मंगलवार, जून 30, 2009

पतरस बुखारी का मजमून "होस्टल" जिया मोहेयेद्दीन साहब की आवाज में!!!

जिया साहब की आवाज में हमने पहले भी कुछ किस्से सुनवायें हैं, इसी कडी में आज पतरस बुखारी साहब का किस्सा "होस्टल" पेश है। इस किस्से में जिया साहब पढाई के लिये घर से दूर जाने पर "होस्टल" की अहमियत बतायी गयी है :-)
उम्मीद है जो लोग घर से दूर होस्टल में रहे हैं, उन्हें उनके पुराने दिन जरूर याद आ जायेंगे।

रविवार, जून 28, 2009

अनामी मित्र का स्वागत और कुछ खिचडी पोस्ट !!!

हम तो मारे शर्म के गडे जा रहे हैं। अनामी भाई/बहन की टिप्पणियों पर हिन्दी ब्लाग जगत में आतंक मचा हुआ है। जो भी उसकी पैरवी करे, उसे तुरन्त काजमी साहब की तर्ज पर ब्गागद्रोही साबित कर दिया जाता है। और एक हमारा चिट्ठा है जो हमने खुल्ला छोड रखा है जिसके चलते भी कभी अनामी साहब नहीं फ़टकते। बहुत पहले जब लिखना शुरू किया तो बस ऐसा इन्तजाम किया कि टिप्पणी पोस्ट होते ही ईमेल से खबर मिल जाये जिससे कि अगर कभी कुछ सेंसर करना पडे तो तुरन्त कर सकें, वरना तुरन्त टिप्पणी छप जाये। लगभग तीन वर्षों में एक बार भी स्थिति नहीं आयी की मामला सेंसर करना पडा हो। एक-आध बार लगा की हटा दें लेकिन टिप्पणी पडी रहने दी और अगली पोस्ट तक याद भी नहीं रहा।

और भी गम हैं जमाने में अनामी के सिवा,
राहतें और भी हैं १५ मील की दौड के सिवा।

खैर, अनामी टिप्पणी हमारे ब्लाग पर जारी रहेगी क्योंकि हम चर्चा में इसके स्थान का महत्व मानते हैं। ये वैसा ही है, जब हम और आप अपनी कहानी सुनाते समय कहते हैं कि "एक बार मेरे दोस्त के साथ ऐसा हुआ"। इससे आगे अगर कोई गाली लिखे तो एक बटन से टिप्पणी डिलीट हो जाती है। उसका लिखा एक पैराग्राफ़ और आपका सिर्फ़ एक क्लिक, हम तो ये खेल रोज खेलने को तैयार हैं लेकिन हमें कोई भाव ही नहीं देता।


क्यों एक टिप्पणी से ही हमारा आपा खो जाता है और फ़िर हम जवाबी टिप्पणी लिखकर उसे द्वन्द युद्ध के लिये आमंत्रित कर लेते हैं। चिट्ठे से इतना मोह ठीक नहीं, साईबर जगत में टहल रहे इलेक्ट्रानों से इतनी नजदीकी का भ्रम पालें तो अपनी रिस्क पर :-) खैर, जो इसको अपनी प्रतिष्ठा का सामान बनाकर आईटी के औजार तरकशों में सजाये बैठे हैं, उनको इस एक तरफ़ी लडाई में जीत के लिये पहले से बधाई।

एक और प्रश्न है जो काफ़ी समय से सोचने पर मजबूर कर रहा है। कई चिट्ठाकार हैं जो नियमित लिख रहे हैं और बहुत अच्छा लिख रहे हैं। अचानक किसी एक विषय पर विचार न मिलने पर इतना हंगामा? कहाँ गयी सहिष्णुता कि हम असहमति पर सहमत हैं? क्या हर बहस का अन्त किसी एक की जीत से होना चाहिये। निर्मल आनन्द पर कभी पढा था कि विचार व्यक्ति/व्यक्तित्व का एक बहुत छोटा सा हिस्सा होता है जो अमूर्त है और बदलता रहता है, लेकिन यहाँ पर केवल वैचारिक असहमति पर इतना प्रलाप? इसे प्रतिष्ठा का चिन्ह बना लेना कहाँ तक ठीक है।

चलते चलते, हमारे मित्र अंकुर भारत से वापिस लौटकर आये हैं और बहुत सारी नयी खबरे, मिठाई, घर की बनी पूरियाँ, मठरी, और मुकेश की आवाज में हमारे लिये पाँच सीडी का "रामचरित मानस" का सेट लाये हैं और हम सुने जा रहे हैं, मुग्ध होकर, अहा आनन्दम आनन्दम!!!

शुक्रवार, जून 26, 2009

आज सिर्फ एक फोटो, और एक उम्मीद!!!

आज सिर्फ एक फोटो, और उम्मीद कि ये दिन जल्दी आये और मेरी बहन, मित्र, पडौसन को अपने मन की बात करने से पहले सौ दफा सोचना न पड़े...


चित्र को बड़ा करके देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें...
Photo: Courtesy of http://blog.blanknoise.org

गुरुवार, जून 18, 2009

एक दिन का किस्सा और मजाज़ की याद में!!!

कल के दिन की शुरूआत और अन्त दोनो कष्टप्रद रहे ।

शुरूआत सुबह ४:३० बजे के अलार्म से हुयी और ३-४ मिनट बिस्तर में पडे पडे खुद को गालियाँ दी कि किस पागल कुत्ते ने काटा था जो सुबह ५:३० बजे वाले हिल रनिंग ग्रुप (www.willshills.net) के साथ दौडना शुरू कर दिया। फ़िर उठे, दाढी बनाकर ५:२५ पर हिल्स रनिंग के लिये जा पंहुचे। आज के वर्क आऊट का नाम Mark Fraser Workout था। मार्क फ़्रेजर को मैं जानता हूँ और वो खुद को कष्ट देने के लिये प्रसिद्ध हैं। आखिर और कौन अपने जन्मदिन पर अकेले २५ मील दौडने का कार्यक्रम बनाता है। इस वर्क आऊट के बारे में एक दिन पहले अपने एक मित्र से ईमेल से पूछा तो उनके शब्द ये थे (बिना किसी फ़ेरबदल के)।

प्रश्न: I have never done Fraser workout. What exactly is this? The schedule
says that it’s a combination of Fraser and LP sort of run. What does that
mean?

उत्तर: It means everyone is gonna be curled up in the fetal position, crying
for their mommy after the workout -- that's what it means Neeraj.


खैर जैसा सुना था वैसा ही निकला, २५ मिनट पहाडों की चढाई और उतराई पर दौडते दौडते अन्त में सभी कुत्तों की तरफ़ बेतहाशा हांफ़ रहे थे। उसके स्कूल के जिम में स्नान करने के बाद हम ८ बजे अपनी मेज पर आ चुके थे। सोचा था कि आज शाम को दौडेंगे नहीं केवल मुफ़्त(आज एक मित्र अपने जन्मदिन की खुशी में मुफ़्त बीयर बांट रहे थे) बीयर पीने मित्रों के साथ वलहाला जायेंगे। लेकिन दोपहर में एक ईमेल मिली की एक नयी मेम्बर हमारे रनिंग ग्रुप के साथ दौडना चाहती हैं, लेकिन उन्हें रास्ता नहीं पता है और साथ में एक दौडने वाला/वाली चाहिये जिससे वो रास्ते में खो न जाये। हमारी Member At Large की कुर्सी की जिम्मेवारी है कि नये मेम्बर्स का ध्यान रखें जिससे उन्हे क्लब में कोई असुविधा न हो।

लम्बी कहानी छोटी करके लब्बोलुआब ये कि हमको शाम को ३८ डिग्री की धूप में और ८०% आद्रता में १० किमी उस नये मेम्बर के साथ दौडना पडा। वैसे वो नयी मेम्बर भी हमारी तरह स्टूडेंट निकली, और Baylor College of Medicine में कैंसर पर अपनी पीएचडी कर रही हैं।

उसके बाद थोडी से मुफ़्त बीयर चांपी गयी और दोस्तों से बातचीत की गयी। थोडी देर के बाद (१०:३० pm) जब सब घर जाने की तैयारी करने लगे तो देखा गया कि मुफ़्त की बीयर पीकर एक दोस्त काफ़ी टल्ली हो गये हैं। ये एक नयी समस्या आ खडी हुयी, जब किसी टल्ली से पूछो कि "Can you drive back home?" और उत्तर मिले, "May be, I am not sure" तो इसका अर्थ है कि मामला सीरियस है वरना सभी का जवाब होता कि "हाँ, क्यों नहीं, हम एकदम ठीक हैं" :-)

हमने उनसे पूछा कि घर कितनी दूर है तो बोले २ ब्लाक मतलब लगभग ४०० मीटर दूर। हमने कहा कि चलो हम तुम्हारे साथ पार्किंग लाट तक चलते हैं और अगर तुम्हे कोई दिक्कत हुयी तो हम तुम्हारी कार से तुम्हे घर छोड देंगे और दो ब्लाक दौडते हुये वापिस अपनी कार तक आयेंगे और उसके बाद अपने घर जायेंगे।

उनकी कार तक पंहुचे तो वो दरवाजा खोलने की हालत में भी नहीं थे। उनसे कार की चाबी लेकर उनके घर का रास्ता पूछते पूछते कार चलानी शुरू की और उनका घर दो ब्लाक के स्थान पर लगभग ४ किमी दूर निकला।

लगभग ११ बजे उन्हे घर छोडने के बाद हमने वापिस स्कूल की तरफ़ दौडना शुरू किया। ४ किमी कोई खास दूरी नहीं है लेकिन पूरे दिन मेहनत के बाद वो चार किमी बहुत कठिन लगे। दूसरा जीन्स और Non-running shoes में दौडना इतना आसान नहीं। उस पर सारी सडक सूनसान और लुट जाने का डर, पैर इतने थके हुये कि इतना भी भरोसा नहीं कि अगर कोई पीछे पडा तो उससे दौडकर पीछा छुडा लेंगे। उस पर मजे की बात ये कि रात की अंधेरी सडकों पर दौडते दौडते हमें मजाज़ की ये नज़्म याद आ गयी।

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

खैर थोडा दौडकर और थोडा चलकर ३० मिनट में अपनी कार तक पंहुचे और उसके बाद रात को १२ बजे अपने घर जाकर बिना कुछ खाये पिये अपने बिस्तर पर ढेर हो गये। सुबह नींद खुली तो उन्हीं सज्जन का संदेश मिला:

Oh my. It took me a few minutes this morning to figure out how I got here and who I needed to to thank for making it happen. I'm pretty sure you're responsible. THANK YOU. And next time, just convince me overnight parking at Rice is free. When I'm drunk I believe anything.

Shit - man do I ever owe you. Not that I'll ever figure out what all happened last night, but I'm really confused about how my car ended up in my garage because I didn't think I had the gate card. Did you park it in the garage? I went to go move it in this morning and discovered it was already there!


चलिये हमारा दिन तो गुजर गया कि आप मजाज़ साहब की आवारा नज्म की इन पंक्तियों को सुनिये जिसका आडियो इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं है।

इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मुफलिसी और ये मजाहिर हैं नजर के सामने
सैकड़ों चंगेज-ओ-नादिर हैं नजर के सामने
सैकड़ों सुल्तान जाबिर हैं नजर के सामने
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

ले के चंगेज के हाथों से खंजर तोड़ दूँ
ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या ना तोड़े मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

सोमवार, जून 15, 2009

अभी व्यस्त हूँ बाद में फ़ोन करना!!!

मैं अक्सर घर से स्कूल के रास्ते में घरवालों को फ़ोन करता हूँ। कभी कभी जब लम्बी बात होती है मैं लैब तक आ जाता हूँ तो कभी कभी फ़ोन पर कहना होता है कि "अच्छा, अब लैब में आ गया हूँ, बाकी बातें बाद में"। इसका ये अर्थ न लगाया जाये कि हम लैब में बहुत काम करते हैं :-)

लेकिन आज उल्टा हुआ। पिताजी का इस महीने मथुरा से आगरा स्थानान्तरण (ट्रांसफ़र) हो गया है। कभी कभी घर पर फ़ोन करो तो केवल माताजी से बात हो पाती है क्योंकि पिताजी या तो दफ़्तर के लिये निकल चुके होते हैं अथवा घर में नहीं पंहुचे होते हैं।
आज सुबह (पिताजी की शाम का ७ बजे) हमने पिताजी के मोबाईल पर फ़ोन किया। काफ़ी देर के बाद फ़ोन उठा और ये संवाद रहा (बोल्ड वाले अंश पिताजी के हैं):

हां, बोलो
कुछ नहीं पापा, बस ऐसे ही हाल चाल के लिये फ़ोन किया था। सब बढिया,
हाँ, सब बढिया। अभी थोडा व्यस्त हूँ कोई जरूरी काम?
क्या अभी आफ़िस में हैं?
नहीं, आफ़िस से बाहर लेकिन आफ़िस के काम से ही। कोई खास बात?
नहीं, बस राजी-खुशी।
अच्छा बेटा ठीक है, बाद में बात करेंगे।
डिस्कनेक्ट!!!

इसके तुरन्त बाद ही कुछ और पुरानी यादें ताजा हो गयीं। कई बार पिताजी को किसी काम के लिये बोलो तो कम से कम २-३ दिन का डिले मानकर चलो क्योंकि आफ़िस जाते ही पिताजी हम सबसे अनजान हो जाते हैं। एक-दो बार जब स्थिति बिगडती तो बोलते कि अच्छा आफ़िस आ जाना, लंच में ५ मिनट का समय निकालकर तुम्हारा काम करवा देंगे। हमें पता होता था ये केवल बहाना है इसलिये हर बार अगले १-२ दिन की बाट देखते :-)

एक बार हम और मेरी बडी बहन उनके आफ़िस जा पंहुचे, दफ़्तर में घुसे तो देखा पिताजी व्यस्त हैं हमेशा की तरह।

अच्छा आ गये तुम लोग, बैठो अभी ५ मिनट में चलते हैं।
दो कुर्सियों पर हम दोनो बैठ गये।
१५ मिनट के बाद: अरे, पानी/चाय पियोगे तुम लोग।
नहीं, अच्छा पानी ठीक है। पानी भी पी लिया। इतने में १५ मिनट और बीत गये।
इतने में पापा के सहयोगी बाजू से गुजरे, अरे बेटा आप लोग। क्या हाल चाल हैं? पढाई कैसी चल रही है। सब बढिया,
अच्छा ठंडा पियोगे? नहीं, बस अभी पाँच मिनट में निकलना है।
ये सुनकर पिताजी को कुछ याद आया, अरे मैं भूल गया। बस अभी निकलते हैं।
१५ मिनट और बीते, अब मैं बहन को और वो हमें देख रही है।
अच्छा तुम लोग उस दुकान पर जाओ, हम यहीं से फ़ोन कर देते हैं।
फ़िर हम दोनों अपने हिसाब से अपना सामान खरीदकर घर चले गये, पिताजी फ़ोन करना भी भूल गये :-)

घर पर माताजी ने हमें देखते ही पूछा, बडी देर लगा दी। पापा गये थे साथ में? बस हम और मेरी बहन मुस्कुरा दिये।
देखा, मैने पहले ही कहा था कि कोई फ़ायदा नहीं है।

कुछ आदतें कभी नहीं सुधरती। उन्हे कभी दफ़्तर के लिये लेट और समय से पहले घर आते नहीं देखा। अक्सर लेट ही घर आते देखा है। एक दिन बता रहे थे, बहुत से लोगों ने VRS (Voluntary Retirement Scheme) ले लिया है और इसके बदले भर्ती बिल्कुल नहीं हुयी हैं। इस पर भी जो लोग काम करते थे, उन्होने ही VRS लिया है और बाकी कम काम पर ऐश करने वाले अभी भी लगे हुये हैं, इससे सन्तुलन बिगड गया है।

काम के लिये समय की पाबन्दी शायद पिताजी से ही सीखी है।