गुरुवार, अगस्त 30, 2007

पानी की झोपड़ी, फूस का झरना और खोपडी में टिमटिमाता बल्ब !

हमारे कालेज में एक प्रतियोगिता होती थी "जस्ट मिनट"; बहुत सारे लोग शायद इसके बारे में पहले से जानते हों लेकिन पूर्णता के लिये हम इसके बारे में संक्षेप में बता रहे हैं । इस प्रतियोगिता में आपको एक अजीब से विषय पर बिना रुके काफ़ी तेजी से बोलना होता था (अटलजी के अंदाज में नहीं बोल सकते थे)। बीच में केवल सामान्य रूप से सांस ले सकते थे और सांस लेने में जरा भी देर लगाई तो विपक्षी को अंक मिलते थे और बोलने का मौका भी । हर तीसरे वाक्य में विषय फ़िर से आना चाहिये, आप विषय के इर्द गिर्द कोई लम्बी कहानी भी नहीं बुन सकते थे । आपका उच्चारण एकदम साफ़ होना चाहिये, व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धि भी नहीं, और आपके बोलने की गति पूरे समय लगभग एक जैसी होनी चाहिये । कुल मिलाकर तर्क को पीछे छोडकर बस बेलगाम बोलते चले जाइये । छ: लोग एक साथ खेल खेलते थे और जितने सेकेण्ड्स आप बिना रूके बोलें उतने ही अंक और जिसके सबसे अधिक अंक वो विजेता ।

हमने दो बार इस प्रतियोगिता में रजत और एक बार स्वर्ण पदक हासिल किया था । मुझे एक बार "पानी की झोपड़ी, फूस का झरना और खोपडी में टिमटिमाता बल्ब" पर बोलना पडा था और इस विषय पर बोलने में काफी मज़ा आया था। आज उसी अंदाज में कुछ अलग अलग विषयों पर लिख रहा हूँ, आशा है आप तारतम्यता भंग होने पर अन्यथा नहीं लेंगे ।


१) अनूपजी ने अपने चिट्ठे पर शाहजहाँपुर के कई किस्से लिखे हैं । शाहजहाँपुर में हमारा परिवार १९८९ से १९९७ तक रहा था और हमने यहाँ कक्षा ४ से ११ तक की पढाई की थी (देख लीजिये बीच में हम फ़ेल नहीं हुये थे :-) ) । शाहजहाँपुर की यादें मेरे जेहन से कभी धुंधली नहीं होती, वहाँ की एक एक याद बडे सलीके से सहेज कर रखी है ।
जिन घटनाओं ने मुझे और मेरे परिवार को सबसे अधिक प्रभावित किया है उन्हे लिखने का फ़ैसला मैं अभी तक नहीं ले पाया हूँ क्योंकि वो इतनी व्यक्तिगत हैं कि उनको लिखना संभव न हो सकेगा ।

फ़िर भी कुछ घटनाओं का जिक्र करने का मन कर रहा है,

सरस्वती विद्या मंदिर:

इस विद्यालय में हमने कक्षा ६ से ९ तक शिक्षा प्राप्त की और हम इस विद्यालय के सबसे पहले बैच के विद्यार्थी थे । जब विद्यालय प्रारम्भ हआ तो हमारे पूरे विद्यालय के नाम पर ३० विद्यार्थी, ३ अध्यापक और केवल कक्षा ६ थी । अगले दो सालों में कक्षा ७ और ८ भी चालू हुयी । विद्यालय में काफ़ी अच्छी पढाई होती थी और बची खुची हमारे पिताजी घर पर निपटा देते थे । हम कक्षा में सदैव प्रथम या द्वितीय आते रहते थे तो अपनी भी विद्यालय में कुछ इज्जत थी, इसका चर्चा फ़िर करेंगे । श्री कमलेश कुमार जी जब प्रधानाचार्य बनकर आये तो उस समय हम कक्षा ७ में थे । वो हमें आंग्लभाषा और गणित पढाया करते थे । ये उस समय की बात है जब हमारे सभी अध्यापक अपने साथ एक डंडा या अरहर की संटी रखा करते थे । हमारे अंग्रेजी के गृहकार्य में कुछ बडी गडबड थी इसलिये हमें उनके चैंम्बर में बुलवाया गया । कुल मिलाकर दो-तीन संटियाँ पडी होंगी जो हमारे लिये अपवाद स्वरूप थी क्योंकि हम ठहरे विद्यालय के होनहार छात्र । हमें अब भी पूरा विश्वास है कि कोई और आचार्यजी होते तो हमें सिर्फ़ डाँटकर छोड दिया जाता लेकिन श्री कमलेशजी नये नये आये थे इसलिये उन्हे हमारे ट्रैक-रेकार्ड का पता नहीं था :-)

असली बात इसके बाद शुरू होती है । संटियाँ पडते पडते मध्यावकाश का घंटा बज चुका था और जब तक हम उनके चैम्बर से बाहर निकलते बाहर लाबी में खूब भीड हो चुकी थी । अब प्रधानाचार्य के कक्ष में उन दिनों जाने का सीधा अर्थ डांट खाने या मार खाने में से एक होता था । हम सोच रहे थे कि कैसे अपनी इज्जत बचायी जाये, इसीलिये उनके चैंबर से बाहर निकलते ही हमने अपने चेहरे पर हंसी के ऐसे भाव लाये कि कोई ताड न जाये । बस गलती ये हो गयी कि हमारे वो भाव प्रधानाचार्य जी ने भी देख लिये । उन्हे लगा कि ये तो निहायत ही ढीठ लडका है । वापिस बुलाकर बोले कि लगता है ये दंड तुम्हारे लिये पर्याप्त नहीं था और दो संटियाँ और लगा दीं । आप ही बताईये कि क्या उनको एक बार दंड देने के पश्चात मुझे दोबारा दंडित करने का नैतिक अधिकार था ? कुल मिलाकर शुरू के दिनों में हमारी उनके साथ नहीं जमी ।

अगले दो सालों में कमलेशजी हमारे सबसे प्रिय अध्यापक हो गये थे । कक्षा में विद्यार्थियों को दंड देने के बाद वो अक्सर बडे भावुक हो जाते थे और कई बार उन्होने अपनी संटी हमारे सामने तोडकर फ़ेंक दी थी । लेकिन नालायक विद्यार्थी सुधरते ही नहीं थे और फ़िर उन्हे एक नयी संटी लानी पडती थी । आगे जारी रहेगा...


२)
बचपन से ही हमें गाने का बडा शौक था, अब भी है । लेकिन अब समझ में आ गया है कि हमारे अलावा कोई और हमारा गाना सुनना नहीं चाहता । इसीलिये अब हम तानसेन न होकर केवल "कानसेन" हैं । आज आपको अपनी कानसेनी यात्रा के बारे में बताते हैं ।

बचपन में वही संगीत सुना जो घर पर बजता था । मेरे पिताजी को कभी संगीत सुनने का शौक रहा होगा जिसके गवाह कुछ आडियो कैसेट्स हैं । पिताजी को जो भी थोडा बहुत संगीत सुनने का शौक रहा हो, उनकी पसन्द अच्छी थी; मुकेश/रफ़ी/लता/किशोर के सदाबहार नग्में, चन्दन दास/पंकज उदास की गजलें, और अनूप जलोटा/कवि प्रदीप के भजन । फ़िर घर में टी.वी. के माध्यम से "हवा हवाई/दीदी तेरा देवर दीवाना/चुरा के दिल मेरा गोरिया चली" टाईप के गाने भी सुने ।

कक्षा ११-१२ के दौरान मन लौटकर ७० के दशक के संगीत पर आया और साथ ही लकी अली और उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान का एलबम "संगम" सुना । कक्षा १२ में पहली बार जगजीत सिंह को "होठों से छू लो तुम" में सुना । फ़िर ए. आर. रहमान ने हमारे दिल पर "दिल से" राज किया । कुल मिलाकर संगीत में कुछ पसंद तो थी लेकिन ठीक से परिभाषित नहीं थी ।

फ़िर हम घर से बाहर पढाई करने चले गये और एकदम से बहुत सारा खाली टाईम हमें मिल गया । एक दिन दूरदर्शन पर "तलत महमूद" साहब का एक इंटरव्यू देखा और जीवन में पहली बार "जलते हैं जिसके लिये/तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती" सुना । एक बार सुना तो उनकी मखमली आवाज में डूबकर ही रह गये । तुरंत बाजार से तलत साहब के कुछ कैसेट्स खरीद लाये ।

फ़िर एक नयी समस्या उत्पन्न हुयी, मेरे रूममेट ने इतने पुराने गानों के रूम में बजने पर सख्त ऐतराज किया और बात लडाई तक आ पँहुची । जैसे तैसे कुछ समझौते किये गये (मसलन पुराने गानों के लिये समय तय किया गया ) । उसके बाद थोडी सनक सवार हुयी कि संगीत का अर्थ केवल गाने सुनना ही नहीं होता बल्कि उनके संगीतकार/गीतकार/फ़िल्म वगैरह की जानकारी भी होनी चाहिये ।

इसके कुछ दिनों बाद हमने अपना पहला कम्प्यूटर खरीदा और वो हमारे संगीत प्रेम की जीवन रेखा बन गया । उस दिन के बाद से ४०-५०-६० के दशकों के संगीत के खजाने को चखना शुरू किया । पुराने गानों की चाहत को एक नये मुकाम पर www.indianscreen.com ने पँहुचाया । उसके बाद तो ऐसा चस्का लगा कि अब कुछ नया सुनने की आदत ही नहीं रही ।

जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल खावै।

'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ।

पिछले एक हफ़्ते से मैं १९५४ की फ़िल्म "शबाब" के गाने सुन रहा हूँ और अगर आपने ये गाने नहीं सुने हैं तो कॄपया एक बार अवश्य सुन लें । आगे जारी रहेगा ...