लखनऊ को ठुमरी की जननी और बनारस को उसकी महबूबा कहा जाता है । ऐसी ही एक कालजयी ठुमरी है, "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए" । इस ठुमरी की रचना अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह ने की थी । नवाब वाजिद अली शाह १८४७ से १८५६ तक नौ साल लखनऊ के नवाब रहे थे । १८५६ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उन पर कुशासन का आरोप लगाकर अवध की सत्ता अपने हाथ में ले ली थी । जब नवाब वाजिद अली शाह लखनऊ से निर्वासित होकर बंगाल जा रहे थे उस समय उन्होनें इस ठुमरी की रचना की थी ।
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
चार कहार मिल, मोरी डोलिया सजावें (उठायें)
मोरा अपना बेगाना छूटो जाए | बाबुल मोरा ...
आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश
जाए बाबुल घर आपनो मैं चली पीया के देश | बाबुल मोरा ...
इस ठुमरी में उन्होने लखनऊ को अपना मायका माना था और सदा के लिये विदा होती एक बहू से अपनी तुलना की थी । इस ठुमरी को १९३८ में बनी फ़िल्म "स्ट्रीट सिंगर" में कुन्दन लाल सहगल ने अपनी आवाज से अमर बना दिया है । इस गीत को कितनी भी बार सुन लें मन नहीं भरता, कुन्दल लाल सहगल ने सिर्फ़ एक हारमोनियम के साथ अपनी आवाज में राग भैरवीं के ऊँचे सुरों को इतने सलीके से गाया है कि आज लगभग ७० वर्ष बाद भी किसी और की आवाज में ये ठुमरी मन को नहीं भाती ।
लगभग सभी महान गायक कलाकारों ने इस ठुमरी को गाया है । इस पोस्ट में आप इस ठुमरी को चार
आवाजों में सुन सकते हैं । सबसे पहले कुन्दन लाल सहगल की आवाज में,
|
अब सुनिये जगजीत सिंह जी को, जिन्होने इसे बडे प्रभावपूर्ण तरीके से गाया है ।
|
ये रही गिरिजा देवी और शोभा गुर्टु की जुगलबंदी,
|
और अंत में शास्त्रीय संगीत की साम्राज्ञी किशोरी अमोनकर की आवाज में,
|
ओह। इस गीत को पढ़-सुन कर तीव्र वैराग्य की अनुभूति होती है। और इसे बार-बार सुनने का मन भी करता है।
जवाब देंहटाएंआपने प्रस्तुत कर अच्छा किया। धन्यवाद।
नीरज भाई
जवाब देंहटाएंमजा आ गया सुनकर!
किशोरी अमोनकर जी की आवाज में ठुमरी सही नहिं बज रही है, हो सके तो इसे lifelogger.com पर लगा कर उसका प्लेयर लगावें तब सही बजेगी। ( इस तरह की परेशानी एकाद बार मुझे भी हुई थी बाद में इस्निप का प्रयोग ही बंद कर दिया।