पिछले काफी समय से स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा हूं | "धूम २" और "डोर" से ये सिलसिला शुरू हआ था और इस श्रंखला में नयी कडी हैं, "गुरू" एवं "एकलव्य" |
"धूम २" से मुझे कोई खास उम्मीदें तो नहीं थी पर सोचा था कि "धूम १" की भांति थोडा मनोरंजन अवश्य हो जायेगा | परन्तु मात्र आधे घंटे में ही हमें अपनी भूल का एहसास हो गया | फिल्म की शुरूआत होती है परम विद्वान चोर ह्रितिक रोशन से, जो चोरी करते समय केवल गुणा भाग ही नहीं वरन अवकलन और समाकलन के सिद्धांतो का भी उपयोग करते हैं | भले लोगों ने ये भी नहीं सोचा कि "कोक" की केन लोहे की नहीं बल्कि "टिन" की बनी होती है जो चुम्बक से आकर्षित नहीं होती है |
चलिये ये तो ठीक था लेकिन ये समझ नहीं आया कि कोई भी चोर "अभिषेक बच्चन" से क्यों डरे? पूरी फिल्म में उन्होने बन्दर धमकी देने के अलावा किया ही क्या? जब भी पंहुचे वारदात पहले ही हो चुकी थी | और "उदय चोपडा" का किरदार तो शायद सिर्फ इसलिये था कि लोगों को याद रहे कि फिल्म का निर्माता कौन है |
"ऐश्वर्य राय" और "ह्रितिक" के बीच बास्केट बाल वाला द्रश्य सोचकर तो आज भी हंसी आ जाती है| भाई अगर कन्या से हार गये तो काहे के तीरन्दाज और जीत गये तो किसे हराया?
लेकिन १५ मिनट का वो द्रश्य सर्वाधिक मनोरंजक था | हमने दिल खोल कर तालियां पीटी और खूब सीटियां बजायीं | "धूम २" ने एक नयी तकनीक को उसके चरम तक पहुंचाया | जिस किरदार को भी तीसमार खां दिखाना हो, उसे स्लो-मोशन में चलता हुआ दिखाओ और प्रष्ठभूमि में संगीत चला दो जनता अपने आप समझ जायेगी कि फलानें बहुत बडे वाले हैं |
कुल मिलाकर फिल्म ने पूरी तरह से निराश किया लेकिन फिल्म सुपर डुपर हिट रही |
फ़िल्म "डोर" की लगभग सभी समीक्षकों ने प्रशंसा की थी । हम भी बडे अरमान लेकर इस फ़िल्म को देखने गये थे । चलिये पहले प्रशंसा कर देता हूँ: फ़िल्म छोटी थी, पटकथा सरल थी, कुल मिला कर सबका अनुभव ठीक ठाक था । नागेश कुकुनूर की कई फ़िल्मों से मैं काफ़ी प्रभावित हुआ था । "तीन दीवारें" को तो मैं कम से कम चार/पाँच बार देख चुका हूँ । परन्तु निर्देशक के रूप में "डोर" फ़िल्म में उन्होनें निराश ही किया । पटकथा सरल अवश्य थी परन्तु सशक्त नहीं थी; पटकथा में अनेकों तकनीकि त्रुटियाँ थी । इस फ़िल्म को निश्चित ही कला फ़िल्म की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । और व्यवसायिक फ़िल्म के स्तर से फ़िल्म मनोरंजक नहीं थी ।
अब बात करते हैं इस साल की सर्वाधिक चर्चित फ़िल्म "गुरू" की । मैने ये फ़िल्म पहले दिन ही देख डाली और फ़िल्म पसन्द भी आयी । लगभग सभी फ़िल्म समीक्षकों नें इस फ़िल्म की तारीफ़ में पुलन्दे लिख डाले । इस फ़िल्म में जहाँ भारतीय वाणिज्य की तकनीकि कमियों को उजागर किया जा सकता था, वहीं फ़िल्म निर्माण की लेटेस्ट तकनीक का प्रयोग करके फ़िल्म का बंटाढार कर दिया गया । जहाँ कहीं भी गुरु भाई को तीसमार खाँ दिखाना था, पार्श्वसंगीत और स्लोमोशन की सहायता से दिखाया गया । जनता इतनी भी बेवकूफ़ नहीं है जो धन्धे की छोटी छोटी बातें भी न समझ सके । नि:सन्देह फ़िल्म में अभिषेक ने अच्छा अभिनय किया लेकिन फ़िल्म को और भी अच्छा बनाया जा सकता था ।
और अंत में चर्चा करते हैं फ़िल्म "एक्लव्य" की । इस फ़िल्म ने ऐसा झटका दिया है कि अभी तक उबर नहीं सका हूँ । अखबार में पढा था कि विधु विनोद चोपडा को अमिताभ बच्चन का अभिनय इतना अच्छा लगा कि उन्होनें अमिताभ को एक "रोल्स रोयस" कार भेंट की । सभी समीक्षकों ने फ़िल्म की दिल खोल कर तारीफ़ की और कुछ ने तो यहाँ तक कहा कि ये अमिताभ की सर्वोत्तम अभिनीत फ़िल्म है ।
फ़िल्म में कहानी के नाम पर तो कुछ था ही नहीं, बची खुची कसर भी एक साधारण सी कहानी को खींच खींच कर पूरी कर दी। इस फ़िल्म मे अगर कुछ पसन्द आया तो वो था संजय दत्त का अभिनय । उन्होनें अपने साधारण से किरदार को पूरी साधारणता से निभाया, बाकी सब तो बस फ़िजूल की रंगबाजी दिखाते रहे ।
सिनेमेटोग्राफ़ी के नाम पर अमिताभ के भाल से गिरे आँसू को रेल की पटरी पर वाष्पित होते दिखाना कोई कला नहीं है । फ़िल्म के अंत के संवाद तो हास्यास्पद थे । एक द्रश्य में अमिताभ सैफ़ को कहते हैं कि मरने के लिये तैयार हो जाओ, उसके तुरन्त बाद जब सैफ़ स्वयं को गोली मारने वाले होते हैं तो अमिताभ उन्हे रोक देते हैं । अमिताभ को याद आता है कि ये खुद को गोली मार लेगा तो मेरा कर्तव्य कैसे पूरा होगा । इसलिये कहते हैं कि तुम्हारी हत्या मैं करूँगा न कि तुम स्वयं आत्म हत्या करोगे । अरे भाई क्या फ़र्क पडता है कोई भी मारे?
वैसे अभी तक हम छात्रावास के उस सुनहरे नियम का पूरा पालन कर रहे हैं जिसके अनुसार यदि आपको लगे फ़िल्म एकदम बकवास है तो कम से कम दो-तीन लोगों को फ़िल्म देखने अवश्य भिजवा दो, भले ही बाद में उनसे पंगा हो जाये ।
सो हम अपना कर्तव्य निभा रहे हैं आप अपना निभायें और टिपियायें अवश्य!!!
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आज कल की फ़िल्मों की क्या बात की जाये । धूम-२ और गुरू तो मैने भी देखीं हैं । दोनो ही सामान्य लगीं मुझे । हाँ, धूम-२ मे हृतिक का स्टाइल अच्छा था और गुरू मे अभिषेक का अभिनय (कुछ हद तक) ।
जवाब देंहटाएंआपसे एकलव्य की कहानी सुन के अब ना जाने का मन बना लिया है :-)
आज कल की फ़िल्मों की क्या बात की जाये । धूम-२ और गुरू तो मैने भी देखीं हैं । दोनो ही सामान्य लगीं मुझे । हाँ, धूम-२ मे हृतिक का स्टाइल अच्छा था और गुरू मे अभिषेक का अभिनय (कुछ हद तक) ।
जवाब देंहटाएंआपसे एकलव्य की कहानी सुन के अब ना जाने का मन बना लिया है :-)
It is very easy to criticize the hen but difficult to lay even one egg (i luv this line).......egg or no egg.....post reading was fun
जवाब देंहटाएंमुझे बेहद बुरा लगता है जब कोइ हिन्दी फिल्म का कलाकार टिवी पर अंतरवार्ता देते समय हिन्दी मे किये गए प्रश्न का जवाब अंग्रेजी मे देता है । या वह जब एसी टांग तोड हिन्दी बोलता है जिसमे आधे से ज्यादा अंग्रेजी के शब्द होते है । हिन्दी फिल्मो के दर्शको को एसे कलाकारो का बहिस्कार करना चाहिए जो एसी हरकत करते है ।
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