इस कडी में अनूप जलोटा जी के स्वर में सीता स्वयंवर को सुनिये । ये प्रसंग मुझे बेहद पसंद है । इसमें तुलसीदासजी ने राजा जनक की मनोस्थिति का सजीव चित्रण किया है ।
हिन्दी विकीपीडिया से श्रीरामचरितमानस के ये अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति, चली राखि उर स्यामल मूरति ||
प्रभु जब जात जानकी जानी, सुख सनेह सोभा गुन खानी ||
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही, चारु चित भीतीं लिख लीन्ही ||
गई भवानी भवन बहोरी, बंदि चरन बोली कर जोरी ||
जय जय गिरिबरराज किसोरी, जय महेस मुख चंद चकोरी ||
जय गज बदन षड़ानन माता, जगत जननि दामिनि दुति गाता ||
नहिं तव आदि मध्य अवसाना, अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ||
भव भव बिभव पराभव कारिनि, बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ||
दोहा -
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख,
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष ||
२३५ ||
सेवत तोहि सुलभ फल चारी, बरदायनी पुरारि पिआरी ||
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे, सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ||
मोर मनोरथु जानहु नीकें, बसहु सदा उर पुर सबही कें ||
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं, अस कहि चरन गहे बैदेहीं ||
बिनय प्रेम बस भई भवानी, खसी माल मूरति मुसुकानी ||
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ, बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ ||
सुनु सिय सत्य असीस हमारी, पूजिहि मन कामना तुम्हारी ||
नारद बचन सदा सुचि साचा, सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा ||
छं:-
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो,
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ||
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली,
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ||
सो:-
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि,
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ||
२३६ ||
हृदयँ सराहत सीय लोनाई, गुर समीप गवने दोउ भाई ||
राम कहा सबु कौसिक पाहीं, सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं ||
सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही, पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही ||
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे, रामु लखनु सुनि भए सुखारे ||
करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी, लगे कहन कछु कथा पुरानी ||
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई, संध्या करन चले दोउ भाई ||
प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा, सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा ||
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं, सीय बदन सम हिमकर नाहीं ||
दोहा -
जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक,
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक ||
२३७ ||
घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई, ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई ||
कोक सिकप्रद पंकज द्रोही, अवगुन बहुत चंद्रमा तोही ||
बैदेही मुख पटतर दीन्हे, होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे ||
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी, गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी ||
करि मुनि चरन सरोज प्रनामा, आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा ||
बिगत निसा रघुनायक जागे, बंधु बिलोकि कहन अस लागे ||
उदउ अरुन अवलोकहु ताता, पंकज कोक लोक सुखदाता ||
बोले लखनु जोरि जुग पानी, प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी ||
दोहा -
अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन,
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन ||
२३८ ||
नृप सब नखत करहिं उजिआरी, टारि न सकहिं चाप तम भारी ||
कमल कोक मधुकर खग नाना, हरषे सकल निसा अवसाना ||
ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे, होइहहिं टूटें धनुष सुखारे ||
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा, दुरे नखत जग तेजु प्रकासा ||
रबि निज उदय ब्याज रघुराया, प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया ||
तव भुज बल महिमा उदघाटी, प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी ||
बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने, होइ सुचि सहज पुनीत नहाने ||
नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए, चरन सरोज सुभग सिर नाए ||
सतानंदु तब जनक बोलाए, कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए ||
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई, हरषे बोलि लिए दोउ भाई ||
दोहा -
सतानंद&#६५५३३;पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ,
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ ||
२३९ ||
सीय स्वयंबरु देखिअ जाई, ईसु काहि धौं देइ बड़ाई ||
लखन कहा जस भाजनु सोई, नाथ कृपा तव जापर होई ||
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी, दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी ||
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला, देखन चले धनुषमख साला ||
रंगभूमि आए दोउ भाई, असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई ||
चले सकल गृह काज बिसारी, बाल जुबान जरठ नर नारी ||
देखी जनक भीर भै भारी, सुचि सेवक सब लिए हँकारी ||
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू, आसन उचित देहू सब काहू ||
दोहा -
कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि,
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि ||
२४० ||
राजकुअँर तेहि अवसर आए, मनहुँ मनोहरता तन छाए ||
गुन सागर नागर बर बीरा, सुंदर स्यामल गौर सरीरा ||
राज समाज बिराजत रूरे, उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे ||
जिन्ह कें रही भावना जैसी, प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ||
देखहिं रूप महा रनधीरा, मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा ||
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी, मनहुँ भयानक मूरति भारी ||
रहे असुर छल छोनिप बेषा, तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा ||
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई, नरभूषन लोचन सुखदाई ||
दोहा -
नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप,
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप ||
२४१ ||
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा, बहु मुख कर पग लोचन सीसा ||
जनक जाति अवलोकहिं कैसैं, सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ||
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी, सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ||
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा, सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ||
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता, इष्टदेव इव सब सुख दाता ||
रामहि चितव भायँ जेहि सीया, सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ||
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ, कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ||
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ, तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ||
दोहा -
राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर,
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर ||
२४२ ||
सहज मनोहर मूरति दोऊ, कोटि काम उपमा लघु सोऊ ||
सरद चंद निंदक मुख नीके, नीरज नयन भावते जी के ||
चितवत चारु मार मनु हरनी, भावति हृदय जाति नहीं बरनी ||
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला, चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला ||
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा, भृकुटी बिकट मनोहर नासा ||
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं, कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं ||
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई, कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं ||
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ, जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ||
दोहा -
कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल,
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल ||
२४३ ||
कटि तूनीर पीत पट बाँधे, कर सर धनुष बाम बर काँधे ||
पीत जग्य उपबीत सुहाए, नख सिख मंजु महाछबि छाए ||
देखि लोग सब भए सुखारे, एकटक लोचन चलत न तारे ||
हरषे जनकु देखि दोउ भाई, मुनि पद कमल गहे तब जाई ||
करि बिनती निज कथा सुनाई, रंग अवनि सब मुनिहि देखाई ||
जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ, तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ ||
निज निज रुख रामहि सबु देखा, कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा ||
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ, राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ||
दोहा -
सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल,
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल ||
२४४ ||
प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे, जनु राकेस उदय भएँ तारे ||
असि प्रतीति सब के मन माहीं, राम चाप तोरब सक नाहीं ||
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला, मेलिहि सीय राम उर माला ||
अस बिचारि गवनहु घर भाई, जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई ||
बिहसे अपर भूप सुनि बानी, जे अबिबेक अंध अभिमानी ||
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा, बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा ||
एक बार कालउ किन होऊ, सिय हित समर जितब हम सोऊ ||
यह सुनि अवर महिप मुसकाने, धरमसील हरिभगत सयाने ||
सो:-
सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के ||
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे ||
२४५ ||
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई, मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ||
सिख हमारि सुनि परम पुनीता, जगदंबा जानहु जियँ सीता ||
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी, भरि लोचन छबि लेहु निहारी ||
सुंदर सुखद सकल गुन रासी, ए दोउ बंधु संभु उर बासी ||
सुधा समुद्र समीप बिहाई, मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ||
करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा, हम तौ आजु जनम फलु पावा ||
अस कहि भले भूप अनुरागे, रूप अनूप बिलोकन लागे ||
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना, बरषहिं सुमन करहिं कल गाना ||
दोहा -
जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई,
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं ||
२४६ ||
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी, जगदंबिका रूप गुन खानी ||
उपमा सकल मोहि लघु लागीं, प्राकृत नारि अंग अनुरागीं ||
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई, कुकबि कहाइ अजसु को लेई ||
जौ पटतरिअ तीय सम सीया, जग असि जुबति कहाँ कमनीया ||
गिरा मुखर तन अरध भवानी, रति अति दुखित अतनु पति जानी ||
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही, कहिअ रमासम किमि बैदेही ||
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई, परम रूपमय कच्छप सोई ||
सोभा रजु मंदरु सिंगारू, मथै पानि पंकज निज मारू ||
दोहा -
एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल,
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ||
२४७ ||
चलिं संग लै सखीं सयानी, गावत गीत मनोहर बानी ||
सोह नवल तनु सुंदर सारी, जगत जननि अतुलित छबि भारी ||
भूषन सकल सुदेस सुहाए, अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए ||
रंगभूमि जब सिय पगु धारी, देखि रूप मोहे नर नारी ||
हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई, बरषि प्रसून अपछरा गाई ||
पानि सरोज सोह जयमाला, अवचट चितए सकल भुआला ||
सीय चकित चित रामहि चाहा, भए मोहबस सब नरनाहा ||
मुनि समीप देखे दोउ भाई, लगे ललकि लोचन निधि पाई ||
दोहा -
गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि ||
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ||
२४८ ||
राम रूपु अरु सिय छबि देखें, नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें ||
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं, बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं ||
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई, मति हमारि असि देहि सुहाई ||
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु, सीय राम कर करै बिबाहू ||
जग भल कहहि भाव सब काहू, हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू ||
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू, बरु साँवरो जानकी जोगू ||
तब बंदीजन जनक बौलाए, बिरिदावली कहत चलि आए ||
कह नृप जाइ कहहु पन मोरा, चले भाट हियँ हरषु न थोरा ||
दोहा -
बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल,
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल ||
२४९ ||
नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू, गरुअ कठोर बिदित सब काहू ||
रावनु बानु महाभट भारे, देखि सरासन गवँहिं सिधारे ||
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा, राज समाज आजु जोइ तोरा ||
त्रिभुवन जय समेत बैदेही ||
बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ||
सुनि पन सकल भूप अभिलाषे, भटमानी अतिसय मन माखे ||
परिकर बाँधि उठे अकुलाई, चले इष्टदेवन्ह सिर नाई ||
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं, उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं ||
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं, चाप समीप महीप न जाहीं ||
दोहा -
तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ,
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ ||
२५० ||
भूप सहस दस एकहि बारा, लगे उठावन टरइ न टारा ||
डगइ न संभु सरासन कैसें, कामी बचन सती मनु जैसें ||
सब नृप भए जोगु उपहासी, जैसें बिनु बिराग संन्यासी ||
कीरति बिजय बीरता भारी, चले चाप कर बरबस हारी ||
श्रीहत भए हारि हियँ राजा, बैठे निज निज जाइ समाजा ||
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने, बोले बचन रोष जनु साने ||
दीप दीप के भूपति नाना, आए सुनि हम जो पनु ठाना ||
देव दनुज धरि मनुज सरीरा, बिपुल बीर आए रनधीरा ||
दोहा -
कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय,
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय ||
२५१ ||
कहहु काहि यहु लाभु न भावा, काहुँ न संकर चाप चढ़ावा ||
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई, तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई ||
अब जनि कोउ माखै भट मानी, बीर बिहीन मही मैं जानी ||
तजहु आस निज निज गृह जाहू, लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ||
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ, कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ ||
जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई, तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई ||
जनक बचन सुनि सब नर नारी, देखि जानकिहि भए दुखारी ||
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें, रदपट फरकत नयन रिसौंहें ||
दोहा -
कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान,
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान ||
२५२ ||
रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई, तेहिं समाज अस कहइ न कोई ||
कही जनक जसि अनुचित बानी, बिद्यमान रघुकुल मनि जानी ||
सुनहु भानुकुल पंकज भानू, कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू ||
जौ तुम्हारि अनुसासन पावौं, कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं ||
काचे घट जिमि डारौं फोरी, सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी ||
तव प्रताप महिमा भगवाना, को बापुरो पिनाक पुराना ||
नाथ जानि अस आयसु होऊ, कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ ||
कमल नाल जिमि चाफ चढ़ावौं, जोजन सत प्रमान लै धावौं ||
रविवार, अप्रैल 06, 2008
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जय हो रघुवर की और धन्यवाद आपको.
जवाब देंहटाएंअनूप जी भी मस्त होकर गाते हैं. इस पोस्ट को हमने अपनी फेवरेट लिस्ट में शामिल कर लिया है.
जय जय गिरिबरराज किसोरी...
जवाब देंहटाएंजय गज बदन षड़ानन माता ...
वाह, सवेरे सवेरे स्मरण। आनन्द आ गया। और निमित्त बनी आपकी यह सुन्दर पोस्ट!
जय रघुवर की,
जवाब देंहटाएंसु्न्दर प्रसंग! धन्यवाद।
वाह, बहुत आभार इसे पेश करने का. सहेज लिया है..बार बार के लिये. :)
जवाब देंहटाएंसुन्दर!
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