रविवार, मई 27, 2007

क्या हैं परदेस में भारतीयता के मायने?

डिस्क्लेमर: मैं अपने प्रवासी भारतीयों का बहुत सम्मान करता हूँ और इस लेख के पीछे मेरी कोई भी दुर्भावना नहीं है । ये भी सम्भव है कि यहाँ पर दिये हुये उदाहरण आपको केवल अपवाद लगें तो भी मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ ।


जब तक मैं भारत में था इस प्रश्न का कोई औचित्य ही नहीं था लेकिन पिछले कम से कम दो वर्षों से ये प्रश्न मुझे परेशान कर रहा है । एक मौके पर मेरे एक साथी ने यूनिवर्सिटी में भारतीय से दिखने वाले एक विद्यार्थी से पूछा था कि वो भारत में कहाँ से है, तो उसका जवाब था कि वो एक अमेरिकन है और उसका घर कैलीफ़ोर्निया में है । उस समय तो कुछ नहीं लेकिन बाद में मेरे साथी ने तुरन्त उसको ABCD (America born confused desi) की उपाधि से नवाज दिया और इस विषय पर मेरी अपने साथी से भारतीयता और अमेरिकीपन पर लम्बी चर्चा हुयी थी ।

आखिर एक अमेरिकी नागरिक के अपने आप को भारतीय न माननें पर किसी को आपत्ति क्यों ? और यदि वो अपने आपको भारतीय कहे तो भी आप उसे ABCD कहकर उसकी भावनाओं का मजाक बनायें ।

मेरी समझ में प्रवासी भारतीयों की दूसरी पीढियों को अक्सर अनावश्यक ही प्रश्नवाचक नजरों का सामना करना पडता है । पहली पीढी वाले तो अपने आप को खालिस भारतीय समझकर और इस प्रकार का दावा करके खुश हो लेते हैं । उनसे कोई प्रश्न नहीं पूछता क्योंकि वो बडे गर्व से उनकी मेहनत और परदेस में उनके संघर्ष के किस्से सुनाते हैं । उन्हे गर्व होता है कि ग्रीन कार्ड और अमेरिका की नागरिकता के बाद भी वो एकदम भारतीय हैं, हाँ भारत में रहते जरूर नहीं ।

इसके विपरीत दूसरी पीढी जन्म से ही अमेरिकन होती है, एक्सेंट भी बिलकुल अमेरिकन लेकिन फ़िर भी दोनों ओर के लोग (अमेरिकन और भारतीय) उन्हें अजीब सी नजर से देखते हैं । ऐसा नहीं कि उनमें संस्कारों की कमी हो (वैसे ये बताता चलूँ कि संस्कारों का ठेका केवल भारत ने ही नहीं ले रखा है) फ़िर भी कभी कभी वो अपनी जडें तलाशते से दिखते हैं तो कभी अमेरिका की भीड का हिस्सा बनने की कोशिश करते हैं ।

विदेशों में रहने वाले दूसरे मूल के लोगों के इस प्रश्न की प्रासंगिकता और भी बढ जाती है जब हम देखते हैं कि लंदन में ब्रिटिश नागरिक जिनका जन्म ब्रिटेन में हुआ खुद अपने ही देश पर आतंकी हमले करते हैं । इसको हम भले ही एक धर्म अथवा देश विशेष से जोड कर देखें लेकिन इसकी परिभाषा व्यापक है ।

इसका कारण समझने के लिये मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ; आप ६० और ७० के दशक में अमेरिका आने वाली प्रथम भारतीय पीढी के बारे में सोचिये । अमेरिकी समाज के "मेल्टिंग पाट" में मेल्ट होना उनकी एक जरूरत थी । एक बार की भारत यात्रा का खर्चा ३००० डालर, २-३ डालर प्रति मिनट की दर पर भारत में फ़ोन करना, भारतीय सिनेमा और संगीत के लिये उन दुकानों की ओर तकना जहाँ फ़िल्मों और संगीत की घटिया रेकार्डिंग वीडीयो कैसेट पर किराये पर मिलती थी ।

इसके विपरीत अगर आज आप भारत में अमेरिका की तरह और अमेरिका में विशुद्ध भारतीय जीवन बिताना चाहते हैं तो किसी भी बडे शहर में आपको कोई तकलीफ़ नहीं होगी । अमेरिका में बिजली और फ़ोन के कनेक्शन के लिये भी आप हिन्दी, उर्दू और गुजराती में फ़ोन पर बात कर सकते हैं । जिस दिन भारत में "धूम २" रिलीज हो उसी दिन अमेरिका में फ़र्स्ट डे, फ़र्स्ट शो देख सकते हैं; भारत फ़ोन करना तो इतना सस्ता हो गया है कि पूछिये मत । अपने कम्प्यूटर से सारी जानकारी अपनी पसन्द की भाषा में ले सकते हैं । इसको ग्लोब्लाइजेशन कहिये या "वसुधैव कुटुम्बकम" लेकिन ये सत्य है ।

क्या आज के दौर में देश और नागरिकता के मायने गौण हो गये हैं ?


मैं दो साल तक अपनी यूनिवर्सिटी के "भारतीय छात्र संगठन" से जुडा हुआ था और मैने अनुभव किया कि यहाँ पर पिछले काफ़ी दशकों से रहने वाले प्रवासी भारतीय नये भारतीय छात्रों की सहायता के लिये सदैव तत्पर रहते हैं । किसी भी कार्यक्रम को आयोजित करने के लिये धन की कमी तो कभी भी आडे नहीं आयी । क्या ये उनकी भारतीयता का एक पहलू नहीं है ? अथवा ये उनकी अपनी जडों से अलग होने की टीस है ?

ये प्रश्न एक बार फ़िर उठा था जब मैं एक प्रवासी भारतीय परिवार के घर एक उत्सव में आमन्त्रित था । एक महोदय (जो पिछले लगभग तीस साल से यहीं पर बसे हुये हैं) ने बडे गर्व से कहा कि उनके पुत्र और पुत्री भारत में रहने वाले आजकल के नौजवानों से अधिक भारतीय हैं । मेरी उन सज्जन से बडी बेबाक बहस हुयी थी और ये उनका बडप्पन और उनके खुद के विचारों के प्रति ईमानदारी ही थी कि ऐसी चर्चा संभव हो सकी थी । मैं उनसे सहमत नहीं था और अन्त में हमने कहा कि "हम सहमत हैं कि हम असहमत हैं" और बिना किसी मनमुटाव के अपने अपने घर चले गये ।


सबसे पहले मैं उन सज्जन के विचार आपके सामने रखता हूँ,

उनके पुत्र/पुत्री आम अमरीकी बच्चों की तरह पार्टी नहीं करते, माता पिता की आज्ञा का पूरा सम्मान करते हैं । उनके बच्चों ने आर्यसमाज मंदिर में "वेदों के ऊपर आख्यान" सुने और समझे थे, उन्हे भारतीय खाना बहुत पसन्द है, भारतीय शास्त्रीय संगीत में रूचि है और उनके पुत्र ने तो विधिवत सितार बजाना भी सीखा है । उनकी पुत्री "भरतनाट्यम" की शिक्षा ले रही है । पिछले वर्ष वो भारत यात्रा पर गये थे और वहाँ के नौजवानों के नैतिक पतन और "माल कल्चर" से उन्हे बडी ठेंस लगी थी । उन्होने भी मैकाले को गरियाया था और भारत में पुरातन गुरूकुल टाईप के शिक्षापद्यति के पक्षधर थे । इस बात का वहाँ बैठे हुये कुछ लोगों ने समर्थन भी किया था । क्या भारतीयता के मायने केवल यही हैं ?

मुझे बहुत सारे ऐसे प्रवासी भारतीय मिले हैं जिनके विचार परस्पर विरोधी हैं । एक प्रकार के लोग केवल भारत की खामियों के बारे में बात करना चाहते हैं । राजनीति, गुन्डागर्दी, शरीफ़ आदमी की समस्यायें, प्रदूषण, भीड, रोजगार सम्बन्धी समस्यायें और पता नहीं क्या क्या । स्पष्ट तौर पर या तो वे भारत में बहुत सताये गये हैं या फ़िर इस तर्क के द्वारा अपने अमेरिका आने के फ़ैसले को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं । दूसरे प्रकार के लोग इसके एकदम विपरीत होते हैं । भारत की जरा सी बुराई नहीं सह सकते, जातिगत अस्पृश्यता की बात हो तो अमेरिका के नस्लभेद का उदाहरण, जरा जरा सी बात पर अपनी संस्कृति का उलाहना और इसी प्रकार की बातें ।

क्या भारतीय होने के लिये राग दरबारी के "वैद्यजी" के किरदार की समझ जरूरी है ? अगर ऐसा है तो भारत में रहने वाले कितने ही भारतीय भारतीय नहीं रहेंगे । भारतीयता को किसी भाषा अथवा धर्म के संदर्भ में तो परिभाषित किया ही नहीं जा सकता । तो फ़िर क्या है ये भारतीयता ? अमेरिका के जन्मास्टमी आयोजन में दांडिया करके, दीवाली और होली पर भारतीय परिधान पहनने से, ए. आर. रहमान और जगजीत सिंह के कार्यक्रम में जाकर या शास्त्रीय संगीत सीखकर आप मेरी नजर में भारतीय नहीं हो जाते ।

कम से कम आज मेरी राय में: "भारतीयता के मायने भारत की साहित्यिक, सांस्कृतिक और कलात्मक चमक दमक भी हैं और भारतीय कहलाने के लिये आपको भारत की खामियों के लिये भी जिम्मेदारी दिखानी पडेगी ।"

सोमवार, मई 14, 2007

पौराणिक कथाओं और इतिहास के भँवर के बीच में फ़ँसा भारत (पहली किस्त)!

डिस्कलेमर: यहाँ पर प्रचारित विचार मेरी सोच प्रदर्शित करते हैं । स्वयं को इतिहास का एक आलोचक अथवा एक इतिहासविद के रूप में प्रसारित करने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं है। संभव है मेरे तर्क त्रुटिपूर्ण हों, यदि आपको ऐसा लगे तो आप अपनी टिप्पणी के माध्यम से अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं ।


इतिहास विषय मुझे सदा से अपनी ओर आकर्षित करता रहा है, लेकिन हमेशा से तारीखों को याद रख पाने की अक्षमता के कारण मैं कभी भी इतिहास में अच्छे अंक प्राप्त न कर सका। फ़िर कक्षा १० के बाद इतिहास से वास्ता छूटता गया। लेकिन अभी पिछले तीन सालों से इतिहास की ओर मेरा झुकाव फ़िर से बढा है। इस बार न तो तारीखें याद रखने का पचडा है और न ही आचार्यजी की छडी का दर्द। मेरी रूचि ईसा पूर्व के भारतीय इतिहास के परिपेक्ष्य में जन्मी और पोषित हुयी सभ्यताओं में है। इनमें मुख्य रूप से सिंधु/सरस्वती सभ्यता, वैदिक सभ्यता और इन सभ्यताओं के मध्य एशिया की सभ्यताओं के साथ के सम्बन्ध का विषय बडा ही रोचक है।

इस विषय का वैज्ञानिक अध्ययन काफ़ी कठिन है। कारण है कि ईसा पूर्व के भारतीय इतिहास में Mythology (पौराणिक कथायें) इस प्रकार घुली मिली हैं कि किसी पौराणिक ग्रन्थ के सत्य और कल्पना को अलग कर पाना अपने में एक भगीरथ कार्य है। कहीं कहीं पर इन दोनों के बीच का अन्तर बडा ही महीन है और भावनाओं के आवेग में कई इतिहासविद अपने स्वयं के विश्वास को बिना किसी प्रमाण के इतिहास के रूप में प्रतिपादित करने में जरा भी नहीं चूकते। इसके अलावा भी हमने इतिहासकारों को विभिन्न खेमों में बाँट रखा है। अगर आप मेरे साथ नहीं हैं तो आप मेरे विरोधी हैं की मानसिकता ने इतिहासविदों के कई खेमें बना दिये हैंआपने कोई ऐसी बात कही जो दूसरे के विचारों से भिन्न है तो पलक झपकते ही आपको कम्युनिस्ट अथवा संघी कह दिया जाएगा।

जहाँ एक ओर विद्वान हैं जो मानते हैं कि हिन्दू धर्म लाखों करोडों वर्ष पुराना है तो वहीं दूसरी ओर के लोग सभी धार्मिक ग्रन्थों को मात्र कल्पना की उडान से अधिक नहीं समझते। मेरी समझ में सत्य इन दोनों रास्तों के कहीं बीच में है पर विडम्बना है इस बीच के रास्ते पर कोई चलना ही नहीं चाहता। यहाँ तक तो ठीक था लेकिन इस अंतर्जाल ने सब गडबड कर दिया है। अब तो हर कोई इतिहासकार बन सकता है, आपकी योग्यता भले ही कुछ भी न हो लेकिन एक वेबसाईट बनाइये और अपना सारा अधकचरा ज्ञान वहाँ पटक दीजिये। कोई न कोई आपकी वेबसाईट खोजकर विभिन्न चर्चाओं में कट/पेस्ट करना शुरू कर देगा और देखते ही देखते बन गए आप इतिहासविद। इसके लिए एक और शार्टकट भी है, आप ऐसे मुद्दों पर लिखिये जो विवादास्पद हों। गांधी को गाली दीजिये, मैकाले को कोसिये, हर बात में अंग्रेजों की चाल बताइये, और चाहें तो इसके विपरीत भगतसिंह में कमियाँ निकालिये, सावरकर को तोलिये, सुभाष/नेहरू/पटेल के तुलनात्मक अध्ययन के बाद तो आप जो चाहें वो कह सकते हैं। कोई कसर बाक़ी रहे हो छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा तो कहीं नहीं गया है। कुल मिलाकर सब कुछ ऐसा जिससे आपका प्रोपागेंडा फ़ैल सके।

यूँ तो भारत में लगभग ५०००० ईसा पूर्व तक मानवों के रहने के प्रमाण मिले हैं, परन्तु मेरी जिज्ञासा खानाबदोश मानवों में नहीं बल्कि वहाँ से शुरू होती है जब मनुष्य ने सभ्य रूप में एक सामाजिक प्राणी के रूप में रहना प्रारंभ किया। ये विषय बडा क्लिष्ट है, क्योंकि इस अध्ययन के लिये इतिहास को हमारे विश्वास और मान्यताओं से अलग करना पडता है। उदाहरणार्थ, रामायण और महाभारत का ऐतिहासिक महत्व उनके धार्मिक महत्व से पूर्णता भिन्न है। इतिहास निर्मम होता है और केवल प्रमाण स्वीकार करता है। परन्तु ये भी सत्य है कि विश्व की सभी सभ्यताओं में सदैव विजेताओं ने इतिहास लेखन किया है और इस कारणवश वास्तविकता और कल्पना में भेद करना एक दुरूह कार्य है। इतिहासविदों के विचार में "चार बाँस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चौहान" पृथ्वीराज रासो में कवि रंगवरदाई की कल्पना मात्र है । इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है कि पृथ्वीराज चौहान ने इस प्रकार मोहम्मद गौरी का वध किया था।

एक इतिहासविद को इससे कोई कष्ट नहीँ अगर आप विश्वास करते हैं कि रामायण और महाभारत आज से हजारों लाखों वर्ष पूर्व त्रेता एवं द्वापर युग में घटित हुये थे। परन्तु यदि आप महाभारत और रामायण को इतिहास के रूप में प्रतिष्ठापित करना चाहते हैं, तो आपको ठोस प्रमाण देने होंगे। इसके अतिरिक्त ऐसे प्रमाण भी अमान्य होंगे जो तर्क के धरातल पर खडे न हो सकें। अयोध्या और मथुरा नामक नगरों की उपस्थिति रामायण और महाभारत को प्रामाणिक सिद्ध नहीं कर देती। अगर ये सत्य है तो क्या आज से हजारो साल बाद कोई भी ऐसा उपन्यास जो भौगोलिक दृष्टि से ठोस हो सत्य मान लिया जाएगा ? क्या द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखे सभी उपन्यास सत्य हो जायेंगे जो तारीखों की कसौटी पर खरे उतरेंगे ? यहाँ पर ये स्पष्ट कर देना जरुरी है कि मेरी आकांक्षा महाभारत और रामायण को उपन्यास साबित करने की नहीं है, मैं तो केवल एक पक्ष रख रहा हूँ और मेरा उद्देश्य वर्तमान में भारतवासियों की तर्क न करने की प्रवत्ति को उकेरना है।

आशा करता हूँ कि इस पोस्ट के माध्यम से अपने कुछ विचारों से मैंने आपको अवगत कराने का प्रयास किया है, इस पोस्ट की अगली कड़ी में हम कुछ और मुद्दों पर विचार करेंगे।

साभार,
नीरज रोहिला

रविवार, मई 13, 2007

व्यवहारिक सम्बन्ध और मित्रता की कसौटी !

काफी अरसे से इस लेख को लिखने का सोच रखा था परन्तु हर बार कुछ न कुछ रुकावट आ जाती थी. आज संभवतः इसे लिखकर ही शयन करूँगा ।

ये तब की बात है जब मेरे एक अभिन्न मित्र से मतभेद के कारण वार्तालाप बन्द हो गया था। गलती किसकी थी ये न तो आज ठीक से याद है और न ही मैं पीठ पीछे किसी पर दोषारोपण उचित समझता हूँ। शायद छः माह तक हमारी बातचीत नहीं हुयी। एक दिन सहसा मुझे एहसास हुआ कि मित्र से बात न करने की जिद की सांत्वना के लिये मैं काफ़ी बडा दण्ड चुका रहा हूँ। अक्सर हम एक दूसरे के सामने आते और सदैव सोचते कि शायद कोई दूसरा फ़िर से हाथ बढा दे। आज इस बारे में सोचता हूँ तो स्वयं के व्यवहार पर शर्म आती है। छ: माह के बाद हमारे एक मित्र ने पुन: दोनों की बातचीत प्रारम्भ करा दी। शायद हम दोनों ही किसी अवसर की तलाश में थे जिसे हम अपने छुद्र अभिमान के कारण छ: माह तक तलाश न कर सके। इस पूरे वाकये का विचारणीय पहलू ये था कि छ: माह के बाद हम दोनों को ही ठीक से इस बात का ज्ञान नहीं था कि हमारे मनभेद किस कारण से हुये थे।

बस दोनो अपनी जिद पर अडे थे कि मैं अपनी तरफ़ से पुन: मित्रता की पहल नहीं करूँगा। दोनों एक दूसरे के बारे में अन्य लोगों से जानकारी लेते रहते थे। शायद हमारी मित्रता समाप्त नहीं हुयी थी, एक दूसरे के लिये घृणा के भाव नहीं थे, हॄदय में कोई कटुता भी नहीं थी। एक दूसरे को दु:ख अथवा हानि पहुँचाने का किसी ने भी प्रयास नहीं किया था। किसी ने ठीक ही कहा है:

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे,
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों ।

अभी कुछ दिनों पहले
महाभारत में द्रोणाचार्य एवं द्रुपद की कहानी याद आयी जब द्रोणाचार्य नें अपने शिष्यों से द्रुपद को बन्दी बनाकर लाने को कहा था। मैनें मन ही मन इस कहानी का विश्लेषण किया तो मित्रता की एक नयी व्याख्या मिली। द्रुपद तो संभवतः द्रोण को अपमानित करके उन्हें भूल भी गये होंगे परन्तु द्रोण द्रुपद को कभी भुला न सके। उनका ध्येय द्रुपद को बन्दी बनाकर उसे अपमानित करना नहीं अपितु अपने पुराने मित्र को पुनः प्राप्त करना था। द्रोण अपने मित्र के कटु व्यवहार के बाद भी अपने मित्र से न तो घृणा कर सके और न ही मित्रता को भुला सके। द्रोण के ह्रदय में मित्रता की सरिता मित्र की अनुपस्थिति में और भी प्रबल होती रही होगी।

महाभारत की इस घटना की मेरी व्याख्या सम्भवत: गलत हो सकती है। मैने अपने जीवन में ऐसे कई उदाहरण देखे हैं जब एक मित्र दूसरे मित्र को केवल इसीलिये क्षमा कर देता है क्योंकि क्षमा करना मित्र से क्रोधित रहने से कहीं कम कष्टकारक होता है। इस विषय पर सोचने पर एक पहलू और सामने आया है। अक्सर व्यक्तिगत सम्बन्धों में सभी समान स्तर पर नहीं होते हैं, अति निकट मित्रों को छोड दें तो बाकी में कोई एक दूसरे पर किसी न किसी प्रकार हावी रहता है। ऐसी स्थिति में मैने अक्सर महसूस किया है कि उनमें से एक सदैव प्राप्ति छोर (रिसीविंग एन्ड) पर रहता है। क्या आपने कभी अनुभव किया है कि कोई एक मित्र दूसरे पर जान छिड़कता है दूसरा उसे कुछ खास भाव नहीं देता है। ऐसे में मित्रता का धागा तब तक चलता है जब तक कोई एक समझौता करता रहता है। ऐसे संबंध में कौन अपराधी है ? ऐसा ही कुछ प्रेम संबंधों में भी देखा जा सकता है।

इसके विपरीत कुछ संबंध ऐसे होते हैं जिनको हम कभी समझ नही पाते। मेरे कुछ मित्र ऐसे हैं जिनसे मेरी वर्षों से बात नहीं हुयी है, लेकिन विश्वास है कि अगर कल उनसे मिलूँगा तो फिर पहले जैसी बेतकल्लुफी होगी। अपने खास दोस्तो को ईमेल लिखना अक्सर छूट जाता है क्योंकि सोचते हैं कि फुर्सत में लिखेंगे, और ये फुर्सत कभी हाथ नहीं आती। कभी आपके साथ ऐसा हुआ है कि आपका मित्र आपको जन्मदिन कि बधाई देना भूल गया और बाद में कभी बात हुयी तो उसका कहना कि उसे तारीखें याद नहीं रहती बेईमानी सा नहीं लगता है। क्योंकि हमे पता होता है कि वो झूठ नहीं बोल रहा है और हम एक हंसी और दो गालियों के साथ बात को वहीँ समाप्त कर देते हैं। ईश्वर करे हम सब अपने मित्रों से प्रेम करते रहें और यदा कदा कभी किसी से भूल हो भी जाये तो उसे "बनिये" की रसीद पर लिखी उक्ति ("भूल चूक, लेनी देनी") की तरह समझ कर क्षमा करें।

शुक्रवार, मई 04, 2007

लड़कियों से बात करो, लड़कियों के बारे में नहीं !!!

कुछ लोगो ने धूप में छतियाने के किस्से सुनाये तो किसी ने शर्त जीतने की कहानी सुनायी | लीजिये हम भी हाजिर हैं कुछ आजमाये हुये नुस्खे लेकर | अब चूँकि ये चिट्ठा घरवाले भी पढ सकते हैं इसलिये पोलिटिकली करेक्ट होने के लिए एक डिस्क्लेमर भी जरूरी है, "ये सभी नुस्खे आजमाये हुये हैं लेकिन जरूरी नहीं कि सारे के सारे मैंने खुद आजमाये हो" |

लीजिये कुछ साश्वत सत्य वचन पेश हैं:

१) अगर किसी लडके ने किसी लड़की से "हाय/हैलो" कहा है तो वो इसे केवल "हाय/हैलो" ही समझती है | इसके उल्टे अगर किसी लड़की ने किसी लडके को "हैलो" कहा तो लड़का इसको केवल "हैलो" नहीं समझेगा |

२) अगर लड़का "हैलो" को केवल "हैलो" समझना भी चाहेगा तो उसके दोस्त ऐसा नहीं होने देंगे, आख़िर दोस्त होते ही किस दिन के लिए हैं :-)

) लड़के जिनकी गर्ल फ्रेंड होती है और जिनकी नहीं होती है, में केवल एक फर्क होता है, पहले वाले लोग "लड़कियों से बात करते हैं" और दूसरे वाले "लड़कियों के बारे में बात करते हैं" |

४) इंजीनियरिंग कालेज छोड़ दिए जाएँ तो संसार में सुन्दर लड़कियों की कोई कमी नहीं है |

५) जो इंजीनियरिंग कालेज जितना अच्छा होगा वहाँ लड़कियों कि गुणवत्ता कालेज की रैंक के व्युत्क्रमानुपाती होगी |

६) आपके मित्र कभी नहीं चाहते कि आपकी कोई गर्ल फ्रेंड बने, वरना वो कैंटीन में किसके साथ बैठ कर मौज करेंगे |

७) कालेज में लड़कियों के पीछे पंजीकरण बिल्कुल मुफ्त होता है, बन्दा साल में दो बार लड़की से बात नहीं करेगा लेकिन कैंटीन में हमेशा "मेरी वाली"/"तेरी वाली" संबोधन से ही बात होगी |

८) अगर आप पढाई में अच्छे हैं तो इसका सहारे आप बातचीत की शुरुआत तो कर सकते हैं, लेकिन सफलता के लिए जल्द से जल्द दूसरे मुद्दों पर आना नितांत जरूरी है |

९) लड़कियों के साथ कभी भी तार्किक बातें न करें, जो लडकियां कहती हैं कि उन्हें लाजिकल/सत्यवादी लडके पसंद हैं वो झूठ बोलती हैं | कभी उन्हें बोल कर देखिए कि वो कितनी बेवकूफी भरी बातें कर रही है फिर पता चलेगा कि उन्हें सत्य कितना पसंद है |

१०) पेट भर भर कर झूठ बोलना लड़कियों को काफी भाता है, लड़कियों के हर सवाल के जवाब का अंत एक सवाल से करें |

११) लड़कियों को बात करना बहुत पसंद होता है आप केवल बीच बीच में "आह/वाह" और "सच में/तुम मजाक कर रही हो" जैसा कुछ बोलते रहें, बाक़ी वो अपने आप बोलती रहेगी |

१२) दोस्तो की भावुक बातों से सावधान रहें, "तूने लड़की के लिए दोस्ती छोड़ दी" जैसे वाक्यों ने कितने ही लड़कों का रोमांटिक कैरियर बीच में चौपट किया है |

१३) यदि आप सभ्यता से किसी लड़की से बात करते हैं तो इससे उसे कोई दिक्कत नहीं, हाँ उसको भाईयों के बारे में पूर्व जानकारी हमेशा काम आ सकती है |

१४) ज्यादा से ज्यादा लड़की आपको शालीनता से मना कर सकती है, लेकिन इस प्रकार की कई असफलताओं के बाद ही व्यक्ति सफल होता है |

१५) लड़की की सहेली का रोल दुनिया में गुब्बारे की तरह फुलाकर रखा गया है, आमतौर पर इसकी कोई आवश्यकता नहीं होती, हिम्मत करके अकेले दम पर बात करने जैसा सुख और कुछ नहीं |

फिलहाल के लिए इतना ही, बाक़ी के पाठ फिर किसी दिन !!!

बुधवार, मई 02, 2007

चलो कुछ तो मेहनत सफ़ल हुयी ।

आज अपने लेपटाप के बहाने से आपसे कुछ बाते करते हैं । ये तब की बात है जब हमने अगस्त २००४ में ह्यूस्टन नगर के राइस विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था । घर से चले थे तो पिताजी ने ढेर सारे डालर हंसी खुशी हमारे हवाले कर दिये थे । हमने कहा था कि वहाँ जाते ही पैसे मिलना शुरू हो जायेंगे पर माताजी ने कहा इतनी खुशी से तुम्हारे बापू दे रहे हैं तो मना क्यों कर रहे हो ? और परदेस में तो पता नहीं कब कैसी जरूरत आ जाये । हमने भी कहा कि "मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या है?" और वैसे भी पिताजी की अंटी से कुछ ढीला होना बडे सौभाग्य की बात है ।

यहाँ आते ही खूब खातिर हुयी, सबसे पहले हमारे विभाग वालों ने १५०० डालर हमारे हाथ में रख दिये, हमने पूछा कि ये क्या है तो बोले कि ये मुँहदिखायी की रस्म है (ट्रेवल एलाउंस) । जिन्दगी में पहली बार इतना पैसा और खर्च करने के लिये बाजार नहीं जा सकते (भाई कार नहीं थी न हमारे पास) । हम मन मसोस कर रह गये । खैर कुछ दिनों के बाद हमारा जन्मदिन आया और हमारे रूममेट भाईयों नें एक कार वाले भईया को पटा लिया । हम भी भोलेपन में फ़ंस गये, पता ही नहीं था कि यहाँ जन्मदिन पर बाकी लोग खर्चा उठाते हैं । जन्मदिन के बहाने भी हम कुल मिलाकर मात्र ९० डालर ही खर्च कर पाये (छ: लोगो का खाना) । हमें बडी कोफ़्त हुयी कि बडी ही सस्ती जगह है अमरीका, हम चाहकर भी पैसे खर्च नहीं कर पा रहे हैं ।

तभी हमारे दिमाग के खाली भाग में घंटी बजी, सोचा जब इतना पैसा है तो क्यों न एक लेपटाप खरीद लिया जाये । बार बार कम्प्यूटर रूम जाने का टंटा ही खत्म और कमरे में बैठकर मस्त टाइमपास करेंगे । अब हम भी पूरे हीरो थे, न किसी से पूछा न ताछा और खट से १६०० डालर का एक एच. पी. का लेपटाप आनलाइन खरीद लिया । वो इतनी महँगी मेरी पहली खरीद थी । बाद में लोगों ने बताया की अमरीका में हर चीज के छत्तीस दाम होते हैं, और कुछ लोग चीजों के सस्ते दाम ढूँढने में महारथी होते हैं । मेरे भी एक मित्र ऐसे ही हैं, मैं उन्हे बाजार का बादशाह कहता हूँ । उनके पास हर सामान का कूपन या डील होती है । खैर फ़िर वापस आते हैं लेपटाप पर, जैसे की होस्टल की प्रथा होती है, हर नये कम्प्यूटर की नथ एक विशेष प्रकार की फ़िल्म देखकर उतारी जाती है; ठीक वैसा ही यहाँ भी हुआ । वो लेपटाप लगभग दो साल हमारा साथ निभाकर खुदा को प्यारे हो गये ।

जैसा कि हर दूसरी शादी के साथ होता है, नये लेपटाप ने हमारा काम तो संभाल लिया लेकिन हमारा दिल उस मुर्दा पुराने लेपटाप में ही फ़ंसा रहा । दोस्तो की सलाह पर भी हमने उसका अंतिम संस्कार नहीं किया, उसे कलेजे से लगाये रहे । दिन बीते, महीने बीते और ख्याल आया कि क्यों न लेपटाप के मुर्दा शरीर पर कुछ शोध किया जाये । हम पेंचकस लेकर बैठ गये और उसके अंजर पंजर खोल डाले । हमें लगा कि इस मुर्दा मशीन में केवल हार्ड डिस्क ही खराब है, लिहाजा हमने उसे फ़िर से मुर्दा से जिन्दा बनाने की ठान ली । फ़टाफ़ट एक हार्डडिस्क लायी गयी और मुर्दे में जान फ़ूँक दी गयी ।


अब हमने कहा कि जब ये जिन्दा हो गया है तो क्यों न थोडे और प्रयोग कर लिये जायें । लिनक्स पर काम किये हुये लगभग दो-तीन साल बीत चुके थे और सोचा कि इससे अच्छा मौका फ़िर नहीं मिलेगा । इन वर्षों में लिनक्स बहुत तेजी से बदल चुकी थी । हमारे पार फ़ेडोरा कोर ३ (जो उस समय लेटेस्ट थी) और रेडहेट ७ की डिस्क थी, लेकिन अब तो फ़ेडोरा कोर ६, उबन्टू और सुसी का जमाना है । फ़टाफ़ट ये तीनों वितरण अन्तर्जाल से टापे गये और फ़िर सिलसिला प्रारम्भ हुआ एक जद्दोजहद का ।

ये सभी कम्प्यूटर पर आसानी से स्थापित हो गये लेकिन इनमें से कोई भी हमारे बेतार वाले यंत्र (वायरलेस इंटरफ़ेस) में प्राण न फ़ूंक सका । खोजबीन की तो पता चला कि हमारा बेतार यंत्र पुराने जमाने का है और उसको चलाने वाले मंत्र (ड्राइवर प्रोग्राम) लिनक्स वालों के पास नहीं हैं । बहुत हाथ पैर मारे लेकिन नतीजा वोही सिफ़र का सिफ़र । रोज अन्तर्जाल पर समय बिताकर नये नये उपाय खोजना, कभी फ़ेडोरा, कभी सुसी और कभी उबन्टू लेकिन रोज वही नाउम्मीदी ।

कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती ।

और तो और कुछ लोगों ने तो अन्तर्जाल पर यहाँ तक लिख दिया कि इस मार्का बेतार यंत्र को लिन्क्स पर चलाना नितान्त कठिन है । इस बीच काफ़ी दिन फ़ेडोरा कोर ६ पर तार के साथ अन्तर्जाल चलाया और आईट्रान्स नाम के एक प्रोग्राम से हिन्दी चिट्ठों पर टिपियाया भी और चिट्ठे भी लिखे । ये सब तो ठीक था लेकिन कम्प्यूटर को लेकर न घूम पाने का गम सालता रहा ।


कल देखा कि उबन्टू का नया वितरण बाजार में आया है, "उबन्टू ७.४" । अन्तर्जाल पर बडी तारीफ़ सुनी और सोचा शायद ये ही मेरा तारनहार हो । पहले तो इसने भी हाथ खडे कर दिये लेकिन थोडे से लाड/दुलार और पुचकारने के बाद आखिरकार बेतार यंत्र की बत्ती जल ही गयी । और उबन्टू ने हमारा दिल जीत लिया । हमने सबसे पहले नारद जी को सलाम ठोंका और मनभर हिन्दी चिट्ठे पढे । उबन्टू पर हिन्दी पढने में कोई समस्या नहीं आयी लेकिन हिन्दी लिखें कैसे? अन्तर्जाल पर देखा तो बारहा जैसे प्रोग्राम केवल खिडकी (विन्डोज) के लिये हैं लिनक्स के लिये भी कुछ लिंक मिले लेकिन कुछ मजा नहीं आया । इसका मतलब है कि जद्दोजहद अभी जारी है और लिनक्स को विंडोज के मुकाबले में अभी भी काफ़ी मेहनत करनी है ।


चलिये फ़िलहाल के लिये इतना ही और मेरी बकबक सुनने के लिये धन्यवाद ।

और हाँ अगर लिनक्स पर आसानी से हिन्दी लिखने का कोई तरीका आपको आता हो तो टिपियाकर सूचित कीजियेगा ।

साभार,
नीरज

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बाद में पिताजी को पता चला था कि हमने उनके पैसे कितनी निर्दयता से खर्च (उनकी नजर में उडाये थे) किये थे तो आप सोच ही सकते हैं उनसे फ़ोन पर कैसी बात हुयी होगी :-)