सोमवार, जुलाई 23, 2007

शेखर: एक जीवनी, के कुछ अंश

अज्ञेयजी कृत "शेखर: एक जीवनी" की भूमिका के कुछ अंश आपके लिये प्रस्तुत हैं ।
... क्या ये "जीवनी" आत्म-जीवनी है ? यह प्रश्न अवश्य पूछा जायेगा । बल्कि शायद पूछा भी नहीं जायेगा, क्योंकि पाठक पूर्व-धारणा बनाकर चलेगा । हिन्दी में जहाँ प्रत्येक कवि अपनी स्त्री को लक्ष्य करके लिखता है, जहाँ वियोग की कविता इतने भर से प्रमाणिक मान ली जाती है कि उसे अमुकजी ने अपनी पत्नी के देहान्त के बाद लिखा है, वहाँ ये आशा करना व्यर्थ है कि "शेखर" जो केवल एक जीवनी ही नहीं, एक व्यक्ति की अपने मुँह कही हुई जीवनी है, उसके लेखक की जीवनी नहीं मान ली जायेगी । मुझे याद है, तीन वर्ष पहले जब मेरी एक कविता "द्वितीया" छपी थी, तब उसके कई पाठकों ने मुझे सम्वेदना के पत्र लिखे थे और एक ने यहाँ तक लिखा था कि "मुझे आपसे पूरी सहानुभूति है, क्योंकि स्वयं उसी परिस्थिति में होने के कारण मैं आपकी अवस्था बखूबी समझ सकता हूँ । पत्र के सम्पादक जी ने भी (यद्यपि कुछ मजाक में) पूछा था कि आपका पहला विवाह तो हुआ नहीं दूसरी पत्नी से यह झगडा कैसा?"

ऐसे व्यक्तियों को यदि प्रमाण मिल जाये कि मैने बिना एक भी विवाद हुये दूसरे विवाह की बात लिख दी है, तो वे समझेंगे कि उन्हें धोखा दिया गया है । यह कहते हुये खेद होता है- किन्तु बात है सच - कि आजकल का अधिकांश हिन्दी साहित्य और आलोचना एक भ्रान्त धारणा पर आश्रित है कि आत्म-घटित (आत्मानुभूत नहीं क्योंकि अनुभूति बिना घटित के भी हो सकती है ) का वर्णन ही सबसे बडी सफ़लता और सबसे बडी सच्चाई है । यह बात हिन्दी के कम लेखक समझते या मानते हैं कि कल्पना और अनुभूति-सामर्थ्य (sensibility) के सहारे दूसरे के घटित में प्रवेश कर सकना, और वैसा करते समय आत्मघटित की पूर्व-घटनाओं को स्थगित कर सकना - Objective हो सकना- ही लेखक की शक्ति का प्रमाण है ।

इसके विपरीत लेखकों में ऐसे अनेक मिल जायेंगे जो ऐसी अनुभूति (मैं फ़िर कहता हूँ कि आत्म-घटित ही आत्मानुभूत नहीं होता पर-घटित भी आत्मानुभूत हो सकता है यदि हममें सामर्थ्य है कि हम उसके प्रति खुले रह सकें,) को परकीय, सेकेण्ड हैण्ड, अतएव घटिया और असत्य कहेंगे । ऐसे व्यक्तियों के लिये टी. एस. इलियट की उस उक्ति का कोई अर्थ नहीं होगा जो वास्तव में इसका एक मात्र उत्तर है : "There is always a separation between the man who suffers and the artist who creates; and the greater the artist the greater the separation." (भोगनेवाले प्राणी और सृजन करने वाले कलाकार में सदा एक अन्तर रहता है; और जितना बडा कलाकार होता है उतना ही भारी यह अन्तर होता है ।)

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लेकिन यह एक लम्बा विषयान्तर हो गया है और मुझे मानना पडेगा कि इलियट के कथनानुसार मैं बहुत बडा आर्टिस्ट हो सका हूँ । शेखर का एक भी पात्र नहीं है जो न्यूनाधिक मात्रा में एक संश्लिष्त चरित्र Composite character नहीं है, तथापि मेरी अनुभूति और मेरी वेदना शेखर को अभिसिंचित कर रही है । और यह अभिसिंचन ऐसा है कि उससे यह कहकर छुटकारा नहीं पाया जा सकता कि अन्ततोगत्वा सभी गल्प-साहित्य आत्मकथा-मूलक है, अपने ही जीवन का चित्रण नहीं तो प्रक्षेपण (Projection) है, अपने स्यात की कहानी है । ‘शेखर’ में मेरापन कुछ अधिक है; इलियट का आदर्श (जिसकी महानता मैं मानता हूँ) मुझसे नहीं निभ सका है । शेखर निस्संदेह एक व्यक्ति का अभिन्नतम निजी दस्तावेज a record of personal suffering है, यद्यपि वह साथ ही उस व्यक्ति के युग-संघर्ष का प्रतिबिम्ब भी है । इतना और ऐसा निजी वह नहीं है कि उसके दावे को आप "एक आदमी की निजी बात" कहकर उडा सकें; मेरा आग्रह है कि उसमें मेरा समाज और मेरा युग बोलता है कि वह मेरे और शेखर के युग का प्रतीक है; लेकिन इतना सब होते हुये भी मैं जानता हूँ कि यदि इस उपन्यास का सूत्रपात दूसरी परिस्थिति में और दूसरे ढंग से (और शायद दूसरे अधिक समर्थ हाथों से !) हुआ होता तो उस भूमिका की आवश्यकता नहीं रहती...और न ही इसकी सम्पूर्ण उपेक्षा करते हुये पाठक के यह कहने की गुंजाइश रहती कि शेखर में घटनाओं की तो बात ही क्या स्थान भी लेखक के देशाटन की परिचर्चा से मेल खाते हैं । (यद्यपि यह कहने के लिये लेखक को मेरे सम्बन्ध में विशेष रूप से जानकार होना पडता ।)....

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"शेखर : एक जीवनी" के इन अंशों को लिखने का मेरा उद्देश्य ये कहना है कि दोहरी व्यक्तित्व/जीवन जीने का मौलिक अधिकार एक लेखक को भी है । किसी लेखक के व्यक्तिगत जीवन में घटित हुयी किसी घटना के आधार पर उसके स्रजित साहित्य की भर्तस्ना करना लेखक पर अत्याचार होगा और उसके लेखन के प्रति बेईमानी ।

असल में सुजाताजी की पोस्ट, (निजी कितना निजी है और कब तक) पर टिप्पणी करने के बाद सोचा कि अपने मन्तव्य को इस पोस्ट के माध्यम से स्पष्ट करूँ । यहाँ पर ये भी स्पष्ट कर दूँ कि इस संवाद में मेरी रूचि पूर्णतया सैद्धान्तिक (Theoretical) है । जिस विवाद के संदर्भ में सुजाता जी ने अपनी पोस्ट लिखी थी उस विवाद के संदर्भ में मेरी इस पोस्ट को न माना जाये । कुछ अनजाने में ही सही लेकिन एक सार्थक संवाद प्रारम्भ हुआ है । आपकी क्या राय है?

क्या किसी लेखक और लेखन को उसी प्रकार अलग किया जा सकता है जिस प्रकार हम अन्य व्यवसायों और व्यवसायी को अलग करके देखते हैं । किसी वैज्ञानिक के निजी विचार कि धरती केवल ६००० वर्ष पुरानी है अथवा जैव विकास का सिद्धांत (Theory of Evolution) असत्य है के बावजूद उसके
शोधपत्रों को शंका की नजर से नहीं देखा जाता । फ़िर एक लेखक के साथ ऐसा बर्ताव क्यों जबकि वो दावा नहीं करता कि उसके विचार सत्य हैं , वो तो खुलेआम कहता है कि उसके विचार कल्पना की उडान हैं ।


नीरज रोहिल्ला,
२३ जुलाई, २००७

रविवार, जुलाई 22, 2007

सुख, सफ़लता और संतुष्टि के चक्रव्यूह में फ़ँसी दुनिया !!!

क्या आप अपने जीवन से संतुष्ट हैं ?
सफलता और संतुष्टि के बीच का संबंध क्या है ?
क्या संतुष्टि और सुख एक दूसरे के पूरक हैं ?

सुखिया
ये संसार है खावे अरू सोये, दुखिया दास कबीर है जागे अरू रोये

ऐसे कितने ही सवाल हमारे सामने प्रतिदिन आते हैं और हम अक्सर उन्हें टालकर अथवा बिना विचारे कोई दार्शनिक तर्क देकर आगे बढ जाते हैंलेकिन उसके बाद भी ये प्रश्न हमारा पीछा नहीं छोड़ते हैंमेरी समझ में सुख और संतुष्टि दोनो ही आपके "मन", "विचार" और "कर्मों" के आपसी संतुलन और साम्य पर निर्भर करती हैकम से कम मेरे जीवन में ये साम्य और संतुलन अभी स्थापित नहीं हो सका है; इस दिशा में प्रयासरत अवश्य हूँ देखिए कब मेहनत रंग लाती है

कथनी और करनी का अंतर, विचार और आचार की भिन्नता, स्वयं के व्यवहार पर खिन्नता और मन के अन्दर सदैव चलने वाला अंतर्कलह सब एक ही तो हैं बात बड़ी सरल सी लगती है और सरल बात इतनी आसानी से समझ नहीं आती

इस छोटे से जीवन में मुझे कुछ विलक्षण प्रतिभा के धनी महापुरुषों के साथ कुछ समय बिताने का सुअवसर मिला और उन सभी के व्यक्तित्व में मुझे एक बात समान लगी, उन सब के आचरण और व्यवहार में मुझे एक अजीब सी सहजता दिखीबहुत से लोग अपने व्यक्तित्व में इस सहजता को जबरन ठूँसने का प्रयास करते हैंलेकिन ये प्रयास उसी प्रकार असफल हो जाते हैं जैसे कि युवाओं में "कूल" दिखने के प्रयासकिसी ने कहा है कि अगर आप "कूल" हैं तो आपको "कूल" दिखने के किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं हैउसी प्रकार व्यवहार और आचरण की सहजता अपने आप ही आती हैआप इस प्रकार के आचरण का झूठा लबादा देर तक नहीं ओढ़ सकतेआपके मन और चरित्र की दुर्बलातायें उस ओढे हुये लबादे तो तार तार करने में देर नहीं लगाती

अब प्रश्न ये उठता है कि क्या इस प्रकार की व्यवहार की सहजता को प्रयास से अर्जित किया जा सकता है ? क्या निरन्तर प्रयास के द्वारा आप सच जैसा दिखने वाला झूठा लबादा ओढ सकते हैं ? इस प्रकार के प्रयासो का आपके व्यक्तित्व और मानसिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड सकता है ? दूसरों को जताना कि आप बडे सहज हैं आसान है; लेकिन स्वयं के मस्तिष्क को इतना ट्रेन करना कि आप झूठा लबादा सहजता से ओढे रहें अलग बात है । मेरी राय में ऐसे प्रयासों का सफल होना मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं । इसके अलावा अगर आप इस प्रकार की झूठी सहजता को ओढने में सफ़ल हो भी जायें तो भी दोहरा जीवन जीने की विडम्बना के रूप में एक कीमत आपको देनी ही पडती है ।

"Ayn Rand" बड़ी ही प्रसिद्ध लेखिका हैं। "Atlas Shrugged" और "Fountainhead" उनके बडे प्रसिद्ध उपन्यास हैं । युवावस्था में जो भी उन्हें पढता है उनकी विचारधारा का मुरीद हो जाता हैमेरे साथ भी ऐसा ही हुआ लेकिन समय के साथ मेरे विचार बदल गयेआज मैं उन्हें केवल उन्हें एक सशक्त लेखिका के रूप में मानता हूँउनकी विचारधारा के प्रति आकर्षण के पीछे एक सशक्त लेखिका की चालबाजी हैकृपया "चालबाज" शब्द को अन्यथा लेंमेरा मंतव्य आगे चलकर स्पष्ट हो जायेगा

अपने लेखों और उपन्यासों में लेखिका दो प्रकार के किरदारों का निर्माण करती है । एक प्रकार के किरदार ऐसे होते हैं जो आपको उनकी ओर आकर्षित करते है, वो वे सभी कार्य करते हैं जो आप कभी करना चाहते थे/हैं । वो समाज में अपनी शर्तों पर जीते हैं, किसी की परवाह नहीं करते, अपने क्षेत्र में जीनियस हैं, वगैरह वगैरह... दूसरे प्रकार के किरदारों में आप अपनी झलक देखते हैं; कभी अपने मतलब के लिये जीने वाले, कभी गलत समझौते करने वाले, समाज के लिये कुछ और वास्तव में कुछ और...लेकिन इसके बाद भी अपने अन्तर्मन की आवाज उन्हे सदैव सताती रहती है । ऐसे में खुद के कॄत्यों के खिलाफ़ प्रतिरोध स्वयं जैसे किरदारों के प्रति घॄणा के रूप में स्फ़ुटित होता है ।

आप स्वयं एक प्रयोग कर सकते हैं, जिस व्यक्ति से आपको घृणा होती है उसके व्यक्तित्व की कोई ऐसी बात होती है जो आप स्वयं में भी पाते हैं (दूसरे लोग ये जानते हों जरूरी नहीं है ), और यही बात आपको कभी कभी बहुत परेशान करती है ।

अगर इस उपन्यास में केवल दूसरा किरदार (आपके जैसा) होता तो शायद आप उसे पसन्द भी करते, उसकी उपलब्धियों की अपनी उपलब्धियों से तुलना भी करते, "ये ही दुनिया है और जहाँ के कारखाने ऐसे ही चलते हैं" कहकर इतराते और सब कुछ मजे में रहता । लेकिन ये पहला वाला किरदार आपका चैन छीन लेता है । आप सोचते हैं कि ये बेवकूफ़ किरदार दुनिया से शिकायत भी तो नहीं करता । धीरे धीरे पहले किरदार के साथ हुआ हर छलावा आपको कचोटने लगता है । इच्छा होती है कि काश अगर घडी को उल्टा कर पाता तो मैं भी पहले किरदार की तरह जीवन बिताता । बस इसी क्षण लेखिका अपनी चालबाजी में सफ़ल हो जाती है । इसके बाद आप लेखिका की विचारधारा से प्रभावित नहीं होते बल्कि स्वयं की कमियाँ और एक काल्पनिक किरदार के तिलिस्म में कैद होकर रह जाते हैं ।

आगे भी जारी रहेगा......

शनिवार, जुलाई 21, 2007

वाद-विवादी भारतीय


आज आप लोगों से इंटरनेट पर अपने कुछ अनुभव आपके साथ बाँट रहा हूँ । पिछ्ले कुछ महीनों से मैं रेडिफ़ (www.rediff.com) पर लिखे जाने वाले लगभग सभी लेख और उनके नीचे लिखे पाठकों की टिप्पणियाँ पढ रहा हूँ । यही नहीं, और्कुट पर भी विभिन्न समूहों (Indian History, India, Hinduism, etc.) में होने वाले वाद-विवाद पर भी नजर रखता रहा हूँ । कुल मिलाकर मैं इस निष्कर्ष पर पँहुचा हूँ कि हम भारतीयों को वाद-विवाद में बडा सुख मिलता है । इस वाद-विवाद का उद्देश्य किसी आम सहमति अथवा परिणाम पर पँहुचना नहीं बल्कि केवल वाद-विवाद सुख होता है ।

तुमने ५ पंक्तियों का तर्क दिया है तो मेरा जवाब १० पंक्तियों का होगा । इंटरनेट पर वाद-विवाद में कुछ ट्रेंड भी देखने तो मिलते हैं । आम तौर पर ऐसा लगता है कि लगभग हर लेख पर वाद-विवाद की परिणति एक ही होती है । वाद-विवाद किसी एक तर्क से प्रारम्भ होकर आपस में गाली गलौज पर होते हुये इस स्तर पर उतर आता है कि बस पूछिये मत ।

पहले मैं आर्कुट पर भारतीय इतिहास नामक समूह में काफ़ी हद तक सक्रिय (पढने और लिखने दोनों) था । प्रारम्भ में वहाँ पर कुछ अच्छे विषयों पर विचार विमर्श हुआ परन्तु समय के साथ वहाँ पर भी वाद-विवाद का स्तर इतना गिर गया कि अब वहाँ जाने का मन भी नहीं करता । धीरे धीरे मुझे एहसास हुआ है कि इंटरनेट पर किसी विवाद में समय बिताने की अपेक्षा दोनों पक्षों से सम्बन्धित कुछ विश्वसनीय लेख अथवा पुस्तक पढना ज्यादा उपयोगी है । और अब मेरी भूमिका केवल एक तटस्थ दर्शक की रह गयी है । हाँलाकि बहुत से लोग "जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध" कहकर उकसाने का प्रयास करते हैं, लेकिन हम अपने आप को तटस्थ दर्शक बनाये हुये हैं ।

रेडिफ़ (Rediff) पर विभिन्न लेखों पर दी गयी टिप्पणियों को अगर आप लम्बे समय तक पढेगें तो आप अपने साथ एक खेल खेल सकते हैं । सुबह एक लेख पढिये और भविष्यवाणी कीजिये कि इस विषय पर टिप्पणियाँ क्या रंग दिखायेंगी । यकीन मानिये, ये काम बहुत मुश्किल नहीं है ।

मसलन, अगर किसी NRI से सम्बन्धित कोई खबर है तो वाद विवाद "भारतीयों में स्वयं के गौरव की कमी/सरकार की अमेरिका की चापलूसी/राजनीति में भ्रष्टाचार" जैसे मुद्दों को छुयेगी ।

क्रिकेट से सम्बन्धित खबर होने पर वाद विवाद "दक्षिण/ उत्तर/ बंगाल/ दिल्ली/ फ़िरंगी कोच/ क्रिकेट में पैसा/ हाकी की दुर्दशा" जैसे मुद्दों तक पँहुचेगा ।

साहित्य से संबन्धित किसी भी खबर पर मराठी/बंगाली/हिन्दी/तमिल के नाम पर जूतम पैजार होना आम बात है ।

इन सभी के बीच में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो वाद-विवाद को सही दिशा देने की कोशिश करते हैं लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में दब कर रह जाती है । आप कह सकते हैं कि अगर ऐसे अधिक लोग हों तो सम्भवत: वाद-विवाद को संयत (Moderate) किया जा सकता है । परन्तु ऐसे वाद विवाद से क्या हासिल है ? मेरी राय में अपनी ऊर्जा को सहेज कर किसी अन्य दिशा में लगाना कहीं अधिक फ़ायदेमन्द होगा ।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी में एक गोलीय घोडे की परिकल्पना !!!

एक व्यक्ति का घोडा घुडदौड की प्रतियोगिताओं में लगातार हार रहा था । उसने सोचा कि क्यों न किसी वैज्ञानिक की सहायता ली जाये । सबसे पहले वो एक शोध संस्थान के सबसे पुराने सिविल अभियांत्रिकी विभाग में गया । वहाँ एक वैज्ञानिक ने सुझाया कि मैं एक ऐसा ट्रैक बनाऊँगा जहाँ केवल तुम्हारा घोडा ही प्रथम आयेगा । लेकिन प्रतियोगिता वाले ट्रैक पर कुछ भी सुधार संभव न था । फ़िर वो सबसे नये जैव प्रोद्योगिकी विभाग में गया तो एक महिला वैज्ञानिक ने कहा कि चिन्ता की कोई बात नहीं है, मैं तुम्हारे लिये घोडे की ऐसी नस्ल विकसित करूँगी जो दौडने में अव्वल आयेगा लेकिन इस काम में १५ वर्ष लगेंगे । अन्त में निराश होकर वापस लौटने से पहले उसने सोचा कि क्यों न भौतिकी विभाग में भी किसी से कोई राय ले ली जाये । एक बडी दाढी वाले वैज्ञानिक ने बहुत देर तक उसकी बातों को सुना, तमाम सवाल पूछे और एक कागज निकालकर कहा कि सबसे पहले इस समस्या के लिये पूर्वधारणायें (Assumptions) नोट कर लेते हैं । उसने लिखा:

१) एक गोलीय घोडे की परिकल्पना करते हैं (Let us assume a SPHERICAL horse) !!!

बताने की आवश्यकता नहीं कि बेचारा घोडा वाला अपने बाल नोंचता हुआ भाग गया ।

मैं पिछले लगभग चार वर्षों से (पहले भारतीय विज्ञान संस्थान और अभी राइस विश्वविद्यालय) शोधकार्य में संलग्न हूँ । मैने वास्तव में गोलीय घोडों जैसी अवधारणायें मानकर महत्वपूर्ण विषयों पर शोधकार्य होते देखा है । कई बार ऐसी हास्यास्पद परिकल्पनायें वास्तविक जीवन की समस्याओं (Real World Problems) को सुलझाने में सक्षम होती हैं । Pure Science के क्षेत्र में भले ही आपको ऐसी अवधारणाओं की आवश्यकता न पडे लेकिन व्यवहारिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी (Applied Science and Technology) के क्षेत्र में लगभग रोज ही ऐसी अवधारणाओं पर शोधकार्य किया जा रहा है ।

इसके दो कारण हैं । पहला तो शोधकार्य करने के लिये समय और संसाधनों का दवाब जिसके चलते आपको जल्दी जल्दी शोधपत्र लिखने पडते हैं । बजाय इसके कि आप अपनी परिकल्पना की हर पहलू से जाँच परख कर सकें, आप हर छोटे मोटे परिणामों को छापते रहते हैं । दूसरा कारण है कि गोलीय घोडे की अवधारणा के बावजूद अगर आपका विचार मौलिक है तो इसे छापना बहुत महत्वपूर्ण है । आपके शोधपत्र के छपते ही देश/विदेश में बैठे अन्य वैज्ञानिक आपकी अवधारणा में अन्य जरूरी तत्वों का समाधान करके नयी परिकल्पना प्रस्तुत करेंगे । इससे समस्या का समाधान अपने आप ही निखरता रहता है ।

अभी कुछ दिन पहले ज्ञानदत्तजी ने विष्णुकांत शास्त्रीजी के बारे में लिखते हुये कहा था कि शास्त्रीजी के अनुसार,

१) “मैं जितना लिख सकता था. उतना लिख नहीं पाया.... इसका बाहरी कारण मेरा बहुधन्धीपन रहा....इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि अल्प महत्व के तात्कालिक प्रयोजन वाले कार्य ही अधिकांश समय चाट जाते रहे और स्थायी महत्व के दीर्घकालिक प्रकल्प टलते रहे. लेखन भी इन्ही प्रकल्पों के अंतर्गत आता है.

२) “इससे भी अधिक गुरुतर कारण मेरा भीतरी प्रतिरोध रहा है. मेरी पूर्णता ग्रंथि ने मुझे बहुत सताया है. गंभीर विवेचनात्मक लेख लिखते समय मेरा अंतर्मन मुझे कुरेद-कुरेद कर कहता रहा है कि इस विषय पर लिखने के पहले तुम्हे जितना जानना चाहिये, उतना तुम नहीं जानते, थोड़ा और पढ़ लो, इस विषय के विशेषज्ञों से थोड़ा विचार विमर्श कर लो, तब लिखो......


एक वैज्ञानिक की मानसिक स्थिति को इससे बेहतर तरीके से व्यक्त करना असम्भव है । अपने लिये जहाँ एक तरफ़ उसे एक दीर्घकालीन शोधकार्य की दिशा निर्धारित करनी पडती है । वहीं दूसरी ओर अल्पावधि में महत्वपूर्ण शोध समस्याओं पर भी ध्यान केंद्रित करना पडता है । इसके अतिरिक्त यदि आप किसी विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं तो प्रशासनिक (administrative) जिम्मेदारियों के साथ साथ अपने विद्यार्थी शोधार्थियों की सहायता के लिये समय अलग से निकालना पडता है ।

किसी भी विषय पर शोधकार्य करने के लिये उस विषय पर पहले से किये गये शोधकार्य की जाँच पडताल करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है । अब तो लगभग हर शोध प्रकाशन आनलाईन उपलब्ध है, लेकिन पहले ये कार्य अत्यधिक मेहनत वाला होता था । मेरी व्यक्तिगत राय है कि आज प्रोद्योगिकी के युग में बहुत से लोग Literature Survey को उतना समय नहीं देते जितना उसे देना चाहिये । केवल आनलाईन खोज करके आप अपने Literature Survey की इतिश्री नहीं मान सकते क्योंकि इसके लिये आपको शोधपत्रों का बारीकी से अध्ययन करके Cross Referencing करनी पडती है ।

इसमें भी एक समस्या है । जिस गति से शोधपत्र छप रहे हैं उसके लिहाज से आप कभी भी विषय पर पूरी जानकारी प्राप्त नहीं कर सकते । आपको कहीं न कहीं रेखा खींचनी पडेगी और अपना मौलिक कार्य प्रारम्भ करना पडेगा । एक अच्छे वैज्ञानिक को क्या करना चाहिये इसके बारे में वैज्ञानिकों में आपस में भी मतभेद हैं । कोई कहता है बिना समय व्यर्थ किये गोलीय घोडे की अवधारणा लेकर कार्य प्रारम्भ करना चाहिये और बीच बीच में अपनी अवधारणा को परिष्कॄत करना चाहिये । दूसरे लोग कहते हैं कि प्रारम्भ में पढने और Literature Survey में पर्याप्त समय लगाकर आप अपने लिये अच्छे दीर्घकालिक लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं ।

ये लेख जरूरत से लम्बा न हो जाये इसके लिये मैं एक वैज्ञानिक लुडविग बोल्ट्ज्मैन (Ludwig Boltmann) का उदाहरण देता हूँ । Boltzmann जब अपने "गैसों के गति सम्बन्धी सिद्धान्त (Kinetic Theory of Gases)" पर कार्य कर रहे थे तो उस समय के वैज्ञानिकों ने उनके कार्य को गम्भीरता से नहीं लिया । Boltzmann ने एक जगह लिखा था :

I am now convinced that these attacks are based completely on misconceptions and that the role of the kinetic theory in science is far from being played out ... In my opinion it would be a loss to science if the kinetic theory were to fall into temporary oblivion because of the present, dominantly hostile mood, as, for example, the wave theory did because of NEWTON'S authority.

I am conscious of how powerless the individual is against the currents of the times. But in order to contribute whatever is within my powers so that when the kinetic theory is taken up once again, not too much will have to be rediscovered.

सच में किसी भी मूलभूत खोज के लिये ऐसे ही दॄढ निश्चय और विज्ञान के प्रति जुनून की हद तक समर्पण की आवश्यकता होती है । ये विडम्बना ही थी कि ऐसे जुझारू Boltzmann नें १९०६ में अवसाद की स्थिति में आत्महत्या कर ली थी ।



नीरज रोहिल्ला
२१ जुलाई, २००७

रविवार, जुलाई 15, 2007

निरपेक्ष सोच/मत प्रचार और आम आदमी !!!

अधिकांश लोग मानते हैं कि मनुष्य में निरपेक्ष रूप से सोचने समझने की शक्ति है और प्रयास करके वो नीर-क्षीर करने में सक्षम है । इस कल्पना के केन्द्र में पूर्वधारणा (assumption) है कि किसी भी विषय पर ज्ञान/जानकारी मुक्त रूप से उपलब्ध है । मुक्त रूप से मेरा तात्पर्य है कि विषय के पक्ष और विपक्ष दोनों के लिये जानकारी बिना किसी भेदभाव के उपलब्ध है । यह एक आदर्श स्थिति है और ऐसी विषयवस्तु की केवल कल्पना ही की जा सकती है । जैसे ही इस आदर्श स्थिति से भटकाव प्रारम्भ होता है व्यक्ति की नीर-क्षीर करने की प्रवत्ति और क्षमता पर बाहरी कारकों का प्रभाव महत्वपूर्ण हो जाता है ।

किसी भी विषय पर मत प्रचार (प्रोपागेंडा) करने के लिये इन कारकों का शोषण करना पडता है । शोषण अर्थात जन सम्पर्क के माध्यमों पर अपना एकाधिकार बनाने का प्रयास करना जिससे कि दूसरी विचारधारा का गला घोंटा जा सके । मत प्रचार भी कई चरणों में किया जाता है । पहले चरण में विषयसामग्री बनायी जाती है । प्रोपागेंडा फ़ैलाने का सबसे महत्वपूर्ण नियम है कि विषयसामग्री विस्तारपूर्ण हो और अधिक से अधिक विचारबिन्दु दे । विचारबिन्दु विषय के बारे में कम और पढने वाले की मानसिकता/सोच और सांस्कृतिक विचारों को ध्यान में रखकर लिखे जाते हैं । प्रत्येक विचारबिन्दु अपने आप में अधूरा होता है, परन्तु यदि पढते समय आपके मन में संदेह न हो तो ऊपरी तौर पर आप इससे सहमत होते दिखते हैं । विचारबिन्दु आपस में असम्बद्ध (डिसकनेक्टेड) और मूल विषय से विसंगति लिये होते हैं । विषयसामग्री का विस्तार इसलिये आवश्यक है जिससे कि जागरूक पाठक प्रस्तुत किये तर्कों को सत्यापित करने का प्रयास न करे । पाठक को विश्वास में लेने के लिये अक्सर सर्कुलर रेफ़रेंसिग का प्रयोग किया जाता है । सर्कुलर रेफ़रेंसिग से आशय है कि बीस लेख अगर एक दूसरे का रेफ़रेंस दें तो हर लेख में कम से कम बीस रेफ़रेंस होंगे ।

एक बार मसौदा पूरा हो गया तब दूसरे चरण में इसको वितरित करने का कार्य किया जाता है, इसमें कार्यकर्ताओं/धन इत्यादि कि सबसे अधिक आवश्यकता होती है । इंटरनेट की क्रान्ति आने से ये कार्य थोडा आसान हो गया है । जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ आज हर कोई अपने को किसी भी विषय का विशेषज्ञ बता सकता है, अपना लिखा अगर आप peer reviewed जनरल/पत्रिकाओं में प्रकाशित नहीं कर सकते तो एक वेबसाईट खोलिये, अपनी पूरी सामग्री वहाँ पर रखिये और प्रचार प्रारम्भ कर दीजिये ।

प्रोपागेंडा फ़ैलाने के दूरगामी प्रभाव होते हैं । एक बार अगर आप अपनी बात फ़ैलाने में सफ़ल हो गये तो लोग जी जान लगा लें जन मानस से उसको निकालना बडा कठिन होता है । यही कारण है कि सैक्षिक/सैद्धांतिक अथवा व्यवसायिक, लगभग हर क्षेत्र में आपको प्रोपागेंडा दिखायी दे जायेगा (अगर आप देखना चाहें तो ) ।

ऐसे लेखों से बचने के उपाय:

१) अगर किसी विषय पर आपकी जानकारी कम है तो सन्तुलित/परिमित (Conservative) दिशा लेनी चाहिये । अर्थात अच्छे प्रकाशन की पुस्तक को किसी व्यक्तिगत लेख से ज्यादा तरजीह देनी चाहिये ।

२) अच्छी जानकारी जुटाने के लिये आलस्य न करें, किसी विषय पर शोध करने के लिये विश्वविद्यालयों के पुस्तकालय इंटरनेट पर की गयी सर्च से ज्यादा मुफ़ीद स्थान हैं ।

३) आइन्स्टीन के भौतिकी के अतिरिक्त किसी अन्य विषय पर लिखे लेखों को आँख मूंदकर सत्य मान लेना आत्महत्या जैसा होगा । अक्सर किसी एक विषय के प्रकाण्ड विद्वान दूसरे विषय में पक्षपाती (Prejudiced) हो सकते हैं इसीलिये अपने विवेक का प्रयोग करें ।

४) बहुत से लोग इतिहास/दर्शन/साहित्य/कला पर अपनी खुद को सोच को शोध का रूप देनें का प्रयास करते हैं । इन विषयों पर भी शोध करने के लिये विषय की पृष्ठभूमि और शोध कौशल की उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी कि भौतिकी अथवा गणित में शोध करने के लिये होती है।

इस लेख पर आप अपने विचार अपनी टिप्पणियों के माध्यम से बता सकते हैं ।

नीरज रोहिल्ला
१५ जुलाई, २००७

सोमवार, जुलाई 09, 2007

स्तरीय साहित्य से नयी पीढी को अवगत करायें !!!

मैं इस पोस्ट के माध्यम से सभी हिन्दी ब्लागर बंधुओं से एक निवेदन कर रहा हूँ । आशा है आप सभी यथासंभव सहायता करेंगे ।

हिन्दी साहित्य में मेरी जो भी रूचि है वो कक्षा ६ से लेकर १२ तक पढी हुयी (खूब रस लेकर पढी हुयी) पाठ्यक्रम की हिन्दी पुस्तकों की देन है । उन पुस्तकों के माध्यम से नामी हिन्दी लेखकों के नाम सुने, उनकी कालजयी रचनाओं के कुछ अंश पढे । अधिकांश नाम धीरे धीरे भूल गये लेकिन थोडा बहुत कुछ याद रह गया और साथ में जिन्दा रही स्तरीय हिन्दी रचनाओं को पढने के बाद के सुख की अनुभूति । उसके बाद तो हिन्दी साहित्य पढने का मौका बस ढूँढते ही रह गये और कुल चार-छ: पुस्तकें (मधुशाला, मुझे चाँद चाहिये, मॄत्युंजय आदि) ही पढ पाये ।

हिन्दी चिट्ठाजगत में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिन्होने उत्तम हिन्दी साहित्य का रसास्वादन किया है । अनूपजी ने राग दरबारी से अवगत कराया । उन्होनें उसके कुछ अंश एक चिट्ठे पर डाले और पढकर इतना अच्छा लगा कि आनलाइन सरकारी पुस्तकालय की साईट से उसको पूरा पढे बिना चैन न आया । हिन्दी विकीपीडिया पर भी काफ़ी समय बिताया और कुछ नये/पुराने लेखकों की रचनाओं का पता चला ।

अब मैं मुद्दे की बात पर आता हूँ और बताता हूँ कि मेरी आपसे क्या आकांक्षायें हैं ।

१) हमें अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर हिन्दी के कवि/लेखक/आलोचक इत्यादि की ऐसी सूची बनानी है कि जिसका प्रिंट लेकर व्यक्ति पुरानी दिल्ली की नयी सडक और चुनिन्दा जगह जाये तो हिन्दी किताबों के ढेर में से उस सूची की मदद से अच्छे साहित्य की खोज कर सके ।

२) हिन्दी लेखकों की वर्तमान पीढी की साहित्यिक गतिविधियों के बारे में जानकारी बतायी जाये । आखिर पता तो चले के वर्तमान पीढी के लेखक कौन हैं और वो कैसा साहित्य रच रहें हैं ।

३) आप अपनी पसन्द के लेखक/कवियों की सूची और उनकी कालजयी रचनाओं के बारे में अपना ज्ञान सभी से बाँटे ।

इस प्रकार की जानकारी को प्रकाशित करके यदि अक्षरग्राम सर्वज्ञ अथवा हिन्दी विकिपीडिया पर रखा जाये तो काफ़ी लोग इससे लाभान्वित हो सकते हैं ।

मैने अपनी बात को कम शब्दों में कहा है लेकिन आशा है आप मेरा अभिप्राय समझ गये होंगे । तो फ़िर देर किस बात की है, चालू हो जाइये अपने चिट्ठे पर या कहीं और भी अपनी पसन्द के साहित्यकारों के बारे में जानकारी बाँटने के लिये ।

ताज को वोट न देकर क्या बडा तीर मार लिया !!!

कोई कह रहा था कि प्रेम से ताज महल के लिये फ़टाफ़ट वोट करें;
किसी ने कहा कि ये ताज पर वोटिंग भी एक मुद्दा ही है;
कोई बोला नहीं देते ताज को वोट, का कल लोगे?
किसी को चिन्ता कि ताज के नाम पर देश लुटा जा रहा है;
कोई बोला कि मैं तो भोलेपन में ताज को वोट करके लुट गया;
किसी ने वोट न देने पर बधाईयाँ बाँटी;
और आखिर में किसी ने पूछा कि क्या वाकई ताज नंबर वन है?

हो सकता है एक-दो पोस्ट छूट गयी हो लेकिन हमारे ब्लागजगत में ये "ताजमहल की वोटिंग" भी एक मुद्दा ही था । मैं भी आज तक इसे एक मुद्दा ही समझ रहा था लेकिन अपने लैब से कालेज की पार्किंग लाट की ओर टहलते हुये सहसा लगा कि किसी ने हमें पुकारा । पलटकर देखा तो कोई नहीं था, हम फ़िर आगे बढे ही थे कि फ़िर आवाज आयी, "मूर्खराज, कहाँ जा रहे हो?" आजू-बाजू देखा तो कोई नहीं था फ़िर गौर से सुना कि आवाज अंदर से ही आ रही थी । क्या मेरा अन्तर्मन स्वयं को मूर्खराज कह रहा था ? जी हाँ, सत्य तो यही था कि मैं स्वयं को मूर्खराज महसूस कर रहा था ।


आप सोच रहे होंगे, कि पक्का मैने भी ताज को वोट दिया होगा और इसका अफ़सोस अब हो रहा होगा कि मैं इत्ता बडा मूर्ख कैसे बन गया । बिल्कुल गलत । मैने ताज को वोट नहीं दिया और इस कारण मैं स्वयं को बेवकूफ़ समझ रहा था । चलिये थोडा विस्तार में समझाते हैं ।

मान लीजिये कि हमें ताज को वोट करना होता तो हम क्या करते । एक झटके में वोटिंग वाली वेबसाईट खोलते, दूसरे झटके में रजिस्टर होते, और तीसरे झटके में वोट डाल देते । जेब से आठ आने भी खर्च न होते (भाई, स्कूल में मुफ़्त का इंटरनेट है और घर वाले इंटरनेट के लिये हर महीने पैसे दे ही रहे हैं), कौन सी बडी बात हो जाती । मन खुश रहता थोडी देर, और जब भी वोटिंग की बात चलती हम टुन्नाकर कहते भईया हम तो पहले ही वोट डाल चुके हैं । आते जाते चार लोगों को और बता देते कि तुम भी वोट डाल आओ ।

हमने वोट न डाला, उससे क्या हुआ ? एक तो मन में जिद (थोडा गुस्सा भी) थी कि वोट करेंगे तो बिना रजिस्टर किये और अपने ईमेल पते से किसी को कमाई न करने देंगे । इस जिद में थोडा खून जला क्योंकि मन तो कर ही रहा था वोट करने का । फ़िर जब जब वोट करने के लिये फ़ारवर्ड ईमेल के जरिये संदेश आये, थोडा खून फ़िर जला कि कैसे बेवकूफ़ लोग हैं जरा भी नहीं समझते कि कोई इन्हे उल्लू बना रहा है । फ़िर अगर किसी ने गलती से टोक दिया कि भईया वोट डाला कि नहीं तो हमारे शरीर में काटो तो खून नहीं ।


ध्यान दीजिये कि दिन में कम से कम ६०-८० ईमेल आती हैं, कम से कम (नहीं बतायेंगे कि कितना समय) इंटरनेट पर फ़िजूल बिताते हैं । बीसियों स्पाम ईमेल आती हैं, इसका मतलब मेरा ईमेल पहले ही नीलाम हो चुका है । अब ऐसे में जब अठन्नी भी खर्च न होनी थी, तो वोट न करके मैने और कुछ और लोगों ने कौन सा तीर मार लिया ?

मान लीजिये कि ताज को वोट करने में देशवासियों के ४-६ रूपये खर्च भी हो जाते तो क्या होता ? जो पहले से जेब में ५०००-१५००० का मोबाइल धरे घूम रहा है, ४-६ रूपये अगले नुक्कड पर गुटखे में खर्च कर देता या कोक/पेप्सी पी लेता तो उसका स्वास्थ्य भी तो खराब होता । होता कि नहीं? वो तो तब भी बेवकूफ़ बनता है जब १० रूपये की काफ़ी कैफ़े डे में २०० रूपये में पीता है । क्या तब वो बेवकूफ़ नहीं बनता जब वो दिन भर घर पर स्कूल से भागकर क्रिकेट देखता है ?

जब हम दिन में हजार बार बेवकूफ़ बन ही रहे हैं तो हमने मुफ़्त में या ४-६ रूपये खर्च करके अपना आत्मसम्मान बढाने या फ़िर फ़ील गुड करने का एक मौका खो दिया । वो तो अच्छा हुआ कि मेरे वोट के बिना भी ताजमहल सात अजूबों में शामिल हो गया वरना पता नहीं कितने दिनों ये दुख कलेजा दुखाता रहता ।

किसी ने सही ही कहा है, फ़ालतू कि बात में ज्यादा दिमाग न लगाना चाहिये ।

आप कैसा महसूस कर रहे हैं, क्या आपने वोट दिया था ?
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जो लोग अब भी आधारभूत सिद्धान्तों, व्यक्तिगत सोच, वैचारिक तर्क और ब्ला, ब्ला, ईटा, बीटा, न्यू, गामा आदि तर्क देकर खुश हो रहे हों, उन्हे साधुवाद । आप बहुत बडा दुख झेलने से बच गये । वरना मेरे लिये आज की रात तो बस बोतल का ही सहारा है :-)

रविवार, जुलाई 08, 2007

चल के दो कदम जो निकला बस्ती से बाहर !

गुस्ताखी माफ़, आज बहुत दिनों के बाद फ़िर से काव्य का रूख किया है । यूँ ही बेतरतीब लफ़्जों को छापते में थोडी शर्म भी हो रही है ।

चल के दो कदम जो निकला बस्ती से बाहर,
मुर्दा बदन को किसी ने छू लिया हो जैसे ।
सुरमई सूरज से महकती मिट्टी की सौंधी खुशबू,
बारिश से धुली शाखों पर दमकते पत्ते,
और उन पत्तों पर जिन्दादिल चिडियों का शोर ।

मेरी लाचारी को रुक कर ताकती दो गिलहरियाँ,
फ़िर भागकर गुम होती शाखों की हरियाली में ।
मानो नन्हें हाथों से मुझे ही बुला रही हों,
कि आओ कुछ बात करें, कुछ बात करें ।

बोलने की ख्वाहिश में गले तक उमडे गूंगे जज्बात,
सीने में अटकी सांसो में जाने क्यों खो जाते हैं ?
कभी बोलना इतना भी दुश्वार नहीं था ।

आँखो की जुबान होती है, मैने तो नहीं सुनी,
बन्द बोझिल थकी आँखे भी कुछ बोलती हैं क्या?
जज्बातों को भी आवाज की बैसाखी चाहिये ।

ये खामोशी, ये सच्चाई अब बर्दाश्त न होगी,
झूठ छुप नहीं पाता, तार तार हो जाता है,
बेहतर है फ़िर से बस्ती का ही रूख करें ।

नीरज रोहिल्ला,
८ जुलाई, २००७

बुधवार, जुलाई 04, 2007

रसोई: कुछ अनुभव, भ्रम/भ्राँतियाँ, वास्तविकता/छल

भारतीय परिवारों में रसोई महिलाओं का अधिकार क्षेत्र माना जाता रहा है । और महिलाओं ने भी अपने इस अधिकार क्षेत्र की सुरक्षा के लिये कोई कसर नहीं उठा रखी है । खाना बनाने को एक बडी ही कठिन कला समझा जाता रहा है और महिलाओं ने भी इस गलतफ़हमी को दूर करने की कभी कोई चेष्टा नहीं की । और करें भी क्यों जब कोई हमसे कहता है कि पी.एच.डी. करना बडा कठिन है तो हम भी बस मुस्कुरा देते हैं और प्रार्थना करते हैं कि कहीं पोल न खुल जाये । बहुत सारे सरकारी अफ़सरों की अफ़सरी इसी में चलती है कि बस लोगों तो लगता रहे बडा तनावपूर्ण काम है और अगर कार्य थोडा धीमी गति से हो रहे हैं तो इसका कारण है कि उन मुद्दों पर व्यापक सोच विचार चल रहा है ।

जब तक हम भारत में रहे हमारा रसोई में प्रवेश निषिद्ध रहा । हमारा रसोई में घुसते ही माताजी का कहना कि "अरे फ़िर चप्पल पहनकर आ गये !" और कुछ छूने से पहले हाथ धोने का आग्रह हमें रसोई से दूर करता गया । विद्यालयों में पढाई के दौरान "छात्रावास मैस" के भोजन के अनुभवों ने ये मानने पर बाध्य कर दिया कि शायद खाना पकाना बडा ही दुष्कर कार्य है और संभवत: पुरूष ये काम नहीं कर सकते ।

अपने घर और देश से दूर जाते समय हमारी माताजी ने भी कहा था, "हाय राम! इस लडके को तो पानी उबालना भी नहीं आता, इसका क्या होगा ।" पिताजी ने सान्त्वना दी कि बहुत लडके घर से बाहर रहते हैं, कुछ न कुछ सीख ही जायेगा । उस बात को कई साल बीत गये हैं और आज रसोई पर मेरे विचार कुछ भिन्न हैं ।

इससे पहले कि हम रसोई पुराण के कच्चे चिट्ठे खोलें और आपके रसोई सम्बन्धी कुछ भ्रम दूर करें, एक नजर डालते हैं कुछ चित्रों पर; मैने कल १२ लोगों के लिये भोजन पकाया था और ये सभी भोजन ३ घंटे के रेकार्ड समय में तैयार किया गया था । इस भोजन में किसी भी शार्ट कट का प्रयोग नहीं किया गया था और आलू/प्याज/टमाटर/सब्जी सब अपने इन्ही दोनों हाथों से काटी/छाँटी गयी थी ।

(मटर पनीर)

(राजमा)


(आलू टमाटर मटर)

(वैजी बिरयानी, सादा चावल)


(और किसी शक/शुबहे की गुंजाइश न बचे, इसलिये सारे व्यंजन एक साथ )

मेहरबान, कदरदान, साहेबान दिल थाम कर बैठिये क्योंकि आज हम रसोई पर किये अपने शोध के परिणाम आपके सामने रख रहे हैं । इस शोधपत्र द्वारा हम जनसामान्य के मानसपटल पर अंकित कुछ भ्राँतियों को दूर करने का प्रयास भी करेंगे ।

महिलाओं का किसी भी व्यंजन की रैसिपी को छुपा कर रखना, ये न बताना कि धनिया/मिर्च/जीरा/हल्दी आदि कितनी मात्रा में पडता है बल्कि ये कहना कि ये तो अंदाज से डाला जाता है और ये अंदाज वर्षों की मेहनत/परीक्षण का फ़ल है ।
ये कथन पूर्णतया असत्य है । चाहे तो २४ के फ़ान्ट में बोल्ड करके रसोई में चिपका लें । भारतीय मसालेदार भोजन में पडने वाले मसालों की एरर एनालिसिस (Error Analysis) के परिणाम और हर मसाले की एररबार (Errorbar) इस प्रकार हैं ।

अ) धनिया : इसकी मात्रा कुछ खास फ़र्क नहीं डालती है, १ चम्मच की जगह अगर तीन भी डाल दें तो फ़िनिश्ड प्रोडक्ट पर इसका असर बताना नामुमकिन है ।

ब) हल्दी : इसकी मात्रा में ५० प्रतिशत तक फ़ेरबदल किया जा सकता है । कम हल्दी डालेंगे तो रंग अच्छा नहीं आयेगा और ज्यादा डाल दी तो उसको थोडा पक जाने दें । फ़िनिश्ड प्रोडक्ट पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा ।

स ) मिर्च : इसमें थोडा संयम की जरूरत है लेकिन जिस प्रकार कैमिस्ट्री के टाइट्रेशन वाले प्रयोग में पिपेट से धोरे धीरे रसायन छोडा जाता है, यहाँ पर भी उसी विधि का प्रयोग करें ।

द) गरम-मसाला: २० से ३० प्रतिशत तक घोटाला यहाँ भी आराम से चल सकता है ।

न) नमक : इसके बारे में तो आप स्वयं जानते हैं, स्वाद-अनुसार

च ) जीरा : १०० प्रतिशत तक फ़ेरबदल कर सकते हैं, जरा ध्यान दें कि जीरा जलकर कडवा न हो जाये ।

छ ) अमचूर/खटाई : नमक की मात्रा में फ़ेरबदल करके इसमें भी ५० प्रतिशत तक का घोटाला किसी को पता नहीं चलेगा ।

लगभग हर सब्जी/दाल/राजमा की सार्वत्रिक "नीरज विधि":

१) तेल गरम करके उसमें जीरा डाल दें ।

२) बारीक कटी हुयी प्याज धीमी आंच पर तलें ।

३) अगर सब्जी में शिमला मिर्च/गोभी/बैंगन आदि हैं तो इस समय डाल सकते हैं । (दाल/राजमा) बनाने के लिये इस चरण को स्किप करें ।
नोट : आलू बहुत जल्दी पक जाते हैं इसलिये थोडी देर से डालें ।

३) सभी मसाले अपने स्वाद अनुसार डालकर थोडी देर पक जाने दें ।

४) बारीक कटे हुये टमाटर डाल कर थोडी देर पकने दें ।
नोट: टमाटर को धीमी आंच पर पकने दें और इनका पकना महत्वपूर्ण है । अगर टमाटर कच्चे रह गये तो फ़िनिश्ड प्रोडक्ट में वो मजा नहीं आयेगा ।

५) दाल/राजमा बनाने के लिये इस समय पहले से उबली हुयी दाल राजमा (पानी समेत) इस मिश्रण में डाल दें ।

६) आंच को बिल्कुल ही धीमा कर दें और थोडी ही देर में आपके व्यंजन तैयार हैं ।

नोट: इस पूरी विधि को परफ़ेक्ट करने के लिये केवल दो-तीन बार के अनुभव की आवश्यकता है ।


आपदाकालीन टिप्स/ट्रिक्स:

१) अगर नमक ज्यादा पड गया है तो चिन्ता की जरूरत नहीं है । आहिस्ता से सब्जी का मसालेदार पानी निकालकर गर्म सादा पानी मिला दें, मसालों के नुकसान की पूर्ति के लिये एक अलग पात्र में गर्म तेल में मसाले पकाकर पुरानी सब्जी में मिला दें ।

२) सब्जी बनाते समय पात्र के मुंह को खोलकर रखें और जैसे जैसे पानी कम होता रहे पानी मिलाते रहें । इस विधि में समय थोडा अधिक लगता है लेकिन सब्जी खराब होने की प्रायिकता लगभग समाप्त हो जाती है ।

३) भिंडी बनाते समय प्याज बारीक न काटकर लम्बी काटें; सब्जी अधिक प्रभावी दिखेगी ।


चलिये, हमें जितना कहना था हम कह चुके । इस पोस्ट पर आपकी टिप्पणियों की सबसे ज्यादा जरूरत है और आप ही नहीं आपकी श्रीमती जी (जो श्री विवाहित हैं :-) ) की इस पोस्ट पर क्या राय है हम ये भी जाननें के इच्छुक रहेंगे ।

इस पोस्ट के लिखने में महिलाओं के अधिकार क्षेत्र में अगर गलती से थोडा ज्यादा अतिक्रमण कर दिया हो तो इसके लिये क्षमाप्रार्थी हूँ ।

साभार,
नीरज रोहिल्ला