सोमवार, फ़रवरी 04, 2008

केवट संवाद:पं छन्नूलाल मिश्राजी की आवाज में

मेरी पिछली पोस्ट (विभीषण गीता) को आप सभी ने पसन्द किया इसके लिये बहुत आभार । इसी कडी में प्रस्तुत है "केवट संवाद", इसमें पंडितजी पहले श्रीरामचरितमानस की चौपाईयां सुनाते हैं और उसके बाद लोकभाषा पर आधारित एक भजन सुनाते हैं ।

मैं हिन्दी विकीपीडिया के सौजन्य से श्रीरामचरितमानस के अंश उद्धरित कर रहा हूं ।

बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए।।
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई।।
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई।।
तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई।।
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू।।
जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू।।
छं 0- पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं।।
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं।।
सो 0- सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन।। 100 ।।
कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई।।
वेगि आनु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू।।
जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।
पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी।।
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा।।
अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा।।
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं।।
दो 0- पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार।। 101 ।।
–*–*–
उतरि ठाड़ भए सुरसरि रेता। सीयराम गुह लखन समेता।।
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा।।
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी।।
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई।।
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा।।
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी।।
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें।।
फिरती बार मोहि जे देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा।।
दो 0- बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ।। 102 ।।



लोक भाषा पर आधारित भजन:(स्मृति से)


मैं न लिहूं प्रभू तेरी उतराई,

कनक मुद्रिका देत दयानिधि, ले निषाद आपन उतराई

छल बल करत छुअत नाहीं कर से, कोटि उपाई करत रघुराई ।
 

 

मैं न लिहूं प्रभू तेरी उतराई,

हमरे कुल की रीति दयानिधि, सन्त मिले तो करबि सेवकाई,
रीति छोड अनरीति न करिहों, सत्य कहहुं मोहिं राम दुहाई ।
मैं न लिहूं प्रभू तेरी उतराई,

जन्म जन्म भर कीनि मजूरी, सो विधि न दीनी भरपूरी
अब तो नाथ नाहिं कछु चहिये, दीनानाथ अनुग्रह तेरी ।
मैं न लिहूं प्रभू तेरी उतराई,

आज नाथ हम कुछऊ न लेनी, लोग कुटुंब सब पारस कीन्हि
फ़िरथि के बिरिया जो कछु दीन्हि, सोई हम लेबे सीश चढाई ।
मैं न लिहूं प्रभू तेरी उतराई,

नदी नाव के हमहीं खेवइया, औ भवसागर के श्री रघुराई
तुलसीदास यही वर मांगू, उहवां ना लागे प्रभु मेरी उतराई ।
मैं न लिहूं प्रभू तेरी उतराई,


जांति पांति न्यारी हमारी न तिहारी नाथ
कह वेको केवट हरि निश्चय विचारिये ।
तू तो उतारो भवसागर परमारथ को
मैं तो उतारूं घाट सुरसरी किनारे को ।

नाई से न नाई ले, धोबी न धुलाई लेत
तेरे से उतराई ले, कुटुंब से निकालिहों
जैसे प्रभु दीन बंधु तुमको मैं उतारेओं नाथ
तेरे घाट जाऊं नाथ मोको भी उतारिहों ।
अरे, उहवां ना लागे प्रभु मेरी उतराई ।
मैं न लिहूं प्रभू तेरी उतराई,

रविवार, फ़रवरी 03, 2008

ज्ञानजी की पुरानी पोस्ट के सन्दर्भ में विभीषण गीता!!!

ज्ञानदत्त पाण्डेयजी ने एक बार अपनी एक पोस्ट "जीवन मूल्य कहाँ खोजें" में कहा था: रामचरित मनस के उस प्रसंग को कौन खोज रहा है जिसमें राम कहते हैं कि वह रथ कोई और है जिसपर आरूढ़ होकर विजय मिलती है -

सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।। सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।

आइये; अतीत की पुनर्कल्पना करें। वर्तमान स्थिति में राम-रावण संग्राम हो तो राम हार जायेंगे क्या? दुर्योधन भीम की छाती फाड़ कर रक्त पियेगा? द्रौपदी वैश्या बनने को मजबूर होगी? अर्जुन कृष्ण की बजाय शल्य को अपना सारथी और शकुनि को सलाहकार बनाना पसन्द करेगा? मां सीता मन्दोदरी की सखी बन जायेंगी? पाण्डव नारायणी सेना को ले कर महाभारत मे‍ जायेंगे - कृष्ण का साथ नहीं मागेंगे? गीता को पोर्नोग्राफी की तरह बैन कर दिया जायेगा या फ़िर संविधान संशोधन से "यत्र योगेश्वर: कृष्णौ" को उसमें से निकाल दिया जायेगा?

यूँ तो ज्ञानदत्तजी अपने कई लेखों में रामचरितमानस के बारे में लिख चुके हैं लेकिन इस प्रसंग को पहले भी पढ/सुन चुका था इसलिये इसने लम्बा असर किया । इतना लम्बा कि इतने महीनों के बाद भी मुझे याद रहा और मौका मिलते ही मैं इसके बारे में लिख रहा हूँ । ज्ञानदत्तजी के इस मूल्यवान प्रश्न का अपने सन्दर्भ से उत्तर मैं थोडा रूककर दूँगा लेकिन आपको पं छ्न्नूलाल मिश्राजी की आवाज में विभीषण गीता सुनवानें का लोभ मैं रोक नहीं सका ।

ये थोडी लम्बी अवधि का गीत (~२० मिनट) का आडियो है लेकिन पण्डितजी की आवाज और श्रीरामचरितमानस दोनों बाँधकर रखते हैं । नीचे हिन्दी विकीपीडिया के सौजन्य से इस प्रसंग को श्रीरामचरितमानस से उद्धरित भी कर दिया है ।

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।। अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।। नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।। सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।। सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।। बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।। ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।। दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा।। अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।। कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा।। सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।। दो0-महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर। इसके अलावा पण्डितजी की आवाज में केवट संवाद भी है जो मुझे बेहद प्रिय है । समस्या केवल यही है कि उसका आडियो भी लगभग २४ मिनट का है । यदि आप सभी को इतना लम्बा आडियो सुनने में कोई समस्या नहीं है तो मैं उसको भी पोस्ट करना चाहूँगा । फ़िलहाल आप विभीषण गीता सुनें और अपने मन वचन और कर्म को इसकी कसौटी पर कस कर देखें । नीरज रोहिल्ला, ३ फ़रवरी २००८