काफ़ी दिनों से हम छ्पास पीडा से तडप रहे थे, इसीलिये सोचा कि क्यों न अपनी छ्पास पीडा भी कम की जाये और इसी बहाने आप लोगो को संगीत के स्वर्णिम काल के खूबसूरत नग्मों की याद दिलायी जाये ।
पचास और साठ के दशकों को नि:सन्देह हिन्दी फ़िल्म संगीत का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है । नौशाद, मदन मोहन, शंकर-जयकिशन, एस. डी. बर्मन, गुलाम मोहम्मद, ओ. पी. नैय्यर और सलिल चौधरी जैसे संगीतकारों की कालजयी धुनें आज भी अन्तर्मन को गुंजित कर देती हैं । ये इन संगीतकारों का सौभाग्य ही था कि इन्हे लता मंगेशकर, आशा भोंसले, गीता दत्त, सुरैया, तलत महमूद, मोहम्मद रफ़ी, मन्नाडे, किशोर कुमार, हेमन्त कुमार, मुकेश एवं महेन्द्र कपूर जैसे प्रतिभावान गायक मिले जिनकी संगीत साधना ने हिन्दी फ़िल्मों के संगीत को अमर कर दिया ।
आज की इस पोस्ट का विषय है: मुख्य गीत/गजल के पूर्व की कुछ पंक्तियाँ (प्रीलूड) । यूँ तो ऐसी अनेकों धुनें जेहन में आ रहीं हैं, परन्तु मैं उनमें से कुछ आपके सामनें रख रहा हूँ ।
सबसे पहले सन १९५२ की फ़िल्म "दाग" के इस गीत के "प्रीलूड" को मैं सर्वाधिक दुख भरा मानता हूँ, इन चार पंक्तियों को पढते ही मन विह्वल हो जाता है । इस नग्मे को तलत महमूद साहब ने अपनी मखमली आवाज में बडी खूबसूरती से गाया है । ये रहा इस गीत का "प्रीलूड" और मुख्य पंक्तियाँ,
चाँद एक बेवा की चूडी की तरह टूटा हुआ,
हर सितारा बेसहारा सोच में डूबा हुआ,
गम के बादल एक जनाजे की तरह ठहरे हुये,
हिचकियों के साज पे कहता है दिल रोता हुआ ।
कोई नहीं मेरा इस दुनियाँ में आशियाँ बरबाद है,
आंसू भरी मुझे किस्मत मिली है जिन्दगी नाशाद है ।
दूसरा गीत भी तलत महमूद साहब की आवाज में है,
बुझ गये गम की हवा से,
प्यार के जलते चिराग ।
बेवफ़ाई चाँद ने की,
पड गया उसमें भी दाग ।
हम दर्द के मारों का इतना ही फ़साना है,
पीने को शराब-ए-गम, दिल गम का निशाना है ।
दिल एक खिलौना है तकदीर के हाथों में,
मरने की तमन्ना है जीने का बहाना है ।
तीसरा गीत कुछ इस प्रकार है,
जली जो शाख-ए-चमन,
साथ बागबाँ भी जला ।
जला के मेरे नशेमन को,
आसमाँ भी जला ।
एक मैं हूँ, एक मेरी बेकसी की शाम है,
अब तो तुझ बिन जिन्दगी भी मुझ पर एक इल्जाम है ।
दिल पे क्या गुजरी तेरे जाने से कोई क्या कहे,
साँस जो आती है वो भी दर्द का पैगाम है ।
चौथा गीत भी अपने साथ कुछ दर्द समेंटे है । ये गीत फ़िल्म "एक साल" का है जिसे फ़िल्म में तलत महमूद और लता मंगेशकर दोनों ने गाया है । तलत महमूद की आवाज वाला गीत अशोक कुमार पर फ़िल्माया गया है ।
करते रहे खिंजा से हम सौदा बहार का,
बदला दिया तो क्या ये दिया उनके प्यार का ।
सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया,
दिन में अगर चिराग जलाये तो क्या किया ।
हम बदनसीब प्यार की रूसवाई बन गये,
खुद ही लगा के आग तमाशाई बन गये ।
दामन से अब ये शोले बुझाये तो क्या किया,
सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया ।
ये रहा पाँचवा नग्मा:
शहर की रात और मैं,
नाशाद-ओ-नाकारा फ़िरूँ ।
जगमगाती जागती,
सडकों पे आवारा फ़िरूँ ।
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ।
ये रूपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल,
जैसे सूफ़ी का तसव्वर जैसे आशिक का ख्याल,
आह लेकिन कौन समझे कौन जाने जी का हाल ।
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ।
अन्त में एक और दर्दीला गीत,
तेरा गम ख्वार हूँ,
लेकिन मैं तुझ तक आ नही सकता,
मैं अपने नाम तेरी बेकसी,
लिखवा नहीं सकता ।
तेरी आँख के आँसू पी जाऊँ, ऐसी मेरी तकदीर कहाँ ।
तेरे गम में तुझको बहलाऊँ, ऐसी मेरी तकदीर कहाँ ।
ऐ काश जो मिलकर रोते कुछ दर्द तो हल्के होते,
बेकार न जाते आँसू कुछ दाग जिगर के धोते ।
फ़िर रंज ने होता इतना है तन्हाई में जितना,
अब जाने ये रस्ता गम का है और भी लम्बा कितना ।
तेरी आँख के आँसू पी जाऊँ, ऐसी मेरी तकदीर कहाँ ।
यदि आप अभी तक मेरे साथ हैं तो मैं आपका शुक्रगुजार हूँ । मैं अपनी अगली पोस्ट हिन्दी फ़िल्म संगीत में "कव्वालियों" पर लिखने की सोच रहा हूँ । यदि आप पचास और साठ के दशकों के संगीत की विशिष्टता के बारे में कुछ और पोस्ट पढना चाहते हैं तो अपनी टिप्पणियों द्वारा मेरा मार्गदर्शन और हौसला अफ़जाई कीजिये ।
अब तक पढने के लिये धन्यवाद ।
नीरज रोहिल्ला
मंगलवार, मार्च 27, 2007
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नीरज जी मेरे मन की मुराद थी कि इस विषय पर लिखुं, आज आपने यह हसरत पूरी कर दी ,बहुत अच्छा लगा। आपसे अनुरोध है कि इस क्रम को अब तोड़े नहीं।
जवाब देंहटाएंदाग फिल्म के ये सारे गाने मुझे बहुत पसन्द है, खासकर एक मैं हूँ एक मेरी बेकसी की शाम है और ए गम-ए-दिल क्या करूं। फिल्म तो कई बार देख चुका।
इस तरह के प्रीलूड गानों में महल का आयेगा आने वाला भी बहुत सुन्दर है। जिसमें गाने के पहले ७-८ पंक्तियों है जो गाने से भी ज्यादा मधुर है।
॥दस्तक॥
क्या बात है नीरज बाबू ! ढूँढ़ - ढूँढ़ के निकाला है । अच्छा है । इनमे से काफ़ी पंक्तियाँ तो मैने पहले कभी सुनी भी नही थीं ।
जवाब देंहटाएंऔर रही बात मेरे दिल के दर्द की, तो उसकी कहानी मत पूछो दोस्त, तो ही ज़्यादा अच्छा है ।
@सागरजी:
जवाब देंहटाएंमैं आगे भी क्रम को जारी रखूँगा। दाग फ़िल्म तो मैं भी कई बार देख चुका हूँ। और फ़िल्म महल के उस प्रीलूड के तो क्या कहने।
शायद आपको ज्ञात हो कि लता जी ने उस गीत की रेकार्डिंग के लिये कमरे के एक कोने में खडे होकर गाना आरम्भ किया था और गाते गाते माईक की ओर चल कर गयीं थीं। इस म्यूजिकल इफ़ेक्ट को आप गाना सुनते समय स्वयं महसूस कर सकते हैं।
मेरी हौसला अफ़जाई के लिये आपका आभारी हूँ।
@पाण्डेयजी,
यहाँ ब्लागजगत में सभी आपके मित्र हैं, दिल के भावों को खुलकर किसी भी रूप में व्यक्त करें। इसी बात पर थोडा सस्ता सा एक शेर याद आ रहा है।
दिल के ज़ख्मों को कोई शायरी कहे तो कोई गम नहीं,
अफ़सोस तो तब होता है जब वो वाह वाह करते हैं ।
शायद कोई आपके ब्लाग को पढकर भी वाह वाह कर रहा हो?
नीरज जी, बहुत सही विषय और सामग्री चुनी है. मज़ा आ गया. सिर्फ एक कमी लगी, आपने उन रचनाकारों का ज़िक्र नहीं किया जिन्होंने ये पंक्तियाँ लिखीं और जिनका योगदान एक हिसाब से संगीतकार और गायक से भी ज्यादा है. यह स्वर्णिम दौर मेरी समझ से शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, मजाज़ लखनवी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदांयूनी जैसे कवियों के बगैर मुमकिन नहीं था.
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