मंगलवार, अप्रैल 29, 2008

एक ठुमरी और तीसरी कसम का गीत संवादों के साथ बोनस में !!!

आजकल समय कम होने के कारण संगीत पर पोस्ट ठेलना ज्यादा आसान लगता है । फ़टाफ़ट काम हो जाता है और आपकी शुभकामनायें मिलती हैं, वो अलग :-)

पहला गीत: भैरवी राग (तीन ताल) में एक ठुमरी है जिसे पण्डित अजय पोहनकर ने गाया है । ठुमरी के बोल हैं, "कैसी ये भलाई"


दूसरा खास बोनस गीत फ़िल्म तीसरी कसम का है । इसकी खासियत है कि गीत के बीच बीच में राज कपूर साहब की आवाज में संवाद । मेरा दावा है कि इसे सुनकर आपको फ़िल्म की याद आ जायेगी ।








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बुधवार, अप्रैल 23, 2008

दिल को छू लेने वाली कहानी !!!

इस कहानी को तकरीबन एक साल पहले कहीं पढा था, अब तो वो वेबसाईट भी याद नहीं जहाँ इसे पढा था । ये अच्छा हुआ कि इसे सहेजते समय लेखक का नाम भी लिख लिया था जिससे इसे आज पोस्ट करने की हिम्मत कर रहा हूँ । इसके लिये मैने लेखक से अनुमति नहीं ली है परन्तु यदि किसी को इससे आपत्ति हो तो मुझे सूचित करें । मैं इसे तुरन्त अपने चिट्ठे से हटा लूँगा ।

ये कहानी थोडी लम्बी अवश्य है लेकिन आपके धैर्य का आपको भरपूर फ़ल मिलेगा, ऐसी मेरी आशा है ।

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आतिथ्य
प्रीतीश आचार्य
रूपांतर : आयुष्मान गोस्वामी


रसानंद बाबू को अपने पर गुस्सा आ रहा था। मिस्त्री की बात मान ली होती तो यह दुर्दशा नहीं होती। कल जब साइकिल में हवा भरवाने गये थे तब उसने कहा थाज्ञ् `जल्द ही टायर बदलवा दीजिए।' एक ही दिन में उसकी बात सच निकली, तेज़ आवाज़ के साथ ट्यूब फट गया। कम से कम सुबह घर से निकलते समय फटा होता तो साइकिल ठीक करके निकलते या फिर निकलते ही नहीं। अब क्या करें? उनकी नज़र कलाई पर बंधी घड़ी पर पड़ी, सोचने लगे ग्यारह बज रहे हैं, यहां से पदमपुर साइकिल से जाओ तो पूरा एक घंटा। पैदल चलो तो तीन घंटे से कम नहीं लगेंगे। ऊपर से साइकिल ठेलना होगा। जब विपदा उपस्थित होती है तो जाने क्यों धूप का प्रकोप बढ़ जाता है और दूरी भी। सारी स्थिति की कल्पना करते हुए रसानंद बाबू के पांव थम से गये। प्यास के मारे गला सूखने लगा।


रसानंद बाबू ने पीछे मुड़कर देखाज्ञ् एक औरत चली आ रही है। उसकी चाल से उन्हें लगा कि मानों वह उन तक पहुंचना चाहती हो। खेत से लौट रही है, पति के लिए नाश्ता लेकर गयी थी। वहीं कुछ देर पति के साथ काम किया होगा और अब लौट रही है। पति से पहले उसे घर पहुंचना होगा। भात भी बनाना है, बच्चे इंतजार कर रहे होंगे। औरत के सिर पर एक परात थी जिस पर पलाश के कुछ पत्ते, दो-चार खजूर के दातुन, साथ में मुट्ठी भर जलावन लकड़ी जो चूल्हा जलाने के काम आयेगी। उस औरत के साथ बिना कोई बात किये रसानंद बाबू ने यह सब अनुमान लगा लिया। अनुमान लगाते हुए उनके चेहरे पर एक क्षीण मुस्कराहट दौड़ गयी। मुस्कराहट ने उनका कष्ट कुछ कम कर दिया। जासूसी उपन्यास में इसी तरह जासूस कई बातें जान लेता है, बिना कुछ पूछे, पहली मुलाकात में ही, किसी ज्योतिषी की तरह। बचपन में उन्होंने बहुत सारे जासूसी उपन्यास पढ़े थे। मन में दबी हुई इच्छा भी थी जासूस बनने की। क्या पता मौका मिलता तो शायद बन भी गए होते। फोन पर फोन करते। हुक्म तामील करने के लिए हमेशा सहायक मौजूद रहते।


लेकिन पता नहीं, क्या सोचकर वे मलेरिया विभाग में घुस गए। धेले भर की आमदनी नहीं। महीने भर तनख्वाह का इंतज़ार करो, कर्ज चुकाओ। उस पर रोज़ दस-बीस मील की साइकिल यात्रा और रास्ता भी ऐसा कि साइकिल का एक पंचर बनवाने के लिए कोई मिस्त्री न मिले। इतना सब सोच चुके थे रसानंद बाबू कि वह औरत उनके बराबर में चलते दिखाई दी। `मां, तुम्हारे गांव में कोई साइकिल की दुकान तो नहीं है?' रसानंद बाबू को पता है, आस-पास कोई साइकिल की दुकान नहीं है। कुछ दिन पहले किसी ने बताया तो था, साइकिल का बालबेरिंग किसी ने अपनी स्वदेशी बुद्धि से ग्रीस के बदले लकड़ी का गुड़ लगाकर सेट किया था। सुनकर रसानंद बाबू भी खूब हंसे थे। आज उन्हें लग रहा था साइकिल का पंचर सुधारने का ऐसा ही कुछ स्वदेशी उपाय होता तो इस प्राणांतक धूप से छुटकारा मिल जाता। `न इस गांव में तो कोई नहीं है। सीधे पदमपुर जाना पड़ेगा।' कहते हुए उस औरत ने रसानंद बाबू का सपना तोड़ा और पूछाज्ञ् `तुम्हें कहां तक जाना है, काका!' उसकी बातों से लगा वह रसानंद बाबू की विपदा से दुखी है। कोई बीस-बाईस साल की उम्र होगी उस औरत की, रसानंद बाबू की छोटी बेटी के बराबर। शादी को चार-पांच साल हो गये होंगे, उसके एक-दो बच्चे भी हो चुके होंगे। `मां' के बदले बेटी संबोधित किया जाता तो शायद ज्यादा फबता। पर, एक लड़की अपने जन्म से मृत्यु तक मां ही तो रहती है। शादी से पहले मां-बाप-भाई की सेवा, शादी के बाद पति-पुत्र की सेवा और बुढ़ापे में नाती-नातिन की सेवा। बिना किसी प्रति-उपकार के सारा जीवन सेवा करना ही मानों उसका धर्म है। मां के अलावा कौन करेगा इतनी सेवा? बदले में उसे मिलता क्या है! बेचारी तरसती रहती है पूरी ज़िन्दगी दो टूक स्नेह और संबोधन के लिए। यहां मिलेगा। न, न यहां नहीं, वहां। या फिर और कहीं। इसी तरह के विचारों से रसानंद बाबू का मन करुणा से द्रवीभूत हो गया। वे आत्म-समीक्षा करने लगे। खुद उन्होनें भी क्या दिया है, वह स्नेह और श्रद्धा भरा संबोधन!


`काका! पदमपुर तक जाओगे?' पहले प्रश्न का जवाब न मिलने पर औरत ने एक बार फिर पूछा। `हां, मां!' इतना कहने के बाद सदानंद बाबू का मन आत्म-दया से भर गया। उन्हें लगा जैसे आंखों से आंसू निकल आएंगे। भरी धूप में साइकिल घसीटते-घसीटते वे अब पदमपुर तक जाएंगे। बचपन में शरीर पर कहीं चोट आने पर, मां के सहलाने के बाद जैसे वे रोया करते थे, आज न चाहते हुए भी उन्हें वैसे ही रोने का मन करने लगा। इतने में औरत पूछ बैठीज्ञ् `क्या तुम पदमपुर में नौकरी करते हो काका, तुम्हारा अपना घर कहां है?'
`बुटोमाल!' रसानंद बाबू ने कहा। `घेंसबुटोमाल'।
`हां'
`मेरी भाभी भी तो बुटोमाल की बेटी है। तुम जानते होगे। झांकट घर की। केतकी। उसकी और मेरी एक ही लगन में शादी हुई थी। इस आषाढ को चार साल हो जाएंगे।' लड़की जैसे संबंध जोड़ने के लिए उतावली हो रही थी। रसानंद बाबू को अपनी बेटी की उम्र में रखने के बाद वह औरत एक छोटी बच्ची से ज्यादा बड़ी नहीं लग रही थी। एक बातूनी, बार-बार सवाल करने वाली, जो जवाब न मिलने तक चुप न रहती हो। तीन-चार साल की छोटी-सी लड़की।
`अच्छा, अच्छा, कहीं तू समारू की बेटी की बात तो नहीं कर रही है? वह जो तालपाली में ब्याही है। चार लड़कों में एक लड़की। अच्छी लड़की है।' रसानंद बाबू ने कहा।
अब रसानंद बाबू और लड़की बराबर साथ-साथ चल रहे थे। दोनों में बातचीत का विषय थाज्ञ् केतकी और उसका बाप समारू। बाप के मरने के बाद पांचवी कक्षा में समारू की पढ़ाई छूट गई। रसानंद बाबू का यजमान है उसका परिवार। गांव छोड़ने के साथ-साथ रसानंद बाबू का यजमानी से भी नाता छूट गया। अब ये सब काम चाचा के लड़के देखते हैं। पर अपनी बेटी की शादी में समारू नहीं माना, `पंडित, चार बेटों में एक ही बिटिया है। तू जब तक पोथी नहीं पढ़ेगा, उसकी शादी नहीं होगी।' रसानंद बाबू शादी में पदमपुर से आये थे। जवांई देखने में लोहे के मूसल की तरह, सांवला, सख्त, मुंह एकदम गोल, शरीर काफी गढ़ा हुआ। इस सब का जाकर पत्नी से भी जिक्र किया था। उसी लड़के की बहन है यह लड़की।


`हमारी बेटी को ठीक तरह से रखा है न तुम्हारे दादा ने?' रसानंद बाबू ने इस आग उगलती धूप में थोड़ा मजाक किया। `लड़की' के साथ बातचीत करते हुए धूप का प्रकोप कुछ कम-सा लगा। अब आ गया है उसका गांव जहां वह रुक जाएगी। उसके बाद कष्ट झेलना होगा। रसानंद बाबू ने मन ही मन आशंका की।
`काका! जब मैं तुम्हारी बेटी जैसी हूं तो एक बात कहूंगी, तुम मना मत करना।' लड़की ने अपने गांव का रास्ता पकड़ने से पहले कहा।
`बोलो मां', रसानंद बाबू ने पूछा।
`तुम इस भरी धूप में मत जाओ। मेरे घर में दोपहर में रह जाओ। इतनी धूप है, क्या पता कुछ हो जाए तो?'
`न रे मां! घर पर तेरी काकी मेरा इंतजार कर रही होगी। फिर मुझे ऑफिस भी जाना होगा।' रसानंद बाबू के तर्क बनावटी नहीं हैं। गरमी में ज़रा सी देर हो जाने पर पत्नी घर से बाहर, बाहर से अन्दर होती रहती है। बेटियों की शादी के बाद बेचारी घर पर अकेली रह नहीं पाती है। सूना घर जैसे उसे खा जाता है। पर उससे भी बड़ी बात है कैसे वे किसी के यहां मेहमान हो जाएं। दो मिनट तो हुए इस परिचय को। दूसरी तरफ मन कर रहा था कुछ देर रुक जाने को। इन दिनों बूढ़ों के लिए लू से बड़ा यम कोई नहीं है। प्राण रहे तो सब ठीक है। एक ओर प्रचंड धूप का प्रकोप, दूसरी ओर लड़की का स्नेह भरा निमंत्रण।


`काका! हमें तुम छोटी जात का गरीब मानते हो तो बात अलग है। नहीं तो तुमको इस भरी दोपहर में जाना नहीं चाहिए। मेरी भाभी के तुम जब काका हो तो मेरे भी तो काका हुए। मैं तुम्हारी अपनी बेटी होती तो क्या तुम इस तरह चले जाते।' लड़की की बातों में आत्मीयता थी, साथ था कुछ अभिमान। पर उससे भी ज्यादा था मन में यह डर कि रास्ते में बूढ़े को लू लग जाए तो, आखिर पाप तो उसे ही लगेगा न। उपन्यास के जासूस की तरह रसानंद बाबू ने लड़की के मन की बातों को ताड़ लिया। सोचने लगेज्ञ् क्या उम्र है इसकी अभी! स्कूल का मुंह तो शायद इसने देखा भी नहीं होगा। पर, कितनी समझदारी है इसमें। कितनी चालाकी से इसने मुझे अपना कर लिया है। हो सकता है यह मेरे मन की बात को भी जान चुकी होगी। दोपहर की धूप में साइकिल ठेलते हुए बूढ़े में पदमपुर तक जाने की न ताकत है और न ही आग्रह।


`ना रे मां! मैं तो कुछ और सोच रहा था। एक तो तेरे सास-ससुर का घर और अब तू खेत से लौट रही है। घर पर कितने सारे काम पड़े होंगे। उसके ऊपर मेरा बोझ।' रसानंद बाबू ने कहा।
`क्या बात करते हो तुम काका। मेरे बाप-काका आते तो मैं क्या भगा देती। वैसे भी मेरे सास-ससुर अपनी बेटी के यहां गये हैं। कल लौटेंगे। तेरा जंवाई बेचारा कितना खुश होगा, तुम्हें देखकर और अगर तुम दो घड़ी रहोगे तो मुझे कौन-सा कष्ट है। तुम तो ठहरे बाम्हन जात। मैं चूल्हा जला दूंगी, तुम भात उतार लेना। मुझे कौन-सा काम करना पड़ेगा।
अंतत: रसानंद बाबू लड़की के घर गए। उन्हें लगा, जैसे दूसरे लोक से उनकी मां लौट आयी है। तेज़ धूप में बच्चे को किसी तरह बचाना है। पेट भर खिलाना-पिलाना है। लड़की का छोटा-सा घर, दो ही कमरे। आधी छत खपरैल की, बाकी घास-फूस की। आंगन में मिट्टी की हंडिया में पानी रखा है। रस्सी की एक चारपाई पड़ी है। चारपाई पर एक फटी-पुरानी गुदड़ी बिछी है। छोटे बच्चे के लिए कोमल शय्या। बच्चा सोया था शायद। बीच में जाग जाने पर पड़ोसी घर ले गये होंगे। घर में पहुंचते ही लड़की ने सिर से परात को उतारा। तुरन्त काका के लिए पानी ले आयी। खाट पर बिछी गुदड़ी को अंदर ले गयी। वहां बैठने को कहा। उसके बाद वह गई पड़ोसी के घर बच्चे को देखने। पल भर भी विश्राम नहीं। एकदम यंत्र की तरह।


रसानंद बाबू कुछ देर तक खाली खाट पर बैठे, फिर लेट गये। थोड़ी देर बाद सो भी गये। सिर के नीचे तकिया न था, घर पर शायद तकिया नहीं है या फिर है भी तो गंदा-पुराना। शायद इसीलिए लड़की ने काका को तकिया नहीं दिया हो।


रसानंद बाबू की पतली नींद लड़की और उसके पति की फुसर-फुसर बातचीत से टूटी। लड़की कह रही थीज्ञ् `मेरी भाभी के गांव का आदमी है, उनके घर का पुरोहित। पदमपुर में नौकरी करता है। इस गरमी में साइकिल ठेलते हुए जा रहा था। मैंने सोचा लू न लग जाए।' इस पर उसका पति बोलाज्ञ् `यह सब तो ठीक है पर क्या खिलाओगी इसे!' लड़की ने जवाब दियाज्ञ् `तुम क्या इतना मूर्ख समझते हो मुझे। एक बा्रह्मण को एक जून खिला नहीं पाऊंगी, बासी परवाल (भीगा कर रखा गया भात, इसे पांता भात भी कहा जाता है।) है, हम दोनों के लिए हो जाएगा। नुनकी के घर से पाव भर चावल लायी हूं। बूढ़े के लिए भात चढ़ा दिया है। बनबासी पंसेरी से आलू लाकर चावल में डाल दिया है, सीज जाएगा। दो कच्चे केले तोड़ लाई हूं बागान से। चूल्हे में रख दूंगी। चावल चढ़ा दिया है, पकने पर बूढ़े को जगा दूंगी, उतार लेगा। थक गया है। अभी सो लेने दो उसे एक नींद।'


लड़की की बातों पर पति को कोई असहमति नहीं है। पत्नी की सामर्थ्य पर उसे पूरा भरोसा है। तब भी उसने पूछाज्ञ् `बेटा क्या बासी परवाल खाएगा, हमारे साथ।' लड़की ने जवाब दियाज्ञ् `न, न, उसे क्यों बासी देने लगी। बूढ़ा आदमी क्या पाव भर चावल खा लेगा? बचेगा तो बेटे को खिला दूंगी। नुनकी के घर में कुछ खाया हुआ है, अभी खेल रहा है।' संतुष्ट होकर पति कहता हैज्ञ् `नुनकी के घर से वो कांसे की थाली मांग लेना। गिलट की थाली में खाना देना अच्छा नहीं लगेगा।' लड़की बोलीज्ञ् `अरे! तुमको पता नहीं, नुनकी के भाई की बीमारी में कांसे की थाली गिरवी चली गई, कहां निकाल पाये उसे? डूब गई वो तो।' `तो अब क्या करोगी?' उसके पति ने पूछा। शायद उसे नुनकी के घर की कांसे की थाली डूबने पर चिंता नहीं थी। चिंता थी तो इस बात की कि अब कहां से आयेगी कांसे की थाली। पर लड़की के उत्साह में कोई कमी नहीं है। उसने कहाज्ञ् `कांसे की थाली की क्या जरूरत है, खेत से मैं कच्चे पलाश के पत्ते ले आयी थी। पत्तल-दोना बना दूंगी।'

 

 

`थोड़ी-सी दाल होती तो अच्छा होता। सूखा भात बूढ़ा खाएगा भी तो कैसे खाएगा!' पति ने कहा।


ज्ञ् `क्यूं! अचार है। नमक पानी डालने से रस्सेदार तरकारी बन जाएगी।' लड़की के जवाब से लगा, हर सवाल का उत्तर देने की तैयारी उसने पहले से कर रखी है। अंतत: पति ने आश्वस्त भाव से कहाज्ञ् `और क्या? अपने घर पर जो है, वही तो खिला पाएंगे हम।'


इन सारे प्रसंग में रसानंद बाबू का मन कर रहा था, पति-पत्नी की बातों के बीच कहेंज्ञ् `मेरे लिए इतनी चिंता मत करो। कुछ भी होने से मेरा काम चल जाएगा। दोपहर को तुमने आश्रय दिया, ये क्या कम बात है!' पर वे उठ नहीं आये, गहरी नींद में सोने का अभिनय किये रहे। पति-पत्नी को मालूम नहीं होना चाहिए कि मैं उनकी बातों को सुन रहा था, यदि मालूम हो जाए तो बेचारे नंगे हो जाएंगे। शर्म से मुंह नहीं दिखा पाएंगे। पति-पत्नी के बीच प्रेम के अलावा और भी कई चीजें हैं जो तीसरे आदमी को पता नहीं चलनी चाहिए। उन्हें अपने घर की बात याद आई। महीने का वह आखिरी सप्ताह, जब बड़े समधी और समधन आ पहुंचे। दुर्भाग्य था जिस बनिए से उधार आता है, उसके बेटे की शादी होने के कारण दुकान भी बंद थी। वैसे में रसानंद बाबू की नज़र पड़ती है, पत्नी के हाथ खर्च की गोलक पर। मायके से लौटते हुए या फिर बाज़ार के हिसाब से बचाकर या फिर कैसे न कैसे करके पत्नी अपनी बचत को एक गोलक में रखती है। पचास-सौ रुपये निकले उसमें से। उसी से आधा किलो बासमती चावल, कुछ महंगी सब्जियां और साथ में मछली या मांस ले आये थे। केवल उनके लिए उन दिनों स्पेशल बनता है। एक बार तो समधी अड़ गए कि दोनों समधी एक साथ खाने पर बैठेंगे। रसानंद बाबू ने कहाज्ञ् `मैं तो नौ बजे भात खाकर ऑफिस जाने वाला प्राणी हूं। दोपहर को आपके साथ खाना खाऊं, एक तो तबीयत बिड़ेगी, दूसरे ऑफिस छोड़कर घर आने पर मेरी नौकरी चली जाएगी। समधी भी ज़िद पर अड़े थे, कहने लगेज्ञ् `तब तो नौ बजे मैं भी आपके साथ बैठूंगा।' अंतत: दाल में पानी डाला गया और तरकारी में चावल का चूरा। `सोमवार को मैं मांस नहीं खाता हूं। पूछना हो तो पूछ लीजिए अपनी समधन से।' यह कहते हुए रसानंद बाबू ने अपने लिए रास्ता बनाया। इसके बावजूद लगा, जैसे कोई बीच रास्ते में उनकी धोती चीर रहा हो। उनकी विनती कोई सुन नहीं रहा है।


`काका! उठोगे नहीं? भात पक गया है, उतार लो।' लड़की की आवाज़ ने रसानंद बाबू को जगा दिया। मुंह-हाथ धोकर वे भात उतारने लगे। मन कर रहा था बोलने काज्ञ् `बेटी! तूने जब सारे काम कर ही दिए तो भात भी उतार देती, मेरी कौन-सी जात चली जाती?' पर वे बोले नहीं। जात-कुजात के संस्कार की बात समझाने का यह समय नहीं है। हो सकता है लड़की समझेगी नहीं। उसके लिए जैसे सम्मान में काका बड़ा है, जात में ब्राह्मण भी ऊंचा है। फिर वे अपने आपसे पूछने लगे सचमुच मैं क्या संस्कारवादी दृष्टि से ये सब सोच रहा हूं। या आलस में कोई काम नहीं करना चाहता हूं। लड़की के हाथों सारे काम करवाना चाहता हूं।
खाने पर जब बैठे तो उसी पुराने दृश्य की पुनरावृत्ति हुई। रसानन्द बाबू ने सुझाव दिया, सब लोग एक साथ बैठ जाएं। जंवाई ने कहाज्ञ् `आप ठहरे बाहमन, गोस्वामी, मैं कैसे साथ बैठूंगा!' बेटा तो पहले से खा चुका है और रही लड़की तो उसकी बारी अंत में है। रसानंद बाबू समझ गए। उन्होंने जोर नहीं दिया। समधी की तरह नासमझ नहीं हैं।


खाना खाते समय एक बार फिर केतकी की बात आयी। `तुम कुछ भी कहो काका, मेरी भाभी के दुख का कोई अंत नहीं है। बचपन से मां नहीं है। अब बाप बीमार पड़ा तो बिस्तर में ही झा़डा-पेशाब सब कुछ। चार-चार बेटे, पर कोई नहीं पूछता। भाभी रोती रहती है। कहती है, काश भगवान ने मुझे लड़का बनाया होता तो मेरे बाप की यह दुर्दशा नहीं होती। मैं कहती हूं, भाभी! तू लड़का पैदा हुई होती तो अपने भाइयों से कोई अलग होती?' समग्र पुरुष समाज के नाम लड़की का अभियोग।
रसानंद बाबू को अब तक पता नहीं था कि समारू बिस्तर पकड़ चुका है। पिछले महीने तो वे गांव गये थे। किसी ने भी नहीं कहा। पर उन्होंने खुद भी तो कभी प्रयत्न नहीं किया, अपने बचपन के दोस्त के बारे में जानने का। आज किस मुंह से कहेंगे, समारू उसके बचपन का साथी है, पर गांव में उससे कभी मुलाकात तक नहीं होती। इतनी होशियार लड़की, उपन्यास के जासूस की तरह उनकी चालबाज़ी को पकड़ भी चुकी होगी। रसानंद बाबू के मन में भय सा पैदा हो गया।
`तुम लोग एक बार पदमपुर आओ बेटी! दो दिन रहकर जाओ। अच्छा लगेगा। तेरी काकी भी बहुत खुश होगी।' रसानंद बाबू के मन में अंदेशा हुआ, यह उनकी मन की बात नहीं है। समारू की चर्चा को टालने की मनसा से उन्होंने यह निमंत्रण दिया है। अपनी चालबाज़ी के लिए लड़की के आगे आत्म-समर्पण करने से पहले मानों वे उसके हाथों घूस थमा रहे थे।


शरीर में थकान थी, पेट में भूख। खाना भी खूब स्वादिष्ट था। गरम भात, आलू, केले का भर्ता (चोखा) अचार, झोल (शोरबा) और हरी मिर्च। देगची से भात निकालते हुए उन्हें डर लग रहा था, बच्चे के लिए कुछ बचेगा तो, या लोभवश सारा भात अकेले उंड़ेल लेंगे।
भोजन के बाद रसानंद बाबू फिर कुछ देर के लिए सो गए। जब तक उनकी नींद खुली, जंवाई वापस खेत पर जा चुका था। मेहमान की खातिरदारी के लिए उसके पास समय कहां है? मुंह-हाथ धोने के बाद रसानन्द बाबू भी निकल पड़े। निकलने से पहले लड़की को एक बार फिर परिवार सहित पदमपुर आने का निमंत्रण दिया। आने का दिन भी तय कर गये। निमंत्रण कोई बनावटी नहीं है, यह सिद्ध करने के लिए इससे ज्यादा और कह भी क्या सकते थे!


इस घटना के दो महीने बाद सचमुच अपना परिवार लिए लड़की पदमपुर पहुंची। घर में पहुंचते ही एक थैला लड़की ने काकी के हाथ थमा दिया। उसमें आठ-दस कच्चे केले, दो पाव मूढ़ी-धान (लाई), एक किलो के माफिक परवल और अलग से कुछ पुड़ियाआें में सुखुआ (सूखी) मादल (मछली)। अपने पति की ओर इशारा करते हुए उसने कहाज्ञ् `समझे, काका! तुम्हारे जंवाई के साथ मेरा खूब झगड़ा हुआ, कह रहे थे, ये सब क्या ले रही हो। शहर में क्या कोई ऐसी चीजें खाता है?' मैंने कहाज्ञ् `काका-काकी मेरे गांव के लोग हैं। शहर में रह रहे हैं तो क्या, गांव का खाना भूल जाएंगे। उनके घर में क्या पेड़े-रसगुल्ले की कमी है, जो हम यहां से लेकर जाएं।'
पहली मुलाकात में ही रसानंद बाबू की पत्नी ने लड़की और उसके परिवार को एकदम अपना लिया। बोलने लगीज्ञ् `तुम ठहरी बेटी, मां के घर जब बेटी आती है, तो क्या कभी कुछ लेकर आती है?' रसानंद बाबू ने कहाज्ञ् `परवल उनको बहुत पसंद है।' केले की उन्नत आकृति देखकर पत्नी ने आश्र्चर्य जताया। लड़की और उसके पति आश्वस्त हुए। साथ में `कुछ' नहीं लाने की ग्लानि उन्हें खा नहीं गयी। दो दिन में ही वे लोग रसानंद बाबू के परिवार के साथ घुल-मिल गये। पत्नी ने जिस आत्मीयता से उन लोगों के साथ बातचीत की, रसानंद बाबू आश्र्चर्यचकित रह गए। महिलाएं सचमुच बहुत ही बुद्धिमती होती हैं। परिस्थिति के साथ ताल मिलाकर चलने में वे हमेशा पुरुष से ज्यादा पारंगत मालूम पड़ती हैं। लगता है जैसे वर्षों से वह उन लोगों को जानती हो।


इस बीच दो बार लड़की ने घर में झाड़ू लगा दी। एक स्टूल पर चढ़कर लंबी झाड़ू से ऊपर का जाला भी साफ कर दिया। आंगन में मिट्टी का एक चूल्हा बनाने का उसने प्रस्ताव रखा यह कहकर कि कभी कभार काकी उस पर मूढ़ी (लाई) भूजेंगी। उसके लिए केवल उसे एक फावड़ा चाहिए। दूसरी ओर जवांई को भी फावड़ा चाहिए। बाहर एक गड्ढा खोद देगा, बची-खुची साग-सब्जी उसमें डालते जाओ, अच्छी खाद बन जाती है। अपनी बगिया में कुछ लगा लो, तो सरकारी खाद की जरूरत नहीं होती है। अपनी बगिया की सब्जी में जो मिठास है, बाज़ार की सब्जी में कहां?


पत्नी बीच-बीच में उन्हें रोक रही थी। `मां के घर पर कभी बेटी-जवांई काम करते हैं?' उसकी बातों को लड़की अनसुना कर देती थी। `यह भला कोई काम है? मां की मदद बेटी नहीं करेगी तो और कौन करेगा?' एक-दो बार रसानंद बाबू ने भी उन्हें रोका। पर, उनके रोकने में दम नहीं था। `मेरी अपनी बेटियां भी तो गरमी-दशहरे में जब आती हैं, अपनी बूढ़ी मां की मदद करती हैं।' पर, उन्हें अहसास हुआ कि ये तर्क वे लड़की को अपनी बेटी मानकर नहीं दे रहे थे, पत्नी का काम यथासंभव कम करने के स्वार्थ से दे रहे थे। अपने ओछेपन को वे पहचान पाये। फिर भी लड़की और उसके पति को काम करने से जोर देकर रोका नहीं, चुप रहे।


रात को लड़की और उसके पति में काफी देर तक फुसर-फुसर चली। रसानंद बाबू की पतली नींद। पास के कमरे में वे लेटे हुए थे। न चाहते हुए भी उन दोनों की बातें उनके कानों तक आ रही थीं। यहां मेहमान होकर आने के अलावा पदमपुर में उन लोगों का एक और बड़ा काम है। बाज़ार से कपड़े खरीदना। बात चल रही थी किसके लिए कपड़े खरीदे जाएं। बेटे के लिए पैंट-शर्ट या फिर `लड़की' के लिए साड़ी या पति के लिए धोती। लड़की का तर्क थाज्ञ् `मैं तो घर पर रहती हूं। तुमको कई बार आना होता है पदमपुर बाजार। सब्जी बेचने या फिर कुछ न हुआ तो साहू की बैलगाड़ी के साथ। हाट में काका के साथ इस फटी हुई धोती में भेंट हो जाए तो मेरी और क्या इज्जत रह जाएगी। घूम-घामकर बात भाभी के कानों में पड़ेगी।' सुनते ही उसका पति बिगड़ गयाज्ञ् `फालतू की बात मत कर, किसी की नज़र मुझ पर नहीं पड़ेगी। तू फटा पहनेगी तो लोग तुझ पर नहीं मुझ पर हंसेंगे।' लड़की ने कहाज्ञ् `मैं कह नहीं रही थी, गागर को गणेशिया के घर गिरवी रख देते हैं। पदमपुर जब जा ही रहे हैं, सबके लिए थोड़ा-बहुत कपड़ा ले आयेंगे। तुमने तो मना कर दिया। प्रधान के घर बर्तन मांजकर मैं दो महीने में गागार निकाल लाती।' जवांई ने कहाज्ञ् `छोड़ो भी, बेटे के इक्कीसवें पर उसके मामू ने जो पीतल की थाली दी थी, वह क्या निकल पायी! इसलिए मैं कहता हूं चीज़ें गिरवी रखने का कोई मतलब नहीं है। बेच दो तो कम से कम ठीक-ठाक दाम तो मिल जाएंगे।' लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया। अंतत: तय हुआ बेटे के कपड़े अगली बार खरीदेंगे। लड़की के लिए आठ हाती (आठ हाथ का) एक थान कपड़ा लेंगे और जवऎंई के लिए एक गंड (मोटे कपड़े) चार हाती (चार हाथ का) गमछा बारिश के दिनों में जरूरत पड़ने पर पहना भी जा सकेगा। कपड़े खरीदने की बात तय होने के बाद लड़की ने प्रस्ताव रखा काका के साथ दुकान पर जाएंगे, तनिक सस्ता मिल जाएगा। जवांई को यह बात पसंद नहीं आयी। `बड़ी दुकान में जाने के लिए पैसे होने चाहिए। काका के आगे मोल-भाव करना भी अच्छा नहीं लगेगा।' आखिर में तय हुआ, काका के घर से निकल जाने पर वे लोग बाज़ार जाएंगे। खरीदारी के बाद वहां से सीधे घर चल देंगे। रिश्तेदारों के आगे खरीदारी करके आदमी को अपमानित नहीं होना चाहिए।


रसानंद बाबू सारी बातें सुनते रहे। पति-पत्नी की बातों में कोई अस्वाभाविकता दिखाई नहीं पड़ी। परिवार की पूरी आस रहती है, थोड़ी-सी खेती के ऊपर। कभी धान को बंगी कीड़े खा गये, तो कभी सूखे की चपेट में सारी खेती लुट गयी। छोटे किसान हैं ये लोग अनायास बेचारे मजदूरी के स्तर पर उतर आते हैं। पेट काटकर साग-सब्जी को बाज़ार में बेचेंगे। अपनी खेती का काम जल्द खत्म करते ही दूसरे के खेतों पर काम करेंगे। उसके बाद ही साल भर के लिए कपड़ा-लत्ता खरीदेंगे, शादी-ब्याह में शामिल होंगे। दशहरा और रथयात्रा के लिए चंदा देंगे। क्या धूप, क्या बरसात! चींटी की तरह एक-एक दाना जोड़ रहे होंगे। उसके बावजूद गिरवी रखा बरतन निकलता नहीं, डूब जाता है। छत की टूटी हुई खपरैल के बदले घास-फूस लगाते हैं। कभी किसी के बीमार पड़ जाने पर ज़मीन भी चली जाती है। सब कुछ सरल, स्वाभाविक छंदहीन है इनका संसार। जन्म, मृत्यु, बाढ़ और सूखे की तरह।


रसानंद बाबू को याद आया, दशहरे में देने के लिए दोनों बेटियों के लिए साड़ी खरीदकर रखी थी। छोटी बेटी के दादा ससुर चल बसे, बेटी आयी नहीं। श्राद्ध के बाद आएगी। उसकी साड़ी रखी हुई है। दुकान में लौटाई नहीं। उस साड़ी को इस लड़की को दे दें तो? पत्नी के आगे प्रस्ताव रखने का साहस नहीं हुआ, मना कर देगी तो? रहने दो, रसानंद बाबू ने करवट बदली। आजकल नींद नहीं आती आसानी से। कभी-कभी तो सारी रात कट जाती है। सब उम्र का ही दोष है। पत्नी के आगे प्रस्ताव न रखने के पीछे केवल पत्नी का डर ही क्या एकमात्र कारण है? या साथ में अपनी कंजूसी भी। छोड़ो भी, ये लोग खेत में काम करते हैं, मोटी साड़ी पहनते हैं। महंगी-पतली साड़ी से इनका काम नहीं बनेगा। रसानंद बाबू को याद आया। मजदूरों को नाश्ता बांटते हुए, मां ठीक इसी तरह के तर्क दिया करती थीज्ञ् महीन चावल के भात इनको हजम नहीं होते हैं, ये ठहरे मजदूर लोग, मोटे चावल का भात इन्हें अच्छा लगता है।
सुबह नाश्ते में पत्नी ने पूड़ियां बनाई थीं। साथ में रस्सेदार परवल की सब्जी। केवल खास मेहमानों के लिए पत्नी इस तरह का नाश्ता बनाती है। पत्नी के सम्मान-बोध से रसानंद बाबू बहुत प्रसन्न हुए।


आखिर लड़की और उसके परिवार के जाने का समय हुआ। पत्नी ने कब से थैले में वह साड़ी डाल रखी है। रसानंद बाबू को शायद इस बात का पता भी न लगता, यदि लड़की थैले को देखते ही चिल्ला न उठती। मानों कुछ अप्रत्याशित सा घट गया। `न, न, ये क्या कर रही हो काकी। मैं बिलकुल नहीं लूंगी। मेरे पास तो कई साड़ियां हैं। मैं क्या करूंगी साड़ी का?' लड़की ने कहा।
`क्या बात कर रही हो तुम, तुम्हारे पास क्यों साड़ी की कमी होने लगी! पर, मां के घर से क्या बेटी कभी खाली हाथ लौटती है? लोग क्या कहेंगे मुझे?' पत्नी ने कहा। रसानन्द बाबू को लगा, पत्नी ने भी सुनी है इन लोगों की बातें। डर से रसानंद बाबू के आगे साड़ी देने का प्रस्ताव रख न सकी। उनसे छिपाकर साड़ी दे देने को तय किया था। बाद में रसानंद बाबू नाराज होते तो चुपचाप सह जाती।
काकी का तर्क सुनकर लड़की एक बार चुप रही। शायद सोच रही थी प्रतितर्क क्या रखेगी। फिर बोलीज्ञ् `ठीक है काकी, तूने दिया है मैं क्या इंकार करूंगी। यह साड़ी मैं रख रही हूं। अब मैं दे रही हूं अपनी बहनों को, रख लो, रखने से तू मना नहीं कर सकती क्योंकि मैं तुम्हें नहीं दे रही हूंं। दशहरे में जब मेरी बहनें आएंगी तो किसी एक को मेरी तरफ से दे देना।' लड़की ने साड़ी को काकी के हाथ में जबरदस्ती थमा दिया। अपने थैले के मुंह को इस तरह पकड़े रखा जैसे साड़ी उसके अन्दर जबरदस्ती घुस न जाए।


इसके बाद वे लोग घर से निकल गये। रसानंद बाबू ने उन लोगों के साथ-साथ कुछ देर तक जाना चाहा। पर वे पीछे रह गये। जवांई ने बेटे को कंधों पर बिठा रखा था। वह कह रहा था, `मैं तो बीच में डर सा गया, तू लोभ संभाल नहीं पाएगी। साड़ी रख लेगी।' लड़की बोलीज्ञ् `क्या बात करते हो तुम? मैं क्या इतनी बेवकूफ हूं? साड़ी ले आती तो मेरी क्या इज्जत रह जाती? वे समझते भूखे लोग हैं। साड़ी वसूलने के लिए रिश्ते बनाते हैं। मुझे कोई दरकार नहीं इस पाट साड़ी की। मेरी फटी साड़ी ही मेरे लिए अच्छी है।


रसानंद बाबू तमाम प्रयासों के बावजूद उनसे ताल नहीं मिला सके, पीछे रह गये। क्रमश: रसानंद बाबू और उन लोगों में फासला बढ़ता गया। वे लोग जल्दी-जल्दी पांव बढ़ा रहे थे, आसन्न विपत्ति से मुक्ति पाने की खुशी में। मूल्यवान कुछ न गंवाने के आनन्द में। खरीदारी खत्म करने के बाद शाम होने से पहले उन्हें घर पहुंचना होगा।


रविवार, अप्रैल 20, 2008

अब्दुल रहीम फ़रीदी कव्वाल की पेशकश !!!

आज यू-ट्यूब पर कव्वालियाँ सुनते सुनते अचानक अब्दुल रहीम फ़रीदी कव्वाल को सुनने को मौका मिला । इससे पहले कभी इनको सुना नही था लेकिन एक बार सुना तो दिन भर सुनता रहा । अब तो ऐसा जादू तारी हो गया है कि बिना आपको सुनवाये मन नहीं मानेगा ।

तो सुनिये, ख्वाजा की जोगनिया मैं बन जाऊँगी ...

बस एक ही टीस है कि ऐसे बेमिसाल कलाकार आज के बाजार की माँग के आगे कैसे चलेंगे । क्या आपको भी यही टीस उठती है कभी कभी ?

भाग एक:

इसी कव्वाली का दूसरा भाग:







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साप्ताहिक डिपार्टमेण्ट सेमिनार की बखिया के उधडे धागे !!!

नोट: ज्ञानदत्तजी के सुझाव पर पोस्ट का टाईटल बदल दिया गया है :-)

पिछले लगभग ६ वर्षों से मैं हर सप्ताह रासायनिक अभियांत्रिकी से सम्बन्धित (जैव-रासायनिकी, नैनो टेक्नालाजी आदि) कम से कम एक सेमिनार में उपस्थिति दर्ज कराता रहा हूँ । इस लिहाज से देखा जाये तो १५०-२०० सेमिनार सुन चुका हूँ (छुट्टियाँ हटाकर) । इन सब सेमिनारों में से कम से कम ३५-५०% सेमिनार मैने ध्यान से सुने होंगे । उनमें से भी १०-१५ % सेमिनारों के अन्त में मैने कोई प्रश्न पूछा होगा ।

कल ज्ञानदत्तजी ने पूर्वाग्रह और जडता की बात की थी
, इन सेमिनारों में भी यही पूर्वाग्रह और जडता दिखती है । अगर सेमिनार बायो से सम्बन्धित है तो फ़्लूड-मेकेनिक्स वाले ध्यान नहीं देंगे । सेमिनार के बाद बोलेंगे कि बायो का पाखण्ड आजकल बहुत बढ गया है । बायो वाले बोलेंगे पूरी एक स्लाईड पर कठिन सी दिखने वाली Equations दिखाकर क्या समझाना चाहते हो ? फ़ंडिग के लिये नैनो के पाखण्ड की चर्चा तो हर कहीं है । आमतौर पर केवल सेमिनार का टाईटल सुनकर ही बहुत से फ़ैसला कर लेते है कि उसको ध्यान से सुनना भी है या नहीं । फ़िर अगर ध्यान से सुनो भी तो कुछ १०% सेमिनार ही होंगे जिनके बाद १-२ से अधिक प्रश्न पूछे गये हों ।

एक व्यक्ति जो उस क्षेत्र में शोध नहीं कर रहा होता है, द्वारा पूछा गया प्रश्न सबसे दिलचस्प होता है । जिस प्रश्न के अंत में स्पीकर यह कहे कि "ये बहुत उत्तम प्रश्न है", पक्का जानिये कि उस प्रश्न का सीधा जवाब स्पीकर कभी (>९० % मौकों पर ) नहीं देगा । घुमा फ़िराकर कुछ बात कही जायेगी और पूछने वाला भी शान्त हो जायेगा ।

इसके अलावा एक श्रोता के हिसाब से मुझे सेमिनार में प्रश्न पूछना बडा कठिन होता है । कभी कभी ध्यान से सुनने के बाद भी जेहन में कोई सवाल नहीं आते हैं । कभी कभी आपका प्रश्न कोई दूसरा पूछ देता है । कभी कभी कोई भी प्रश्न नहीं होता है और बेचारा स्पीकर और प्रोफ़ेसर शर्मसार होने लगते हैं । फ़िर ऐसे में कोई १-२ प्रोफ़ेसर सवाल पूछ्ने का उपक्रम करते हैं । कुछ सवाल इतने लंबे होते हैं और पूछ्ने वाला इतनी धीमी आवाज में पूछता है कि प्रश्न और उसके उत्तर में कोई साम्य नहीं दिखता । "फ़िलासाफ़िकली स्पीकिंग", से शुरू होने वाले प्रश्नों के उत्तर अधिकतर लम्बे खिंचते हैं और उनका पूछे गये प्रश्न से ताल्लुख कुछ कम ही होता है ।


लेकिन बीच बीच में कुछ इतने अच्छे सेमिनार सुनने को मिलते हैं कि मन वाह वाह कर उठता है । एक अच्छे सेमिनार के लिये उस विषय पर अच्छे अधिकार के साथ ही अच्छे प्रेजेन्टेशन स्किल्स की भी आवश्यकता होती है । इस बारे में विस्तार में फ़िर कभी...

पीएचडी कामिक्स डाट काम वालों ने इस मौके पर एक मस्त स्ट्रिप निकाली थी, उसी को यहाँ पर साभार पेश कर रहा हूँ












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शुक्रवार, अप्रैल 18, 2008

अपनी नाजुक कमर के बल पर एक टी-शर्ट जीती !!!

आज हमारे कालेज में एक पिकनिक का आयोजन हुआ था । लिहाजा मुफ़्त का खाना और बीयर चाँपने के लिये हम भी वहाँ उपस्थित हुये । दूर से देखा तो एक कोने में एक मेज पडी थी और कुछ टी-शर्ट वहाँ रखी हुयी थी । हमने तुरन्त उस तरफ़ का रूख किया और पता चला कि इस टी-शर्ट को जीतने के लिये एक प्रतियोगिता है । प्रतियोगिता थी कि आपको एक बडा सा छल्ला अपनी कमर में डालकर उसको पाँच मिनट तक लगातार नचाना था । इसके ऐवज में आप टी-शर्ट के हकदार होते ।

हम भी चल दिये अपनी किस्मत आजमाने । पहले प्रयास में बुरी तरफ़ फ़ेल, कुल ८ सेकेन्ड में ही छ्ल्ला नीचे आ गया । लेकिन हमने देखा कि कन्यायें अपनी नाजुक कमर में छल्ला डाले बडी आसानी से उसे घुमाये जा रही थीं । लिहाजा हमने थोडे सब्र से उनसे कुछ सीख ली और नाजुक कमर को बल खाते भी देखा :-)

फ़िर जो हुआ उसका नतीजा आपके सामने है । जरा सी मेहनत और भौतिकी के सभी नियमों की मदद से हम भी इसके माहिर हो गये और लगातार पाँच मिनट तक बिना रूके छ्ल्ला नचाकर हमने वो टी-शर्ट जीती । लीजिये आप इन चित्रों और इस खास वीडियो का आनन्द लें :-)

फ़िर तो हम ऐसे माहिर हो गये थे कि एक हाथ में बीयर के कप से चुस्कियाँ ले रहे थे और छल्ला हमारी कमर में बेदस्तूर नाचे जा रहा था । क्या आपने कभी ऐसी मेहनत से टी-शर्ट जीती है ???

ये रहा वीडियो:



और ये रही चन्द तस्वीरें:










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बुधवार, अप्रैल 16, 2008

उस्ताद असलम खान साहब की आवाज में गालिब गजल !!!

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में उस्ताद असलम खान साहब खुर्जा और अतरौली (जयपुर) घराने से ताल्लुख रखते हैं । आज मैं आपको उनकी महफ़िल में गायी हुयी चचा गालिब की दो गजलें सुनवा रहा हूँ । उस्ताद असलम खान को इस अंदाज में सुनने का अंदाज ही अलग है । उस्तादजी का नजाकत से कहना कि "दादरा लगाओ" और उसके बाद मोहक अंदाज में मिर्जा गालिब की गजलों को जिन्दा कर देने की अदा निराली ही है ।

पहली गजल है ।

मेरी किस्मत में गम गर इतने थे,
दिल भी या रब कई दिये होते । (फ़ुटकर शेर)

रोने से और इश्क में बेबाक हो गये,
धोये गये हम ऐसे के बस पाक हो गये ।

करने गये थे उनसे तगाफ़ुल का हम गिला,
कि एक ही निगाह, के बस खाक हो गये ।

कहता है कौन लाला-ए-बुलबुल को बेअसर,
परदे में गुल के लाख जिगर चाक हो गये ।

इस रंग से उठाई कल उसने असद की नास,
दुश्मन भी जिसको देखके नमनाक हो गये ।



दूसरी गजल है,

सारी दुनिया मुझे कहती तेरा सौदाई है,
अब मेरा होश में आना तेरी रूसवाई है ।

जब तुझे दिल से भुलाने की कसम खाई है,
और पहले से जियादा तेरी याद आयी है ।

मैं हूँ जिन्दा में मेरे घर में बहार आयी है,
कौन से जुर्म की मैने ये सजा पायी है ।

साकिया मय से मैं तौबा करू तौबा तौबा,
मैने दुनिया के दिखाने को कसम खाई है ।

कैद रहता हूँ तो तौहीन है बालोफ़र की,
और उड जाऊँ तो सय्याद की रूसवाई है ।

देखिये कैसे पंहुचते हैं किनारे हम लोग,
नाव तूफ़ां में है मल्लाह को नींद आयी है ।



लीजिये अब इसको चटखा लगाकर सुनिये:

सोमवार, अप्रैल 14, 2008

गाँधीजी की आत्मकथा का आडियो (तीसरी और चोथी कडी )

मैने पिछली पोस्ट में गाँधीजी आत्मकथा के आडियो की पहली दो कडियाँ पेश की थी । मजे की बात है कि इससे ज्ञानदत्तजी को पुस्तकों की आडियोबुक का विचार आया और मेरी समझ में हम ब्लागर मिलकर इसे मूर्त रूप दे सकते हैं । मेरी आशा से कहीं अधिक टिप्पणियाँ मिली और लोगों ने इस श्रृंखला को जारी रखने को कहा ।

नोट: गाँधीजी की गुजराती आत्मकथा का अंग्रेजी अनुवाद उनके सचिव श्री महादेव देसाई जी ने किया था ।

आज मैं आडियो की तीसरी और चौथी कडियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

पहली और दूसरी कडियाँ यहाँ सुने:


ये रही तीसरी कडी:



ये रही चौथी कडी:

रविवार, अप्रैल 13, 2008

जीतूजी की फ़रमाईश पर, कोई दीवार से लग के बैठा रहा !!!

हमारे प्यारे जीतूजी कोई फ़रमाईश करें और हम उसे पूरा न कर सकें तो शर्म आनी चाहिये इतने साल संगीत सुनने में बिताने में :-)

प्यारे भडासी भाई: आप भी इसे सुने और पुराना दौर याद करें ।
उनकी खास फ़रमाईश पर पेश है,

कोई दीवार से लग के बैठा रहा
और भरता रहा सिसकियां रात भर
आज की रात भी चाँद आया नही
राह तकती रही खिड़कियां रात भर

गम जलाता किसे कोई बस्ती ना थी
मेरे चारो तरफ़ मेरे दिल के सिवा
मेरे ही दिल पे आ आ के गिरती रही
मेरे एहसास की बिजलियां रात भर

दायरे शोख रंगो के बनते रहे
याद आती रही वो कलाई हमें
दिल के सुनसान आंगन मे बजती रही
रेशमी शरबती चूड़ियां रात भर

कोई दीवार से लग के बैठा रहा
और भरता रहा सिसकियां रात भर
आज की रात भी चाँद आया नही
राह तकती रही खिड़कियां रात भर
-अनाम शायर



पेश है, शायर का नाम अनाम है किसी को पता चले तो सूचित करे (यूनुसजी, आप सुन रहे हैं न???) । आवाज अशोक खोसला की है, ये वही अशोक खोसला हैं जिनका गाया गीत "अजनबी शहर में अजनबी रास्ते, मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे" काफ़ी प्रसिद्ध हुआ था । इस गीत को यूनुसजी ने अपनी रेडियोवानी पर भी सुनवाया था ।

लीजिये पेश-ए-खिदमत है: कोई दीवार से लग के बैठा रहा !!!

शनिवार, अप्रैल 12, 2008

गाँधीजी की आत्मकथा का आडियो (प्रथम दो कडियाँ)

पिछले साल गाँधी जयन्ती के अवसर पर उनकी आत्मकथा का आडियो जारी हुआ था । इस लगभग ८० मिनट के आडियो में गाँधीजी के जीवन से सम्बधित मुख्य घटनाओं को उनकी आत्मकथा के माध्यम से कहा गया है । प्रमुख आवाजें शेखर कपूर और नन्दिता दास की हैं । रेडिफ़ पर इस सन्दर्भ में जानकारी यहाँ पर है और इस लिंक पर जाकर आप स्वयं इस आडियो को मात्र पचास रूपये में मंगा सकते हैं । गाँधीजी के बारे में जितना पढा जाये उतना कम है और मुझे लगता है कि आज का युवा उनके बारे में अपनी राय उनके बारे में बिना किसी प्रयास के जानकारी ग्रहण किये केवल सुनी सुनायी बातों से कायम करता सा दिखता है ।
गाँधीजी अजातशत्रु नहीं थे, और ऐसा नहीं कि उनसे गलतियाँ न हुयी हों परन्तु मेरी समझ में वो गलतियाँ उनके विशाल व्यक्तित्व को छोटा नहीं बना देती ।

मेरी परेशानी ये है कि ये आडियो अंग्रेजी में है और अपनी व्यस्तता से मैं इस आडियो का अनुवाद करने में अक्षम हूँ । चूँकि आमतौर पर १० मिनट से लम्बा आडियो बोझिल हो जाता है, मैं इस आडियो को कई कडियों में प्रस्तुत कर रहा हूँ । सभी कडियाँ ९-१४ मिनट की अवधि की हैं । इस पोस्ट में मैं पहली दो कडियाँ सुनवा रहा हूँ । यदि आपको ये पसन्द आये तो अपनी टिप्पणी अवश्य दें जिससे बाकी कडियाँ भी प्रस्तुत की जा सकें ।

ये रही पहली कडी:



और ये रही दूसरी कडी:



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रविवार, अप्रैल 06, 2008

सीता स्वयंवर श्री अनूप जलोटा के स्वर में !!!

इस कडी में अनूप जलोटा जी के स्वर में सीता स्वयंवर को सुनिये । ये प्रसंग मुझे बेहद पसंद है । इसमें तुलसीदासजी ने राजा जनक की मनोस्थिति का सजीव चित्रण किया है ।




हिन्दी विकीपीडिया से श्रीरामचरितमानस के ये अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

जानि कठिन सिवचाप बिसूरति, चली राखि उर स्यामल मूरति ||
प्रभु जब जात जानकी जानी, सुख सनेह सोभा गुन खानी ||
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही, चारु चित भीतीं लिख लीन्ही ||
गई भवानी भवन बहोरी, बंदि चरन बोली कर जोरी ||
जय जय गिरिबरराज किसोरी, जय महेस मुख चंद चकोरी ||
जय गज बदन षड़ानन माता, जगत जननि दामिनि दुति गाता ||
नहिं तव आदि मध्य अवसाना, अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ||
भव भव बिभव पराभव कारिनि, बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ||

दोहा -
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख,
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष ||
२३५ ||
सेवत तोहि सुलभ फल चारी, बरदायनी पुरारि पिआरी ||
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे, सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ||
मोर मनोरथु जानहु नीकें, बसहु सदा उर पुर सबही कें ||
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं, अस कहि चरन गहे बैदेहीं ||
बिनय प्रेम बस भई भवानी, खसी माल मूरति मुसुकानी ||
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ, बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ ||
सुनु सिय सत्य असीस हमारी, पूजिहि मन कामना तुम्हारी ||
नारद बचन सदा सुचि साचा, सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा ||

छं:-
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो,
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ||
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली,
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ||

सो:-
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि,
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ||
२३६ ||
हृदयँ सराहत सीय लोनाई, गुर समीप गवने दोउ भाई ||
राम कहा सबु कौसिक पाहीं, सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं ||
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही, पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही ||
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे, रामु लखनु सुनि भए सुखारे ||
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी, लगे कहन कछु कथा पुरानी ||
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई, संध्या करन चले दोउ भाई ||
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा, सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा ||
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं, सीय बदन सम हिमकर नाहीं ||

दोहा -
जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक,
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक ||
२३७ ||
घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई, ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई ||
कोक सिकप्रद पंकज द्रोही, अवगुन बहुत चंद्रमा तोही ||
बैदेही मुख पटतर दीन्हे, होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे ||
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी, गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी ||
करि मुनि चरन सरोज प्रनामा, आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा ||
बिगत निसा रघुनायक जागे, बंधु बिलोकि कहन अस लागे ||
उदउ अरुन अवलोकहु ताता, पंकज कोक लोक सुखदाता ||
बोले लखनु जोरि जुग पानी, प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी ||

दोहा -
अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन,
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन ||
२३८ ||
नृप सब नखत करहिं उजिआरी, टारि न सकहिं चाप तम भारी ||
कमल कोक मधुकर खग नाना, हरषे सकल निसा अवसाना ||
ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे, होइहहिं टूटें धनुष सुखारे ||
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा, दुरे नखत जग तेजु प्रकासा ||
रबि निज उदय ब्याज रघुराया, प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया ||
तव भुज बल महिमा उदघाटी, प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी ||
बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने, होइ सुचि सहज पुनीत नहाने ||
नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए, चरन सरोज सुभग सिर नाए ||
सतानंदु तब जनक बोलाए, कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए ||
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई, हरषे बोलि लिए दोउ भाई ||

दोहा -
सतानंद&#६५५३३;पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ,
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ ||
२३९ ||
सीय स्वयंबरु देखिअ जाई, ईसु काहि धौं देइ बड़ाई ||
लखन कहा जस भाजनु सोई, नाथ कृपा तव जापर होई ||
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी, दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी ||
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला, देखन चले धनुषमख साला ||
रंगभूमि आए दोउ भाई, असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई ||
चले सकल गृह काज बिसारी, बाल जुबान जरठ नर नारी ||
देखी जनक भीर भै भारी, सुचि सेवक सब लिए हँकारी ||
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू, आसन उचित देहू सब काहू ||

दोहा -
कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि,
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि ||
२४० ||
राजकुअँर तेहि अवसर आए, मनहुँ मनोहरता तन छाए ||
गुन सागर नागर बर बीरा, सुंदर स्यामल गौर सरीरा ||
राज समाज बिराजत रूरे, उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे ||
जिन्ह कें रही भावना जैसी, प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ||
देखहिं रूप महा रनधीरा, मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा ||
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी, मनहुँ भयानक मूरति भारी ||
रहे असुर छल छोनिप बेषा, तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा ||
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई, नरभूषन लोचन सुखदाई ||

दोहा -
नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप,
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप ||
२४१ ||
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा, बहु मुख कर पग लोचन सीसा ||
जनक जाति अवलोकहिं कैसैं, सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ||
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी, सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ||
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा, सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ||
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता, इष्टदेव इव सब सुख दाता ||
रामहि चितव भायँ जेहि सीया, सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ||
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ, कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ||
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ, तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ||

दोहा -
राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर,
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर ||
२४२ ||
सहज मनोहर मूरति दोऊ, कोटि काम उपमा लघु सोऊ ||
सरद चंद निंदक मुख नीके, नीरज नयन भावते जी के ||
चितवत चारु मार मनु हरनी, भावति हृदय जाति नहीं बरनी ||
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला, चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला ||
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा, भृकुटी बिकट मनोहर नासा ||
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं, कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं ||
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई, कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं ||
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ, जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ||

दोहा -
कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल,
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल ||
२४३ ||
कटि तूनीर पीत पट बाँधे, कर सर धनुष बाम बर काँधे ||
पीत जग्य उपबीत सुहाए, नख सिख मंजु महाछबि छाए ||
देखि लोग सब भए सुखारे, एकटक लोचन चलत न तारे ||
हरषे जनकु देखि दोउ भाई, मुनि पद कमल गहे तब जाई ||
करि बिनती निज कथा सुनाई, रंग अवनि सब मुनिहि देखाई ||
जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ, तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ ||
निज निज रुख रामहि सबु देखा, कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा ||
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ, राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ||

दोहा -
सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल,
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल ||
२४४ ||
प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे, जनु राकेस उदय भएँ तारे ||
असि प्रतीति सब के मन माहीं, राम चाप तोरब सक नाहीं ||
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला, मेलिहि सीय राम उर माला ||
अस बिचारि गवनहु घर भाई, जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई ||
बिहसे अपर भूप सुनि बानी, जे अबिबेक अंध अभिमानी ||
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा, बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा ||
एक बार कालउ किन होऊ, सिय हित समर जितब हम सोऊ ||
यह सुनि अवर महिप मुसकाने, धरमसील हरिभगत सयाने ||

सो:-
सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के ||
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे ||
२४५ ||
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई, मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ||
सिख हमारि सुनि परम पुनीता, जगदंबा जानहु जियँ सीता ||
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी, भरि लोचन छबि लेहु निहारी ||
सुंदर सुखद सकल गुन रासी, ए दोउ बंधु संभु उर बासी ||
सुधा समुद्र समीप बिहाई, मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ||
करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा, हम तौ आजु जनम फलु पावा ||
अस कहि भले भूप अनुरागे, रूप अनूप बिलोकन लागे ||
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना, बरषहिं सुमन करहिं कल गाना ||

दोहा -
जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई,
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं ||
२४६ ||
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी, जगदंबिका रूप गुन खानी ||
उपमा सकल मोहि लघु लागीं, प्राकृत नारि अंग अनुरागीं ||
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई, कुकबि कहाइ अजसु को लेई ||
जौ पटतरिअ तीय सम सीया, जग असि जुबति कहाँ कमनीया ||
गिरा मुखर तन अरध भवानी, रति अति दुखित अतनु पति जानी ||
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही, कहिअ रमासम किमि बैदेही ||
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई, परम रूपमय कच्छप सोई ||
सोभा रजु मंदरु सिंगारू, मथै पानि पंकज निज मारू ||

दोहा -
एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल,
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ||
२४७ ||
चलिं संग लै सखीं सयानी, गावत गीत मनोहर बानी ||
सोह नवल तनु सुंदर सारी, जगत जननि अतुलित छबि भारी ||
भूषन सकल सुदेस सुहाए, अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए ||
रंगभूमि जब सिय पगु धारी, देखि रूप मोहे नर नारी ||
हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई, बरषि प्रसून अपछरा गाई ||
पानि सरोज सोह जयमाला, अवचट चितए सकल भुआला ||
सीय चकित चित रामहि चाहा, भए मोहबस सब नरनाहा ||
मुनि समीप देखे दोउ भाई, लगे ललकि लोचन निधि पाई ||

दोहा -
गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि ||
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ||
२४८ ||
राम रूपु अरु सिय छबि देखें, नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें ||
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं, बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं ||
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई, मति हमारि असि देहि सुहाई ||
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु, सीय राम कर करै बिबाहू ||
जग भल कहहि भाव सब काहू, हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू ||
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू, बरु साँवरो जानकी जोगू ||
तब बंदीजन जनक बौलाए, बिरिदावली कहत चलि आए ||
कह नृप जाइ कहहु पन मोरा, चले भाट हियँ हरषु न थोरा ||

दोहा -
बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल,
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल ||
२४९ ||
नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू, गरुअ कठोर बिदित सब काहू ||
रावनु बानु महाभट भारे, देखि सरासन गवँहिं सिधारे ||
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा, राज समाज आजु जोइ तोरा ||
त्रिभुवन जय समेत बैदेही ||
बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ||
सुनि पन सकल भूप अभिलाषे, भटमानी अतिसय मन माखे ||
परिकर बाँधि उठे अकुलाई, चले इष्टदेवन्ह सिर नाई ||
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं, उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं ||
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं, चाप समीप महीप न जाहीं ||

दोहा -
तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ,
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ ||
२५० ||
भूप सहस दस एकहि बारा, लगे उठावन टरइ न टारा ||
डगइ न संभु सरासन कैसें, कामी बचन सती मनु जैसें ||
सब नृप भए जोगु उपहासी, जैसें बिनु बिराग संन्यासी ||
कीरति बिजय बीरता भारी, चले चाप कर बरबस हारी ||
श्रीहत भए हारि हियँ राजा, बैठे निज निज जाइ समाजा ||
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने, बोले बचन रोष जनु साने ||
दीप दीप के भूपति नाना, आए सुनि हम जो पनु ठाना ||
देव दनुज धरि मनुज सरीरा, बिपुल बीर आए रनधीरा ||

दोहा -
कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय,
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय ||
२५१ ||
कहहु काहि यहु लाभु न भावा, काहुँ न संकर चाप चढ़ावा ||
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई, तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई ||
अब जनि कोउ माखै भट मानी, बीर बिहीन मही मैं जानी ||
तजहु आस निज निज गृह जाहू, लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ||
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ, कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ ||
जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई, तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई ||
जनक बचन सुनि सब नर नारी, देखि जानकिहि भए दुखारी ||
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें, रदपट फरकत नयन रिसौंहें ||

दोहा -
कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान,
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान ||
२५२ ||
रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई, तेहिं समाज अस कहइ न कोई ||
कही जनक जसि अनुचित बानी, बिद्यमान रघुकुल मनि जानी ||
सुनहु भानुकुल पंकज भानू, कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू ||
जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं, कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं ||
काचे घट जिमि डारौं फोरी, सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी ||
तव प्रताप महिमा भगवाना, को बापुरो पिनाक पुराना ||
नाथ जानि अस आयसु होऊ, कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ ||
कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं, जोजन सत प्रमान लै धावौं ||