गुरुवार, जनवरी 29, 2009

युनुसजी के लिये जवाबी कव्वाली: कन्हैया याद है कुछ भी हमारी !!!

कुछ दिन पहले युनुसजी ने फ़रीद अयाज कव्वाल की आवाज में "कन्हैया याद है कुछ भी हमारी" कव्वाली सुनवायी थी। आज हम आपके लिये वही कव्वाली फ़रीद के वालिद मरहूम मुंशी रजीउद्दीन की आवाज में लेकर आये हैं। ये रेकार्डिंग १९८८ की है और इस इस कव्वाली में मुंशीजी के बेटे फ़रीद अयाज और अबु मोहम्म्द भी उनके साथ गा रहे हैं।

ये कव्वाली मुंशीजी ने कराची डिफ़ेंस कालोनी की एक प्राइवेट महफ़िल में गायी थी, जिसे मैने कम्प्यूटर पर साउंडकार्ड से रेकार्ड किया है। ये बडी फ़ुरसत में गायी हुयी कव्वाली है इसलिये आपको थोडा अधिक समय देना पडेगा लेकिन हमारी तरफ़ से आपकी सन्तुष्टि की पूरी गारण्टी, :-)

इसी सीरीज में आगे मुंशीजी की और कव्वालियाँ भी पेश करने का इरादा है जैसे "फ़ूल रही सरसों सकल बन" और "ख्वाजा संग खेलिये धमार" आदि, लेकिन फ़िलहाल अगली पेशकश युनुसभाई के चिट्ठे पर होगी।




कव्वाली के बोल युनुसभाई के चिट्ठे से पोस्ट कर रहा हूँ ।

कन्‍हैया बोलो याद भी है कुछ हमारी,
कहूं क्‍या तेरे भूलने के मैं वारी
बिनती मैं कर कर पमना से पूछी
पल पल की खबर तिहारी
पैंया परीं महादेव के जाके
टोना भी करके मैं हारी
कन्‍हैया याद है कुछ भी हमारी
खाक परो लोगो इस ब्‍याहने पर
अच्‍छी मैं रहती कंवारी
मैका में हिल मिल रहती थी सुख से
फिरती थी क्‍यों मारी मारी ।
कन्‍हैया कन्‍हैया ।।

बुधवार, जनवरी 28, 2009

और बस दुनिया उसी पल खत्म हो जाये!!!

एक निर्जन टापू पर ऐसी मधुर आवाज में कोई गीत पर गीत सुनाये। बस उसी समय दुनिया समाप्त हो जाये तो ईश्वर का कितना ऐहसान रहे। मित्र कह रहे थे कि शादी करने से पहले देख लेना कि कन्या बढिया गाना गाती हो, इन्शाअल्लाह... आमीन... :-)

गायिका किरन अहलूवालिया हैं जो भारतीय शास्त्रीय संगीत में पारंगत हैं। इनके बारे में मेरे मित्र गौरव ने बताया और तब से सुने जा रहे हैं। यू-ट्यूब पर उनके और वीडियो भी देखे जा सकते हैं। खुद किरन अहलूवालिया की वेबसाईट पर उनके अन्य गीत सुने जा सकते हैं। ये रही उनकी वेबसाईट:
http://www.kiranmusic.com/flash_content/main_full.html


वो कुछ ऐसे मन में समाये हुये हैं,
और ऐसे ख्यालों पे छाये हुये हैं।

मोहब्बत में हम यूँ अकेले चले हैं,
उन्हें इस तपिश से बचाये हुये हैं।

सुना है रकीबों से अनबन है उनकी,
उम्मीदों की शम्मा जलाये हुये हैं।

नहीं 'ताहिरा' कुछ ज़माने से शिकवा
ये ग़म खुद खुशी से उठाए हुए हैं।

(इस गजल का मक़ता लिखना छूट गया था, रमण कौल जी का बहुत धन्यवाद याद दिलाने के लिये)




इस पंजाबी गीत को सुनकर ही दम निकला जा रहा है, अब तक कल से दसियों बार सुनकर भी मन नहीं भरा।

सोमवार, जनवरी 26, 2009

राईस यूनिवर्सिटी में गणतन्त्र दिवस समारोह !!!

कल भारत के ६०वें गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर भारतीय विद्यार्थी समिति (Indian Students at Rice) ने राईस यूनिवर्सिटी में गणतन्त्र दिवस मनाने का भव्य आयोजन किया।  इस आयोजन में सर्वप्रथम हमारे मुख्य अतिथि श्री सुरेन्द्र तलवार द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फ़हराया गया।  इसके पश्चात सभी लोगों ने मिलकर राष्ट्रगान का पाठ किया और भारतमाता की जय के उद्घोष लगाये।  इसके बाद सुरेन्द्र तलवार जी ने अपनी मधुर आवाज में "हर करम अपना करेंगे, ए वतन तेरे लिये" की कुछ पंक्तियाँ गाकर सबको मुग्ध कर दिया।

श्री सुरेन्द्र तलवार ह्यूस्टन में भारत से सम्बन्धित लगभग हर आयोजन में प्रमुख भूमिका में रहते हैं।  इसके अलावा सुरेन्द्र तलवार जी एक एंटीक शाप जिसका नाम जारपोश है, चलाते हैं।  उनका राईस विश्वविद्यालय से सम्बन्ध बडा पुराना है, हर वर्ष ग्रेजुएट होने वाले विद्यार्थी नये विद्यार्थियों को तलवारजी से मिलवा देते हैं और दोस्ती का ये सिलसिला चलता रहता है। जब भी किसी कार्यक्रम के लिये हमें कुछ एंटीक अथवा अन्य मदद की जरूरत होती है, हम लोग तलवार अंकल के घर जा धमकते हैं। पहले चाय पीते हैं और फ़िर उनकी दुकान से अपनी जरूरत का सामान उठा लाते हैं, इसकी वापिसी के समय तलवार अंकल भी हमारी तरफ़ से मिठाई के डब्बे का इन्तजार करते हैं क्योंकि उनकी मदद के कारण अक्सर किसी भी प्रतियोगिता में भारत का बूथ कोई न कोई स्थान अवश्य जीतता है। तलवार अंकल भले ही इसे न पढ रहे हों, लेकिन तलवार अंकल जिन्दाबाद....

ये थोडा विषयांतर हो गया खैर....

झंडा फ़हराने के बाद एक मेले का आयोजन था जिसमें खाने के सामान के साथ साथ कुछ खेल भी थे। जीतने वाली टीम को $२५ डालर का मिठाई का कूपन मिलना था।  लिहाजा हमने फ़टाफ़ट एक टीम बनायी और चालू हो गये।  थोडी जुगत, थोडी बेईमानी, थोडी लडाई के बाद आखिर हमारी टीम इस प्रतियोगिता को जीत ही गयी।  जैसा हर बार होता है, नियमों में सेंध लगायी गयी और दूसरी टीम ने अपील की लेकिन फ़िर थोडी न नुकुर के बाद हम जीत ही गये :-) याहू..............

अब आप कुछ चित्रों का मजा लीजिये।

 



 


 

(एक खेल में हमें टायलेट पेपर से १ मिनट में ममी बनाने का प्रयास हो रहा है, दूसरे में हम पर बेईमानी का आरोप लग रहा है)



(अब हम अपने कूपन गिनकर बता रहे हैं कि हम जीत गये, दूसरी लडकी कह रही है कि हाय उनकी टीम केवल २ कूपन से हार गयी)

 
 (अन्त में एक ग्रुप फ़ोटो)



नोट: सभी फ़ोटो हेमतेज के सौजन्य से...


सोमवार, जनवरी 19, 2009

ह्यूस्टन मैराथन: एक रिपोर्ट !!!

छोटी रिपोर्ट:
आखिरकार आज ह्यूस्टन मैराथन सम्पन्न हो गयी।  इसमें तीन प्रतियोगितायें थी, पहली पूरी मैराथन यानि २६.२ मील अथवा ४२.२ किमी, दूसरी हाफ़ मैराथन यानि २१.१ किमी और तीसरी ५ किमी की दौड।  कुल २५,००० प्रतिभागियों में से ८२२९ प्रतिभागियों ने पूरी मैराथन दौड में भाग लिया और इनमें से ५३९६ धावकों ने नियत अधिकतम समय (६ घंटा) में दौड समाप्त की।  बाकी लोगों ने या तो दौड अधूरी छोड दी अथवा ६ घंटे से अधिक समय लिया।  हमने पूरी मैराथन में भाग लिया और इसको ३ घंटा ३८ मिनट और ४३ सेकेंड्स में पूरा किया।  अगर सभी प्रतिभागियों को गिने तो हम टाप ८.९ प्रतिशत में आते हैं, अगर दौड समाप्त करने वाले प्रतिभागियों को गिने तो हम टाप १३.६ प्रतिशत में आते हैं।

लम्बी और विस्तृत रिपोर्ट (फ़ोटो और वीडियो के साथ):

आज सुबह ४ बजे नींद खुली, ५ बजे तक तैयार होकर सुबह ५:४० पर हम दौड के स्थान पर आ चुके थे।  इसके बाद हमने अपने धावक क्लब के तम्बू में अपने मित्रो से बात की और मौसम की हालत पर चिन्ता व्यक्त की।  पिछले १० दिन से ह्यूस्टन में हल्की ठंड पड रही थी लेकिन आज अचानक ही गर्मी का सामना हो गया।  दौड की शुरूआत (सुबह सात बजे) में तापमान (५६ डिग्री फ़ारेनहाईट, अर्थात १३.३ डिग्री सेल्सियस) था जो अन्त तक आते आते ७२ डिग्री फ़ारेनहाईट यानि लगभग २३ डिग्री सेल्सियस हो गया। मैराथन दौड के लिये आदर्श तापमान ४० से ६० डिग्री के बीच का होता है ।

खैर, जैसा हमने पिछली पोस्ट में लिखा था कि अगर सभी सितारे लाईन में हों और किस्मत मेहरबान हो तो हम ३ घंटा और ३० मिनट, अन्य परिस्थितियों में ३ घंटा ४० मिनट और अगर सितारे एकदम गर्दिश में हों तो अधिकतम ४ घंटा में दौड समाप्त करने का सोच रहे थे।  आज गर्मी के चलते भी हमने अपने आदर्श (३:३०) गोल को निगाह में रखकर दौड प्रारम्भ की।  ३ घंटा ३० मिनट का मतलब है कि हर मील को ठीक ८ मिनट में पूरा करना या फ़िर हर किमी को ५ मिनट में दौडना और ४२.२ किमी तक यही करते रहना।

नीचे दी गयी सारिणी में आप मेरे हर मील का समय देख सकते हैं। आप देखेंगे कि हर दूसरे मील पर ५-१० सेकेंड्स का अन्तर है, इसका कारण है कि हर दूसरे मील पर धीमे होकर पानी का कप उठाने और उसे पीने में लगभग इतना ही समय लगता है।

मील का समय,        कुल समय
1)   8:20          (8:20)   शुरू में भीड के चलते थोडा अधिक समय लगा।
2)   7:33          (15:53)  ये वाला मील ढलान (Downhill) पर था।
3)   7:44          (23:37)  इस समय बहुत सारे दर्शक लोग हौसला अफ़जाई कर रहे थे।
4)   8:12          (31:48)  इस मील को हाफ़/फ़ुल मैराथन वाले साथ दौडते हैं जिससे थोडी भीड हो जाती है ।
5)   8:02          (39:51)  अब धीमे धावक पीछे हो रहे हैं, और तेज धावक आगे निकल रहे हैं ।
6)   7:56          (47:46)
7)   8:06          (55:52)
8)   7:58          (1:03:51)
9)   7:57          (1:11:48)  इस मील पर हाफ़ मैराथन वाले अगल रास्ता लेकर अपने समाप्ति की ओर चले जाते हैं
10)  8:02          (1:19:50)  भीड कम हो रही है, लोग धीमे हो रहे हैं लेकिन हमें ८ मिनट/मील पर जमे रहना है
11)  7:59          (1:27:48)  अब हम राईस विश्वविद्यालय के पास से गुजर रहे हैं, हम राईस की टी-शर्ट पहने हर
12)  8:04          (1:35:52)  व्यक्ति को Go Owls Go कहते हैं। Owl (उल्लू) हमारे स्कूल का मस्कट है ।
13)  8:00          (1:43:52)  इस समय दर्शकों की भीड सबसे ज्यादा है, लोग केले, सन्तरे बांट रहे हैं ।
14)  8:03          (1:51:55)  आधी दौड खत्म, इसका मतलब कि वार्म अप पूरा हो गया है और अब असल दौड शुरू
15)  8:08          (2:00:03)  उद्देश्य है लक्ष्य से बिना भटके और खूब पानी पीते हुये अगले ५ मील पूरे किये जायें।
16)  8:02          (2:08:06)
17)  7:55          (2:16:01)
18)  8:15          (2:24:16)  अचानक गर्मी बढ गयी है, रेस का कोड Green से Yellow कर दिया गया है।
19)  7:52          (2:32:07)  Volunteers, ज्यादा पानी पीने और गर्मी के हिसाब से थोडा धीमे दौडने को कह रहे हैं
20)  7:53          (2:40:01)  बीस मील खत्म, मतलब आधी दौड समाप्त अब केवल १० किमी बचे हैं।
21)  7:55          (2:47:55)  अब तक हम ८ मिनट प्रति मील पर कायम हैं ।
22)  8:22          (2:56:17)  इस मील में पैर की मांसपेशी में जबरदस्त खिंचाव अनुभव हुआ। हर २० से २५ सेकेंड्स के बाद पैर में दर्द उठ रहा है। लेकिन अब केवल ४.२ मील बचे हैं, उम्मीद है कि Cramps अपने आप चले जायेगें।

23)  9:00          (3:05:17)  दुनिया लुटनी शुरू हो चुकी है, ८ के स्थान पर ९ मिनट लगे। Focus, Focus, Focus.

24)  9:58          (3:15:16)  इस समय भयंकर दर्द हो रहा है लेकिन केवल ३ से भी कम मील बाकी हैं। अब मैं रूककर अपने पैर को स्ट्रैच कर रहा हूँ। पैर की मांशपेशी थोडी फ़ूली हुयी है और मैं सोच रहा हूँ कि ३:३० तो हाथ से गया, अब मन में ३:४० की गणना चल रही है।

25)  10:58         (3:26:14)  इस मील के दौरान २ बार रूककर चलना पडा और भयंकर दर्द हुआ। इस समय हर कदम के साथ ऐसा लग रहा कि कोई पैर में हथौडे मार रहा हो। इस मील के दौरान रास्ता थोडा चढाई वाला भी था।

26)  10:29         (3:36:44)  ये आखिरी १.२ मील हैं, इस समय एक बैनर पर नजर पडी,
PAIN IS TEMPORARY, FINISH IS FOREVER... इससे थोडी ऊर्जा मिली है। अब चूँकि सभी धावक कठिनाई में है, लोग उनका नाम लेकर प्रोत्साहित कर रहे हैं।  हम दर्द को दिमाग से निकालकर दौडने का प्रयास कर रहे हैं। कई भारतीय लोगों ने मेरा नाम पुकार कर जमकर प्रोत्साहित किया।  अब उनको हाथ उठाकर धन्यवाद देने के स्थान पर (जो हम <२० मील तक कर रहे थे), केवल सिर झुकाकर धन्यवाद दे रहे हैं। 

0.2) 1:59          (3:38:43)  आखिरी ०.२ मील,  और हम Finish Line के पार लग गये ।  इस दौड में हमारा स्थान ७३५ वाँ रहा। जो टाप १३.६% में है। अब आप कुछ फ़ोटो और एक वीडियो का आनन्द लें।

      
                                      (दौड शुरू होने से पहले हमारे धावक क्लब के तम्बू का नजारा)

   
(दौड के बाद हमारी विजयी मुस्कान और पार्टनर्स इन क्राईम, वैसे इन पाँचों में मेरा समय सबसे अच्छा रहा इसीलिये ये सब पार्टी मांग रहे हैं :-) )


क्या इतने कष्ट के बाद हम दोबारा मैराथन दौडेंगे। शायद मैराथन का खूब अब मुंह को लग गया है, :-) मेरा मानना है कि अगर मैराथन २६.२ के स्थान पर २० मील की होती तो इसका इतना असर नहीं होता लेकिन आखिरी ५-६ मील ही आपकी मानसिक शक्ति की कठिन परीक्षा लेते हैं। ये भी निश्चित है कि अब तक के जीवन में मैने ये सबसे कठिन शारीरिक श्रम वाला काम किया है।  इसके अलावा दौडने को जिन्दगी में स्थान देने का मतलब है कि कभी तोंद नहीं निकलेगी, दिल खुश रहेगा और मन भरके कुछ भी खा सकते हो (एक बार मैने शर्त की बात पर ७५० ग्राम रबडी खा ली थी, अब कोई ऐसी शर्त लगाने वाला नहीं मिलता) :-)

अब अगला गोल है बोस्टन मैराथन के लिये क्वालिफ़ाई करना।  इसके लिये मुझे ३ घंटा १० मिनट का समय चाहिये, मुझे लगता है कि मैं ये कर सकता हूँ लेकिन इसके लिये कठिन ट्रेनिंग, संयम और कम से कम २ साल लगेगे।  पिछले वर्ष की तुलना में मेरे दौडने की क्षमताओं में लगभग १०-१२% का सुधार हुआ है लेकिन ये भी सत्य है कि अब और सुधार करने के लिये बहुत ज्यादा श्रम लगेगा।  इसीलिये शायद मैराथन को आराम देकर छोटी दौड (५, १०, २१.१ किमी) दौडी जायें, और अपनी रफ़्तार बढाने पर ध्यान दिया जाये।  और उसके बाद ही अगली मैराथन दौडी जाये जिसका उद्देश्य बोस्टन मैराथन के लिये क्वालीफ़ाई करना हो।  देखते हैं भविष्य में ऊँट किस करवट बैठता है।

आंकडों के शौकीन ज्ञानदत्तजी के लिये दो ग्राफ़ भी प्रस्तुत है।






अब ले चलते हैं हमारी दौड की समाप्ति पर फ़िनिशलाईन का वीडियो, ध्यान से १० सेकेण्ड्स से १८ सेकेंड्स को देखिये हम दोनों हाथ हवा में उठाये एक कन्या के बगल से फ़िनिशलाईन क्रास कर रहे हैं। 




और आखिर में ह्यूस्टन क्रानिकल समाचार का कुछ धावकों से दौड समाप्त होने के बाद की बातचीत (इसमें हम कहीं नहीं हैं) ।


शनिवार, जनवरी 17, 2009

ह्यूस्टन मैराथन: कल देखेंगे किसमें कितना है दम !!!

इन्तजार की घडियाँ खत्म होने वाली हैं । कल सुबह ७ बजे ह्यूस्टन मैराथन है । कल पता चलेगा कि पिछले पाँच महीने की ट्रेनिंग का कितना फ़ायदा हुआ । ये रहा २६.२ मील (४२.२ किमी) की दौड का नक्शा ।


मजे की बात है कि मेरे अनुमान के विपरीत कुछ दोस्त रविवार के दिन सुबह उठकर मुझे प्रोत्साहित करने के लिये आ रहे हैं ।
९ वें मील पर: सुमेध

१२ वें मील पर: माईकल, अर्जुन और रामदास

१३.१ मील (हाफ़ मार्क) पर: अंकुर (मेरा रूममेट) एक बोर्ड के साथ मिलेगा जिस पर लिखा है । Screw You Guys, I am going home. दूसरे बोर्ड पर लिखा है, Don't Run from your worries. Stand upto them. अंकुर के सेंस आफ़ ह्यूमर के हम पहले से मुरीद हैं अब और ज्यादा हो गये।

१५ वें मील पर: मेरी होस्ट फ़ैमिली मार्था अकेक्जेंडर, लेसली और राबर्ट

२० वें मील पर: मोनिका और ग्रेसियला (जिन्होनें ये प्यारा सा बोर्ड तैयार किया है )


२२ वें मील पर: फ़िर से अंकुर और शशांक



कल दौड पूरी होने के बाद पूरे विवरण के साथ रेस रिपोर्ट पेश की जायेगी । तब तक इन्तजार करें ।

मंगलवार, जनवरी 13, 2009

सआदत हसन मंटो की कहानी टोबा टेक सिंह

लीजिये पेश-ए-खिदमत है जिया मोहयेद्दीन की आवाज में सआदत हसन मंटो का अफ़साना "टोबा टेक सिंह" । इस मजमून का Text ब्रजेशजी के ब्लाग चायघर से उनकी अनुमति से उठाया गया है इसके लिये उनका आभार ।

सुनने के लिये यहाँ चटका लगायें और पढने के लिये नीचे निगाह डालें ।



मालूम नहीं, यह बात माक़ूल थी या ग़ैर माक़ूल, बहरहाल दानिशमंदों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर-उधर ऊँची सतह की कान्फ्रेंसें हुईं और बिलआख़िर पागलों के तबादले के लिए एक दिन मुक़र्रर हो गया.
अच्छी तरह छानबीन की गई- वे मुसलमान पागल जिनके लवाहिक़ीन हिंदुस्तान ही में थे, वहीं रहने दिए गए; जितने हिंदू-सिख पागल थे, सबके-सब पुलिस की हिफाज़त में बॉर्डर पह पहुंचा दिए गए.
उधर का मालूम नहीं लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने में जब इस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चिमेगोइयाँ (गपशप) होने लगीं.
एक मुसलमान पागल जो 12 बरस से, हर रोज़, बाक़ायदगी के साथ “ज़मींदार” पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा: “मौलबी साब, यह पाकिस्तान क्या होता है...?” तो उसने बड़े ग़ौरो-फ़िक़्र के बाद जवाब दिया: “हिंदुस्तान में एक ऐसी जगह है जहाँ उस्तरे बनते हैं...!” यह जवाब सुनकर उसका दोस्त मुतमइन हो गया.
इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा: “सरदार जी, हमें हिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है... हमें तो वहाँ की बोली नहीं आती...” दूसरा मुस्कराया; “मुझे तो हिंदुस्तोड़ों की बोली आती है, हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ आकड़ फिरते हैं...”
एक दिन, नहाते-नहाते, एक मुसलमान पागल ने “पाकिस्तान: जिंदाबाद” का नारा इस ज़ोर से बुलंद किया कि फ़र्श पर फिसलकर गिरा और बेहोश हो गया.
बाज़ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे; उनमें अक्सरीयत (बहुतायत) ऐसे क़ातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफ़सरों को कुछ दे दिलाकर पागलख़ाने भिजवा दिया था कि वह फाँसी के फंदे से बच जाएँ; यह पागल कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्यों तक़्सीम हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है; लेकिन सही वाक़िआत से वह भी बेख़बर थे; अख़बारों से उन्हें कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे, जिनकी गुफ़्तुगू से भी वह कोई नतीजा बरामद नहीं कर सकते थे. उनको सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्नाह है: जिसको क़ायदे-आज़म कहते हैं; उसने मुसलमानों के लिए एक अलहदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है; यह कहाँ है, इसका महल्ले-वुक़ू (भौगोलिक स्थिति) क्या है, इसके मुताल्लिक़ वह कुछ नहीं जानते थे- यही वजह है कि वह सब पागल जिनका दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहीं हुआ था, इस मख़मसे में गिरफ़्तार थे कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में; अगर हिंदुस्तान में है तो पाकिस्तान कहाँ है; अगर पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वह कुछ अर्से पहले यहीं रहते हुए हिंदुस्तान में थे.
एक पागल तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान, पाकिस्तान और हिंदुस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया. झाड़ू देते-देते वह एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टहने पर बैठकर दो घंटे मुसलसल तक़रीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी... सिपाहियों ने जब उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया. जब उसे डराया-धमकाया गया तो उसने कहा: “मैं हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में... मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा...” बड़ी देर के बाद जब उसका दौरा सर्द पड़ा तो वह नीचे उतरा और अपने हिंदू-सिख दोस्तों से गले मिलकर रोने लगा- उस ख्याल से उसका दिल भर आया था कि वह उसे छोड़कर हिंदुस्तान चले जाएँगे...
एक एमएससी पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिलकुल अलग-थलग बाग़ की एक ख़ास रविश पर सारा दिन ख़ामोश टहलता रहता था, यह तब्दीली नुमूदार हुई कि उसने अपने तमाम कपड़े उतारकर दफ़ेदार के हवाले कर दिए और नंग-धड़ंग सारे बाग़ में चलना-फिरना शुरू कर दिया.
चियौट के एक मोटे मुसलमान ने, जो मुस्लिम लीग का सरगर्म कारकुन रह चुका था और दिन में 15-16 मर्तबा नहाया करता था, यकलख़्त यह आदत तर्क कर दी उसका नाम मुहम्मद अली था, चुनांचे उसने एक दिन अपने जंगल में एलान कर दिया कि वह क़ायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्नाह है; उसकी देखा-देखी एक सिख पागल मास्टर तारा सिंह बन गया- इससे पहले कि ख़ून-ख़राबा हो जाए, दोनों को ख़तरनाक पागल क़रार देकर अलहदा-अलहदा बंद कर दिया गया.
लाहौर का एक नौजवान हिंदू पकील मुहब्बत में नाकाम होकर पागल हो गया; जब उसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो बहुत दुखी हुआ. अमृतसर की एक हिंदू लड़की से उसे मुहब्बत थी जिसने उसे ठुकरा दिया था मगर दीवानगी की हालत में भी वह उस लड़की को नहीं भूला था-वह उन तमाम हिंदू और मुसलमान लीडरों को गालियाँ देने लगा जिन्होंने मिल-मिलाकर हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर दिए हैं, और उनकी महबूबा हिंदुस्तानी बन गई है और वह पाकिस्तानी…जब तबादले की बात शुरू हुई तो उस वकील को कई पागलों ने समझया कि दिल बुरा न करे… उसे हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा, उसी हिंदुस्तान में जहाँ उसकी महबूबा रहती है- मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था; उसका ख़याल था कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी.
योरोपियन वार्ड मं दो एंग्लो इंडियन पागल थे. उनको जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आज़ाद करके अंग्रेज़ चले गए हैं तो उनको बहुत सदमा हुआ; वह छुप-छुपकर घंटों आपस में इस अहम मसले पर गुफ़्तुगू करते रहते कि पागलख़ाने में अब उनकी हैसियत किस क़िस्म की होगी; योरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ा दिया जाएगा; ब्रेक-फ़ास्ट मिला करेगा या नहीं; क्या उन्हें डबल रोटी के बजाय ब्लडी इंडियन चपाटी तो ज़हर मार नहीं करनी पड़ेगी?
।।।।।।।।।
एक सिख था, जिसे पागलख़ाने में दाख़िल हुए 15 बरस हो चुके थे. हर वक़्त उसकी ज़ुबान से यह अजीबो-ग़रीब अल्फ़ाज़ सुनने में आते थे : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन…” वह दिन को सोता था न रात को.
पहरेदारों का यह कहना था कि 15 बरस के तलीव अर्से में वह लहज़े के लिए भी नहीं सोया था; वह लेटता भी नहीं था, अलबत्ता कभी-कभी दीवार के साथ टेक लगा लेता था- हर वक़्त खड़ा रहने से उसके पाँव सूज गए थे और पिंडलियाँ भी फूल गई थीं, मगर जिस्मानी तकलीफ़ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था.
हिंदुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुताल्लिक़ जब कभी पागलख़ाने में गुफ़्तुगू होती थी तो वह ग़ौर से सुनता था; कोई उससे पूछता कि उसका क्या ख़याल़ है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट…! ” लेकिन बाद में “आफ़ दि पाकिस्तान गवर्नमेंट ” की जगह “आफ़ दि टोबा सिंह गवर्नमेंट!” ने ले ली, और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू कर दिया कि टोबा टेक सिंह कहाँ है, जहाँ का वह रहने वाला है. किसी को भी मालूम नहीं था कि टोबा सिंह पाकिस्तान में है... या हिंदुस्तान में; जो बताने की कोशिश करते थे वह ख़ुद इस उलझाव में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है पाकिस्तान में है. क्या पता है कि लाहौर जो आज पाकिस्तान में है... कल हिंदुस्तान में चला जाए... या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए... और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान, दोनों किसी दिन सिरे से ग़ायब ही हो जाएँ...!
इस सिख पागल के केश छिदरे होकर बहुत मुख़्तसर रह गए थे; चूंकि बहुत कम नहाता था, इसलिए दाढ़ी और सिर के बाल आपस में जम गए थे. जिसके बायस उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी; मगर आदमी बे-ज़रर था. 15 बरसों में उसने कभी किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था. पागलख़ाने के जो पुराने मुलाज़िम थे, वह उसके मुताल्लिक़ इतना जानते थे कि टोबा टेक सिंह में उसकी कई ज़मीनें थीं; अच्छा खाता-पीता ज़मींदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया, उसके रिश्तेदार उसे लोहे की मोटी-मोटी ज़ंजीरों में बाँधकर लाए और पागलख़ाने में दाख़िल करा गए.
महीने में एक मुलाक़ात के लिए यह लोग आते थे और उसकी ख़ैर-ख़ैरियत दरयाफ़्त करके चले जाते थे; एक मुद्दत तक यह सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान, हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उसका आना-जाना बंद हो गया.
उसका नाम बिशन सिंह था मगर सब उसे टोबा टेक सिंह कहते थे. उसको यह क़त्अन मालूम नहीं था कि दिन कौन सा है, महीना कौन सा है या कितने साल बीत चुके हैं; लेकिन हर महीने जब उसके अज़ीज़ो-अकारिब उससे मिलने के लिए आने के क़रीब होते तो उसे अपने आप पता चल जाता; उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर ख़ूब साबुन घिसता और बालों में तेल डालकर कंघा करता; अपने वह कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवाकर पहनता और यूँ सज-बनकर मिलने वालों के पास जाता. वह उससे कुछ पूछते तो वह ख़ामोश रहता या कभी-कभार “औपड़ दि गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन...” कह देता.
उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक ऊँगली बढ़ती-बढ़ती 15 बरसों में जवान हो गई थी. बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था-वह बच्ची थी जब भी अपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आँखों से आँसू बहते थे.
पाकिस्तान और हिंदुस्तान का क़िस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंह कहाँ है; जब उसे इत्मीनानबख़्श जवाब न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गई. अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी; पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलनेवाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज़ भी बंद हो गई थी जो उनकी आमद की ख़बर दे दिया करती थी-उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वह लोग आएँ जो उससे हमदर्दी का इज़हार करते थे और उसके लिए फल, मिठाइयाँ और कपड़े लाते थे. वह आएँ तो वह उनके पूछे कि टोबा टेक सिंह कहाँ है... वह उसे यक़ीनन बता देंगे कि टोबा टेक सिंह वहीं से आते हैं जहाँ उसकी ज़मीनें हैं.
पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था. उससे जब एक रोज़ बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में तो उसने हस्बे-आदत क़हक़हा लगाया और कहा : “वह पाकिस्तान में है न हिंदुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म ही नहीं दिया...!”
बिशन सिंह ने उस ख़ुदा से कई मर्तबा बड़ी मिन्नत-समाजत से कहा कि वह हुक्कम दे दे ताकि झंझट ख़त्म हो, मगर ख़ुदा बहुत मसरूफ़ था, इसलिए कि उसे और बे-शुमार हुक्म देने थे.
एक दिन तंग आकर बिशन सिंह ख़ुदा पर बरस पड़ा: “ औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ वाहे गुरु जी दा ख़ालसा एंड वाहे गुरु जी दि फ़तह...!” इसका शायद मतलब था कि तुम मुसलमानों के ख़ुदा हो, सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते.
तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंह का एक मुसलमान जो बिशन सिंह का दोस्त था, मुलाक़ात के लिए आया; मुसलमान दोस्त पहले कभी नहीं आया था. जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया, फिर वापिस जाने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका: “यह तुमसे मिलने आया है...तुम्हारा दोस्त फ़ज़लदीन है...!”
बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा.
बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा : “मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूँ लेकिन फ़ुरसत ही न मिली... तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से हिंदुस्तान चले गए थे... मुझसे जितनी मदद हो सकी, मैंने की... तुम्हारी बेटी रूपकौर...” वह कहते-कहते रुक गया.
बिशन सिंह कुछ याद करने लगा : “बेटी रूपकौर...”
फ़ज़लदीन ने फिर कहना शुरू किया : उन्होंने मुझे कहा था कि तुम्हारी ख़ैर-ख़ैरियत पूछता रहूँ... अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो... भाई बलबीर सिंह और भाई वधावा सिंह से मेरा सलाम कहना और बहन अमृतकौर से भी... भाई बलबीर से कहना कि फ़ज़लदीन राज़ीख़ुशी है...दो भूरी भैसें जो वह छोड़ गए थे, उनमें से एक ने कट्टा दिया है... दूसरी के कट्टी हुई थी, पर वह 6 दिन की होके मर गई...और... मेरे लायक़ जो ख़िदमत हो, कहना, मैं वक़्त तैयार हूँ... और यह तुम्हारे लिए थोड़े-से मरोंडे लाया हूँ...!”
बिशन सिंह ने मरोंडों की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़लदीन से पूछा : “टोबा टेक सिंह कहाँ है...”
फ़ज़लदीन ने क़दरे हैरत से कहा : “कहाँ है... वहीं है, जहाँ था!”
बिशन सिंह ने फिर पूछा : “पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में...”
“हिंदुस्तान में... नहीं, नहीं पाकिस्तान में...! ” फ़ज़लदीन बौखला-सा गया. बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान एंड हिंदुस्तान आफ़ दी दुर फ़िटे मुँह...! ”
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तबादले की तैयारियाँ मुकम्मल हो चुकी थीं, इधर से उधर और उधर से इधर आनेवाले पागलों की फ़ेहरिस्तें पहुँच चुकी थीं और तबादले का दिन भी मुक़र्रर हो चुका था.
सख़्त सर्दियाँ थीं जब लाहौर के पागलख़ाने से हिंदू-सिख पागलों से भरी हुई लारियाँ पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुई, मुताल्लिक़ा अफ़सर भी हमराह थे. वागह के बौर्डर पर तरफ़ैन के सुपरिटेंडेंट एक-दूसरे से मिले और इब्तिदाई कार्रवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया, जो रात भर जारी रहा.
पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगर उसने चलने से इनकार कर दिया : “टोबा टेक सिंह यहाँ है..! ” और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी टोबा टेक सिंह एंड पाकिस्तान...! ”

पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था; बाज़ तो बाहर निकलते ही नहीं थे, जो निकलने पर रज़ामंद होते थे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था, क्योंकि उन्हें फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते-कोई गालियाँ बक रहा है... कोई गा रहा है... कुछ आपस में झगड़ रहे हैं... कुछ रो रहे हैं, बिलख रहे हैं-कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी- पागल औरतों का शोरो-ग़ोग़ा अलग था, और सर्दी इतनी कड़ाके की थी कि दाँत से दाँत बज रहे थे.
पागलों की अक्सरीयत इस तबादले के हक़ में नहीं थी, इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें अपनी जगह से उख़ाड़कर कहाँ फेंका जा रहा है; वह चंद जो कुछ सोच-समझ सकते थे, “पाकिस्तान : ज़िंदाबाद” और “पाकिस्तान : मुर्दाबाद” के नारे लगा रहे थे ; दो-तीन मर्तबा फ़साद होते-होते बचा, क्योंकि बाज़ मुसलमानों और सिखों को यह नारे सुनकर तैश आ गया था.
जब बिशन सिंह की बारी आई और वागन के उस पार का मुताल्लिक़ अफ़सर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा : “टोबा टेक सिंह कहाँ है... पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में.... ?”
मुताल्लिक़ा अफ़सर हँसा : “पाकिस्तान में...! ”
यह सुनकर बिशन सिंह उछलकर एक तरफ़ हटा और दौड़कर अपने बाक़ीमादा साथियों के पास पहुंच गया.
पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगर उसने चलने से इनकार कर दिया : “टोबा टेक सिंह यहाँ है..! ” और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी टोबा टेक सिंह एंड पाकिस्तान...! ”
उसे बहुत समझाया गया कि देखो, अब टोबा टेक सिंह हिंदुस्तान में चला गया... अगर नहीं गया है तो उसे फ़ौरन वहाँ भेज दिया जाएगा, मगर वह न माना! जब उसको जबर्दस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वह दरमियान में एक जगह इस अंदाज़ में अपनी सूजी हुई टाँगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे कोई ताक़त नहीं हिला सकेगी... आदमी चूंकि बे-ज़रर था, इसलिए उससे मज़ीद ज़बर्दस्ती न की गई ; उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया, और तबादले का बाक़ी काम होता रहा.
सूरज निकलने से पहले साकितो-सामित (बिना हिलेडुले खड़े) बिशन सिंह के हलक़ के एक फ़लक शिगाफ़(गगनभेदी) चीख़ निकली.
इधर-उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और उन्होंने देखा कि वह आदमी जो 15 बरस तक दिन-रात अपनी दाँगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुँह लेटा है-उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान ; दरमियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंह पड़ा था.