बुधवार, दिसंबर 26, 2007

एक और प्रकार का चिठेरा चिठेरी संवाद (अनूपजी से प्रेरित) !!!

चिठेरी: अरे ओ रे चिठेरा, आज इठला के कहाँ चला ?

चिठेरा:अरे आज तो मेरा जीवन सफ़ल हो गया है। आज एक मीटिंग में गया था वहाँ रामसेतु के बारे में पता चला । तूने सुना है क्या इस बारे में?

चिठेरी: हाँ कुछ उडती उडती एडम ब्रिज के बारे में सुनी तो थी कि पिछली सरकार ने वहाँ एक नहर बनाने को मंजूरी दी थी । इस सरकार ने नहर बनाना शुरू किया तो बोले हम नहीं बनने देंगे ये हमारी भावनाओं का मामला है ।

चिठेरा: तू भी नाहक कम्यूनिष्टों उर्फ़ दुष्टों की बातों में आ जाती है ।

चिठेरी: पर कम्यूनिष्ट तो इस बारे में कुछ नहीं बोल रहे हैं ।

चिठेरा: फ़िर वोही बात, तू भोली है इन छ्द्म धर्म-निरपेक्ष लोगों की चतुराई नहीं समझ पाती है ।

चिठेरा: पता है आज से लगभग १.७५ वर्ष पहले नल और नील ने राम सेतु का निर्माण किया था । तभी पुष्पक विमान भी था । अभी हम उसे भी खोज रहे हैं । रामजी के जमाने में विज्ञान बहुत सुपर था ।

चिठेरी: अरे बाप से इत्ता पुराना है राम सेतु,

चिठेरा: और नहीं क्या? पता है गुणा भाग करके देख, त्रेतायुग भी लगभग तब (१.७५ वर्ष पहले) ही था, इससे साबित होता है कि भारतीय सभ्यता लाखों करोडों वर्ष पुरानी है । और अब तो इसके वैज्ञानिक प्रमाण भी मिल गये हैं ।

चिठेरी: अच्छा १.७५ वर्ष पहले, लेकिन ये किसने पता लगाया कि राम सेतु इतना पुराना है ? प्रमाण कहाँ है ?

चिठेरा: तेरी ये ही कमी है, तू सवाल बहुत करती है । मैं कह रहा हूँ न इतना पुराना है तो मान ले । और आस्था का प्रमाण कहाँ से लाऊँ ।

चिठेरी: तो १.७५ वर्ष आस्था से निकाला है, विज्ञान से नहीं ।

चिठेरा: अरे नहीं बिल्कुल वैज्ञानिक है । असल में ये शोध किसी जनरल (Journal) में इसलिये नहीं छप पाया क्योंकि पश्चिमी लोग नहीं चाहते कि भारत के लोग अपनी सभ्यता के बारे में गर्व करें कि वो इतनी पुरानी है ।

चिठेरी: लेकिन एक बात समझ नहीं आयी, विज्ञान तो कहता है कि १.७५ वर्ष पहले मनुष्य अफ़्रीका से ही नहीं निकल पाये थे वो अयोध्या कैसे आ गये ?

चिठेरा: तू समझती क्यों नहीं, बाल्मीकि जी ने लिखा है ये सब तो सत्य ही होगा । फ़िर अपने पुराणों में भी तो त्रेता युग १.७५ वर्ष पहले का ही बताया गया है ।

चिठेरी: इसका मतलब कि १.७५ लाख साल ऐसे ही बोल रहे हो, कोई खोज वोज नहीं हुयी ।

चिठेरा: तू इसको समझ नहीं पायेगी, तेरी आँखों पर मैकाले वाली शिक्षा पद्यति की पट्टी पडी हुयी है ।

चिठेरी: अब मैकाले कहाँ से आ गया, और मैं तो सरस्वती शिशु/विद्या मंदिर की पढी हूँ । हमारे स्कूल का उदघाटन खुद रज्जू भैया ने किया था ।

चिठेरा: फ़िर तेरी बुद्धि भ्रष्ट कैसे हो गयी । तुझे पता है अभी कुछ पहले ही एक वैज्ञानिक ने रामायण काल की गणना की है ।

चिठेरी: अच्छा सच में, कैसे गणना की है ।

चिठेरा: देख, बाल्मीकि जी ने रामायण में अलग अलग घटनाओं के समय की ग्रहों की स्थिति का वर्णन किया है । कि जब राम जी का जन्म हुआ तो फ़लाँ नक्षत्र फ़लाँनी स्थिति में था । और अब वैज्ञानिक Software का प्रयोग करके हमने पता कर लिया कि फ़लाँ नक्षण फ़लाँनी स्थिति में कितने साल पहले था, है न एकदम वैज्ञानिक ।

चिठेरी: बाप से बाप, ये तो मस्त बात बतायी तूने । कितने समय पहले थे रामजी अयोध्या में ।

चिठेरा: यही कोई आज से लगभग ६०००-७००० साल पहले ।

चिठेरी: लेकिन अभी तो तू १.७५ लाख साल पहले की बात कर रहा था ।

चिठेरा: वो तो मैं तुझे अपना समझ के कह रहा था, लेकिन तू तो मैकाले की बहन और कम्यूनिष्टों की सहेली निकली इसीलिये असली वैज्ञानिक डेट बता रहा हूँ । तू आस्था को नहीं समझेगी ।

चिठेरी: लेकिन रामजी हुये तो एक ही समय होंगे, या तो १.७५ लाख साल पहले या ६००० साल पहले । अब कोई एक तारीख ही पक्की कर दो ।

चिठेरा: अरे एक तारीख पक्की करने में बडी समस्या है । पुराणों का क्या करेंगे, अब उन्हे भी तो गलत नहीं कह सकते ।

चिठेरी: लेकिन "खट्टर काका" ने तो अपनी किताब में पुराणों की खूब हिन्दी की है । पुराणों की सारी बातें सच थोडे ही न हैं ।

चिठेरा: तुझे भारत के गौरव की कोई चिन्ता नहीं? अगर ६००० साल पहले रामजी हुये तो ईराक में तो लोग रामजी से पहले ही रह रहे थे । और तुझे तो पता है कि भारतीय सभ्यता सबसे पुरानी है, फ़िर ऐसा नहीं हो सकता ।

चिठेरी: तो फ़िर कह दो कि ६००० साल पुरानी तारीख गलत है ।

चिठेरा: तू पागल हो गयी है क्या? फ़िर तो रामायण ही गलत हो जायेगी । और इस शोध को करवाने में जो पैसा लगा वो अलग पानी में गया ।

चिठेरी: मुझे तो ५०००-६००० साल पुरानी बात ही सही लगती है । देख: रामायण की कुछ बातों पर ध्यान दे । उस समय धातुओं का खूब प्रयोग होता था, समाज व्यवस्था विकसित हो चुकी थी । मनुष्यों की जीवन शैली खूब बढिया थी । जानवर पालतू बन चुके थे आदि आदि

चिठेरी: किसी भी पुरानी सभ्यता को देख ले, ये सारे काम ५०००-६००० साल पहले ही हुये हैं ।

चिठेरा: तेरी बात में तो दम है, लेकिन उसके बाद युगों, ब्रह्मा के दिन, प्रलय आदि का क्या होगा । और ये सब तो ठीक है लेकिन फ़िर उसके बाद महाभारत को ५००० साल के पीछे रखना पडेगा और लोग पूछेगें कि जब महाभारत ५००० साल से भी कम पुरानी है तो उसके प्रमाण उत्खनन में क्यों नहीं मिले । नहीं, रामायण तो १.७५ लाख वर्ष पुरानी ही है, तू आसानी से मान ले वरना तेरी खैर नहीं ।

चिठेरी: चलो आस्था की बात है तो मैं मान लेती हूँ ।

चिठेरा: आस्था के अलावा अभी अभी मैने तुझे समझाया तो है कि वो वैज्ञानिक प्रमाण है और नासा वालों ने भी यही कहा था ।

चिठेरी: लेकिन नासा वालों ने तो कहा था कि उन्होने राम सेतु के केवल फ़ोटों खींचे हैं, उसकी आयु के बारे में उन्हे कुछ नहीं पता ।

चिठेरा: अरे ये तो उन्होने ईसाई मिशनरियों के दवाब में आकर किया होगा । इन मिशनरियों से अपने भारत को बहुत खतरा है ।

चिठेरी: अच्छा अभी मैं चलती हूँ, आज के लिये बहुत हो गया ।

चिठेरा: अभी तो बहुत कुछ बताना बाकी है । पता है वेदों में विमान बनाने की विधि है, परमाणु बम तक बना सकते हैं हम वेदों को पढकर । तुझे पता नहीं जर्मनी वालों ने कितनी ही चीजें वेदों से खोजकर बनायी थी ।

चिठेरी: तो तुम क्यों नहीं बना लेते, फ़िर तो परमाणु ऊर्जा वाली डील की जरूरत भी नहीं रहेगी ।

चिठेरा: वो सब हम बाद में सोचेंगे, पहले जन चेतना जगानी पडेगी कि अपना पुराना विज्ञान सबसे बढिया है । उसके बाद पाश्चात्य सभ्यता के अनुयायियों के खिलाफ़ मोर्चा खोलेंगे, इन मैकाले पुत्रों का घोर विरोध होना चाहिये ।

चिठेरी: अच्छा चल, अभी देर हो रही है । बाद में फ़ुरसत से तुझसे ज्ञान लेना पडेगा ।

चिठेरा: हाँ, अगली मीटिंग में तुझे साथ में ले के चलूँगा...

 

आगे भी जारी रहेगा......

सोमवार, दिसंबर 24, 2007

जूतों के फ़ीतों के बहाने पुरानी यादें !!!

मेरा ह्यूस्टन मैराथन १३ जनवरी को आने वाला है इसीलिये आजकल दौडना थोडा बढ गया है (रोज लगभग १० किमी.) । आजकल यूनिवर्सिटी में यीशू के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में छुट्टियाँ चल रही हैं, इस कारण जिस इमारत में मेरी प्रयोगशाला है के सभी दरवाजें बन्द रहते हैं । अगर आपको अन्दर जाना है तो अपना परिचय पत्र एक रीडर की स्लाट में से गुजारिये और दरवाजे खुल जायेगें । उसके बाद मुख्य इमारत में घुसकर प्रयोगशाला में जाने के लिये एक चाबी की आवश्यकता पडती है ।

 

यही समस्या है, मेरे दौडने वाले कपडों में एक भी जेब नहीं है और मुझे हाथ में कुछ भी पकडकर दौडना बहुत असुविधाजनक लगता है । इस कारण आजकल मुझे अपना परिचय पत्र इमारत के बाहर रखे एक गमले में छुपा कर जाना पडता है और प्रयोगशाला की चाबी को मैं अपने जूते के फ़ीतों में फ़ंसा लेता हूँ । आज जब मैं अपनी चाबी को जूते के फ़ीतों में फ़ंसा रहा था तो देखा कि मेरे फ़ीते के सिरे में लगा हुआ प्लास्टिक का कैप जैसा कुछ टूट गया (इस प्लास्टिक वाली वस्तु का कुछ विशेष नाम होता है जो याद नहीं आ रहा है ) । इसके बाद दौडते समय मैं जूते और फ़ीतों के बारे में सोचता रहा ।

 

मुझे अच्छे से याद है बचपन में मेरे जूते बहुत जल्दी टूटते थे । मुझे दौडने भागने और फ़ुटबाल खेलने का शौक था और रास्ते में पडे पत्थरों को ठोकर मारने की भी कुछ आदत सी थी । मेरे नये जूते लगभग ४-५ महीने ही चल पाते थे । बाटा हो या साटा हर तरीके के जूते खरीद कर देख चुके थे, एक बार तो पिताजी ने जूते की दुकान वाले को कहा था कि भैया तुम्हारे पास लकडी/लोहे के जूते हों तो वो दिखाओ । इसके अलावा बीच-बीच में जूते के फ़ीते टूटते रहते थे और जूते मरम्मत को भी जाते रहते थे । उस समय जूते ठीक करने वाला मेरा दोस्त सा बन गया था, अन्दर की बात बता देता था कि २.५ रूपये दर्जन तो केवल कीलें ही मिलती हैं और ज्यादा पैसे नहीं बच पाते हैं ।

 

मैं भी फ़ीतों के टूटने पर घर में आखिरी संभव समय तक नहीं बताता था, पहले आधे हुये फ़ीते को ही पिरो लेता था उससे गाँठ जरा छोटी लगानी पडती थी । उसके बाद भी काम न चले तो alternate छेदों में से फ़ीता पिरो कर काम चला लेता था । उस समय जूतों में ३-४ छेदों की पंक्तियाँ हुआ करती थी । पहली बार स्पोर्ट्स शू में ६-७ छेदों की पंक्तियाँ देखकर बडा खुश हुआ था । खैर बात फ़ीतों की, जब घर वाले फ़ीतों पर मेरी मितव्ययिता देखा करते थे तो नाराज होते थे कि पहले क्यों नहीं बताया कि फ़ीते टूट गये हैं । यही हाल मेरी जुराबों का भी होता था, कहीं से एक भी धागा देखकर मैं उसे खींच लेता था और उससे जुराबें फ़ट जाया करती थीं । उस समय घर के नुक्कड का दुकानवाला जूतों के फ़ीते भी बेचने को रखता था, पता नहीं अब भी रखता होगा क्या ?

इसी से एक बात याद आयी जो मैं बचपन में अपने आस पडौस में खूब सुना करता था । किसी भी विद्युत उपकरण/मोटर आदि के गरम होने की बात । कोई कहता था कि इसे लगातार मत चलाओ गरम हो जायेगा । शायद उन सबके डिजाइन में इन बातों का ध्यान नहीं रखा जाता होगा या फ़िर लोगो ने मरम्मत कराने के डर से ऐसा रूल आफ़ थम्ब बना लिया होगा ।

 

लेकिन अभी पिछले कई वर्षों से देखा है कि मेरे जूतों के फ़ीते टूटे नहीं हैं । या तो फ़ीतों की गुणवत्ता अच्छी हो गयी है अथवा मैं थोडा सुधर गया हूँ । आपके जूतों के फ़ीते आखिरी बार कब टूटे थे ?

शनिवार, दिसंबर 22, 2007

परीक्षण पोस्ट २: कृपया अनदेखा करें या पढें :-)

इस पोस्ट को मैं अपने कम्प्यूटर के माइक्रोसाफ़्ट आफ़िस २००७ से छाप रहा हूं ।


 

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पता नहीं, देखते हैं, अभी कुछ पक्का नहीं कह सकते ।


 

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परीक्षण पोस्ट २: कृपया अनदेखा करें या पढ भी लें :-)

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सहजता,कहीं मोल मिलती है क्या?

कभी ट्रेन के डिब्बे में अंग्रेजी किताब पढ़ने वाला इसलिए असहज कि लोग सोच रहे होंगे कि ये टशन मारने के लिए अंग्रेजी की किताब पढ़ रहा है जबकि मैं तो रोज ही अंग्रेजी की किताब पढता हूँकभी वो ये सोचकर असहज कि ये आम लोग कभी समझ नहीं पायेंगे कि इस अंग्रेजी की किताब में ऐसा क्या है जो में इसे पढ़ रहा हूँट्रेन में हिन्दी कि किताब पढ़ने वाला इसलिए असहज कि कहीं लोग ये सोच रहे हो कि मैं गंवार हूँ जबकि मेरी अंग्रेजी उतनी ही अच्छी है जितनी हिन्दीकभी वो ये सोचकर असहज कि आजकल मेरे जैसे लोग हैं ही कहाँ जो हिन्दी कि किताबे पढ़ते हैं, सब मैकाले की औलादें हैंमेरा बस चले तो सबकी अंग्रेजियत एक बार में निकाल दूं
कभी इस बात का दंभ कि मैं तो हिन्दी पढ़ रह हूँ डंके की चोट पर, जिसे गंवार कहना हो कह ले मुझे परवाह नहीं

कहाँ मेरे स्कूल में चीनी विद्यार्थी की कमजोर अंग्रेजी के कारण एक साधारण सी बात को जरा तकलीफ़ से समझाने के बाद उसके चेहरे पर आयी सहज मुस्कान और कहाँ किसी अंग्रेजीदां नौजवान की दिल्ली के कैफ़े काफ़ी डे में अमेरिकन एक्सेंट में बातचीत के दौरान असहजता से "डैम इट" और "होली शिट" ।


कहाँ है इसके बीच में मेरा नायक जो सहजता से अपनी अंगरेजी कि किताब बंद करके स्टेशन पर उतरकर वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास खरीदकर उतनी ही सहजता से पढता है तो वो बात बात में काले फिरंगियों को गरियाता है और ही उन्ही की भाषा में बात करता है ? आपने मेरे नायक को कहीं देखा है ?

सोमवार, दिसंबर 10, 2007

लखनऊ की याद में कालजयी ठुमरी: बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये

लखनऊ को ठुमरी की जननी और बनारस को उसकी महबूबा कहा जाता है । ऐसी ही एक कालजयी ठुमरी है, "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए" । इस ठुमरी की रचना अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह ने की थी । नवाब वाजिद अली शाह १८४७ से १८५६ तक नौ साल लखनऊ के नवाब रहे थे । १८५६ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उन पर कुशासन का आरोप लगाकर अवध की सत्ता अपने हाथ में ले ली थी । जब नवाब वाजिद अली शाह लखनऊ से निर्वासित होकर बंगाल जा रहे थे उस समय उन्होनें इस ठुमरी की रचना की थी ।

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए

चार कहार मिल, मोरी डोलिया सजावें (उठायें)
मोरा अपना बेगाना छूटो जाए | बाबुल मोरा ...

आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश
जाए बाबुल घर आपनो मैं चली पीया के देश | बाबुल मोरा ...

इस ठुमरी में उन्होने लखनऊ को अपना मायका माना था और सदा के लिये विदा होती एक बहू से अपनी तुलना की थी । इस ठुमरी को १९३८ में बनी फ़िल्म "स्ट्रीट सिंगर" में कुन्दन लाल सहगल ने अपनी आवाज से अमर बना दिया है । इस गीत को कितनी भी बार सुन लें मन नहीं भरता, कुन्दल लाल सहगल ने सिर्फ़ एक हारमोनियम के साथ अपनी आवाज में राग भैरवीं के ऊँचे सुरों को इतने सलीके से गाया है कि आज लगभग ७० वर्ष बाद भी किसी और की आवाज में ये ठुमरी मन को नहीं भाती ।

 

लगभग सभी महान गायक कलाकारों ने इस ठुमरी को गाया है । इस पोस्ट में आप इस ठुमरी को चार

आवाजों में सुन सकते हैं । सबसे पहले कुन्दन लाल सहगल की आवाज में,

 

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अब सुनिये जगजीत सिंह जी को, जिन्होने इसे बडे प्रभावपूर्ण तरीके से गाया है ।

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ये रही गिरिजा देवी और शोभा गुर्टु की जुगलबंदी,

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और अंत में शास्त्रीय संगीत की साम्राज्ञी किशोरी अमोनकर की आवाज में,

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शनिवार, दिसंबर 08, 2007

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अंजान

बात लगभग १९९० की है । मेरे घर में एक आडियो कैसेट आयी थी जिसका टाईटल था "सुपर हिट्स १९८९". इसमें १९८९ की हिट फ़िल्मों के कुछ गीत थे । कैसेट के प्रमुख गीत थे:

१) आ प्यार के रंग भरें (जीना तेरी गली में)

२) किसे ढूँढता है पागल सपेरे (निगाहें)

३) एक दो तीन चार पाँच (तेजाब)

इसी प्रकार के गीतों के बीच में एक गुमनाम सा गीत था ।

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अंजान (गवाही)

तब में लगभग आठ साल का था और उस समय ही इस गीत ने मन पर कुछ अजीब सा असर किया था । मैं कैसेट को आगे-पीछे करके हमेशा उसी गीत को सुनना चाहता था । इसके बाद बचपन गया और बडे होकर जिन्दगी के कारखानों में व्यस्त हो गये । लगभग ५ साल पहले जब इंटरनेट पर गाने सुनना शुरू किया तो इस गीत को खोजने का प्रयास किया और ये गीत कहीं नहीं मिला । अलबत्ता इक्का-दुक्का जगह इस फ़िल्म के बारे में जानकारी जरूर मिली ।

इस अनोखी फ़िल्म में शेखर कपूर और जीनत अमान मुख्य भूमिका में थे । फ़िल्म की कहानी के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है । संगीत उत्तम जगदीश का था और गीतों की रचना सरदार अंजुम ने की थी । पूरी फ़िल्म में केवल दो ही गीत थे और आवाजें पंकज उदास और अनुराधा पौडवाल की थीं ।

इसके बाद मैने शिद्दत से इस गीत को खोजना शुरू किया । घर पर भी वो कैसेट कहीं गुम हो चुकी थी क्योंकि अब घर पर कोई कैसेट नहीं सुनता, कैसेट प्लेयर धूल फ़ाँक रहा है । छोटी बहन के कम्प्यूटर पर गानों का कलेक्शन देखकर थोडा धक्का जरूर लगा जब उनमें से एक भी गाना मैने सुना नहीं था :-)

पिछली बार की छुट्टियों में मैने घर में इस कैसेट को खोज निकाला, लेकिन कैसेट से mp3 बनाने के बाद कुछ मजा सा नहीं आया । कई बार फ़िर से आगे-पीछे करके कैसेट पर उस गीत को सुना । मन पुरानी यादों में लौट गया और लगा कि जब हम केवल आठ साल के थे, अच्छे संगीत को चुनना हमें तब भी आता था ।

हमने इंटरनेट पर इस गीत के लिये कई अर्जियाँ डाली और ऊपर वाले के घर देर है अंधेर नहीं की तर्ज पर एक जगह से आशा की किरन आयी । "संगीत के सितारे" नामक याहू-ग्रुप पर "राबिन भट्ट" जी का सन्देश इस प्रकार आया ।

"जिस किसी का भी नाम नीरज हो (उनके बेटे का नाम भी नीरज है ) और जो गवाही के इस गीत को सुनना चाहता हो, उसे ये गीत जरूर मिलना चाहिये"

लेकिन राबिन जी को अपने गीतों के अमेजन जंगल में से इस गीत को खोजने में लगभग १.५ वर्ष लग गये । इस बीच मेरी उनसे बात होती रही और वो मुझे याद दिलाते रहे कि वो मुझे भूले नहीं हैं । और इसी तरह एक दिन उनकी ईमेल में मुझे ये गीत प्राप्त हुआ ।

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ये बहुत सुन्दर युगल-गीत है जिसको अनुराधा पौडवाल और पंकज उदास ने पूरी ईमानदारी से गाया है । इस गीत की खासियत है कि गीत की छोटी पंक्तियों के शब्दों को गायकों ने आपस में बाँटकर गाया है जो अत्यन्त प्रभावी है । अब आप मन लगाकर इस गीत को सुनें और बतायें कि क्या ये गीत आपको पसन्द आया । गीत के बोल इस प्रकार हैं ।

 

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अन्जान

खोज रहे हैं इक दूजे में जन्मों की पहचान । २

इक रस्ते को दूजा रस्ता मिल के बन जाये मंजिल,

तूफ़ानों के लाख भंवर हो न कोई डूबे साहिल,

साथ चलें तो हो जाती है हर मुश्किल आसान ।

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अन्जान । २

सौ जन्मों की भटकन दिल को तडप तडप तडपाये,

दो रूहे जो एक हो जाये स्वर्ग वहीं बन जाये,

जिस्मों की इस कैद में पूरे होते हैं अरमान ।

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अन्जान । २

दो तकदीरें रब लिखता है इक तकदीर अधूरी,

जन्म का साथी साथ न हो तो जीना है मजबूरी,

इसीलिये तो ये दिल वाले दे देते हैं जान ।

भूल-भुलैया सा ये जीवन और हम तुम अन्जान । २

खोज रहे हैं इक दूजे में जन्मों की पहचान । २

रविवार, दिसंबर 02, 2007

मृत्यु-दंड पर मेरे विचार

noose

मानवाधिकार संगठन सम्पूर्ण विश्व में मृत्यु-दंड के प्रावधान को जड से हटाने की माँग कर रहे हैं । ब्रिटेन, इटली और फ़्रांस जैसे अनेकों यूरोपीय देशों में मृत्यु-दंड को समाप्त कर दिया गया है । भारत में मृत्यु-दंड का प्रावधान अवश्य है लेकिन पिछले कई दशकों में मृत्यु-दंड की सजा बहुत कम सुनायी गयी है । इसके विपरीत अमेरिका में मृत्यु-दंड की सजा के नियम विभिन्न प्रदेशों में अलग अलग हैं । १९०९ से १९७६ तक अमेरिका के कई प्रदेशों में मृत्यु-दंड का प्रावधान आता और जाता रहा । १९७६ में अमेरिका के उच्चतम न्यायालय ने अपने फ़ैसले में राज्यों के मृत्यु-दंड देने के अधिकार को मान्यता दी । इसके पश्चात आज अमेरिका के ३८ राज्यों में मृत्यु-दंड की सजा का प्रावधान है ।

 

Lethal-Injection electricchair १९७६ से २००६ तक अमेरिका में १०९९ मृत्यु-दंड की सजा सुनायी जा चुकी हैं । ३३७० लोग अपनी सजा का इन्तजार कर रहे हैं । इस तथ्य का एक पहलू ये है कि इन १०९९ में से ४०५ लोगों को टेक्सास में मौत की सजा सुनायी गयी जो पूरे अमेरिका में दिये गये मृत्यु-दंड का एक तिहाई से भी ज्यादा है । टेक्सास में लगभग ३९३ अपनी मौत की सजा का इन्तजार कर रहे हैं । अमेरिका में मृत्यु-दंड पहले फ़ाँसी के माध्यम से दी जाती थी, इसके बाद बिजली वाली कुर्सी आयी जिसका आविष्कार थामस एल्वा एडीसन ने किया था । आजकल लगभग सभी जगह जहरीला मौत का इन्जेक्शन देकर मौत की नींद में सुलाया जाता है, ये इन्जेक्शन हृदय की गति को रोक देता है और जल्दी ही व्यक्ति मृत हो जाता है । यद्यपि कुछ प्रदेशों में बिजली वाली कुर्सी और जहरीला इन्जेक्शन दोनो उपलब्ध हैं । पिछले कुछ वर्षों में जहरीले इन्जेक्शन के विरुद्ध काफ़ी प्रदर्शन हुये हैं । विरोध करने वालों का दावा है कि कई बार जहरीले इन्जेक्शन को काम करने में ३० मिनट तक का समय लगा और ये अत्यधिक दर्दनाक है । इस विषय पर मामला उच्चतम न्यायालय के अधीन विचारार्थ है ।

मैं किसी भी जघन्यतम अपराध के लिये, किसी भी स्थिति में, किसी भी व्यक्ति को दिये गये मृत्यु-दंड के विरुद्ध हूँ ।

कई बार कुछ ऐसे मामले भी सामने आये हैं जब भावनाओं के बहाव में मैने सोचा है कि सम्भवत: इस मामले में मृत्यु-दंड उचित है लेकिन फ़िर सोच विचार करने पर मैं पुन: अपनी सोच पर वापस आ जाता हूँ । मेरी इस सोच के मुख्य रूप से चार कारण हैं और मेरे लिये चौथा कारण सबसे अधिक महत्वपूर्ण है ।

१ ) प्रत्येक मानव जीवन अमूल्य है और इस जीवन का अंत करने का अधिकार केवल प्रकृति अथवा उस मनुष्य को खुद है । जघन्य अपराधों के लिये मैं लम्बी कैद का हिमायती हूँ (केवल १४ वर्ष की कैद नहीं), यदि समाज को लगता है कि उसका अपराध अक्षम्य है तो उस व्यक्ति को सम्पूर्ण जीवन के लिये कारागार में डाल दीजिये जिससे वो कभी कारागार के बाहर न आ सके परन्तु समाज को जीवन छीन लेने का मेरी नजर में कोई अधिकार नहीं है ।

२) लोगों में ऐसी धारणा है कि उम्रकैद की सजा देने पर उसके सारे जीवन का खर्चा सरकार को उठाना पडेगा जबकि मृत्यु-दंड देने से उस खर्च से बचा जा सकता है । वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है । मृत्यु-दंड वाले मुकदमों में सरकारी खर्च अन्य मुकदमों के मुकाबले कहीं अधिक होता है । भारत में हुये इस खर्च पर मेरे पास कोई आधिकारिक आँकडे नहीं हैं,परन्तु अमेरिका में जहाँ मृत्यु-दंड की सजा सुनायी जाती है के आँकडे ये कहते हैं:

क) न्यू-जर्सी में १९८३ से अभी तक मृत्यु-दंड के मुकदमों और मुकदमे के फ़ैसले के बाद की अपीलों पर लगभग २५.३ करोड डालर खर्च हो चुके हैं और इन मामलों में अभी तक एक भी व्यक्ति को मृत्यु-दंड नहीं मिल पाया है । ये अलग बात है कि १० व्यक्ति अपने मृत्यु-दंड का इन्तजार कर रहे हैं । विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इतना धन पुलिस विभाग को दिया जाता तो सम्भवत: अपराधों पर अच्छी खासी लगाम लग सकती थी ।

ख) टेक्सास में जहाँ पर मृत्यु-दंड बडी उदारता से दिया जाता है, वहाँ भी मृत्यु-दंड के किसी मुकदमें पर हुआ पूरा खर्चा उस व्यक्ति को ४० वर्ष तक सबसे सुरक्षित जेल में रखने पर होने वाले खर्चे का लगभग ३ गुना है ।

३) कई बार किसी निर्दोष व्यक्ति को मुकदमें में सजा हो जाती है । अमेरिका में पिछले ४-५ वर्षों में ही सैकडों व्यक्तियों को DNA के सबूत के आधार पर मौत की सजा से छुडा ही नहीं वरन बाइज्जत बरी किया जा चुका है । अगर इन व्यक्तियों को तुरत-फ़ुरत मौत की सजा दे दी गयी होती तो सोचिये कि मानवता के प्रति हमारे समाज और अदालतों से कितना बडा अपराध हो गया होता । १५ वर्ष बाद भी मिला न्याय भी कम से कम न्याय तो है ।

४) मेरी समझ में ये सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है । समाज ने अपराध के बदले सजा का प्रावधान बनाते समय सोचा था कि सजा अन्य व्यक्तियों के लिये एक डर का कार्य करेगी । पिछले लगभग पचास वर्षों के शोधकार्य के बावजूद भी अभी तक इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है कि मृत्यु-दंड का डर अपराधियों के अपराध करते समय उम्रकैद के डर से अधिक होता है । अभी हाल में छपे शोधपत्रों में इस बात को साबित करने का प्रयास किया गया है परन्तु Academic Circle में उस शोधकार्य की पद्यति और निकाले गये निष्कर्षों पर काफ़ी उंगलियाँ उठी हैं ।

जब मृत्यु-दंड अन्य किसी दंड के मुकाबले अपराध रोकने में अधिक सक्षम नहीं है तो फ़िर मेरी नजर में अन्य पहलुओं का ध्यान में रखते हुये इसका कोई औचित्य नहीं है ।

नीरज रोहिल्ला

०२ दिसम्बर, २००७

 

चलते चलते: वैसे तो मैने पहले ही "जघन्यतम" शब्द का प्रयोग कर दिया है लेकिन स्प्ष्टीकरण के लिये मैं देशद्रोह, आतंकवाद, बलात्कार आदि प्रकार के अथवा किसी भी प्रकार के अपराध के लिये मृत्यु-दंड का हिमायती नहीं हूँ । पूर्णविराम ।