इस लेख में जहाँ कहीं भी "तेल" शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ इसका अभिप्राय "पेट्रोलियम" से है न कि सरसों, आँवला अथवा रिफ़ाइन्ड तेल से :-)
इस लेख में मेरे विचार मित्रों से विचार विमर्श एवं कुछ सेमिनारों में सुने गये तथ्यों से प्रभावित हैं । मैने प्रामाणिक जानकारी के लिये विकिपीडिया का भी प्रयोग किया है ।
शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने "ग्लोबल वार्मिंग" का नाम न सुना हो । अमेरिका में पिछले राष्ट्रपति चुनावों के उम्मीदवार "अल गोर" ने तो इस विषय पर एक फ़िल्म भी बनायी है । ग्लोबल वार्मिंग मुख्य रूप से वातावरण में "कार्बन डाई आक्साइड" की बढती मात्रा का परिणाम है । "कार्बन डाई आक्साइड" का मुख्य स्रोत ईधनों (कोयला, पेट्रोल, डीजल, एविएशन डीजल, केरोसिन और नेचुरल गैस) का दहन है । आज मैं जैविक ईधनों के ऊपर अपने कुछ विचार आप सब के सम्मुख रखूँगा । मेरे शोध का विषय भी "तेल" ही है । ह्यूस्टन नामक जिस नगर में मैं रहता हूँ उसे अमेरिका की ऊर्जा राजधानी कहा जाता है । इसका कारण है कि सभी बडी तेल इकाइयों(शेल, एक्सान मोबिल, शेवरान, बी. पी., शलम्बर्गर, हैलीबर्टन आदि) के कार्यालय ह्यूस्टन में हैं ।
आमतौर पर "तेल" को सभी बुराइयों की जड कहा जाता है, और इन तेल कम्पनियों के साल दर साल बढते मुनाफ़े को देखते हुये हर कोई इनको दो-चार गालियाँ सुनाना चाहता है । कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि अमेरिका ने ईराक पर आक्रमण "तेल" के लिये किया था ।
ये बात शायद बहुत कम लोगों को पता हो, परन्तु "तेल" का इतिहास बहुत पुराना है । आज से लगभग चार हजार साल पहले भी वर्तमान ईरान, बेबीलोन और चीन में कच्चे तेल के प्रयोग के प्रमाण मिले हैं । चौथी शताब्दि में चीन और जापान में तेले के कुँए खोदे गये थे और बाँस की नलियों से पाइप का काम लिया गया था । जापान में इसे "जलने वाला पानी" कहा जाता था । आधुनिक युग में तेल का आविष्कार १८५० के आस पास हुआ था जब आसवन विधि से इसका शोधन किया गया था ।
आमतौर पर लोग सोचते हैं कि जैसे जमीन में पानी के भंडार होते हैं वैसे ही तेल भी एक बडी झील की तरह भूगर्भ में पाया जाता है । वास्तव में तेल चट्टानो के पोरों (pores) में पाया जाता है, इन चट्टानों का लगभग ४० प्रतिशत भाग पोरों के रूप में होता है जिससे तेल का उत्पादन किया जाता है । तेल निकालने की भी कई अवस्थायें होती है । प्रथम अवस्था में केवल १५ से २० प्रतिशत ही तेल निकल पाता है, उसके बाद का तेल निकालने के लिये तेल को चट्टानों से धकियाने के लिये पानी का प्रयोग किया जाता है । आम तौर पर चट्टानें पानी को तेल से ज्यादा पसन्द करती हैं और पानी तेल को बाहर धकिया देता है । उसके बाद भी कुछ "ढीठ तेल" होता है जो चट्टानों से बाहर निकालने का नाम ही नहीं लेता है, उसके लिये उंगली टेढी करनी पडती है और "सर्फ़ेक्टेन्ट फ़्लडिंग" का सहारा लिया जाता है । इन सबके बाद भी कुछ अत्यन्त "कमीना टाईप का तेल" फ़िर भी चट्टानों में रह ही जाता है, उसको निकालने के लिये वैज्ञानिक और मेरे कुछ मित्र शोधरत हैं । शोध की इस शाखा को "इन्हेन्स आयल रिकवरी" कहते हैं ।
प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में "तेल" सबसे महत्वपूर्ण वस्तु थी । सम्भवत: ये विश्व युद्ध का ही परिणाम था जिसके कारण "तेल उद्योग" उन्नति के नये शिखर पर पँहुचा । यहाँ पर ये भी बताता चलूँ कि तेल सबसे सस्ती "प्रासेस्ड रासायनिक द्रव" है जिसे आप खरीद सकते हैं । अमेरिका में पेट्रोल का दाम लगभग २.५ डालर प्रति गैलन है, जो लगभग ३० रूपये प्रति लीटर हुआ । भारत में ये लगभग ४५ रूपये प्रति लीटर है । जबकि ३०० मिली. वाली सोडा की बोतल लगभग १० रूपये की आती है । कोक अथवा पेप्सी बनाने के लिये आप क्या करते हैं? एक जगह फ़ैक्टरी लगायी, जमीन से मुफ़्त में पानी लिया, कुछ रसायन, चीनी मिलायी, बोतल में भरा और चल दिये बेचने के लिये ।
अब जरा सोचिये पेट्रोल कैसे बनता है? पहले तेल का कुँआ कहाँ खोदे उस जगह के चुनाव के लिये लाखों डालर खर्च कीजिये, फ़िर भी कोई गारन्टी नहीं कि तेल मिल ही जायेगा । फ़िर "आइल रिग" बनाइये और जमीन में कम से कम कई हजार फ़ीट गहरा कुँआ खोदिये, फ़िर कच्चा तेल निकालिये और पाईपलाइन अथवा तेल टैंकरो के द्वारा तेल शोधक कारखाने तक भेजिये । वहाँ पर तेल का शोधन होने के बाद कहीं आपको पेट्रोल मिल पाता है । ये मेरी व्यक्तिगत राय है कि तेल का दाम और अधिक होना चाहिये जिससे हम इसकी उपयोगिता को समझ सकें ।
ये एक कटु सत्य है कि तेल का उत्पादन सस्टेनेबिल (इसकी हिन्दी क्या हो सकती है ) नहीं है । "सस्टेनेबिल" उत्पादन का अभिप्राय है कि वर्तमान पर्यावरण को क्षति पँहुचाये बिना और भविष्य की पीढियों की आवश्यकता को खतरे में डाले बिना किसी वस्तु का उत्पादन करना । उदाहरण के तौर पर वायु अथवा जल प्रपात द्वारा ऊर्जा का उत्पादन सस्टेनेबिल कहा जायेगा । आज नहीं तो कल तेले को खत्म तो होना ही है । एक अनुमान के अनुसार अगले कुछ सालों में तेल का उत्पादन अपने चरम पर पँहुचेगा और उसके बाद गिरना प्रारम्भ हो जायेगा । वास्तव में हम लगभग १९७० के आस पास से उत्पादन के चरम पर पँहुचने का इन्तजार कर रहे हैं, परन्तु नित नये तकनीकि विकास से हम तेल के उत्पादन को निरन्तर बढाये जा रहे हैं । मोटे तौर के अनुमानों के अनुसार हमारे पास लगभग ४० से ५० साल तक के लिये तेल के भंडार हैं ।
अरे क्या आपको पसीने छूट रहे हैं, छूटने भी चाहिये । कभी आपने सोचा है कि जब जब तेल नहीं होगा तो दुनिया कैसी होगी? तेल खत्म होने के कुछ साल पहले आपूर्ति के लिये कैसी हाय हाय मचेगी ? तब भी क्या हम जनतंत्र का नगाडा बजायेंगे या जैसे भी हो सके साम/दाम/दंड/भेद से तेल की व्यवस्था करेंगे । क्या तब फ़िर से तेल खरीदने के लिये पंक्तिबद्ध होना पडेगा ? तेल की कमी से विश्व के उद्योग किस तरह प्रभावित होंगे? क्या शेयर मार्केट इसी तरह ऊपर चढता रहेगा ? पश्चिमी देश जो मूलत: बडे उद्योगों पर निर्भर हैं, किस प्रकार उन उद्योगों को चालू रख पायेंगे? भारत और चीन जैसी तेजी से बढती अर्थव्यवस्थायें क्या तेल की कमी से दम तोड देंगी ? क्या सच में प्रलय का दिन तेल खत्म होने वाले दिन का दूसरा ही नाम है? क्या ये सब अगले ४० से ५० सालों में हम नहीं तो हमारी अगली पीढी के सामने घटित होगा ?
आशा करता हूँ मैने आपको एक जोर का झटका दे ही दिया होगा । अब विचार करते हैं कि क्या इस समस्या का कोई समाधान है? क्या हम अगले ४०-५० वर्षों में किसी नये प्रकार की ऊर्जा की खोज कर सकते हैं? क्या सौर ऊर्जा अथवा जैविक ईधन ("बायो फ़्यूल") वास्तव में एक विकल्प हैं?
आजकल वैज्ञानिक एक नये प्रकार के ईधन पर शोध कर रहे हैं जिसे "गैस हाइड्रेट अथवा मीथेन हाइड्रेट" कहते हैं । समुद्र में अत्यधिक दवाब पर मीथेन गैस जल के साथ मिलकर मीथेन हाइड्रेट बनाती है । प्रारम्भिक अनुमानों के अनुसार यदि आप पूरे संसार के तेल, कोयला और नेचुरल गैस को जोड लें, उससे भी कहीं ज्यादा मीथेन हाइड्रेट के भंडार हैं । प्रसन्नता की बात है कि भारत में भी मीथेन हाइड्रेट के भंडार हैं परन्तु इस दिशा में शोधकार्य अभी प्रारम्भिक अवस्था में ही है । मेरी जानकारी के अनुसार केवल जापान ने ही मीथेन हाइड्रेट से नेचुरल गैस के व्यवसायिक उत्पादन के लिये कुछ तकनीक का विकास किया है । वैज्ञानिकों को ये भी डर है कि अधिक गहराई पर मीथेन हाइड्रेट्स के भंडारों से छेड छाड करने पर भूकंप और सुनामी जैसी आपदायें भी आ सकती हैं परन्तु जैसे जैसे शोधकार्य आगे बढेगा सम्भवत: मनुपुत्र कोई तरीका खोज ही लेगें ।
आज के लिये इतना ही, इस लेख के अगले भाग में मै तेल के दाम और उसकी अन्तराष्ट्रीय राजनीति पर कुछ विचार प्रस्तुत करूँगा । इस लेख के बारे में अपने विचार टिप्पणी के माध्यम से मुझे पँहुचाये और बताये कि क्या आप इस श्रंखला में और कुछ विचार सुनना पसन्द करेगें ?
मंगलवार, मार्च 27, 2007
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
accha jankaari di aapne.
जवाब देंहटाएंtel moolya adhik hone hi chahiye jisse ki duropyog ruke, parantu usse hone wala munafa naye oorja sroto ko viksit karne ke liye shodh karya mein kharch hona chahiye
जवाब देंहटाएंनीरज जी, जब तेल नहीं होगा तब कुछ और आदमी कुछ और तरीका निकाल लेगा.
जवाब देंहटाएंआपका लेख जानकारी से भरपूर है.
हम जरूर आपको आगे पढ़ना चाहेंगे
ek dum mast tha....kya isse main aopne blog main un logo ke liye english main translate kar ke likh sakti hoon unke liye jineh hindi samjhne main kasht hota hain.......and ya thanks for the JANKARI.....hanji and aagey bhi likhiye..
जवाब देंहटाएंअच्छा जानकारी पूर्ण लेख है। आगे इंतजार है!
जवाब देंहटाएंअरे, इतनी बढ़िया जानकारी दे रहे हो, जरुर लिखो आगे. इंतजार रहेगा.
जवाब देंहटाएंउर्जा और पर्यावरण बहुत ही सम्बद्ध विषय हैं और शाश्वत विकास के लिये इन पर सदा शोध और विचारणा होते रहनी चाहिये। इस विषय को और इसके महत्व को आपने बहुत ही सम्यक तरीके से सामने रखा है, साधुवाद।
जवाब देंहटाएं