बुधवार, अप्रैल 16, 2008

उस्ताद असलम खान साहब की आवाज में गालिब गजल !!!

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में उस्ताद असलम खान साहब खुर्जा और अतरौली (जयपुर) घराने से ताल्लुख रखते हैं । आज मैं आपको उनकी महफ़िल में गायी हुयी चचा गालिब की दो गजलें सुनवा रहा हूँ । उस्ताद असलम खान को इस अंदाज में सुनने का अंदाज ही अलग है । उस्तादजी का नजाकत से कहना कि "दादरा लगाओ" और उसके बाद मोहक अंदाज में मिर्जा गालिब की गजलों को जिन्दा कर देने की अदा निराली ही है ।

पहली गजल है ।

मेरी किस्मत में गम गर इतने थे,
दिल भी या रब कई दिये होते । (फ़ुटकर शेर)

रोने से और इश्क में बेबाक हो गये,
धोये गये हम ऐसे के बस पाक हो गये ।

करने गये थे उनसे तगाफ़ुल का हम गिला,
कि एक ही निगाह, के बस खाक हो गये ।

कहता है कौन लाला-ए-बुलबुल को बेअसर,
परदे में गुल के लाख जिगर चाक हो गये ।

इस रंग से उठाई कल उसने असद की नास,
दुश्मन भी जिसको देखके नमनाक हो गये ।



दूसरी गजल है,

सारी दुनिया मुझे कहती तेरा सौदाई है,
अब मेरा होश में आना तेरी रूसवाई है ।

जब तुझे दिल से भुलाने की कसम खाई है,
और पहले से जियादा तेरी याद आयी है ।

मैं हूँ जिन्दा में मेरे घर में बहार आयी है,
कौन से जुर्म की मैने ये सजा पायी है ।

साकिया मय से मैं तौबा करू तौबा तौबा,
मैने दुनिया के दिखाने को कसम खाई है ।

कैद रहता हूँ तो तौहीन है बालोफ़र की,
और उड जाऊँ तो सय्याद की रूसवाई है ।

देखिये कैसे पंहुचते हैं किनारे हम लोग,
नाव तूफ़ां में है मल्लाह को नींद आयी है ।



लीजिये अब इसको चटखा लगाकर सुनिये:

1 टिप्पणी:

  1. वाह भाई!! बहुत खूब प्रस्तुति है..अंदाजे बयां-क्या कहने. पहली बार सुना उस्ताद असलम खान साहब को. आभार.

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