सोमवार, अक्टूबर 29, 2007

भारत में अब तक के बारह दिनों का व्यौरा: भाग १

१५ अक्टूबर की दोपहर को मन में उमडते विचारों के साथ घर से निकले । चार घंटे में न्यूयार्क पंहुचे और उसके बाद १४.५ घंटे की लगातार हवाई-यात्रा करते हुये १६ अक्टूबर की रात को इन्दिरा गांधी अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर रात को ९:०० बजे उतरे । उतरने के बाद आव्रजन जाँच कराने के बाद जब अपना सामान बटोरने गये तो ३० मिनट इन्तजार करने के बाद भी हमारे बक्से कहीं नहीं दिखे । कान्टीनेन्टल वालों को पूछा तो उन्होने कहा पता लगाते हैं और इसके बाद अगले १५ मिनट में हमारा बोरिया बिस्तर हमें सौंप दिया गया ।

मैं ह्यूस्टन से अपने एक आगरा के मित्र के साथ आया था और हम दोनों को ही हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से सुबह ६:०० बजे स्वर्ण-जयन्ती एक्सप्रेस पकडनी थी । अब सोचा गया कि रात को १०:१५ बजे से सुबह ६ बजे तक का सफ़र कैसे तय किया जाये । हमने सुझाव दिया कि प्री-पेड टैक्सी लेकर रेलवे स्टेशन चलते हैं और बाकी का कार्यक्रम वहीं तय किया जायेगा । मेरे मित्र भी एकदम बिन्दास थे और कहा कि कुछ नहीं तो रेलवे प्लेटफ़ार्म पर ही रात गुजार देंगे । टैक्सी वाले भैया ने तीन-चार रेड लाईट आराम से तोडकर हमें जल्दी ही निजामुद्दीन ला पटका जबकि हमें जरा भी जल्दी नहीं थी । रेल्वे-स्टेशन सूना पडा था क्योंकि रात १०:५० की अन्तिम ट्रेन के बाद सुबह ५ बजे तक कोई ट्रेन नहीं थी । हमने भी दो बैंच झपटी और दोनो मित्र उन पर अजदकी मुद्रा (फ़ुरसतिया एट. आल. २००७) में पसर गये । एक बक्सा सिर के नीचे तकिये की तरह और दूसरा पैरों के नीचे दबाकर सामान की चिंता को हवा में मच्छरों के भरोसे उडाकर सोने का प्रयास करने लगे ।

मेरे मित्र ने इस बीच प्लेटफ़ार्म के तीन-चार चक्कर लगाकर हर चीज का सूक्ष्मता से निरीक्षण कर निष्कर्ष निकाला कि अभी भी कुछ बदला नहीं है सिवाय चाय और परांठो के दाम के । I.R.C.T.C.के काउन्टर से १० रूपये वाली चाय और ३५ रूपये का एक आलू का परांठा निपटाकर मैने भी उसके निष्कर्ष पर सहमति की मोहर लगा दी । इसके बाद मैने प्लेटफ़ार्म का एक चक्कर लगाया कि अगर कोई दुकान खुली हो तो वेदप्रकाश शर्मा का कोई उपन्यास खरीदकर रात काट ली जाये । लेकिन अफ़सोस कि I.R.C.T.C. के काउन्टर के अलावा सभी दुकाने बन्द थी ।

हमने जैसे तैसे सोने का उपक्रम करते हुये सुबह ५:३० बजे तक का समय काटा और अपनी ट्रेन में सवार होकर मथुरा पँहुच गये । मथुरा में दो दिन बिताने के बाद हम मथुरा से कानपुर> बनारस> इलाहाबाद> कानपुर> दिल्ली> नोएडा> दिल्ली> नोएडा होते हुये फ़िर से मथुरा आ गये । इस दौरान कानपुर में हमे अनूपजी और इलाहाबाद में ज्ञानदत्त पाण्डेयजी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिसकी चर्चा हम कल विस्तार से करेंगे ।

रेफ़रेन्सेज: 

  1. देख रहे हैं जो भी किसी से मत कहिये, फ़ुरसतिया, १९ जून २००७

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत वीर हो भाई जो अमरीकी सूटकेस लेकर स्टेशन पर रात बिता लिये.

    सही है आगे का वृतांत जारी रखो.

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  2. भाई आपका तो यात्रा का जज्बा पसन्द आया। अगली पोस्ट का इंतजार है!

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  3. समीर जी ठीक कह रहे हैं बहुत वीरता का काम था स्टेशन में रात गुजारना ।
    घुघूती बासूती

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