शनिवार, मार्च 31, 2007
हिन्दी फिल्म दर्शकों का गिरता स्तर और कसौटी पर खरी उतरती फिल्में
पिछले काफी समय से स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा हूं | "धूम २" और "डोर" से ये सिलसिला शुरू हआ था और इस श्रंखला में नयी कडी हैं, "गुरू" एवं "एकलव्य" |
"धूम २" से मुझे कोई खास उम्मीदें तो नहीं थी पर सोचा था कि "धूम १" की भांति थोडा मनोरंजन अवश्य हो जायेगा | परन्तु मात्र आधे घंटे में ही हमें अपनी भूल का एहसास हो गया | फिल्म की शुरूआत होती है परम विद्वान चोर ह्रितिक रोशन से, जो चोरी करते समय केवल गुणा भाग ही नहीं वरन अवकलन और समाकलन के सिद्धांतो का भी उपयोग करते हैं | भले लोगों ने ये भी नहीं सोचा कि "कोक" की केन लोहे की नहीं बल्कि "टिन" की बनी होती है जो चुम्बक से आकर्षित नहीं होती है |
चलिये ये तो ठीक था लेकिन ये समझ नहीं आया कि कोई भी चोर "अभिषेक बच्चन" से क्यों डरे? पूरी फिल्म में उन्होने बन्दर धमकी देने के अलावा किया ही क्या? जब भी पंहुचे वारदात पहले ही हो चुकी थी | और "उदय चोपडा" का किरदार तो शायद सिर्फ इसलिये था कि लोगों को याद रहे कि फिल्म का निर्माता कौन है |
"ऐश्वर्य राय" और "ह्रितिक" के बीच बास्केट बाल वाला द्रश्य सोचकर तो आज भी हंसी आ जाती है| भाई अगर कन्या से हार गये तो काहे के तीरन्दाज और जीत गये तो किसे हराया?
लेकिन १५ मिनट का वो द्रश्य सर्वाधिक मनोरंजक था | हमने दिल खोल कर तालियां पीटी और खूब सीटियां बजायीं | "धूम २" ने एक नयी तकनीक को उसके चरम तक पहुंचाया | जिस किरदार को भी तीसमार खां दिखाना हो, उसे स्लो-मोशन में चलता हुआ दिखाओ और प्रष्ठभूमि में संगीत चला दो जनता अपने आप समझ जायेगी कि फलानें बहुत बडे वाले हैं |
कुल मिलाकर फिल्म ने पूरी तरह से निराश किया लेकिन फिल्म सुपर डुपर हिट रही |
फ़िल्म "डोर" की लगभग सभी समीक्षकों ने प्रशंसा की थी । हम भी बडे अरमान लेकर इस फ़िल्म को देखने गये थे । चलिये पहले प्रशंसा कर देता हूँ: फ़िल्म छोटी थी, पटकथा सरल थी, कुल मिला कर सबका अनुभव ठीक ठाक था । नागेश कुकुनूर की कई फ़िल्मों से मैं काफ़ी प्रभावित हुआ था । "तीन दीवारें" को तो मैं कम से कम चार/पाँच बार देख चुका हूँ । परन्तु निर्देशक के रूप में "डोर" फ़िल्म में उन्होनें निराश ही किया । पटकथा सरल अवश्य थी परन्तु सशक्त नहीं थी; पटकथा में अनेकों तकनीकि त्रुटियाँ थी । इस फ़िल्म को निश्चित ही कला फ़िल्म की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । और व्यवसायिक फ़िल्म के स्तर से फ़िल्म मनोरंजक नहीं थी ।
अब बात करते हैं इस साल की सर्वाधिक चर्चित फ़िल्म "गुरू" की । मैने ये फ़िल्म पहले दिन ही देख डाली और फ़िल्म पसन्द भी आयी । लगभग सभी फ़िल्म समीक्षकों नें इस फ़िल्म की तारीफ़ में पुलन्दे लिख डाले । इस फ़िल्म में जहाँ भारतीय वाणिज्य की तकनीकि कमियों को उजागर किया जा सकता था, वहीं फ़िल्म निर्माण की लेटेस्ट तकनीक का प्रयोग करके फ़िल्म का बंटाढार कर दिया गया । जहाँ कहीं भी गुरु भाई को तीसमार खाँ दिखाना था, पार्श्वसंगीत और स्लोमोशन की सहायता से दिखाया गया । जनता इतनी भी बेवकूफ़ नहीं है जो धन्धे की छोटी छोटी बातें भी न समझ सके । नि:सन्देह फ़िल्म में अभिषेक ने अच्छा अभिनय किया लेकिन फ़िल्म को और भी अच्छा बनाया जा सकता था ।
और अंत में चर्चा करते हैं फ़िल्म "एक्लव्य" की । इस फ़िल्म ने ऐसा झटका दिया है कि अभी तक उबर नहीं सका हूँ । अखबार में पढा था कि विधु विनोद चोपडा को अमिताभ बच्चन का अभिनय इतना अच्छा लगा कि उन्होनें अमिताभ को एक "रोल्स रोयस" कार भेंट की । सभी समीक्षकों ने फ़िल्म की दिल खोल कर तारीफ़ की और कुछ ने तो यहाँ तक कहा कि ये अमिताभ की सर्वोत्तम अभिनीत फ़िल्म है ।
फ़िल्म में कहानी के नाम पर तो कुछ था ही नहीं, बची खुची कसर भी एक साधारण सी कहानी को खींच खींच कर पूरी कर दी। इस फ़िल्म मे अगर कुछ पसन्द आया तो वो था संजय दत्त का अभिनय । उन्होनें अपने साधारण से किरदार को पूरी साधारणता से निभाया, बाकी सब तो बस फ़िजूल की रंगबाजी दिखाते रहे ।
सिनेमेटोग्राफ़ी के नाम पर अमिताभ के भाल से गिरे आँसू को रेल की पटरी पर वाष्पित होते दिखाना कोई कला नहीं है । फ़िल्म के अंत के संवाद तो हास्यास्पद थे । एक द्रश्य में अमिताभ सैफ़ को कहते हैं कि मरने के लिये तैयार हो जाओ, उसके तुरन्त बाद जब सैफ़ स्वयं को गोली मारने वाले होते हैं तो अमिताभ उन्हे रोक देते हैं । अमिताभ को याद आता है कि ये खुद को गोली मार लेगा तो मेरा कर्तव्य कैसे पूरा होगा । इसलिये कहते हैं कि तुम्हारी हत्या मैं करूँगा न कि तुम स्वयं आत्म हत्या करोगे । अरे भाई क्या फ़र्क पडता है कोई भी मारे?
वैसे अभी तक हम छात्रावास के उस सुनहरे नियम का पूरा पालन कर रहे हैं जिसके अनुसार यदि आपको लगे फ़िल्म एकदम बकवास है तो कम से कम दो-तीन लोगों को फ़िल्म देखने अवश्य भिजवा दो, भले ही बाद में उनसे पंगा हो जाये ।
सो हम अपना कर्तव्य निभा रहे हैं आप अपना निभायें और टिपियायें अवश्य!!!
"धूम २" से मुझे कोई खास उम्मीदें तो नहीं थी पर सोचा था कि "धूम १" की भांति थोडा मनोरंजन अवश्य हो जायेगा | परन्तु मात्र आधे घंटे में ही हमें अपनी भूल का एहसास हो गया | फिल्म की शुरूआत होती है परम विद्वान चोर ह्रितिक रोशन से, जो चोरी करते समय केवल गुणा भाग ही नहीं वरन अवकलन और समाकलन के सिद्धांतो का भी उपयोग करते हैं | भले लोगों ने ये भी नहीं सोचा कि "कोक" की केन लोहे की नहीं बल्कि "टिन" की बनी होती है जो चुम्बक से आकर्षित नहीं होती है |
चलिये ये तो ठीक था लेकिन ये समझ नहीं आया कि कोई भी चोर "अभिषेक बच्चन" से क्यों डरे? पूरी फिल्म में उन्होने बन्दर धमकी देने के अलावा किया ही क्या? जब भी पंहुचे वारदात पहले ही हो चुकी थी | और "उदय चोपडा" का किरदार तो शायद सिर्फ इसलिये था कि लोगों को याद रहे कि फिल्म का निर्माता कौन है |
"ऐश्वर्य राय" और "ह्रितिक" के बीच बास्केट बाल वाला द्रश्य सोचकर तो आज भी हंसी आ जाती है| भाई अगर कन्या से हार गये तो काहे के तीरन्दाज और जीत गये तो किसे हराया?
लेकिन १५ मिनट का वो द्रश्य सर्वाधिक मनोरंजक था | हमने दिल खोल कर तालियां पीटी और खूब सीटियां बजायीं | "धूम २" ने एक नयी तकनीक को उसके चरम तक पहुंचाया | जिस किरदार को भी तीसमार खां दिखाना हो, उसे स्लो-मोशन में चलता हुआ दिखाओ और प्रष्ठभूमि में संगीत चला दो जनता अपने आप समझ जायेगी कि फलानें बहुत बडे वाले हैं |
कुल मिलाकर फिल्म ने पूरी तरह से निराश किया लेकिन फिल्म सुपर डुपर हिट रही |
फ़िल्म "डोर" की लगभग सभी समीक्षकों ने प्रशंसा की थी । हम भी बडे अरमान लेकर इस फ़िल्म को देखने गये थे । चलिये पहले प्रशंसा कर देता हूँ: फ़िल्म छोटी थी, पटकथा सरल थी, कुल मिला कर सबका अनुभव ठीक ठाक था । नागेश कुकुनूर की कई फ़िल्मों से मैं काफ़ी प्रभावित हुआ था । "तीन दीवारें" को तो मैं कम से कम चार/पाँच बार देख चुका हूँ । परन्तु निर्देशक के रूप में "डोर" फ़िल्म में उन्होनें निराश ही किया । पटकथा सरल अवश्य थी परन्तु सशक्त नहीं थी; पटकथा में अनेकों तकनीकि त्रुटियाँ थी । इस फ़िल्म को निश्चित ही कला फ़िल्म की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । और व्यवसायिक फ़िल्म के स्तर से फ़िल्म मनोरंजक नहीं थी ।
अब बात करते हैं इस साल की सर्वाधिक चर्चित फ़िल्म "गुरू" की । मैने ये फ़िल्म पहले दिन ही देख डाली और फ़िल्म पसन्द भी आयी । लगभग सभी फ़िल्म समीक्षकों नें इस फ़िल्म की तारीफ़ में पुलन्दे लिख डाले । इस फ़िल्म में जहाँ भारतीय वाणिज्य की तकनीकि कमियों को उजागर किया जा सकता था, वहीं फ़िल्म निर्माण की लेटेस्ट तकनीक का प्रयोग करके फ़िल्म का बंटाढार कर दिया गया । जहाँ कहीं भी गुरु भाई को तीसमार खाँ दिखाना था, पार्श्वसंगीत और स्लोमोशन की सहायता से दिखाया गया । जनता इतनी भी बेवकूफ़ नहीं है जो धन्धे की छोटी छोटी बातें भी न समझ सके । नि:सन्देह फ़िल्म में अभिषेक ने अच्छा अभिनय किया लेकिन फ़िल्म को और भी अच्छा बनाया जा सकता था ।
और अंत में चर्चा करते हैं फ़िल्म "एक्लव्य" की । इस फ़िल्म ने ऐसा झटका दिया है कि अभी तक उबर नहीं सका हूँ । अखबार में पढा था कि विधु विनोद चोपडा को अमिताभ बच्चन का अभिनय इतना अच्छा लगा कि उन्होनें अमिताभ को एक "रोल्स रोयस" कार भेंट की । सभी समीक्षकों ने फ़िल्म की दिल खोल कर तारीफ़ की और कुछ ने तो यहाँ तक कहा कि ये अमिताभ की सर्वोत्तम अभिनीत फ़िल्म है ।
फ़िल्म में कहानी के नाम पर तो कुछ था ही नहीं, बची खुची कसर भी एक साधारण सी कहानी को खींच खींच कर पूरी कर दी। इस फ़िल्म मे अगर कुछ पसन्द आया तो वो था संजय दत्त का अभिनय । उन्होनें अपने साधारण से किरदार को पूरी साधारणता से निभाया, बाकी सब तो बस फ़िजूल की रंगबाजी दिखाते रहे ।
सिनेमेटोग्राफ़ी के नाम पर अमिताभ के भाल से गिरे आँसू को रेल की पटरी पर वाष्पित होते दिखाना कोई कला नहीं है । फ़िल्म के अंत के संवाद तो हास्यास्पद थे । एक द्रश्य में अमिताभ सैफ़ को कहते हैं कि मरने के लिये तैयार हो जाओ, उसके तुरन्त बाद जब सैफ़ स्वयं को गोली मारने वाले होते हैं तो अमिताभ उन्हे रोक देते हैं । अमिताभ को याद आता है कि ये खुद को गोली मार लेगा तो मेरा कर्तव्य कैसे पूरा होगा । इसलिये कहते हैं कि तुम्हारी हत्या मैं करूँगा न कि तुम स्वयं आत्म हत्या करोगे । अरे भाई क्या फ़र्क पडता है कोई भी मारे?
वैसे अभी तक हम छात्रावास के उस सुनहरे नियम का पूरा पालन कर रहे हैं जिसके अनुसार यदि आपको लगे फ़िल्म एकदम बकवास है तो कम से कम दो-तीन लोगों को फ़िल्म देखने अवश्य भिजवा दो, भले ही बाद में उनसे पंगा हो जाये ।
सो हम अपना कर्तव्य निभा रहे हैं आप अपना निभायें और टिपियायें अवश्य!!!
गुरुवार, मार्च 29, 2007
ऊर्जा संकट: तेल का दाम
ये रही इस लेख के प्रथम भाग की कडी:
इस लेख में मै तेल के दाम से सम्बन्धित कुछ पहलुओं पर अपना चर्चा करूँगा ।
भविष्य में कच्चे तेल की कीमतों का अनुमान लगाना एक दुष्कर कार्य है । इसका कारण है कि तेल का दाम किसी एक कारक अथवा किसी सरल नियम का पालन नहीं करता है । अभी आज से १०-१५ वर्ष पहले कहा जाता था कि कच्चे तेल का दाम कभी भी ५० डालर प्रति बैरल नहीं छू पायेगा । लेकिन आज कच्चे तेल का दाम लगभग ६६ डालर प्रति बैरल है और दीर्घकाल में इसमें किसी कमी की सम्भावना नहीं है । तेल के दाम को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक तेल का उत्पादन करने वाले राष्ट्रों में राजनैतिक सन्तुलन (पालिटिकल स्टेबिलिटी) और डालर की अन्य मुद्राओं के सापेक्ष में मजबूती है ।
कुछ लोग कहते हैं कि ये तेल के उत्पादन पर भी निर्भर करता है परन्तु मैं इससे असहमत हूँ, इसके दो कारण हैं । पहला तो ये कि तकनीक के आधुनिकरण के चलते आज उत्पादन को स्थिर रखा जा सकता है बशर्ते कि बाकी सभी कारक काबू में रहें । दूसरा ये कि ओपेक (आयल प्रोडूस्यिंग एंड एक्सपोर्टिंग कंट्ररीज) के कारण सभी देशों ने अपने उत्पादन की सीमा बना रखी है, तेल का दाम एक निश्चित सीमा से नीचे जाते ही ओपेक तेल के उत्पादन में आंशिक कटौती की सिफ़ारिश करना शुरू कर देता है । अत: उत्पादन लगभग स्थिर है, उल्टा तेल का दाम उत्पादन को प्रभावित करता है । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि तेल का दाम कम होते ही बाजार में तेल की झूठी कमी देखा कर फ़िर से दाम बढाने का प्रयास किया जाता है ।
आप सभी ने सन १९७९ के ईरान के कट्टरपंथियों के आन्दोलन के बारे में अवश्य पढा होगा । उस समय ईरान ने कट्टरपंथियों ने अमरीकी दूतावास पर कब्जा करके कई सौ कर्मचारियों का अपहरण कर लिया था । उस समय ईरान और अमेरिका लगभग सैनिक टकराव की कगार पर पँहुच गये थे । उस समय और आज भी ईरान तेल का दूसरा सबसे बडा उत्पादक/निर्यातक था/है । १९७९ में ईरान के राजनैतिक हालात को देखते हुये बाजार का ईरान पर विश्वास डगमगा गया था । कुछ समय के लिये ईरान का तेल उत्पादन ठप हो गया था । उस समय अमेरिका के दबाव में सऊदी अरब ने विश्व को भरोसा दिलाया था कि वे तेल का उत्पादन बढाकर बाजार में तेल की कमी नहीं होने देंगे । लेकिन इसके तुरन्त बाद ईरान और ईराक में लडाई(१९८०-१९८८) छिड गयी थी जिसके कारण तेल के बाजार में अनिश्चितता का वातावरण बन गया था । इस सब के बीच में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि इस पूरे प्रकरण में तेल के उत्पादन में मात्र ४ प्रतिशत की कमी आयी थी । मात्र इस ४ प्रतिशत की कमी ने तेल की कीमतों को गगनचुम्बी स्तर पर ला दिया था । बाकी तेल उत्पादक देशों ने अपने उत्पादन तो बढा देये थे लेकिन उन्होनें बाजार में फ़ैली अनिश्चितता को दूर करने का प्रयास नहीं किया था क्योंकि सभी अपना तेल बढे हुये दाम पर बेचना चाहते थे ।
ध्यान दीजिये कि जब से ईरान ने इंगलैण्ड के कुछ नौसैनिको को पकडा है, मात्र ७ दिनो में तेल का दाम ५८ डालर प्रति बैरल से ६६ डालर प्रति बैरल पँहुच चुका है । यदि इस समस्या का शीघ्र समाधान न हुआ तो तेल के दाम इसी स्तर पर रूके रह सकते हैं या और बढ सकते हैं ।
पिछ्ले साल अमेरिका में रेकार्ड तोड चक्रवात (हरीकेन) आये थे । इन चक्रवातों (कट्रीना और रीटा) ने दक्षिणी संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में खूब कहर बरपाया था । मेक्सिको की खाडी में तमाम तेल उत्पादन इकाईयां प्रभावित हुयी थी और ह्य़ूस्टन के आस पास कई तेल शोधक कारखानों का उत्पादन बन्द हो गया था । इसके कारण रातों रात तेल के दाम में भारी बढोत्तरी हुयी थी जिसको नीचे आते आते महीनों लग गये थे ।
लेख बहुत लम्बा हो गया है अत: इसका समापन मैं तीसरे भाग में करूँगा जिसमें मैं एशिया की बढती तेल की माँग के कारण तेलक्षेत्र खरीदने की गलाकाट प्रतियोगिता के बारे में लिखूँगा ।
मंगलवार, मार्च 27, 2007
भविष्य के ऊर्जा संकट पर एक नजर !
इस लेख में जहाँ कहीं भी "तेल" शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ इसका अभिप्राय "पेट्रोलियम" से है न कि सरसों, आँवला अथवा रिफ़ाइन्ड तेल से :-)
इस लेख में मेरे विचार मित्रों से विचार विमर्श एवं कुछ सेमिनारों में सुने गये तथ्यों से प्रभावित हैं । मैने प्रामाणिक जानकारी के लिये विकिपीडिया का भी प्रयोग किया है ।
शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने "ग्लोबल वार्मिंग" का नाम न सुना हो । अमेरिका में पिछले राष्ट्रपति चुनावों के उम्मीदवार "अल गोर" ने तो इस विषय पर एक फ़िल्म भी बनायी है । ग्लोबल वार्मिंग मुख्य रूप से वातावरण में "कार्बन डाई आक्साइड" की बढती मात्रा का परिणाम है । "कार्बन डाई आक्साइड" का मुख्य स्रोत ईधनों (कोयला, पेट्रोल, डीजल, एविएशन डीजल, केरोसिन और नेचुरल गैस) का दहन है । आज मैं जैविक ईधनों के ऊपर अपने कुछ विचार आप सब के सम्मुख रखूँगा । मेरे शोध का विषय भी "तेल" ही है । ह्यूस्टन नामक जिस नगर में मैं रहता हूँ उसे अमेरिका की ऊर्जा राजधानी कहा जाता है । इसका कारण है कि सभी बडी तेल इकाइयों(शेल, एक्सान मोबिल, शेवरान, बी. पी., शलम्बर्गर, हैलीबर्टन आदि) के कार्यालय ह्यूस्टन में हैं ।
आमतौर पर "तेल" को सभी बुराइयों की जड कहा जाता है, और इन तेल कम्पनियों के साल दर साल बढते मुनाफ़े को देखते हुये हर कोई इनको दो-चार गालियाँ सुनाना चाहता है । कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि अमेरिका ने ईराक पर आक्रमण "तेल" के लिये किया था ।
ये बात शायद बहुत कम लोगों को पता हो, परन्तु "तेल" का इतिहास बहुत पुराना है । आज से लगभग चार हजार साल पहले भी वर्तमान ईरान, बेबीलोन और चीन में कच्चे तेल के प्रयोग के प्रमाण मिले हैं । चौथी शताब्दि में चीन और जापान में तेले के कुँए खोदे गये थे और बाँस की नलियों से पाइप का काम लिया गया था । जापान में इसे "जलने वाला पानी" कहा जाता था । आधुनिक युग में तेल का आविष्कार १८५० के आस पास हुआ था जब आसवन विधि से इसका शोधन किया गया था ।
आमतौर पर लोग सोचते हैं कि जैसे जमीन में पानी के भंडार होते हैं वैसे ही तेल भी एक बडी झील की तरह भूगर्भ में पाया जाता है । वास्तव में तेल चट्टानो के पोरों (pores) में पाया जाता है, इन चट्टानों का लगभग ४० प्रतिशत भाग पोरों के रूप में होता है जिससे तेल का उत्पादन किया जाता है । तेल निकालने की भी कई अवस्थायें होती है । प्रथम अवस्था में केवल १५ से २० प्रतिशत ही तेल निकल पाता है, उसके बाद का तेल निकालने के लिये तेल को चट्टानों से धकियाने के लिये पानी का प्रयोग किया जाता है । आम तौर पर चट्टानें पानी को तेल से ज्यादा पसन्द करती हैं और पानी तेल को बाहर धकिया देता है । उसके बाद भी कुछ "ढीठ तेल" होता है जो चट्टानों से बाहर निकालने का नाम ही नहीं लेता है, उसके लिये उंगली टेढी करनी पडती है और "सर्फ़ेक्टेन्ट फ़्लडिंग" का सहारा लिया जाता है । इन सबके बाद भी कुछ अत्यन्त "कमीना टाईप का तेल" फ़िर भी चट्टानों में रह ही जाता है, उसको निकालने के लिये वैज्ञानिक और मेरे कुछ मित्र शोधरत हैं । शोध की इस शाखा को "इन्हेन्स आयल रिकवरी" कहते हैं ।
प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में "तेल" सबसे महत्वपूर्ण वस्तु थी । सम्भवत: ये विश्व युद्ध का ही परिणाम था जिसके कारण "तेल उद्योग" उन्नति के नये शिखर पर पँहुचा । यहाँ पर ये भी बताता चलूँ कि तेल सबसे सस्ती "प्रासेस्ड रासायनिक द्रव" है जिसे आप खरीद सकते हैं । अमेरिका में पेट्रोल का दाम लगभग २.५ डालर प्रति गैलन है, जो लगभग ३० रूपये प्रति लीटर हुआ । भारत में ये लगभग ४५ रूपये प्रति लीटर है । जबकि ३०० मिली. वाली सोडा की बोतल लगभग १० रूपये की आती है । कोक अथवा पेप्सी बनाने के लिये आप क्या करते हैं? एक जगह फ़ैक्टरी लगायी, जमीन से मुफ़्त में पानी लिया, कुछ रसायन, चीनी मिलायी, बोतल में भरा और चल दिये बेचने के लिये ।
अब जरा सोचिये पेट्रोल कैसे बनता है? पहले तेल का कुँआ कहाँ खोदे उस जगह के चुनाव के लिये लाखों डालर खर्च कीजिये, फ़िर भी कोई गारन्टी नहीं कि तेल मिल ही जायेगा । फ़िर "आइल रिग" बनाइये और जमीन में कम से कम कई हजार फ़ीट गहरा कुँआ खोदिये, फ़िर कच्चा तेल निकालिये और पाईपलाइन अथवा तेल टैंकरो के द्वारा तेल शोधक कारखाने तक भेजिये । वहाँ पर तेल का शोधन होने के बाद कहीं आपको पेट्रोल मिल पाता है । ये मेरी व्यक्तिगत राय है कि तेल का दाम और अधिक होना चाहिये जिससे हम इसकी उपयोगिता को समझ सकें ।
ये एक कटु सत्य है कि तेल का उत्पादन सस्टेनेबिल (इसकी हिन्दी क्या हो सकती है ) नहीं है । "सस्टेनेबिल" उत्पादन का अभिप्राय है कि वर्तमान पर्यावरण को क्षति पँहुचाये बिना और भविष्य की पीढियों की आवश्यकता को खतरे में डाले बिना किसी वस्तु का उत्पादन करना । उदाहरण के तौर पर वायु अथवा जल प्रपात द्वारा ऊर्जा का उत्पादन सस्टेनेबिल कहा जायेगा । आज नहीं तो कल तेले को खत्म तो होना ही है । एक अनुमान के अनुसार अगले कुछ सालों में तेल का उत्पादन अपने चरम पर पँहुचेगा और उसके बाद गिरना प्रारम्भ हो जायेगा । वास्तव में हम लगभग १९७० के आस पास से उत्पादन के चरम पर पँहुचने का इन्तजार कर रहे हैं, परन्तु नित नये तकनीकि विकास से हम तेल के उत्पादन को निरन्तर बढाये जा रहे हैं । मोटे तौर के अनुमानों के अनुसार हमारे पास लगभग ४० से ५० साल तक के लिये तेल के भंडार हैं ।
अरे क्या आपको पसीने छूट रहे हैं, छूटने भी चाहिये । कभी आपने सोचा है कि जब जब तेल नहीं होगा तो दुनिया कैसी होगी? तेल खत्म होने के कुछ साल पहले आपूर्ति के लिये कैसी हाय हाय मचेगी ? तब भी क्या हम जनतंत्र का नगाडा बजायेंगे या जैसे भी हो सके साम/दाम/दंड/भेद से तेल की व्यवस्था करेंगे । क्या तब फ़िर से तेल खरीदने के लिये पंक्तिबद्ध होना पडेगा ? तेल की कमी से विश्व के उद्योग किस तरह प्रभावित होंगे? क्या शेयर मार्केट इसी तरह ऊपर चढता रहेगा ? पश्चिमी देश जो मूलत: बडे उद्योगों पर निर्भर हैं, किस प्रकार उन उद्योगों को चालू रख पायेंगे? भारत और चीन जैसी तेजी से बढती अर्थव्यवस्थायें क्या तेल की कमी से दम तोड देंगी ? क्या सच में प्रलय का दिन तेल खत्म होने वाले दिन का दूसरा ही नाम है? क्या ये सब अगले ४० से ५० सालों में हम नहीं तो हमारी अगली पीढी के सामने घटित होगा ?
आशा करता हूँ मैने आपको एक जोर का झटका दे ही दिया होगा । अब विचार करते हैं कि क्या इस समस्या का कोई समाधान है? क्या हम अगले ४०-५० वर्षों में किसी नये प्रकार की ऊर्जा की खोज कर सकते हैं? क्या सौर ऊर्जा अथवा जैविक ईधन ("बायो फ़्यूल") वास्तव में एक विकल्प हैं?
आजकल वैज्ञानिक एक नये प्रकार के ईधन पर शोध कर रहे हैं जिसे "गैस हाइड्रेट अथवा मीथेन हाइड्रेट" कहते हैं । समुद्र में अत्यधिक दवाब पर मीथेन गैस जल के साथ मिलकर मीथेन हाइड्रेट बनाती है । प्रारम्भिक अनुमानों के अनुसार यदि आप पूरे संसार के तेल, कोयला और नेचुरल गैस को जोड लें, उससे भी कहीं ज्यादा मीथेन हाइड्रेट के भंडार हैं । प्रसन्नता की बात है कि भारत में भी मीथेन हाइड्रेट के भंडार हैं परन्तु इस दिशा में शोधकार्य अभी प्रारम्भिक अवस्था में ही है । मेरी जानकारी के अनुसार केवल जापान ने ही मीथेन हाइड्रेट से नेचुरल गैस के व्यवसायिक उत्पादन के लिये कुछ तकनीक का विकास किया है । वैज्ञानिकों को ये भी डर है कि अधिक गहराई पर मीथेन हाइड्रेट्स के भंडारों से छेड छाड करने पर भूकंप और सुनामी जैसी आपदायें भी आ सकती हैं परन्तु जैसे जैसे शोधकार्य आगे बढेगा सम्भवत: मनुपुत्र कोई तरीका खोज ही लेगें ।
आज के लिये इतना ही, इस लेख के अगले भाग में मै तेल के दाम और उसकी अन्तराष्ट्रीय राजनीति पर कुछ विचार प्रस्तुत करूँगा । इस लेख के बारे में अपने विचार टिप्पणी के माध्यम से मुझे पँहुचाये और बताये कि क्या आप इस श्रंखला में और कुछ विचार सुनना पसन्द करेगें ?
इस लेख में मेरे विचार मित्रों से विचार विमर्श एवं कुछ सेमिनारों में सुने गये तथ्यों से प्रभावित हैं । मैने प्रामाणिक जानकारी के लिये विकिपीडिया का भी प्रयोग किया है ।
शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने "ग्लोबल वार्मिंग" का नाम न सुना हो । अमेरिका में पिछले राष्ट्रपति चुनावों के उम्मीदवार "अल गोर" ने तो इस विषय पर एक फ़िल्म भी बनायी है । ग्लोबल वार्मिंग मुख्य रूप से वातावरण में "कार्बन डाई आक्साइड" की बढती मात्रा का परिणाम है । "कार्बन डाई आक्साइड" का मुख्य स्रोत ईधनों (कोयला, पेट्रोल, डीजल, एविएशन डीजल, केरोसिन और नेचुरल गैस) का दहन है । आज मैं जैविक ईधनों के ऊपर अपने कुछ विचार आप सब के सम्मुख रखूँगा । मेरे शोध का विषय भी "तेल" ही है । ह्यूस्टन नामक जिस नगर में मैं रहता हूँ उसे अमेरिका की ऊर्जा राजधानी कहा जाता है । इसका कारण है कि सभी बडी तेल इकाइयों(शेल, एक्सान मोबिल, शेवरान, बी. पी., शलम्बर्गर, हैलीबर्टन आदि) के कार्यालय ह्यूस्टन में हैं ।
आमतौर पर "तेल" को सभी बुराइयों की जड कहा जाता है, और इन तेल कम्पनियों के साल दर साल बढते मुनाफ़े को देखते हुये हर कोई इनको दो-चार गालियाँ सुनाना चाहता है । कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि अमेरिका ने ईराक पर आक्रमण "तेल" के लिये किया था ।
ये बात शायद बहुत कम लोगों को पता हो, परन्तु "तेल" का इतिहास बहुत पुराना है । आज से लगभग चार हजार साल पहले भी वर्तमान ईरान, बेबीलोन और चीन में कच्चे तेल के प्रयोग के प्रमाण मिले हैं । चौथी शताब्दि में चीन और जापान में तेले के कुँए खोदे गये थे और बाँस की नलियों से पाइप का काम लिया गया था । जापान में इसे "जलने वाला पानी" कहा जाता था । आधुनिक युग में तेल का आविष्कार १८५० के आस पास हुआ था जब आसवन विधि से इसका शोधन किया गया था ।
आमतौर पर लोग सोचते हैं कि जैसे जमीन में पानी के भंडार होते हैं वैसे ही तेल भी एक बडी झील की तरह भूगर्भ में पाया जाता है । वास्तव में तेल चट्टानो के पोरों (pores) में पाया जाता है, इन चट्टानों का लगभग ४० प्रतिशत भाग पोरों के रूप में होता है जिससे तेल का उत्पादन किया जाता है । तेल निकालने की भी कई अवस्थायें होती है । प्रथम अवस्था में केवल १५ से २० प्रतिशत ही तेल निकल पाता है, उसके बाद का तेल निकालने के लिये तेल को चट्टानों से धकियाने के लिये पानी का प्रयोग किया जाता है । आम तौर पर चट्टानें पानी को तेल से ज्यादा पसन्द करती हैं और पानी तेल को बाहर धकिया देता है । उसके बाद भी कुछ "ढीठ तेल" होता है जो चट्टानों से बाहर निकालने का नाम ही नहीं लेता है, उसके लिये उंगली टेढी करनी पडती है और "सर्फ़ेक्टेन्ट फ़्लडिंग" का सहारा लिया जाता है । इन सबके बाद भी कुछ अत्यन्त "कमीना टाईप का तेल" फ़िर भी चट्टानों में रह ही जाता है, उसको निकालने के लिये वैज्ञानिक और मेरे कुछ मित्र शोधरत हैं । शोध की इस शाखा को "इन्हेन्स आयल रिकवरी" कहते हैं ।
प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में "तेल" सबसे महत्वपूर्ण वस्तु थी । सम्भवत: ये विश्व युद्ध का ही परिणाम था जिसके कारण "तेल उद्योग" उन्नति के नये शिखर पर पँहुचा । यहाँ पर ये भी बताता चलूँ कि तेल सबसे सस्ती "प्रासेस्ड रासायनिक द्रव" है जिसे आप खरीद सकते हैं । अमेरिका में पेट्रोल का दाम लगभग २.५ डालर प्रति गैलन है, जो लगभग ३० रूपये प्रति लीटर हुआ । भारत में ये लगभग ४५ रूपये प्रति लीटर है । जबकि ३०० मिली. वाली सोडा की बोतल लगभग १० रूपये की आती है । कोक अथवा पेप्सी बनाने के लिये आप क्या करते हैं? एक जगह फ़ैक्टरी लगायी, जमीन से मुफ़्त में पानी लिया, कुछ रसायन, चीनी मिलायी, बोतल में भरा और चल दिये बेचने के लिये ।
अब जरा सोचिये पेट्रोल कैसे बनता है? पहले तेल का कुँआ कहाँ खोदे उस जगह के चुनाव के लिये लाखों डालर खर्च कीजिये, फ़िर भी कोई गारन्टी नहीं कि तेल मिल ही जायेगा । फ़िर "आइल रिग" बनाइये और जमीन में कम से कम कई हजार फ़ीट गहरा कुँआ खोदिये, फ़िर कच्चा तेल निकालिये और पाईपलाइन अथवा तेल टैंकरो के द्वारा तेल शोधक कारखाने तक भेजिये । वहाँ पर तेल का शोधन होने के बाद कहीं आपको पेट्रोल मिल पाता है । ये मेरी व्यक्तिगत राय है कि तेल का दाम और अधिक होना चाहिये जिससे हम इसकी उपयोगिता को समझ सकें ।
ये एक कटु सत्य है कि तेल का उत्पादन सस्टेनेबिल (इसकी हिन्दी क्या हो सकती है ) नहीं है । "सस्टेनेबिल" उत्पादन का अभिप्राय है कि वर्तमान पर्यावरण को क्षति पँहुचाये बिना और भविष्य की पीढियों की आवश्यकता को खतरे में डाले बिना किसी वस्तु का उत्पादन करना । उदाहरण के तौर पर वायु अथवा जल प्रपात द्वारा ऊर्जा का उत्पादन सस्टेनेबिल कहा जायेगा । आज नहीं तो कल तेले को खत्म तो होना ही है । एक अनुमान के अनुसार अगले कुछ सालों में तेल का उत्पादन अपने चरम पर पँहुचेगा और उसके बाद गिरना प्रारम्भ हो जायेगा । वास्तव में हम लगभग १९७० के आस पास से उत्पादन के चरम पर पँहुचने का इन्तजार कर रहे हैं, परन्तु नित नये तकनीकि विकास से हम तेल के उत्पादन को निरन्तर बढाये जा रहे हैं । मोटे तौर के अनुमानों के अनुसार हमारे पास लगभग ४० से ५० साल तक के लिये तेल के भंडार हैं ।
अरे क्या आपको पसीने छूट रहे हैं, छूटने भी चाहिये । कभी आपने सोचा है कि जब जब तेल नहीं होगा तो दुनिया कैसी होगी? तेल खत्म होने के कुछ साल पहले आपूर्ति के लिये कैसी हाय हाय मचेगी ? तब भी क्या हम जनतंत्र का नगाडा बजायेंगे या जैसे भी हो सके साम/दाम/दंड/भेद से तेल की व्यवस्था करेंगे । क्या तब फ़िर से तेल खरीदने के लिये पंक्तिबद्ध होना पडेगा ? तेल की कमी से विश्व के उद्योग किस तरह प्रभावित होंगे? क्या शेयर मार्केट इसी तरह ऊपर चढता रहेगा ? पश्चिमी देश जो मूलत: बडे उद्योगों पर निर्भर हैं, किस प्रकार उन उद्योगों को चालू रख पायेंगे? भारत और चीन जैसी तेजी से बढती अर्थव्यवस्थायें क्या तेल की कमी से दम तोड देंगी ? क्या सच में प्रलय का दिन तेल खत्म होने वाले दिन का दूसरा ही नाम है? क्या ये सब अगले ४० से ५० सालों में हम नहीं तो हमारी अगली पीढी के सामने घटित होगा ?
आशा करता हूँ मैने आपको एक जोर का झटका दे ही दिया होगा । अब विचार करते हैं कि क्या इस समस्या का कोई समाधान है? क्या हम अगले ४०-५० वर्षों में किसी नये प्रकार की ऊर्जा की खोज कर सकते हैं? क्या सौर ऊर्जा अथवा जैविक ईधन ("बायो फ़्यूल") वास्तव में एक विकल्प हैं?
आजकल वैज्ञानिक एक नये प्रकार के ईधन पर शोध कर रहे हैं जिसे "गैस हाइड्रेट अथवा मीथेन हाइड्रेट" कहते हैं । समुद्र में अत्यधिक दवाब पर मीथेन गैस जल के साथ मिलकर मीथेन हाइड्रेट बनाती है । प्रारम्भिक अनुमानों के अनुसार यदि आप पूरे संसार के तेल, कोयला और नेचुरल गैस को जोड लें, उससे भी कहीं ज्यादा मीथेन हाइड्रेट के भंडार हैं । प्रसन्नता की बात है कि भारत में भी मीथेन हाइड्रेट के भंडार हैं परन्तु इस दिशा में शोधकार्य अभी प्रारम्भिक अवस्था में ही है । मेरी जानकारी के अनुसार केवल जापान ने ही मीथेन हाइड्रेट से नेचुरल गैस के व्यवसायिक उत्पादन के लिये कुछ तकनीक का विकास किया है । वैज्ञानिकों को ये भी डर है कि अधिक गहराई पर मीथेन हाइड्रेट्स के भंडारों से छेड छाड करने पर भूकंप और सुनामी जैसी आपदायें भी आ सकती हैं परन्तु जैसे जैसे शोधकार्य आगे बढेगा सम्भवत: मनुपुत्र कोई तरीका खोज ही लेगें ।
आज के लिये इतना ही, इस लेख के अगले भाग में मै तेल के दाम और उसकी अन्तराष्ट्रीय राजनीति पर कुछ विचार प्रस्तुत करूँगा । इस लेख के बारे में अपने विचार टिप्पणी के माध्यम से मुझे पँहुचाये और बताये कि क्या आप इस श्रंखला में और कुछ विचार सुनना पसन्द करेगें ?
ये रात बहुत रंगीन सही॰॰॰
ये रात बहुत रंगीन सही,
ये रात बहुत रंगीन सही, इस रात में गम का जहर भी है।
नग्मो की खनक में डूबी हुई, फरियाद-ए-फुगाँ की लहर भी है।
ये रात बहुत रंगीन सही॰॰॰
तुम रक्स करो मैं शेर पढूँ, मतलब तो है कुछ खैरात मिले।
इस कौम के बच्चों की खातिर, कुछ सिक्कों कि सौगात मिले।
सिक्के तो करोडों ढल ढलाकर, टकसाल से बाहर आते हैं।
किन वारों में खो जाते हैं, किन पर्दों में छुप जाते हैं।
ये जुल्म नहीं तो फिर क्या है, पैसे से तो काले धन्धें हो।
और मुल्क की वारिस नस्लों की, तालीम की खातिर चन्दें हों।
अब काम नहीं चल सकनें का, रहम और खैरात् के नारे से।
इस देश के बच्चे अनपढ हैं, दौलत के गलत बँटवारे से।
बदले ये निज़ाम-ए-ज़ारादारी,
बदले ये निज़ाम-ए-ज़ारादारी, कह दो ये सियासत-दानों सें।
ये मसला हल होनें का नही, काग़ज पे छापे ऐलानों से।
ये मसला हल होनें का नहीं, काग़ज पे छापे ऐलानों से।
ये रात बहुत रंगीन सही, इस रात में गम का जहर भी है।
ये रात बहुत रंगीन सही॰॰॰
साहिर लुधियानवी साहिब के इस गीत को खय्याम ने गीतबद्ध किया है
और मोहम्मद रफी ने अपनी जादुई आवाज के जादू से बिखेरा है हिन्दी फ़ीचर फ़िल्म "शगुन" में।
ये रात बहुत रंगीन सही, इस रात में गम का जहर भी है।
नग्मो की खनक में डूबी हुई, फरियाद-ए-फुगाँ की लहर भी है।
ये रात बहुत रंगीन सही॰॰॰
तुम रक्स करो मैं शेर पढूँ, मतलब तो है कुछ खैरात मिले।
इस कौम के बच्चों की खातिर, कुछ सिक्कों कि सौगात मिले।
सिक्के तो करोडों ढल ढलाकर, टकसाल से बाहर आते हैं।
किन वारों में खो जाते हैं, किन पर्दों में छुप जाते हैं।
ये जुल्म नहीं तो फिर क्या है, पैसे से तो काले धन्धें हो।
और मुल्क की वारिस नस्लों की, तालीम की खातिर चन्दें हों।
अब काम नहीं चल सकनें का, रहम और खैरात् के नारे से।
इस देश के बच्चे अनपढ हैं, दौलत के गलत बँटवारे से।
बदले ये निज़ाम-ए-ज़ारादारी,
बदले ये निज़ाम-ए-ज़ारादारी, कह दो ये सियासत-दानों सें।
ये मसला हल होनें का नही, काग़ज पे छापे ऐलानों से।
ये मसला हल होनें का नहीं, काग़ज पे छापे ऐलानों से।
ये रात बहुत रंगीन सही, इस रात में गम का जहर भी है।
ये रात बहुत रंगीन सही॰॰॰
साहिर लुधियानवी साहिब के इस गीत को खय्याम ने गीतबद्ध किया है
और मोहम्मद रफी ने अपनी जादुई आवाज के जादू से बिखेरा है हिन्दी फ़ीचर फ़िल्म "शगुन" में।
ग़ज़ल
खिड़कियाँ, सिर्फ़, न कमरों के दरमियां रखना
अपने ज़ेहनों में भी, थोड़ी सी खिड़कियाँ रखना
पुराने वक़्तों की मीठी कहानियों के लिए
कुछ, बुजुर्गों की भी, घर पे निशानियाँ रखना
ज़ियादा ख़ुशियाँ भी मगरूर बना सकती हैं
साथ ख़ुशियों के ज़रा सी उदासियाँ रखना.
बहुत मिठाई में कीड़ों का डर भी रहता है
फ़ासला थोड़ा सा रिश्तों के दरमियां रखना
अजीब शौक़ है जो क़त्ल से भी बदतर है
तुम किताबों में दबाकर न तितलियाँ रखना
बादलो, पानी ही प्यासों के लिए रखना तुम
तुम न लोगों को डराने को बिजलियाँ रखना
बोलो मीठा ही मगर, वक़्त ज़रूरत के लिए
अपने इस लहजे में थोड़ी सी तल्ख़ियाँ रखना
मशविरा है, ये, शहीदों का नौजवानों को
देश के वास्ते अपनी जवानियाँ रखना
ये सियासत की ज़रूरत है कुर्सियों के लिए
हरेक शहर में कुछ गंदी बस्तियाँ रखना
My experience at Hospital
Today was definitely an interesting day in my life. Today one thing led to another and it ended up putting me in hospital for a day with a sore head. I was expecting not to play cricket today but something made me go to Rice and start playing cricket.
First, the ground on which we started playing cricket was different. Secondly, the ground was in poor shape. There was lots of moisture in the ground and the pitch was surrounded by think grass. In a nutshell, it was not a great environment to play cricket. But, since we were really frustrated by the weather for last three weeks, we decided to play on that not so good looking ground.
I bowled a few balls as practice and it was okay, some were really off line and length but later I got myself well in line and length. After that I put on the pads and thought of doing some batting practice. It occured to me that I should wear a helmet but I am not sure why I shrugged off that idea. I faced couple of balls and it seems okay. I was really frustrated by the wide balls of Hamid and then came Shekhar.
First few balls of Shekhar were either slower deliveries and some short pitched medium paced deliveries outside off stump. Then all of a sudden he bowled a beamer and I completely missed the line and the height of the ball. I heard a big bang in my head, then came little sparkling stars all around. I think I had blurred vision for a second and heard someone saying something. I did not become unconscious. However, I sat down first and then lay down on the ground using a pad a pillow.
Soon, excruciating pain followed and someone called Rice Emergency Medical Services (EMS). EMS guys and girls asked routines questions and I answered them. Then they asked me if I wanted to go to the Hermann Memorial hospital or some other place. I asked them to take me to Hermann Memorial because that was the first name which came to my mind.
Soon, an ambulence came and they strapped me on a board with duct tape and some plastic support and put me on a stretcher and loaded me into the ambulence. This whole setup was quite uncomfortable and it somehow increased my pain. My neck also started to hurt because of the uncomfortable situation of my head. I kept my cool and wits and was not feeling so much pain. I think I have lots of threshold for pain so may be I felt pain but it did not bother me.
We reached Hermann Memorial hospital within couple of minutes and then started the ordeal of frustration, agony and disgust about the incompetence and lack of professionalism of the hospital staff.
I had to wait 20-25 minutes just to be removed from the stretcher and moved into the emergency room (ER). There was some small kid who kept crying in very high pitch and it made me uncomfortable because I was all strapped and unable to move my leg or turn around my head. I was also feeling extremely thristy and they informed me that I couldn't drink any water before a doctor looks after my condition first.
I think first I was attended by an orthopaedic who after asking some simple question and probing the area around me neck concluded that probably I don't have a fractured skull and sent me to trauma center.
Another doctor came and he sent me to get a CT scan. CT scan was a quickie. My head went inside a big machine and within seconds I was done.
The most funny thing which happened at the hospital was that they didn't keep their words. Some nurse will come and ask some funny quesitons and then disappear while promising that she/he will be back in moments. I don't know what unit of time the hospital staff followed but a moment was never less than an hour.
Later, I got to drink some water and the doctor came with my CT scan report only to tell a bad news. He told that something unusual is found on my CT scan and that I have two 5 mm size internal bleeding spots because of the impact of the ball. He told me that soon a Neuro-surgeon will examine me within couple of minutes and I simply waited and waited and waited.
At around 8 pm Shekhar was informed that they intend to keep me in the hospital for the whole night and this really made me uncomfortable. A nurse came around 8:40 and told me that they need to shift me to different room. I asked that I don't want to spend the night here and would like to spend night at my home and come back again in morning if required.
Next, she came back with the Neuro Surgeon and he made a lame excuse about why he could not see me earlier because he was very busy. He seems a good doctor and he explained me his concerns and said that we should take another CT scan at 11 pm and if everything is fine I can go back home. He told me that as I am hit in the right side of my head, more internal bleeding could lead to seizure of my heart. I was really scared and decided to go with the doctor's advice.
Now, they have shifted me to another room which is more comfortable and has a TV and a couch for the visitors to sit.
I could access one computer in the hospital and I have written this blog from that computer in one sitting. I hope I can finish it soon because it will highlight the poor state of healthcare services in United States.
Good News: I got my second CT scan done and it does not show any increase in the internal bleeding. This is a good news but I still need to be little careful for next couple of months like not to become stressed or consume any alchohol.
More to follow later once I get out of hospital probably tomorrow morning...
First, the ground on which we started playing cricket was different. Secondly, the ground was in poor shape. There was lots of moisture in the ground and the pitch was surrounded by think grass. In a nutshell, it was not a great environment to play cricket. But, since we were really frustrated by the weather for last three weeks, we decided to play on that not so good looking ground.
I bowled a few balls as practice and it was okay, some were really off line and length but later I got myself well in line and length. After that I put on the pads and thought of doing some batting practice. It occured to me that I should wear a helmet but I am not sure why I shrugged off that idea. I faced couple of balls and it seems okay. I was really frustrated by the wide balls of Hamid and then came Shekhar.
First few balls of Shekhar were either slower deliveries and some short pitched medium paced deliveries outside off stump. Then all of a sudden he bowled a beamer and I completely missed the line and the height of the ball. I heard a big bang in my head, then came little sparkling stars all around. I think I had blurred vision for a second and heard someone saying something. I did not become unconscious. However, I sat down first and then lay down on the ground using a pad a pillow.
Soon, excruciating pain followed and someone called Rice Emergency Medical Services (EMS). EMS guys and girls asked routines questions and I answered them. Then they asked me if I wanted to go to the Hermann Memorial hospital or some other place. I asked them to take me to Hermann Memorial because that was the first name which came to my mind.
Soon, an ambulence came and they strapped me on a board with duct tape and some plastic support and put me on a stretcher and loaded me into the ambulence. This whole setup was quite uncomfortable and it somehow increased my pain. My neck also started to hurt because of the uncomfortable situation of my head. I kept my cool and wits and was not feeling so much pain. I think I have lots of threshold for pain so may be I felt pain but it did not bother me.
We reached Hermann Memorial hospital within couple of minutes and then started the ordeal of frustration, agony and disgust about the incompetence and lack of professionalism of the hospital staff.
I had to wait 20-25 minutes just to be removed from the stretcher and moved into the emergency room (ER). There was some small kid who kept crying in very high pitch and it made me uncomfortable because I was all strapped and unable to move my leg or turn around my head. I was also feeling extremely thristy and they informed me that I couldn't drink any water before a doctor looks after my condition first.
I think first I was attended by an orthopaedic who after asking some simple question and probing the area around me neck concluded that probably I don't have a fractured skull and sent me to trauma center.
Another doctor came and he sent me to get a CT scan. CT scan was a quickie. My head went inside a big machine and within seconds I was done.
The most funny thing which happened at the hospital was that they didn't keep their words. Some nurse will come and ask some funny quesitons and then disappear while promising that she/he will be back in moments. I don't know what unit of time the hospital staff followed but a moment was never less than an hour.
Later, I got to drink some water and the doctor came with my CT scan report only to tell a bad news. He told that something unusual is found on my CT scan and that I have two 5 mm size internal bleeding spots because of the impact of the ball. He told me that soon a Neuro-surgeon will examine me within couple of minutes and I simply waited and waited and waited.
At around 8 pm Shekhar was informed that they intend to keep me in the hospital for the whole night and this really made me uncomfortable. A nurse came around 8:40 and told me that they need to shift me to different room. I asked that I don't want to spend the night here and would like to spend night at my home and come back again in morning if required.
Next, she came back with the Neuro Surgeon and he made a lame excuse about why he could not see me earlier because he was very busy. He seems a good doctor and he explained me his concerns and said that we should take another CT scan at 11 pm and if everything is fine I can go back home. He told me that as I am hit in the right side of my head, more internal bleeding could lead to seizure of my heart. I was really scared and decided to go with the doctor's advice.
Now, they have shifted me to another room which is more comfortable and has a TV and a couch for the visitors to sit.
I could access one computer in the hospital and I have written this blog from that computer in one sitting. I hope I can finish it soon because it will highlight the poor state of healthcare services in United States.
Good News: I got my second CT scan done and it does not show any increase in the internal bleeding. This is a good news but I still need to be little careful for next couple of months like not to become stressed or consume any alchohol.
More to follow later once I get out of hospital probably tomorrow morning...
संगीत का वो सुनहरा दौर !
काफ़ी दिनों से हम छ्पास पीडा से तडप रहे थे, इसीलिये सोचा कि क्यों न अपनी छ्पास पीडा भी कम की जाये और इसी बहाने आप लोगो को संगीत के स्वर्णिम काल के खूबसूरत नग्मों की याद दिलायी जाये ।
पचास और साठ के दशकों को नि:सन्देह हिन्दी फ़िल्म संगीत का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है । नौशाद, मदन मोहन, शंकर-जयकिशन, एस. डी. बर्मन, गुलाम मोहम्मद, ओ. पी. नैय्यर और सलिल चौधरी जैसे संगीतकारों की कालजयी धुनें आज भी अन्तर्मन को गुंजित कर देती हैं । ये इन संगीतकारों का सौभाग्य ही था कि इन्हे लता मंगेशकर, आशा भोंसले, गीता दत्त, सुरैया, तलत महमूद, मोहम्मद रफ़ी, मन्नाडे, किशोर कुमार, हेमन्त कुमार, मुकेश एवं महेन्द्र कपूर जैसे प्रतिभावान गायक मिले जिनकी संगीत साधना ने हिन्दी फ़िल्मों के संगीत को अमर कर दिया ।
आज की इस पोस्ट का विषय है: मुख्य गीत/गजल के पूर्व की कुछ पंक्तियाँ (प्रीलूड) । यूँ तो ऐसी अनेकों धुनें जेहन में आ रहीं हैं, परन्तु मैं उनमें से कुछ आपके सामनें रख रहा हूँ ।
सबसे पहले सन १९५२ की फ़िल्म "दाग" के इस गीत के "प्रीलूड" को मैं सर्वाधिक दुख भरा मानता हूँ, इन चार पंक्तियों को पढते ही मन विह्वल हो जाता है । इस नग्मे को तलत महमूद साहब ने अपनी मखमली आवाज में बडी खूबसूरती से गाया है । ये रहा इस गीत का "प्रीलूड" और मुख्य पंक्तियाँ,
चाँद एक बेवा की चूडी की तरह टूटा हुआ,
हर सितारा बेसहारा सोच में डूबा हुआ,
गम के बादल एक जनाजे की तरह ठहरे हुये,
हिचकियों के साज पे कहता है दिल रोता हुआ ।
कोई नहीं मेरा इस दुनियाँ में आशियाँ बरबाद है,
आंसू भरी मुझे किस्मत मिली है जिन्दगी नाशाद है ।
दूसरा गीत भी तलत महमूद साहब की आवाज में है,
बुझ गये गम की हवा से,
प्यार के जलते चिराग ।
बेवफ़ाई चाँद ने की,
पड गया उसमें भी दाग ।
हम दर्द के मारों का इतना ही फ़साना है,
पीने को शराब-ए-गम, दिल गम का निशाना है ।
दिल एक खिलौना है तकदीर के हाथों में,
मरने की तमन्ना है जीने का बहाना है ।
तीसरा गीत कुछ इस प्रकार है,
जली जो शाख-ए-चमन,
साथ बागबाँ भी जला ।
जला के मेरे नशेमन को,
आसमाँ भी जला ।
एक मैं हूँ, एक मेरी बेकसी की शाम है,
अब तो तुझ बिन जिन्दगी भी मुझ पर एक इल्जाम है ।
दिल पे क्या गुजरी तेरे जाने से कोई क्या कहे,
साँस जो आती है वो भी दर्द का पैगाम है ।
चौथा गीत भी अपने साथ कुछ दर्द समेंटे है । ये गीत फ़िल्म "एक साल" का है जिसे फ़िल्म में तलत महमूद और लता मंगेशकर दोनों ने गाया है । तलत महमूद की आवाज वाला गीत अशोक कुमार पर फ़िल्माया गया है ।
करते रहे खिंजा से हम सौदा बहार का,
बदला दिया तो क्या ये दिया उनके प्यार का ।
सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया,
दिन में अगर चिराग जलाये तो क्या किया ।
हम बदनसीब प्यार की रूसवाई बन गये,
खुद ही लगा के आग तमाशाई बन गये ।
दामन से अब ये शोले बुझाये तो क्या किया,
सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया ।
ये रहा पाँचवा नग्मा:
शहर की रात और मैं,
नाशाद-ओ-नाकारा फ़िरूँ ।
जगमगाती जागती,
सडकों पे आवारा फ़िरूँ ।
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ।
ये रूपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल,
जैसे सूफ़ी का तसव्वर जैसे आशिक का ख्याल,
आह लेकिन कौन समझे कौन जाने जी का हाल ।
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ।
अन्त में एक और दर्दीला गीत,
तेरा गम ख्वार हूँ,
लेकिन मैं तुझ तक आ नही सकता,
मैं अपने नाम तेरी बेकसी,
लिखवा नहीं सकता ।
तेरी आँख के आँसू पी जाऊँ, ऐसी मेरी तकदीर कहाँ ।
तेरे गम में तुझको बहलाऊँ, ऐसी मेरी तकदीर कहाँ ।
ऐ काश जो मिलकर रोते कुछ दर्द तो हल्के होते,
बेकार न जाते आँसू कुछ दाग जिगर के धोते ।
फ़िर रंज ने होता इतना है तन्हाई में जितना,
अब जाने ये रस्ता गम का है और भी लम्बा कितना ।
तेरी आँख के आँसू पी जाऊँ, ऐसी मेरी तकदीर कहाँ ।
यदि आप अभी तक मेरे साथ हैं तो मैं आपका शुक्रगुजार हूँ । मैं अपनी अगली पोस्ट हिन्दी फ़िल्म संगीत में "कव्वालियों" पर लिखने की सोच रहा हूँ । यदि आप पचास और साठ के दशकों के संगीत की विशिष्टता के बारे में कुछ और पोस्ट पढना चाहते हैं तो अपनी टिप्पणियों द्वारा मेरा मार्गदर्शन और हौसला अफ़जाई कीजिये ।
अब तक पढने के लिये धन्यवाद ।
नीरज रोहिल्ला
पचास और साठ के दशकों को नि:सन्देह हिन्दी फ़िल्म संगीत का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है । नौशाद, मदन मोहन, शंकर-जयकिशन, एस. डी. बर्मन, गुलाम मोहम्मद, ओ. पी. नैय्यर और सलिल चौधरी जैसे संगीतकारों की कालजयी धुनें आज भी अन्तर्मन को गुंजित कर देती हैं । ये इन संगीतकारों का सौभाग्य ही था कि इन्हे लता मंगेशकर, आशा भोंसले, गीता दत्त, सुरैया, तलत महमूद, मोहम्मद रफ़ी, मन्नाडे, किशोर कुमार, हेमन्त कुमार, मुकेश एवं महेन्द्र कपूर जैसे प्रतिभावान गायक मिले जिनकी संगीत साधना ने हिन्दी फ़िल्मों के संगीत को अमर कर दिया ।
आज की इस पोस्ट का विषय है: मुख्य गीत/गजल के पूर्व की कुछ पंक्तियाँ (प्रीलूड) । यूँ तो ऐसी अनेकों धुनें जेहन में आ रहीं हैं, परन्तु मैं उनमें से कुछ आपके सामनें रख रहा हूँ ।
सबसे पहले सन १९५२ की फ़िल्म "दाग" के इस गीत के "प्रीलूड" को मैं सर्वाधिक दुख भरा मानता हूँ, इन चार पंक्तियों को पढते ही मन विह्वल हो जाता है । इस नग्मे को तलत महमूद साहब ने अपनी मखमली आवाज में बडी खूबसूरती से गाया है । ये रहा इस गीत का "प्रीलूड" और मुख्य पंक्तियाँ,
चाँद एक बेवा की चूडी की तरह टूटा हुआ,
हर सितारा बेसहारा सोच में डूबा हुआ,
गम के बादल एक जनाजे की तरह ठहरे हुये,
हिचकियों के साज पे कहता है दिल रोता हुआ ।
कोई नहीं मेरा इस दुनियाँ में आशियाँ बरबाद है,
आंसू भरी मुझे किस्मत मिली है जिन्दगी नाशाद है ।
दूसरा गीत भी तलत महमूद साहब की आवाज में है,
बुझ गये गम की हवा से,
प्यार के जलते चिराग ।
बेवफ़ाई चाँद ने की,
पड गया उसमें भी दाग ।
हम दर्द के मारों का इतना ही फ़साना है,
पीने को शराब-ए-गम, दिल गम का निशाना है ।
दिल एक खिलौना है तकदीर के हाथों में,
मरने की तमन्ना है जीने का बहाना है ।
तीसरा गीत कुछ इस प्रकार है,
जली जो शाख-ए-चमन,
साथ बागबाँ भी जला ।
जला के मेरे नशेमन को,
आसमाँ भी जला ।
एक मैं हूँ, एक मेरी बेकसी की शाम है,
अब तो तुझ बिन जिन्दगी भी मुझ पर एक इल्जाम है ।
दिल पे क्या गुजरी तेरे जाने से कोई क्या कहे,
साँस जो आती है वो भी दर्द का पैगाम है ।
चौथा गीत भी अपने साथ कुछ दर्द समेंटे है । ये गीत फ़िल्म "एक साल" का है जिसे फ़िल्म में तलत महमूद और लता मंगेशकर दोनों ने गाया है । तलत महमूद की आवाज वाला गीत अशोक कुमार पर फ़िल्माया गया है ।
करते रहे खिंजा से हम सौदा बहार का,
बदला दिया तो क्या ये दिया उनके प्यार का ।
सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया,
दिन में अगर चिराग जलाये तो क्या किया ।
हम बदनसीब प्यार की रूसवाई बन गये,
खुद ही लगा के आग तमाशाई बन गये ।
दामन से अब ये शोले बुझाये तो क्या किया,
सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया ।
ये रहा पाँचवा नग्मा:
शहर की रात और मैं,
नाशाद-ओ-नाकारा फ़िरूँ ।
जगमगाती जागती,
सडकों पे आवारा फ़िरूँ ।
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ।
ये रूपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल,
जैसे सूफ़ी का तसव्वर जैसे आशिक का ख्याल,
आह लेकिन कौन समझे कौन जाने जी का हाल ।
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ,
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ।
अन्त में एक और दर्दीला गीत,
तेरा गम ख्वार हूँ,
लेकिन मैं तुझ तक आ नही सकता,
मैं अपने नाम तेरी बेकसी,
लिखवा नहीं सकता ।
तेरी आँख के आँसू पी जाऊँ, ऐसी मेरी तकदीर कहाँ ।
तेरे गम में तुझको बहलाऊँ, ऐसी मेरी तकदीर कहाँ ।
ऐ काश जो मिलकर रोते कुछ दर्द तो हल्के होते,
बेकार न जाते आँसू कुछ दाग जिगर के धोते ।
फ़िर रंज ने होता इतना है तन्हाई में जितना,
अब जाने ये रस्ता गम का है और भी लम्बा कितना ।
तेरी आँख के आँसू पी जाऊँ, ऐसी मेरी तकदीर कहाँ ।
यदि आप अभी तक मेरे साथ हैं तो मैं आपका शुक्रगुजार हूँ । मैं अपनी अगली पोस्ट हिन्दी फ़िल्म संगीत में "कव्वालियों" पर लिखने की सोच रहा हूँ । यदि आप पचास और साठ के दशकों के संगीत की विशिष्टता के बारे में कुछ और पोस्ट पढना चाहते हैं तो अपनी टिप्पणियों द्वारा मेरा मार्गदर्शन और हौसला अफ़जाई कीजिये ।
अब तक पढने के लिये धन्यवाद ।
नीरज रोहिल्ला
भगवान सलामत रहें माँ बाप हमारे !
आज की इस पोस्ट को मैं अपने "माता-पिता" को समर्पित करता हूँ ।
इस पोस्ट में आपके लिये हाजिर है फ़िल्म "आप की परछाइयाँ" फ़िल्म का एक गीत । फ़िल्म सन १९६४ में आयी थी, संगीत मेरे पसंदीदा संगीतकार मदन मोहन जी ने दिया था और फ़िल्म के गीत लिखे थे "राजा मेंहदी अली खान" ने । ये वही गीतकार हैं जिन्होनें मदन मोहन जी के साथ अनेकों फ़िल्मों में यादगार नग्में लिखे ।
मदन मोहन जी के साथ "राजेन्द्र क्रष्ण " ने भी बहुत सुंदर गीत लिखे हैं परन्तु उन गीतों का जिक्र किसी और पोस्ट में करूँगा ।
फ़िलहाल उदाहरण के लिये पेश हैं "राजा मेंहदी अली खान" के कुछ नग्मों की फ़ेहरिस्त:
१) आपके पहलू में आकर रो दिये: मेरा साया (१९६६)
२) आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे: अनपढ (१९६२)
३) आपको प्यार छुपाने की बडी आदत है: नीला आकाश (१९६५)
४) एक हसीं शाम को दिल मेरा खो गया: दुल्हन एक रात की (१९६६)
५) है इसी में प्यार की आबरू: अनपढ (१९६२)
६) लग जा गले फ़िर ये हसीं रात हो ना हो: वो कौन थी (१९६४)
अब फ़ुरसतियाजी के अन्दाज में मेरी पसन्द:
ये गीत फ़िल्म "आप की परछाइयाँ" से है जिसके बोल इस तरह से हैं:
जब तक के हैं आकाश पे चाँद और सितारे,
भगवान सलामत रहें माँ बाप हमारे ।
माँ बाप का दिल है किसी तीरथ से भी प्यारा,
हँस हँस के उठाते हैं वो दुख दर्द हमारा,
फ़िर क्यों न हर एक साँस दुआ बन के पुकारे,
भगवान सलामत रहें माँ बाप हमारे ।
कहते हैं के माँ बाप का दिल जिसने दुखाया,
आकाश पे भगवान को भी उसने रुलाया,
दुनिया की हर एक चीज से माँ बाप हैं प्यारे,
भगवान सलामत रहें माँ बाप हमारे ।
जब तक के हैं आकाश पे चाँद और सितारे,
भगवान सलामत रहें माँ बाप हमारे ।
इस पोस्ट में आपके लिये हाजिर है फ़िल्म "आप की परछाइयाँ" फ़िल्म का एक गीत । फ़िल्म सन १९६४ में आयी थी, संगीत मेरे पसंदीदा संगीतकार मदन मोहन जी ने दिया था और फ़िल्म के गीत लिखे थे "राजा मेंहदी अली खान" ने । ये वही गीतकार हैं जिन्होनें मदन मोहन जी के साथ अनेकों फ़िल्मों में यादगार नग्में लिखे ।
मदन मोहन जी के साथ "राजेन्द्र क्रष्ण " ने भी बहुत सुंदर गीत लिखे हैं परन्तु उन गीतों का जिक्र किसी और पोस्ट में करूँगा ।
फ़िलहाल उदाहरण के लिये पेश हैं "राजा मेंहदी अली खान" के कुछ नग्मों की फ़ेहरिस्त:
१) आपके पहलू में आकर रो दिये: मेरा साया (१९६६)
२) आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे: अनपढ (१९६२)
३) आपको प्यार छुपाने की बडी आदत है: नीला आकाश (१९६५)
४) एक हसीं शाम को दिल मेरा खो गया: दुल्हन एक रात की (१९६६)
५) है इसी में प्यार की आबरू: अनपढ (१९६२)
६) लग जा गले फ़िर ये हसीं रात हो ना हो: वो कौन थी (१९६४)
अब फ़ुरसतियाजी के अन्दाज में मेरी पसन्द:
ये गीत फ़िल्म "आप की परछाइयाँ" से है जिसके बोल इस तरह से हैं:
जब तक के हैं आकाश पे चाँद और सितारे,
भगवान सलामत रहें माँ बाप हमारे ।
माँ बाप का दिल है किसी तीरथ से भी प्यारा,
हँस हँस के उठाते हैं वो दुख दर्द हमारा,
फ़िर क्यों न हर एक साँस दुआ बन के पुकारे,
भगवान सलामत रहें माँ बाप हमारे ।
कहते हैं के माँ बाप का दिल जिसने दुखाया,
आकाश पे भगवान को भी उसने रुलाया,
दुनिया की हर एक चीज से माँ बाप हैं प्यारे,
भगवान सलामत रहें माँ बाप हमारे ।
जब तक के हैं आकाश पे चाँद और सितारे,
भगवान सलामत रहें माँ बाप हमारे ।
मेरा वजन: ये बढता क्यों नहीं !
मित्रों, आज मैं अपनें मन की व्यथा आप सब के सामने रख रहा हूँ । आप सब लोग मेरी इस समस्या पर गौर फ़रमाइये और बताइये कि मेरा वजन बढता क्यों नहीं ???
बचपन से ही हम सीकिंया पहलवान टाईप के थे, इसके कुछ फ़ायदे और ढेर सारे नुकसान हमने ईश्वर को शीश नमन कर स्वीकार किये हैं । परन्तु अब लगता है कि ये सब मेरे ही साथ क्यों ? लोग बिना कुछ खाये फ़लते फ़ूलते जा रहे हैं और हम हैं कि कितनी भी मेहनत कर लो, नतीजा वही "सिफ़र" !!!
अत्याचारों का ये सिलसिला तब प्रारम्भ हुआ जब हम प्राथमिक विद्यालय में थे । दुबले पतले होने के कारण हमारे आचार्यजी हमें पंक्ति में सबसे आगे खडा कर देते थे । अब हमारी कक्षा के बाकी विद्यार्थी पीछे खडे होकर मौज लें और हमें रोज सुबह सुबह जूते चमकाकर, बाल बनाकर और राजा बबुआ टाईप का विद्यार्थी बनकर सबसे आगे रहना पडता था । बाकी लडके पंक्ति में सामने खडे लडके की चिंकुटी काट लेते थे, तो कभी स्याही वाले पेन से कुछ चित्र बना देते थे और हम चिल्लाते रह जाते थे कि कोई तो गोला पूरा कर लो ।
हमें सीरियस खडे होकर प्रात:स्मरण, एकात्मता स्त्रोत, सरस्वती वंदना, गायत्री मंत्र और शान्तिपाठ पढना होता था और हमारे पीठ पीछे माधुरी दीक्षित और रवीना और करिश्मा की बातें होती थी । इसी कारण हम हमेशा बबुआ बने रह गये और हमारी पंक्ति में सबसे पीछे खडे होने वाले "सलिल सक्सेना" ने हमारी पसंदीदा सहपाठी "सुनयना जोशी" से दोस्ती गाँठ ली । और तो और वो सलिल सक्सेना ठहरा हमारा सबसे बेस्ट/फ़ास्ट/अभिन्न फ़्रेंड/मित्र/जोडीदार । अब उस जमाने में लंगोट तो पहनते नहीं थे वरना लंगोटिया यार भी होता, वैसे भी हमारे घर वाले तो हमेशा से "यंग इंडिया" पर भरोसा रखते थे ।
दुबले पतले होने के कारण कुछ दादा टाईप के बच्चे हम पर खूब धौंस चलाते । इसी कडी में एक किस्सा याद आ रहा है। हमारा नाम नीरज है, हमारे क्रमांक से पहले "नागेन्द त्रिपाठी" और हमारे बाद "नीटू शर्मा" का नाम आता था । दोनो लडकों का पंडित होना मात्र एक संयोग है, मै इसे ब्राह्मणवर्ग का क्षत्रियों पर अत्याचार नहीं कहूँगा वरना फ़िर से "मोहल्ले" में नयी बहस प्रारम्भ हो जायेगी । यूँ कि अपनी मेहनत और घर पर पिताजी के सानिध्य में अध्ययन करने के कारण पडने वाली मार के डर से हम कक्षा में प्रथम/द्वितीय स्थान प्राप्त किया करते थे । एक दिन वार्षिक परीक्षाओं से पहले नीटू और नागेन्द्र ने हमें कोने में ले जाकर खूब हडकाया । नीटूजी हमसे जरा दो अंगुल लम्बे थे और नागेन्द्रजी की कद काठी लगभग आचार्यजी जितनी थी । दोनों ने हमको धमकी दी कि अगर परीक्षा में अपनी कापी टेढी नहीं की तो जिन्दा घर नहीं जा पाऊँगा, और अगर आचार्यजी को बताने की गलती की तो मेरा बस्ता पास के गटर में फ़ेंक दिया जायेगा ।
हम ठहरे सीधे साधे विद्यार्थी, आ गये दोनों की धमकी में और दोनों तब तक नकल करायी जब तक उनका मन नहीं भर गया । परीक्षा परिणाम में हम प्रथम, नीटू द्वितीय और नागेन्द्र भैया पंचम । नागेन्द्र ने फ़िर हडकाया कि मैने अगर उसकी तरफ़ ढंग से कापी टेढी की होती तो वो भी "टाप थ्री" में होता । लेकिन नागेन्द्र का ह्र्दय बडा विशाल था, वो कक्षा में पंचम आने पर ही प्रसन्न था । नीटू की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था, उसके घर वालों ने परीक्षा में उसकी सफ़लता के लिये उसे एक नयी नवेली झक्कास साईकिल दिलवाई थी जिस पर वो हमें कभी कभी सवारी कर लेने देता था ।
हमारे जीवन में भ्रष्टाचार से ये हमारा पहला संपर्क था, हम हारे क्योंकि हमारा वजन कम था । अगर मेरा वजन भी नागेन्द्र के बराबर होता तो हमें यूँ मुँह की खानी न पडती ।
बचपन में वजन कम होने का एक फ़ायदा ये था कि जब शारीरिक शिक्षा के घंटे में हमें पिरामिड बनानें को कहा जाता था तो मैं सबसे ऊपर होता था । अपने बाकी मित्रों के कंधे पर चढकर मुझे लगता था मानों मैं उनके ऊपर विजयश्री की घोषणा कर रहा हूँ । कभी कभी आचार्यजी भी मुझपर तरस खाकर अपनी प्रिय अरहर की संटी को थोडा धीरे से मारते थे । शायद उनको खुद डर लगता हो कि अगर कोई हड्डी वड्डी टूट गयी तो फ़ालतू में रायता फ़ैल जायेगा, और वैसे भी पढाई में तो हम वैसे भी राजा बबुआ थे । तो कुल मिला कर सींकिया पहलवान होने के फ़ायदे कम और नुकसान ज्यादा ।
किशोरावस्था में कदम रखा तो कक्षा में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण बढा । परन्तु ये क्या? कोई भी कन्या हमारे प्रणयनिवेदन को सीरियसली लेने को तैयार ही नहीं । और किसी अतयंत सुन्दर कन्या से प्रणय निवेदन करने में कक्षा के बलिष्ठ लडकों से सीधी मुठभेड होने का डर । अब इस दुखी दिल की पीडा क्या सुनायें बस समझ लीजिये दिल के अरमा आँसुओं में बह गये । इस दौरान हमारा एक मित्र बना जिसका वजन कम से कम हमसे तीन गुना और नाम "सुनील अग्रवाल" था । सुनील मध्यान्ह बेला से पहले ही हमारा आधा और अपना पूरा भोजन चट कर जाते और हम दोस्ती के नाम पर कुछ न कह पाते । सुनील अग्रवाल के बारे में कभी फ़ुरसत से लिखेंगे ।
विद्यार्थी जीवन के दिन बीतते गये और एक दिन उत्तरप्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद की बारहवीं कक्षा की मेरिट लिस्ट में स्थान प्राप्त होने के साथ साथ हमारा अभियांत्रिकी की प्रवेश परीक्षा में भी चयन हो गया । जब प्रवेश परीक्षा के "इन्फ़ारमेशन ब्रोशर" के सूक्ष्म प्रिंट को पढा तो ज्ञात हुआ कि काउन्सलिंग के समय न्यूनतम वजन ४१ किग्रा. होना चाहिये । जब पडौस के चक्की वाले की दुकान पर वजन कराया तो हमारे हाथों के तोते ही उड गये क्योंकि हमारा वजन ३९.५ किग्रा निकला । अब सारे घर में विचित्र सा वातावरण, कौन किसे दोषी कहे । दादी ने तो आजकल के खान पान को दोष दिया, पडोस वाली आण्टी ने कहा कि आजकल न तो पहले जैसा दूध मिलता है और न घी । पिताजी ने वैद्यजी के समान शाश्वत सत्य कहने वाली मुद्रा में कहा कि ब्रोशर ठीक से पहले पढ लिया होता तो कम से कम तीन-चार महीने थे वजन बढाने के लिये । अब १५ दिनों में १.५ किलो वजन कहाँ से बढायें ।
लोगों से सलाह ली गयी, हमारी पडौसी आण्टी ने कहा कि सुबह भीगे हुये चनों का नाश्ता, भोजन में ढेर सारा घी और पानी बिल्कुल भी नहीं, और रात को सोते समय एक बडे गिलास भरे दूध के साथ तीन केले । एक हफ़्ते तक हमारी खूब सेवा की गयी । उसके बाद दोबारा चक्की पर वजन तुलवाने गये तो काँटा वहीं का वहीं, सौ ग्राम वजन भी नहीं बढा । माताजी परेशान, दीदी मन ही मन व्यथित, दादीजी ने कई देवी देवताओं का भोग बोल दिया अगर मेरा वजन बढ जाये । पिताजी अपने मन की पीडा किसी से न कह पाये बस इतना ही सोचा होगा कि दुष्ट इतना सारा घी/दूध भी चट कर गया और वजन भी नहीं बढा ।
खैर देवी देवताओं के आशीर्वाद के सहारे हम काउंसलिंग में पहुंच गये । मेडिकल इम्तिहान से पहले छ: केले उदरस्थ किये और ढेर सारा पानी चाप लिया । वहाँ पर बैठा डाक्टर भलामानुष था और उसने वजन तौलने वाली मशीन के कांटे को गौर से देखा, हमारी ओर एक दयाद्रष्टि डाली और लिख दिया ४१ किलो । बस फ़िर क्या था हमारे मन में भविष्य के सुनहरे सपनें अंगडाई लेने लगे । घरवालों को यकीन हो गया कि उनके बुढापे में उनकी दाल रोटी का इन्तजाम हो गया । दादी ने देवी देवताओं की पूजा अर्चना पूरे धूमधाम से की और हम निकल पडे इंजीनियर बननें ।
अपने कालेज के शुरू के तीन सालों में हमने अपने लिये नये लक्ष रखे, जैसे भी हो वजन ५० किलो तो कम से कम होना ही चाहिये । हर छुट्टी में घरवाले घी और च्यवनप्राश का नया डिब्बा देते, देशी घी और मेवा युक्त बेसन के लड्डू बनाये जाते । सख्त हिदायत दी जाती कि अगर "मैस" का खाना पसन्द नहीं तो कैंटीन में खाता खुलवा लूँ और फ़लाहार में कोई कमी न रखूँ । लेकिन ५० का वो आंकडा हमे हर बार मुँह चिढा जाता । ऐसा लगता जैसे हमे दूर खडा होकर कह रहा हो कि पकडो तो जानूँ । "बनारसवाले पाण्डेय जी" कालेज में हमारे दो साल सीनियर थे और वो हमारी इस कहानी पर सनद लगा सकते हैं । हमारे दो अभिन्न मित्र थे/हैं, प्रथम वर्ष में "आदित्य गोयल" का वजन ९० किलो था और "आशीष गुप्ता" का वजन तो १०५ किलो था । हम उन दोनों को जी भरके देखते रहते, अपलक निहारते रहते और कहते "मुझको भी तो लिफ़्ट करा दे, दो चार किलो वजन बढा दे" ।
भले ही तीन सालों तक ५० किलो का वो आँकडा हमसे दूर भागता रहा लेकिन अंतिम वर्ष में हमने उसे छू ही लिया । इतनी खुशी न मेरिट में आने पर हुयी थी और न ही किसी अन्य इम्तिहान में सफ़ल होने पर ।
ऐसा लगता कि मानों अब हमारा भी कोई व्यक्तित्व है, ऐसा भ्रम होता कि कमीजे अब छोटी पड रहीं हैं, जींस अब चुस्त हो रही है। मिट्टी में अपने कदमों के निशान देखकर लगता कि हाँ अब कुछ वजन महसूस हुआ । बडे अच्छे दिन थे वो, आज भी याद करके तबीयत हरी हो जाती है ।
फ़िर दो वर्ष "भारतीय विज्ञान संस्थान" में गुजारने के बाद शोध करने के उद्देश्य से अमेरिका के टेक्सास नामक प्रान्त के ह्यूस्टन नामक नगर में "चावल विश्वविद्यालय" में आये । यहाँ आते ही फ़िर से असुरक्षा ने हमें घेर लिया । जिसे भी देखो तोंद फ़ुलाये चला आ रहा है, पुरूषों तक तो ठीक था परन्तु नारियों का भी वजन हमसे कम से कम १.५ गुना । शीघ्र ही हमें अवसाद ने घेर लिया। मित्रों ने सुझाया कि मुर्गे चीरो, बकरी खाओ तब वजन बढेगा लेकिन हमें कबीरदास का ये दोहा याद आ गया:
बकरी पाती खात है तिसकी काढी खाल,
जे नर बकरी खात हैं उनको कौन हवाल ।
हम मांसाहार का सेवन न कर सके । कुछ और लोगों ने हमारा ध्यान "चीज (ढेर सारी वसायुक्त)", "बर्गर", "पिज्जा" और "फ़्रेंच फ़्राइज" की ओर आकर्षित किया । हमें लगा की यही गुरूमंत्र है, बस लग जाओ पेट साधना करने में । पूरे छ: माह तक "चीज युक्त बर्गर और फ़्रेंच फ़्राइज" का सेवन किया, जब भी प्यास लगी जी भरकर "बीयर और कोक" पी, कोई भी ऐसी चीज जिसमें कम कैलोरीज हों त्याग दीं, परन्तु हम वहीं ढाक के तीन पात बने रहे ।
कल जब अपना वजन नापा था तो "१२० पाउन्डस" निकला था । घरवालों को एक बार फ़िर से चिंता सताने लगी है । माताजी कह रहीं थी कुछ ही महीनों में तुम २५ वर्ष के हो जाओगे, कुछ भी करके अपना वजन बढा लो वरना तुम्हारी शादी करनें में दिक्कत आयेगी । पिताजी तो सब जानते हैं फ़िर भी इस बात को हंसी में टाल जाते हैं। सुना है आजकल दादीजी का पूजापाठ फ़िर से फ़ुल स्विंग में आ गया है । दीदी ने कहा है कि जब सब कुछ करके देखा है तो थोडे से मुर्गे भी चीर के देख लो, शायद कुछ हो सके ।
मै मौन हूँ, समझ नहीं आता विधाता ने ये खेल मेरे साथ ही क्यों खेला? आप सबने मेरी कहानी यहाँ तक पढी इसके लिये धन्यवाद । ये पोस्ट आदरणीय "फ़ुरसतियाजी" की पोस्ट के समान लम्बी हो गयी है परन्तु मन के भाव बीच में रोके भी तो नहीं जा सकते । अगर आप लोगों को वजन बढाने का कोई टोना/टुटका आता हो तो अपनी टिप्पणियों के माध्यम से मेरी सहायता कीजिये ।
आपकी टिप्पणियों के इन्तजार में,
नीरज रोहिल्ला
बचपन से ही हम सीकिंया पहलवान टाईप के थे, इसके कुछ फ़ायदे और ढेर सारे नुकसान हमने ईश्वर को शीश नमन कर स्वीकार किये हैं । परन्तु अब लगता है कि ये सब मेरे ही साथ क्यों ? लोग बिना कुछ खाये फ़लते फ़ूलते जा रहे हैं और हम हैं कि कितनी भी मेहनत कर लो, नतीजा वही "सिफ़र" !!!
अत्याचारों का ये सिलसिला तब प्रारम्भ हुआ जब हम प्राथमिक विद्यालय में थे । दुबले पतले होने के कारण हमारे आचार्यजी हमें पंक्ति में सबसे आगे खडा कर देते थे । अब हमारी कक्षा के बाकी विद्यार्थी पीछे खडे होकर मौज लें और हमें रोज सुबह सुबह जूते चमकाकर, बाल बनाकर और राजा बबुआ टाईप का विद्यार्थी बनकर सबसे आगे रहना पडता था । बाकी लडके पंक्ति में सामने खडे लडके की चिंकुटी काट लेते थे, तो कभी स्याही वाले पेन से कुछ चित्र बना देते थे और हम चिल्लाते रह जाते थे कि कोई तो गोला पूरा कर लो ।
हमें सीरियस खडे होकर प्रात:स्मरण, एकात्मता स्त्रोत, सरस्वती वंदना, गायत्री मंत्र और शान्तिपाठ पढना होता था और हमारे पीठ पीछे माधुरी दीक्षित और रवीना और करिश्मा की बातें होती थी । इसी कारण हम हमेशा बबुआ बने रह गये और हमारी पंक्ति में सबसे पीछे खडे होने वाले "सलिल सक्सेना" ने हमारी पसंदीदा सहपाठी "सुनयना जोशी" से दोस्ती गाँठ ली । और तो और वो सलिल सक्सेना ठहरा हमारा सबसे बेस्ट/फ़ास्ट/अभिन्न फ़्रेंड/मित्र/जोडीदार । अब उस जमाने में लंगोट तो पहनते नहीं थे वरना लंगोटिया यार भी होता, वैसे भी हमारे घर वाले तो हमेशा से "यंग इंडिया" पर भरोसा रखते थे ।
दुबले पतले होने के कारण कुछ दादा टाईप के बच्चे हम पर खूब धौंस चलाते । इसी कडी में एक किस्सा याद आ रहा है। हमारा नाम नीरज है, हमारे क्रमांक से पहले "नागेन्द त्रिपाठी" और हमारे बाद "नीटू शर्मा" का नाम आता था । दोनो लडकों का पंडित होना मात्र एक संयोग है, मै इसे ब्राह्मणवर्ग का क्षत्रियों पर अत्याचार नहीं कहूँगा वरना फ़िर से "मोहल्ले" में नयी बहस प्रारम्भ हो जायेगी । यूँ कि अपनी मेहनत और घर पर पिताजी के सानिध्य में अध्ययन करने के कारण पडने वाली मार के डर से हम कक्षा में प्रथम/द्वितीय स्थान प्राप्त किया करते थे । एक दिन वार्षिक परीक्षाओं से पहले नीटू और नागेन्द्र ने हमें कोने में ले जाकर खूब हडकाया । नीटूजी हमसे जरा दो अंगुल लम्बे थे और नागेन्द्रजी की कद काठी लगभग आचार्यजी जितनी थी । दोनों ने हमको धमकी दी कि अगर परीक्षा में अपनी कापी टेढी नहीं की तो जिन्दा घर नहीं जा पाऊँगा, और अगर आचार्यजी को बताने की गलती की तो मेरा बस्ता पास के गटर में फ़ेंक दिया जायेगा ।
हम ठहरे सीधे साधे विद्यार्थी, आ गये दोनों की धमकी में और दोनों तब तक नकल करायी जब तक उनका मन नहीं भर गया । परीक्षा परिणाम में हम प्रथम, नीटू द्वितीय और नागेन्द्र भैया पंचम । नागेन्द्र ने फ़िर हडकाया कि मैने अगर उसकी तरफ़ ढंग से कापी टेढी की होती तो वो भी "टाप थ्री" में होता । लेकिन नागेन्द्र का ह्र्दय बडा विशाल था, वो कक्षा में पंचम आने पर ही प्रसन्न था । नीटू की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था, उसके घर वालों ने परीक्षा में उसकी सफ़लता के लिये उसे एक नयी नवेली झक्कास साईकिल दिलवाई थी जिस पर वो हमें कभी कभी सवारी कर लेने देता था ।
हमारे जीवन में भ्रष्टाचार से ये हमारा पहला संपर्क था, हम हारे क्योंकि हमारा वजन कम था । अगर मेरा वजन भी नागेन्द्र के बराबर होता तो हमें यूँ मुँह की खानी न पडती ।
बचपन में वजन कम होने का एक फ़ायदा ये था कि जब शारीरिक शिक्षा के घंटे में हमें पिरामिड बनानें को कहा जाता था तो मैं सबसे ऊपर होता था । अपने बाकी मित्रों के कंधे पर चढकर मुझे लगता था मानों मैं उनके ऊपर विजयश्री की घोषणा कर रहा हूँ । कभी कभी आचार्यजी भी मुझपर तरस खाकर अपनी प्रिय अरहर की संटी को थोडा धीरे से मारते थे । शायद उनको खुद डर लगता हो कि अगर कोई हड्डी वड्डी टूट गयी तो फ़ालतू में रायता फ़ैल जायेगा, और वैसे भी पढाई में तो हम वैसे भी राजा बबुआ थे । तो कुल मिला कर सींकिया पहलवान होने के फ़ायदे कम और नुकसान ज्यादा ।
किशोरावस्था में कदम रखा तो कक्षा में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण बढा । परन्तु ये क्या? कोई भी कन्या हमारे प्रणयनिवेदन को सीरियसली लेने को तैयार ही नहीं । और किसी अतयंत सुन्दर कन्या से प्रणय निवेदन करने में कक्षा के बलिष्ठ लडकों से सीधी मुठभेड होने का डर । अब इस दुखी दिल की पीडा क्या सुनायें बस समझ लीजिये दिल के अरमा आँसुओं में बह गये । इस दौरान हमारा एक मित्र बना जिसका वजन कम से कम हमसे तीन गुना और नाम "सुनील अग्रवाल" था । सुनील मध्यान्ह बेला से पहले ही हमारा आधा और अपना पूरा भोजन चट कर जाते और हम दोस्ती के नाम पर कुछ न कह पाते । सुनील अग्रवाल के बारे में कभी फ़ुरसत से लिखेंगे ।
विद्यार्थी जीवन के दिन बीतते गये और एक दिन उत्तरप्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद की बारहवीं कक्षा की मेरिट लिस्ट में स्थान प्राप्त होने के साथ साथ हमारा अभियांत्रिकी की प्रवेश परीक्षा में भी चयन हो गया । जब प्रवेश परीक्षा के "इन्फ़ारमेशन ब्रोशर" के सूक्ष्म प्रिंट को पढा तो ज्ञात हुआ कि काउन्सलिंग के समय न्यूनतम वजन ४१ किग्रा. होना चाहिये । जब पडौस के चक्की वाले की दुकान पर वजन कराया तो हमारे हाथों के तोते ही उड गये क्योंकि हमारा वजन ३९.५ किग्रा निकला । अब सारे घर में विचित्र सा वातावरण, कौन किसे दोषी कहे । दादी ने तो आजकल के खान पान को दोष दिया, पडोस वाली आण्टी ने कहा कि आजकल न तो पहले जैसा दूध मिलता है और न घी । पिताजी ने वैद्यजी के समान शाश्वत सत्य कहने वाली मुद्रा में कहा कि ब्रोशर ठीक से पहले पढ लिया होता तो कम से कम तीन-चार महीने थे वजन बढाने के लिये । अब १५ दिनों में १.५ किलो वजन कहाँ से बढायें ।
लोगों से सलाह ली गयी, हमारी पडौसी आण्टी ने कहा कि सुबह भीगे हुये चनों का नाश्ता, भोजन में ढेर सारा घी और पानी बिल्कुल भी नहीं, और रात को सोते समय एक बडे गिलास भरे दूध के साथ तीन केले । एक हफ़्ते तक हमारी खूब सेवा की गयी । उसके बाद दोबारा चक्की पर वजन तुलवाने गये तो काँटा वहीं का वहीं, सौ ग्राम वजन भी नहीं बढा । माताजी परेशान, दीदी मन ही मन व्यथित, दादीजी ने कई देवी देवताओं का भोग बोल दिया अगर मेरा वजन बढ जाये । पिताजी अपने मन की पीडा किसी से न कह पाये बस इतना ही सोचा होगा कि दुष्ट इतना सारा घी/दूध भी चट कर गया और वजन भी नहीं बढा ।
खैर देवी देवताओं के आशीर्वाद के सहारे हम काउंसलिंग में पहुंच गये । मेडिकल इम्तिहान से पहले छ: केले उदरस्थ किये और ढेर सारा पानी चाप लिया । वहाँ पर बैठा डाक्टर भलामानुष था और उसने वजन तौलने वाली मशीन के कांटे को गौर से देखा, हमारी ओर एक दयाद्रष्टि डाली और लिख दिया ४१ किलो । बस फ़िर क्या था हमारे मन में भविष्य के सुनहरे सपनें अंगडाई लेने लगे । घरवालों को यकीन हो गया कि उनके बुढापे में उनकी दाल रोटी का इन्तजाम हो गया । दादी ने देवी देवताओं की पूजा अर्चना पूरे धूमधाम से की और हम निकल पडे इंजीनियर बननें ।
अपने कालेज के शुरू के तीन सालों में हमने अपने लिये नये लक्ष रखे, जैसे भी हो वजन ५० किलो तो कम से कम होना ही चाहिये । हर छुट्टी में घरवाले घी और च्यवनप्राश का नया डिब्बा देते, देशी घी और मेवा युक्त बेसन के लड्डू बनाये जाते । सख्त हिदायत दी जाती कि अगर "मैस" का खाना पसन्द नहीं तो कैंटीन में खाता खुलवा लूँ और फ़लाहार में कोई कमी न रखूँ । लेकिन ५० का वो आंकडा हमे हर बार मुँह चिढा जाता । ऐसा लगता जैसे हमे दूर खडा होकर कह रहा हो कि पकडो तो जानूँ । "बनारसवाले पाण्डेय जी" कालेज में हमारे दो साल सीनियर थे और वो हमारी इस कहानी पर सनद लगा सकते हैं । हमारे दो अभिन्न मित्र थे/हैं, प्रथम वर्ष में "आदित्य गोयल" का वजन ९० किलो था और "आशीष गुप्ता" का वजन तो १०५ किलो था । हम उन दोनों को जी भरके देखते रहते, अपलक निहारते रहते और कहते "मुझको भी तो लिफ़्ट करा दे, दो चार किलो वजन बढा दे" ।
भले ही तीन सालों तक ५० किलो का वो आँकडा हमसे दूर भागता रहा लेकिन अंतिम वर्ष में हमने उसे छू ही लिया । इतनी खुशी न मेरिट में आने पर हुयी थी और न ही किसी अन्य इम्तिहान में सफ़ल होने पर ।
ऐसा लगता कि मानों अब हमारा भी कोई व्यक्तित्व है, ऐसा भ्रम होता कि कमीजे अब छोटी पड रहीं हैं, जींस अब चुस्त हो रही है। मिट्टी में अपने कदमों के निशान देखकर लगता कि हाँ अब कुछ वजन महसूस हुआ । बडे अच्छे दिन थे वो, आज भी याद करके तबीयत हरी हो जाती है ।
फ़िर दो वर्ष "भारतीय विज्ञान संस्थान" में गुजारने के बाद शोध करने के उद्देश्य से अमेरिका के टेक्सास नामक प्रान्त के ह्यूस्टन नामक नगर में "चावल विश्वविद्यालय" में आये । यहाँ आते ही फ़िर से असुरक्षा ने हमें घेर लिया । जिसे भी देखो तोंद फ़ुलाये चला आ रहा है, पुरूषों तक तो ठीक था परन्तु नारियों का भी वजन हमसे कम से कम १.५ गुना । शीघ्र ही हमें अवसाद ने घेर लिया। मित्रों ने सुझाया कि मुर्गे चीरो, बकरी खाओ तब वजन बढेगा लेकिन हमें कबीरदास का ये दोहा याद आ गया:
बकरी पाती खात है तिसकी काढी खाल,
जे नर बकरी खात हैं उनको कौन हवाल ।
हम मांसाहार का सेवन न कर सके । कुछ और लोगों ने हमारा ध्यान "चीज (ढेर सारी वसायुक्त)", "बर्गर", "पिज्जा" और "फ़्रेंच फ़्राइज" की ओर आकर्षित किया । हमें लगा की यही गुरूमंत्र है, बस लग जाओ पेट साधना करने में । पूरे छ: माह तक "चीज युक्त बर्गर और फ़्रेंच फ़्राइज" का सेवन किया, जब भी प्यास लगी जी भरकर "बीयर और कोक" पी, कोई भी ऐसी चीज जिसमें कम कैलोरीज हों त्याग दीं, परन्तु हम वहीं ढाक के तीन पात बने रहे ।
कल जब अपना वजन नापा था तो "१२० पाउन्डस" निकला था । घरवालों को एक बार फ़िर से चिंता सताने लगी है । माताजी कह रहीं थी कुछ ही महीनों में तुम २५ वर्ष के हो जाओगे, कुछ भी करके अपना वजन बढा लो वरना तुम्हारी शादी करनें में दिक्कत आयेगी । पिताजी तो सब जानते हैं फ़िर भी इस बात को हंसी में टाल जाते हैं। सुना है आजकल दादीजी का पूजापाठ फ़िर से फ़ुल स्विंग में आ गया है । दीदी ने कहा है कि जब सब कुछ करके देखा है तो थोडे से मुर्गे भी चीर के देख लो, शायद कुछ हो सके ।
मै मौन हूँ, समझ नहीं आता विधाता ने ये खेल मेरे साथ ही क्यों खेला? आप सबने मेरी कहानी यहाँ तक पढी इसके लिये धन्यवाद । ये पोस्ट आदरणीय "फ़ुरसतियाजी" की पोस्ट के समान लम्बी हो गयी है परन्तु मन के भाव बीच में रोके भी तो नहीं जा सकते । अगर आप लोगों को वजन बढाने का कोई टोना/टुटका आता हो तो अपनी टिप्पणियों के माध्यम से मेरी सहायता कीजिये ।
आपकी टिप्पणियों के इन्तजार में,
नीरज रोहिल्ला
मैं छाँव छाँव चला था अपना बदन बचाकर !!!
आपकी सेवा में प्रस्तुत करता हूँ गुलजार साहब की दो नज्में,
१) तस्कीं
मैं छाँव छाँव चला था अपना बदन बचाकर
कि रूह को इक खूबसूरत सा जिस्म दे दूँ ,
न कोई सलवट, न दाग कोई, न धूप झुलसे न चोट खाये
न जख्म छुए, न दर्द पहुँचे,
बस एक कोरी कँवारी सुबह का जिस्म पहना दूँ रूह को मैं;
मगर तपी जब दोपहर दर्दों की
दर्द की धूप से जो गुजरा तो रूह को छाँव मिल गयी है;
मगर तपी जब दोपहर दर्दों की
दर्द की धूप से जो गुजरा तो रूह को छाँव मिल गयी है;
अजीब है दर्द और तस्कीं का सांझा रिश्ता
मिलेगी छाँव तो बस कहीं धूप में मिलेगी ।
२) शिकार
सुबह से शाम हुयी और हिरन मुझे छलावे देता
सारे जंगल में परेशान किये घूम रहा है अब तक,
उसकी गर्दन के बहुत पास से गुजरे हैं कई तीर मेरे
वो भी उतना ही हुश्यार है कि जितना मैं हूँ ;
इक झलक दे के जो गुम होता है वो पेडो में,
मैं वहाँ पहुँचू तो टीले पे, कभी चश्मे के उस पार नजर आता है
वो नजर रखता है मुझ पर
मैं उसे आँख से ओझल नहीं होने देता;
कौन दौडाये हुये है किसको,
कौन अब किसका शिकारी है
पता ही नहीं चलता;
सुबह उतरा था मैं जंगल में
तो सोचा था कि इस शोख हिरन को
नेजे की नोक पर परचम की तरह तानकर
मैं शहर में दाखिल हूँगा;
दिन मगर ढलने लगा है
दिल में एक खौफ़ सा बैठ रहा है
कि बिलाखिर ये हिरन ही मुझे सींगो पर उठाये हुये
एक गार में दाखिल होगा ।
---------------------------------------------------
तस्कीं : सुकून, आराम, चैन
रूह: आत्मा
सांझा: मिला-जुला
चश्मा: छोटी झील
नेजे की नोंक: शिकार को मरणोपरांत बाँधने के लिये भाले जैसा यंत्र
परचम: झण्डा
बिलाखिर: अन्त में
गार: गुफ़ा
१) तस्कीं
मैं छाँव छाँव चला था अपना बदन बचाकर
कि रूह को इक खूबसूरत सा जिस्म दे दूँ ,
न कोई सलवट, न दाग कोई, न धूप झुलसे न चोट खाये
न जख्म छुए, न दर्द पहुँचे,
बस एक कोरी कँवारी सुबह का जिस्म पहना दूँ रूह को मैं;
मगर तपी जब दोपहर दर्दों की
दर्द की धूप से जो गुजरा तो रूह को छाँव मिल गयी है;
मगर तपी जब दोपहर दर्दों की
दर्द की धूप से जो गुजरा तो रूह को छाँव मिल गयी है;
अजीब है दर्द और तस्कीं का सांझा रिश्ता
मिलेगी छाँव तो बस कहीं धूप में मिलेगी ।
२) शिकार
सुबह से शाम हुयी और हिरन मुझे छलावे देता
सारे जंगल में परेशान किये घूम रहा है अब तक,
उसकी गर्दन के बहुत पास से गुजरे हैं कई तीर मेरे
वो भी उतना ही हुश्यार है कि जितना मैं हूँ ;
इक झलक दे के जो गुम होता है वो पेडो में,
मैं वहाँ पहुँचू तो टीले पे, कभी चश्मे के उस पार नजर आता है
वो नजर रखता है मुझ पर
मैं उसे आँख से ओझल नहीं होने देता;
कौन दौडाये हुये है किसको,
कौन अब किसका शिकारी है
पता ही नहीं चलता;
सुबह उतरा था मैं जंगल में
तो सोचा था कि इस शोख हिरन को
नेजे की नोक पर परचम की तरह तानकर
मैं शहर में दाखिल हूँगा;
दिन मगर ढलने लगा है
दिल में एक खौफ़ सा बैठ रहा है
कि बिलाखिर ये हिरन ही मुझे सींगो पर उठाये हुये
एक गार में दाखिल होगा ।
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तस्कीं : सुकून, आराम, चैन
रूह: आत्मा
सांझा: मिला-जुला
चश्मा: छोटी झील
नेजे की नोंक: शिकार को मरणोपरांत बाँधने के लिये भाले जैसा यंत्र
परचम: झण्डा
बिलाखिर: अन्त में
गार: गुफ़ा
क्या भूलूँ क्या याद करूँ ?
मेरी शिक्षा कक्षा १२ तक हिन्दी माध्यम में हुयी थी, लेकिन समय की मार देखिये विज्ञान के बहुत सारे हिन्दी शब्दों को भूल चुका हूँ। याद करके कुछ शब्द लिख रहा हूँ, जो याद नहीं आ रहे हैं उनके स्थान रिक्त हैं, सम्भवत: आप लोग ही उनके हिन्दी अर्थ सुझा सकें । आप इस सूची में अपनी टिप्पणियों के माध्यम से वृद्धि कर सकते हैं ।
Area: क्षेत्रफ़ल
Volume: आयतन
Density: घनत्व
Mass: द्रव्यमान
Weight: भार
Energy: ऊर्जा
Pressure: दबाव
Tension: तनाव
Elasticity: प्रत्यास्थता
Plasticity: सुघट्टयता
Compact Disc: संपीडित चक्र
Laser(Light amplification by stimulated emmision of radiation): विकिरण के उद्दीपन द्वारा प्रकाशिक प्रवर्धन
Surface Tension: पृष्ठ तनाव
Relative density: सापेक्षिक घनत्व
Proportional: समानुपाती
Inversely proportional: व्युतक्रमानुपाती
Phase: कला
Mensuration: क्षेत्रमिती
Parallel: समानान्तर
Periodic table:
Molecule: अणु
Atom: परमाणु
Microscope: सूक्ष्मदर्शी
System: निकाय
Photo-Electric effect: प्रकाश-वैद्युत प्रभाव
Thermodynamics: ऊष्मागतिकी
Adiabatic Process: रूद्धोष्म प्रकम
Simple harmonic motion: सरल आवर्त गति
Time period: आवर्तकाल
Frequency: आवृत्ति
Interference:
Ionic Bond: आयनिक बन्ध (कक्षा में आयन ही पढा था, इसकी क्या हिन्दी हो सकती है?)
Covalent bond:
Periodic Table: आवर्त सारणी
Absolute Temperature: परमताप
Constant: नियतांक
Universal Constant: सार्वत्रिक नियतांक
Vaporization: वाष्पीकरण
Statics: स्थितिविज्ञान
Dynamics: गतिविज्ञान
Algebra: बीजगणित
Cell: कोशिका
Pancreas: अग्नाशय
Stomach: आमाशय
वायल का नियम:
किसी नियत तापमान पर, गैस के निश्चित द्रव्यमान का आयतन उसके दबाव के व्युत्क्रमानुपाती होता है ।
चार्ल्स का नियम:
किसी नियत दबाव पर, गैस के निश्चित द्रव्यमान का आयतन उसके परमताप के समानुपाती होता है ।
बाकी फ़िर कभी और:
Area: क्षेत्रफ़ल
Volume: आयतन
Density: घनत्व
Mass: द्रव्यमान
Weight: भार
Energy: ऊर्जा
Pressure: दबाव
Tension: तनाव
Elasticity: प्रत्यास्थता
Plasticity: सुघट्टयता
Compact Disc: संपीडित चक्र
Laser(Light amplification by stimulated emmision of radiation): विकिरण के उद्दीपन द्वारा प्रकाशिक प्रवर्धन
Surface Tension: पृष्ठ तनाव
Relative density: सापेक्षिक घनत्व
Proportional: समानुपाती
Inversely proportional: व्युतक्रमानुपाती
Phase: कला
Mensuration: क्षेत्रमिती
Parallel: समानान्तर
Periodic table:
Molecule: अणु
Atom: परमाणु
Microscope: सूक्ष्मदर्शी
System: निकाय
Photo-Electric effect: प्रकाश-वैद्युत प्रभाव
Thermodynamics: ऊष्मागतिकी
Adiabatic Process: रूद्धोष्म प्रकम
Simple harmonic motion: सरल आवर्त गति
Time period: आवर्तकाल
Frequency: आवृत्ति
Interference:
Ionic Bond: आयनिक बन्ध (कक्षा में आयन ही पढा था, इसकी क्या हिन्दी हो सकती है?)
Covalent bond:
Periodic Table: आवर्त सारणी
Absolute Temperature: परमताप
Constant: नियतांक
Universal Constant: सार्वत्रिक नियतांक
Vaporization: वाष्पीकरण
Statics: स्थितिविज्ञान
Dynamics: गतिविज्ञान
Algebra: बीजगणित
Cell: कोशिका
Pancreas: अग्नाशय
Stomach: आमाशय
वायल का नियम:
किसी नियत तापमान पर, गैस के निश्चित द्रव्यमान का आयतन उसके दबाव के व्युत्क्रमानुपाती होता है ।
चार्ल्स का नियम:
किसी नियत दबाव पर, गैस के निश्चित द्रव्यमान का आयतन उसके परमताप के समानुपाती होता है ।
बाकी फ़िर कभी और:
लो आज हमने छोड दिया रिश्ता-ए-उम्मीद !
लो आज हमने छोड दिया रिश्ता-ए-उम्मीद,
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम ।
हम थे जिनके सहारे वो हुये न हमारे,
डूबी जब दिल की नय्या सामने थे किनारे ।
जला दो जला दो जला दो ये बल्ला, मेरे सामने से हटा दो ये बल्ला,
तुम्हारा है तुम ही संभालो ये बल्ला ।
आज मैने भी भारत की शर्मनाक हार के बाद क्रिकेट में उम्मीद से रिश्ता तोड लिया ।
चर्चा/परिचर्चा के बीच थका हुआ क्रिकेट दुहाई दे रहा है कि मुझे खेल ही रहने दो किसी धर्म का नाम मत दो वरना मैं तुम्हे उसी तरह निराश करूँगा जैसे धर्म और मजहब इंसान को निराश करते हैं ।
बस आज और कुछ कहने का मन नहीं है । बस सब लोग संयम से काम लें और कोई किसी का घर न फ़ूँके, बाब वूल्मर की हत्या हो ही चुकी है अब कोई और निर्दोष इस खेल की बलि न चढ जाये ।
लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम ।
हम थे जिनके सहारे वो हुये न हमारे,
डूबी जब दिल की नय्या सामने थे किनारे ।
जला दो जला दो जला दो ये बल्ला, मेरे सामने से हटा दो ये बल्ला,
तुम्हारा है तुम ही संभालो ये बल्ला ।
आज मैने भी भारत की शर्मनाक हार के बाद क्रिकेट में उम्मीद से रिश्ता तोड लिया ।
चर्चा/परिचर्चा के बीच थका हुआ क्रिकेट दुहाई दे रहा है कि मुझे खेल ही रहने दो किसी धर्म का नाम मत दो वरना मैं तुम्हे उसी तरह निराश करूँगा जैसे धर्म और मजहब इंसान को निराश करते हैं ।
बस आज और कुछ कहने का मन नहीं है । बस सब लोग संयम से काम लें और कोई किसी का घर न फ़ूँके, बाब वूल्मर की हत्या हो ही चुकी है अब कोई और निर्दोष इस खेल की बलि न चढ जाये ।
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