सोमवार, अगस्त 20, 2007

कव्वाली : भाग १

इस प्रविष्टी को मैं पिछले एक महीने से थोडा थोडा करके लिख रहा था कल यूनुसजी के चिट्ठे पर कव्वाली के बारे में पढकर/सुनकर लगा कि अब और देर करना उचित नहीं है । समाँ बँधा हुआ है और इसीलिये आप सब के लिये पेश है कव्वाली पर एक विशेषांक । इसको हम दो भागों में प्रस्तुत करेंगे । पहले भाग में कव्वाली के इतिहास और कव्वाली की १३०० से अधिक वर्षों की यात्रा का जिक्र करेंगे । दूसरे भाग में हम हिन्दी फ़िल्म संगीत के पिटारे में से कुछ कव्वालियाँ लेकर हाजिर होंगे । इसी भाग में हम हिन्दी फ़िल्म संगीत में कव्वालियों के सरताज संगीत निर्देशक “रोशन” की बात करेंगे ।

१) कव्वाली: इतिहास एवं तकनीकी पक्ष की जानकारी

कव्वाली का आगाज मुस्लिम धर्म के सूफ़ी पीर/फ़कीरों ने किया था । इसकी शुरूआत ईरान में आठवीं और नवीं शताब्दी में हुयी । आठवीं और नवीं शताब्दियों में ईरान और अन्य मुस्लिम देशों में धार्मिक महफ़िलों का आयोजन किया जाता था जिसे “समाँ” कहा जाता था । “समाँ” का आयोजन धार्मिक विद्वानों (शेख) की देख-रेख में होता था । “समाँ” का उद्देश्य संगीत/कव्वाली के माध्यम से ईश्वर के साथ सम्बन्ध स्थापित करना होता था ।

ईरान से चलकर कव्वाली भारत में आयी और भारत के सूफ़ी संतो ने कव्वाली को लोकप्रिय बनाया । इसमें चिश्ती संत “ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती” (११४३-१२३४) और उनकी विचारधारा के सम्बद्ध सूफ़ी संत “शेख निजामुद्दीन औलिया”(१२३६-१३२५) का प्रमुख योगदान रहा । इसके बाद “अमीर खुसरो” (१२५३-१३२५) ने भारतीय संगीत और लोक भाषाओं का समायोजन करके कव्वाली को अपने समय की संगीत की एक विकसित और लोकप्रिय विधा के रूप में स्थापित किया । औरंगजेब के समय में कव्वाली गाने वालों को राजकीय संरक्षण समाप्त हो गया था और कई कव्वालों और संगीतकारों ने सांकेतिक रूप से अपना विरोध दिखाने के लिये अपने वाद्य-यंत्रों को जमीन में दफ़न कर दिया था । बहादुरशाह जफ़र के समय में कव्वाली फ़िर से उभरकर सामने आयी ।

प्रार्थना/भजन इत्यादि की तरह कव्वाली में भी शब्दों की मुख्य भूमिका होती है, लेकिन कव्वाली की विशेष संरचना के कारण शब्दों/वाक्यों को अलग अलग तरीके से निखारकर गाया जाता है और हर बार किसी विशेष स्थान पर ध्यान केंन्द्रित करने से अलग अलग भाव सामने आते हैं । लेकिन जैसे जैसे कव्वाल शब्दों को दोहराते रहते हैं शब्द बेमायने होते जाते हैं और सुनने वालों के लिये एक पुरसुकून एहसास बाकी रह जाता है जहाँ जाकर वो आध्यात्मिक समाधि (Spiritual Ecstasy) में खो जाते हैं। यही कव्वाली की सफ़लता की पराकाष्ठा होती है जब गाने और सभी सुननें वाले Trans State प्राप्त कर लेते हैं । कव्वाली को गाते समय कव्वाल को ध्यान रखना पडता है कि अगर कोई गाने वाला अथवा सुनने वालों मे से कोई आध्यात्मिक समाधि (Spiritual Ecstasy) में पंहुच जाये तो कव्वाल की जिम्मेदारी होती है कि वो बिना रूके हुये कुछ ही शब्दों को साथ में तब तक दोहराता रहे जब तक वो व्यक्ति वापस पूर्व अवस्था में नहीं आ जाता है ।


२) कव्वाली की संरचना: कव्वाली अन्य शास्त्रीय संगीत की महफ़िलों से भिन्न होती है । शास्त्रीय संगीत में जहाँ मुख्य आकर्षण गायक होता है कव्वाली में एक से अधिक गायक होते हैं और सभी महत्वपूर्ण होते हैं । कव्वाली को सुनने वाले भी कव्वाली का एक अभिन्न अंग होते हैं । कव्वाली गाने वालों में १-३ मुख्य कव्वाल, १-३ ढोलक, तबला और पखावज बजाने वाले, १-३ हारमोनियम बजाने वाले, १-२ सारंगी बजाने वाले और ४-६ ताली बजाने वाले होते हैं । सभी लोग अपनी वरिष्ठता के क्रम में बायें से दाँये बैठते हैं, अर्थात अगर आप सुननें वालो को देख रहे हैं तो सबसे वरिष्ठ कव्वाल सबसे दाहिनी ओर बैठे होंगे ।

• कव्वाली का प्रारम्भ केवल वाद्य यंत्र बजाकर किया जाता है । ये एक प्रकार से सूफ़ी संतों को निमन्त्रण होता है क्योंकि ऐसा विश्वास है कि सूफ़ी संत एक दुनिया से दूसरी दुनिया में भ्रमण करते रहते हैं ।

• इसके बाद मुख्य कव्वाल “आलाप” के साथ कव्वाली का पहला छन्द गाते हैं; ये या तो अल्लाह की शान में होता है अथवा सूफ़ी रहस्यमयता लिये होता है । इसको बिना किसी धुन (Rhythm) के गाया जाता है और इस समय वाद्य-यंत्रो का प्रयोग नहीं होता है । इस “आलाप” के माध्यम से कव्वाल एक माहौल तैयार करते हैं जो धीरे धीरे अपने चरम पर पँहुचता है ।

• आलाप के बाद बाकी सहायक गायक अपने अपने अंदाज में उसी छंद को गाते हैं । इसी समय हारमोनियम और Percussion Instruments (तबला, ढोलक और पखावज) साथ देना प्रारम्भ करते हैं ।

• इसके बाद कव्वाल मुख्य भाग को गाते हुये महफ़िल हो उसके चरम तक पँहुचाते हैं । कुछ कव्वाल (नुसरत फ़तेह अली खान) कव्वाली के मुख्य भाग को गाते समय किसी विशेष “राग” का प्रयोग करते हैं और बीच बीच में सरगम का प्रयोग करते हुये सुनने वालों को भी कव्वाली का एक अंग बना लेते हैं ।

• कव्वाली का अंत अचानक से होता है ।


कव्वाली गाते समय कव्वालों और साथियों के ऊपर पैसे उडाने की भी प्रथा है । आदर्श स्थिति में कव्वाल इससे बेखबर रहते हुये अपना गायन जारी रखते हैं लेकिन कभी कभी कव्वाल आँखों के माध्यम से अथवा सिर हिलाकर उनका अभिवादन भी करते हैं । इस प्रथा को बिल्कुल भी बुरा नहीं माना जाता है ।

पुराने समय में कव्वाली केवल आध्यात्मिक भावना से गायी जाती थी लेकिन आधुनिक काल में (पिछली कई शताब्दियों से) कव्वाली में अन्य भावनाये भी सम्मिलित हो गयी हैं । इनमें दो महत्वपूर्ण हैं; पहली “शराब की तारीफ़ में” और दूसरी “प्रियतम के बिछोह की स्थिति” । आम तौर पर एक कव्वाली की अवधि १२-३० मिनट की होती है । आजकल के दौर में कव्वाली की लम्बी अवधि उसकी लोकप्रियता घटने का मुख्य कारण है । इसी कारण बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कव्वाली की लोकप्रियता घटी थी और “गजल” के लोकप्रियता अचानक बढी थी ।

अगर आप अभी तक मेरे साथ हैं तो आपसे एक प्रार्थना है । मैने खोजकर संगीत की दॄष्टि से समृद्ध दो कव्वालियाँ आपके लिये चुनी हैं । जब भी समय मिले इन दोनों कव्वालियों को अपने अंतर में अनुभव करने का प्रयास कीजियेगा ।
ये दोनों कव्वालियाँ लगभग ९ और १३ मिनट की अवधि की हैं इसीलिये इनको Buffer होने में थोडा समय लग सकता है ।
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इसके दूसरे भाग में हम आपके लिये हिन्दी फ़िल्म संगीत के खजाने में से कुछ चुनिन्दा कव्वालियाँ लेकर आयेंगे । इस प्रविष्टी के बारे में आप अपने विचार टिप्पणी के माध्यम से हमें बता सकते हैं ।

20 टिप्‍पणियां:

  1. भाई मज़ा आ गया... इसी बहाने बेहतर कव्वाली आपने सुनवा दी है..बेकरारी मत बढाइये अगले पोस्ट का इन्तज़ार रहेगा.... कव्वाली का इतिहास आपकी वजह से जाना...धन्यवाद

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  2. कव्वाली के इतिहास के बारे मे जानकार अच्छा लगा।आपकी पोस्ट के जरिये असली कव्वाली का लुत्फ़ हम उठा सके। इसके लिए शुक्रिया।
    अगली पोस्ट का इंतज़ार रहेगा।

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  3. बेनामी7:29 am

    नीरज,
    आपके ब्लॉग पर पहले भी आया हूं . पर आज यह कव्वाली पर केन्द्रित पोस्ट लाजवाब रही . 'अल्ला हू' तो कई बार सुन रखी थी . इसलिए पहली कव्वाली खास तौर पर मुग्ध कर गई . अब मैं भी आपके ब्लॉग के लिए कह सकता हूं :

    'आज मन अटकेया बेपरवाह'

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  4. क़व्वाली शब्द की उत्पत्ति क़ौल से है.. क़ौल यानी कथन.. यानी मोहम्मद साहिब का कथन.. शुरुआत में लोग सिर्फ़ मुहम्मद साहिब के क़ौल को ही गाते थे.. बिना साज़ों के.. संगीत हराम है इस्लाम में..खासकर ताल वाद्य.. इसीलिए कव्वाली में आज भी ताली का प्रचलन है.. तबला बाद में आया.. खैर..तो इसी क़ौल गाने की दूसरी परम्परा नात गाना भी है.. शायद आप परिचित हों.. नहीं हो तो कभी इस्लामी चैन्ल्स में देखिये..सुनने को मिल जाएगी कोई नात..

    तो मुहम्मद साहिब के इस क़ौल का धीरे धीरे लोप हो गया.. पर अभी भी कहीं मिलता है.. जैसे मन कुन्तो मौला में.. जिसमें मुहम्म्द साहिब का क़ौल है- मन कुन्तो मौला फ़े अली मौला...अर्थ है कि जो मुझे मौला मानता है अली उसका मौला स्वयमेव हो जाता है.. यह बड़ी लोकप्रिय क़व्वाली है..

    भला काम कर रहे हैं आप.. लगे रहिये.. मेरी शुभकामनाएं..

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    उत्तर
    1. Sir mai qawwali par documentary film bnana chahta hu,or isme muje aapki madad chahiye agr ho sake to .
      Kindly contact me plzz +919592956224(whatsapp or Call)
      I am student of film making 3rd year

      हटाएं
  5. भई नीरज मज़ा आ गया । मैं क़व्‍वाली पर इतना लंबा काम करने का
    कब से सोच रहा था । लेकिन हिम्‍मत नहीं हुई ।
    साहसी हो गुरू । चलो जुगलबंदी की जाए ।
    मैंने भी क़व्‍वालियों पर कुछ कुछ लिखना शुरू किया है ।
    जहां जैसा होगा लिखेंगे और सुर बिखेरेंगे ।

    कुल मिलाकर छा गये गुरू ।

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  6. वाह नीरज, गजब कर दिया भाई.

    कव्वाली तो जमाने से सुनते आ रहे हैं, आज इतिहास और कव्वाली के बारे में जाना.

    बहुत आभार, जारी रखो.

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  7. beautiful...
    Thansk you for sharing.

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  8. नीरज भाई क़व्वाली एकमात्र विधा है जो हिन्दुस्तान की की गंगा जमनी तहज़ीब के मुताबिक गीत,ग़ज़ल,भजन,दोहे,छंद,नज़्म,शेर,ग़ज़ल,सवैये,क्लासिकल,लोक,सुगम और उप-शास्त्रीय संगीत को अपने में समो लेती है.देश का आलम जैसे बिगड़ा है बस उसकी एक ख़ास वजह यह भी है कि हमने अपने जनजीवन से क़व्वाली जैसी सह्र्दय फ़न को ख़ारिज कर दिया..बेदख़ल कर दिया...कभी मौक़ा मिला तो बताऊंगा कि ये सब एक तयशुदा साज़िश के तहत हुआ है.

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  9. भैया, कव्वाली के बारे में जानने की जिज्ञासा शांत कर ने का बड़ा महत्वपूर्ण कार्य आपने किया है. मैं इस कड़ी के अन्य लेखों की प्रतीक्षा करूंगा.
    इस प्रकार के लेख हिन्दी ब्लॉगरी में बहुत जरूरी हैं.
    धन्यवाद.

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  10. लाजवाब प्रस्तुति!!

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  11. @विमलजी, ममताजी: आपकी टिप्पणी के लिखे बहुत बहुत धन्यवाद ।

    @प्रियंकरजी
    बस हमारे चिट्ठे पर ऐसे ही मन अटकाते रहिये और हम आपकी सेवा में नयी नयी जानकारियाँ लाते रहेंगे । आपकी हौसला अफ़जाई का धन्यवाद ।


    @अभयजी : कव्वाली और कौल के सम्बन्ध में बताने के लिये धन्यवाद । "मन कुन्तो मौला" तो लाजवाब कव्वाली है ।

    @युनुसजी : आपके साथ मिलकर काम करने में बडा लुत्फ़ आयेगा । साथ ही साहस की कोई कमी नहीं है, बस वजन ही थोडा कम है :-)

    @समीरजी : आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद, अगली कडी देखना न भूलें ।

    @तेजसजी, नितिनजी : बस ऐसे ही बार बार हमारे चिट्ठे पर पधारते रहें ।

    @संजयजी : आपकी बात वाजिब लगती है । कव्वाली सच में गंगा जमुनी तहजीब की एक खूबसूरत मिसाल है । आप अपने विचारों पर एक प्रविष्टी जरूर लिखिये ।

    @ज्ञानदत्तजी : इस लेख की दूसरी कडी में आपको कुछ ऐसे गीत सुनवायेंगे कि बस आप वाह वाह कर उठेंगे ।

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  12. प्रिय नीरज

    यह बहुत ही उपयोगी एवं ज्ञानवर्धक लेख है. कृपया इसे आगे बढायें.

    यह बहुत अफसोस की बात है कि आधुनिकता की अंधी दौड में कब्बाली जैसी विद्यायें लुप्त होती जा रही है. मेरे बचपन में ग्वालियर (म प्र) में कव्वाली आम थी, लेकिन अब तो "टार्च" लेकर ढूढना पडता है. अफसोस की बात है.

    प्रसिद्द कव्वालों के नाम की एक सूची कहीं जोड देना जिससे उनके स्मरण को प्रोत्साहन मिल जाये.

    -- शास्त्री जे सी फिलिप

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

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  13. नीरज भाई,
    बेहद मनभावन प्रस्तुति है कव्वाली पर -
    हिन्दी फिल्मोँ की कव्वालीयाँ फिल्मोँ की शान रही हैँ -
    "ये इश्क इश्क है " मुझे बहुत पसँद है.
    आगे की कडी का इँतज़ार रहेगा
    स स्नेह
    -- लावण्या

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  14. कव्वाली का चलन चाहे संगीत विधा के रूप में हुआ , उत्पत्ति क़ौल से हुई है....बहुत अच्छी पोस्ट नीरज भाई..
    इस ठौर देर से पहुंचा....क्या करें ...जितना वक्त मिलता है उतना ही घूम पाते हैं । रोज़ का शब्दों का सफर थका डालता है।
    शुभकामनाएं...

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  15. प्रिय भाई नीरज जी कव्वाली के बारे में इतने कम शब्दों में इतनी महत्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद !एतत् विषय में यह कहना चाहूँगा कि भारतीय कव्वाली विधा स्वतंत्र रूप से इस देश की विधा है और यह यहीं जन्मी और यहीं इसका विकास हुआ ।

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  16. फेसबुक पर बाबू सोनी के नाम से व्यवहृत है .

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  17. बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट. कुछ टिप्पणियां भी लाजवाब हैं, खासकर अभय तिवारी और संजय पटेल की. ajayscribes.wordpress.com पर मैं हूँ, कृपया देखकर बताएं/मुझसे जुड़ें.

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