुदा की कसम आज दिल कह रहा है - २
कि लुट जाऊँ मैं नाम लेकर वफ़ा का
तमन्ना तडप कर जवाँ हो गयी है,
ये कैसी अजब दास्ताँ हो गयी है ।

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२) ओ दूर जाने वाले (प्यार की जीत, १९४८, संगीत निर्देशक:"हुस्नलाल भगतराम" )

ओ दूर जाने वाले - २
वादा न भूल जाना - २
राते हुयी अंधेरी - २
तुम चाँद बन के आना - २
ओ दूर जाने वाले ।

अपने हुये पराये, दुश्मन हुआ जमाना
तुम भी अगर ना आये - २
मेरा कहाँ ठिकाना,
ओ दूर जाने वाले ।

आजा किसी की आँखे, रो रो के कह रही हैं
ऐसा ना हो कि हम को - २
कर दे जुदा जमाना
ओ दूर जाने वाले ।

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३) ओ लिखने वाले ने (बडी बहन, १९४९, संगीत निर्देशक:"हुस्नलाल भगतराम" )

दिल तेरे आने से पहले भी यू ही बरबाद था,
और यू ही बरबाद है तेरे चले जाने के बाद ।

ओ लिखने वाले ने,
लिखने वाले ने लिख दी मेरी तकदीर में बरबादी
लिखने वाले ने,

दिल को जब तेरी मोहब्बत का सहारा मिल गया,
मैंने समझा मेरी कश्ती को किनारा मिल गया,
हाय किस्मत को मगर कुछ और ही मंजूर था,
आँख जब खोली तो कश्ती से किनारा दूर था ।
लिखने वाले ने,

छोड कर दुनिया तेरी तुझको भुलाने के लिये,
हम चले आये यहाँ आंसू बहाने के लिये,
दिल अभी भूला न था तुझको कि किस्मत मेरी,
खींचकर लायी तुझे मुझको रूलाने के लिये ।
लिखने वाले ने,

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४) मुरली वाले मुरली बजा (दिल्लगी, १९४९, संगीत निर्देशक: "नौशाद")
मुरली वाले मुरली बजा
सुन सुन मुरली को नाचे जिया,

रह रह के आज मेरा डोले है मन
जाने ना प्रीत मेरे भोले सजन
कैसे छुपाऊँ हाये दिल की लगन
मौसम प्यारा ठण्डी हवा
दिल मिल जाये वो जादू जगा
मुरली वाले मुरली बजा,

मुरली से तेरी जिया लागा बलम
आँखों में तू है नहीं अब कोई गम
ओ बंसी वाले तुझे मेरी कसम
आज सुना दे वो धुन जरा
रून झुन सावन की बरसे घटा
मुरली वाले मुरली बजा,

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५) नाम तेरा है जुबाँ पर याद तेरी दिल में है (दास्तान, संगीत निर्देशक:"नौशाद")
आने वाले अब तो आजा ज़िन्दगी मुश्किल में है ।

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अगर आपको ये नग्मे अच्छे लगे हैं और आप आगे भी पुराने गीतों को सुनना चाहते हैं तो अपनी प्रतिक्रिया टिप्पणी के माध्यम से देना न भूलें ।