गुरुवार, अगस्त 30, 2007

पानी की झोपड़ी, फूस का झरना और खोपडी में टिमटिमाता बल्ब !

हमारे कालेज में एक प्रतियोगिता होती थी "जस्ट मिनट"; बहुत सारे लोग शायद इसके बारे में पहले से जानते हों लेकिन पूर्णता के लिये हम इसके बारे में संक्षेप में बता रहे हैं । इस प्रतियोगिता में आपको एक अजीब से विषय पर बिना रुके काफ़ी तेजी से बोलना होता था (अटलजी के अंदाज में नहीं बोल सकते थे)। बीच में केवल सामान्य रूप से सांस ले सकते थे और सांस लेने में जरा भी देर लगाई तो विपक्षी को अंक मिलते थे और बोलने का मौका भी । हर तीसरे वाक्य में विषय फ़िर से आना चाहिये, आप विषय के इर्द गिर्द कोई लम्बी कहानी भी नहीं बुन सकते थे । आपका उच्चारण एकदम साफ़ होना चाहिये, व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धि भी नहीं, और आपके बोलने की गति पूरे समय लगभग एक जैसी होनी चाहिये । कुल मिलाकर तर्क को पीछे छोडकर बस बेलगाम बोलते चले जाइये । छ: लोग एक साथ खेल खेलते थे और जितने सेकेण्ड्स आप बिना रूके बोलें उतने ही अंक और जिसके सबसे अधिक अंक वो विजेता ।

हमने दो बार इस प्रतियोगिता में रजत और एक बार स्वर्ण पदक हासिल किया था । मुझे एक बार "पानी की झोपड़ी, फूस का झरना और खोपडी में टिमटिमाता बल्ब" पर बोलना पडा था और इस विषय पर बोलने में काफी मज़ा आया था। आज उसी अंदाज में कुछ अलग अलग विषयों पर लिख रहा हूँ, आशा है आप तारतम्यता भंग होने पर अन्यथा नहीं लेंगे ।


१) अनूपजी ने अपने चिट्ठे पर शाहजहाँपुर के कई किस्से लिखे हैं । शाहजहाँपुर में हमारा परिवार १९८९ से १९९७ तक रहा था और हमने यहाँ कक्षा ४ से ११ तक की पढाई की थी (देख लीजिये बीच में हम फ़ेल नहीं हुये थे :-) ) । शाहजहाँपुर की यादें मेरे जेहन से कभी धुंधली नहीं होती, वहाँ की एक एक याद बडे सलीके से सहेज कर रखी है ।
जिन घटनाओं ने मुझे और मेरे परिवार को सबसे अधिक प्रभावित किया है उन्हे लिखने का फ़ैसला मैं अभी तक नहीं ले पाया हूँ क्योंकि वो इतनी व्यक्तिगत हैं कि उनको लिखना संभव न हो सकेगा ।

फ़िर भी कुछ घटनाओं का जिक्र करने का मन कर रहा है,

सरस्वती विद्या मंदिर:

इस विद्यालय में हमने कक्षा ६ से ९ तक शिक्षा प्राप्त की और हम इस विद्यालय के सबसे पहले बैच के विद्यार्थी थे । जब विद्यालय प्रारम्भ हआ तो हमारे पूरे विद्यालय के नाम पर ३० विद्यार्थी, ३ अध्यापक और केवल कक्षा ६ थी । अगले दो सालों में कक्षा ७ और ८ भी चालू हुयी । विद्यालय में काफ़ी अच्छी पढाई होती थी और बची खुची हमारे पिताजी घर पर निपटा देते थे । हम कक्षा में सदैव प्रथम या द्वितीय आते रहते थे तो अपनी भी विद्यालय में कुछ इज्जत थी, इसका चर्चा फ़िर करेंगे । श्री कमलेश कुमार जी जब प्रधानाचार्य बनकर आये तो उस समय हम कक्षा ७ में थे । वो हमें आंग्लभाषा और गणित पढाया करते थे । ये उस समय की बात है जब हमारे सभी अध्यापक अपने साथ एक डंडा या अरहर की संटी रखा करते थे । हमारे अंग्रेजी के गृहकार्य में कुछ बडी गडबड थी इसलिये हमें उनके चैंम्बर में बुलवाया गया । कुल मिलाकर दो-तीन संटियाँ पडी होंगी जो हमारे लिये अपवाद स्वरूप थी क्योंकि हम ठहरे विद्यालय के होनहार छात्र । हमें अब भी पूरा विश्वास है कि कोई और आचार्यजी होते तो हमें सिर्फ़ डाँटकर छोड दिया जाता लेकिन श्री कमलेशजी नये नये आये थे इसलिये उन्हे हमारे ट्रैक-रेकार्ड का पता नहीं था :-)

असली बात इसके बाद शुरू होती है । संटियाँ पडते पडते मध्यावकाश का घंटा बज चुका था और जब तक हम उनके चैम्बर से बाहर निकलते बाहर लाबी में खूब भीड हो चुकी थी । अब प्रधानाचार्य के कक्ष में उन दिनों जाने का सीधा अर्थ डांट खाने या मार खाने में से एक होता था । हम सोच रहे थे कि कैसे अपनी इज्जत बचायी जाये, इसीलिये उनके चैंबर से बाहर निकलते ही हमने अपने चेहरे पर हंसी के ऐसे भाव लाये कि कोई ताड न जाये । बस गलती ये हो गयी कि हमारे वो भाव प्रधानाचार्य जी ने भी देख लिये । उन्हे लगा कि ये तो निहायत ही ढीठ लडका है । वापिस बुलाकर बोले कि लगता है ये दंड तुम्हारे लिये पर्याप्त नहीं था और दो संटियाँ और लगा दीं । आप ही बताईये कि क्या उनको एक बार दंड देने के पश्चात मुझे दोबारा दंडित करने का नैतिक अधिकार था ? कुल मिलाकर शुरू के दिनों में हमारी उनके साथ नहीं जमी ।

अगले दो सालों में कमलेशजी हमारे सबसे प्रिय अध्यापक हो गये थे । कक्षा में विद्यार्थियों को दंड देने के बाद वो अक्सर बडे भावुक हो जाते थे और कई बार उन्होने अपनी संटी हमारे सामने तोडकर फ़ेंक दी थी । लेकिन नालायक विद्यार्थी सुधरते ही नहीं थे और फ़िर उन्हे एक नयी संटी लानी पडती थी । आगे जारी रहेगा...


२)
बचपन से ही हमें गाने का बडा शौक था, अब भी है । लेकिन अब समझ में आ गया है कि हमारे अलावा कोई और हमारा गाना सुनना नहीं चाहता । इसीलिये अब हम तानसेन न होकर केवल "कानसेन" हैं । आज आपको अपनी कानसेनी यात्रा के बारे में बताते हैं ।

बचपन में वही संगीत सुना जो घर पर बजता था । मेरे पिताजी को कभी संगीत सुनने का शौक रहा होगा जिसके गवाह कुछ आडियो कैसेट्स हैं । पिताजी को जो भी थोडा बहुत संगीत सुनने का शौक रहा हो, उनकी पसन्द अच्छी थी; मुकेश/रफ़ी/लता/किशोर के सदाबहार नग्में, चन्दन दास/पंकज उदास की गजलें, और अनूप जलोटा/कवि प्रदीप के भजन । फ़िर घर में टी.वी. के माध्यम से "हवा हवाई/दीदी तेरा देवर दीवाना/चुरा के दिल मेरा गोरिया चली" टाईप के गाने भी सुने ।

कक्षा ११-१२ के दौरान मन लौटकर ७० के दशक के संगीत पर आया और साथ ही लकी अली और उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान का एलबम "संगम" सुना । कक्षा १२ में पहली बार जगजीत सिंह को "होठों से छू लो तुम" में सुना । फ़िर ए. आर. रहमान ने हमारे दिल पर "दिल से" राज किया । कुल मिलाकर संगीत में कुछ पसंद तो थी लेकिन ठीक से परिभाषित नहीं थी ।

फ़िर हम घर से बाहर पढाई करने चले गये और एकदम से बहुत सारा खाली टाईम हमें मिल गया । एक दिन दूरदर्शन पर "तलत महमूद" साहब का एक इंटरव्यू देखा और जीवन में पहली बार "जलते हैं जिसके लिये/तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती" सुना । एक बार सुना तो उनकी मखमली आवाज में डूबकर ही रह गये । तुरंत बाजार से तलत साहब के कुछ कैसेट्स खरीद लाये ।

फ़िर एक नयी समस्या उत्पन्न हुयी, मेरे रूममेट ने इतने पुराने गानों के रूम में बजने पर सख्त ऐतराज किया और बात लडाई तक आ पँहुची । जैसे तैसे कुछ समझौते किये गये (मसलन पुराने गानों के लिये समय तय किया गया ) । उसके बाद थोडी सनक सवार हुयी कि संगीत का अर्थ केवल गाने सुनना ही नहीं होता बल्कि उनके संगीतकार/गीतकार/फ़िल्म वगैरह की जानकारी भी होनी चाहिये ।

इसके कुछ दिनों बाद हमने अपना पहला कम्प्यूटर खरीदा और वो हमारे संगीत प्रेम की जीवन रेखा बन गया । उस दिन के बाद से ४०-५०-६० के दशकों के संगीत के खजाने को चखना शुरू किया । पुराने गानों की चाहत को एक नये मुकाम पर www.indianscreen.com ने पँहुचाया । उसके बाद तो ऐसा चस्का लगा कि अब कुछ नया सुनने की आदत ही नहीं रही ।

जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल खावै।

'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ।

पिछले एक हफ़्ते से मैं १९५४ की फ़िल्म "शबाब" के गाने सुन रहा हूँ और अगर आपने ये गाने नहीं सुने हैं तो कॄपया एक बार अवश्य सुन लें । आगे जारी रहेगा ...


सोमवार, अगस्त 27, 2007

शनिवार, अगस्त 25, 2007

कव्वाली: भाग २

कव्वाली पर मेरी पिछली प्रविष्टी को आप सभी ने पसन्द किया इसके लिये धन्यवाद । इस प्रविष्टी में हम हिन्दी फ़िल्म संगीत की कव्वालियों पर चर्चा करेंगे । संगीत निर्देशक "रोशन" ने अपनी फ़िल्मों में बेहतरीन कव्वालियों का प्रयोग किया । उन्होनें "बहू बेगम", "दिल ही तो है", "ताज महल" और "बरसात की एक रात" जैसी कई फ़िल्मों में दिलकश कव्वालियों का प्रयोग किया ।

इस पहली पोडकास्ट में उनकी चार कव्वालियों के कुछ अंश प्रस्तुत हैं ।

१) न तो कारवाँ की तलाश है, न हम सफ़र की तलाश है ("बरसात की एक रात", संगीत निर्देशक: "रोशन")
२) ये इश्क इश्क है ("बरसात की एक रात", संगीत निर्देशक: "रोशन")
३) वाकिफ़ हूँ खूब इश्क के तर्जे बयाँ से मैं ("बहू बेगम", संगीत निर्देशक: "रोशन")
४) ऐसे में तुझको ढूँढ के लाऊँ कहाँ से मैं ("बहू बेगम", संगीत निर्देशक: "रोशन")

इन कव्वालियों के अंशो को मिलाकर मैने लगभग १२:३० मिनट का एक पोड्कास्ट तैयार किया है । तो नीचे दिये "प्ले" बटन पर चटका लगाकर इन चार कव्वालियों का आनन्द लीजिये ।


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दूसरी पोडकास्ट भी "रोशन" साहब के नाम पर है, इसमें आप सुनेंगे ।

१) चाँदी का बदन सोने की नजर ("ताज महल", संगीत निर्देशक: "रोशन")
२) जी चाहता है चूम लूँ अपनी नजर को मैं ("बरसात की एक रात", संगीत निर्देशक: "रोशन")
३) निगाहे नाज के मारों को हाल क्या होगा ("बरसात की एक रात", संगीत निर्देशक: "रोशन")

नीचे दिये "प्ले" बटन पर चटका लगाकर इन तीन कव्वालियों का आनन्द लीजिये ।

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तीसरी पोडकास्ट में आप सुनेंगे:

१) चेहरा छुपा लिया है किसी ने हिजाब में ("निकाह", संगीत निर्देशक: "रवि")
२) निगाहें मिलाने को जी चाहता है ("दिल ही तो है", संगीत निर्देशक: "रोशन")
३) पल दो पल का साथ हमारा पल दो पल के याराने हैं ("द बर्निंग ट्रेन", संगीत निर्देशक: "राहुल देव बर्मन")
4) अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में ("मेरे हमदम मेरे दोस्त", संगीत निर्देशक: "लक्ष्मीकांत प्यारेलाल")

नीचे दिये "प्ले" बटन पर चटका लगाकर इन कव्वालियों का आनन्द लीजिये ।
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और अंत में आपके लिये पेश हैं कव्वाल "इस्माईल आजाद" की दो प्रसिद्ध कव्वालियाँ:

१) हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों नें
२) झूम बराबर झूम शराबी, झूम बराबर झूम ।

नीचे दिये "प्ले" बटन पर चटका लगाकर इन कव्वालियों का आनन्द लीजिये ।

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हिन्दी फ़िल्म संगीत की कुछ अन्य प्रसिद्ध कव्वालियाँ इस प्रकार हैं ।

१) तेरी महफ़िल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे ("मुगले आजम", संगीत निर्देशक: "नौशाद", गायक :"लता मंगेशकर, शमशाद बेगम")
२) ये माना मेरी जाँ मोहब्बत सजा है मजा इसमें इतना मगर किसलिये है ("हँसते जख्म", संगीत निर्देशक: "मदन मोहन")
३) हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम ("अनोखी अदा", संगीत निर्देशक: "नौशाद")
४) आज क्यों हमसे पर्दा है ("साधना", संगीत निर्देशक : "नारायण दत्ता")
५) यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिन्दगी ("जंजीर", संगीत निर्देशक : "कल्यानजी आनन्दजी")
६) मेरी तस्वीर लेकर क्या करोगे तुम ("काला समुन्दर, संगीत निर्देशक : "नारायण दत्ता")
७) है अगर दुश्मन दुश्मन जमाना गम नहीं ("हम किसी से कम नहीं", संगीत निर्देशक : "राहुल देव बर्मन")
८) परदा है परदा ("अमर अकबर एंथनी", संगीत निर्देशक : "लक्ष्मीकांत प्यारेलाल")
९) परदे में बैठा है कोई परदा करके ("दादा", संगीत निर्देशक : "ऊषा खन्ना")
१०)उनसे नजरे मिली और हिजाब आ गया ("गजल", संगीत निर्देशक : "मदन मोहन")
११) जाते जाते एक नजर भर देख लो, देख लो ("कव्वाली की रात", संगीत निर्देशक : "इकबाल कुरैशी")


फ़िलहाल बस इतने ही गीत याद आ रहे हैं । अगर आपकी भी कोई पसंदीदा कव्वाली है तो आप अपनी टिप्पणी के माध्यम से बता सकते हैं ।

गुरुवार, अगस्त 23, 2007

एक वेबसाईट के बहाने अमीर खुसरो के बारे में जानकारी !!

सम्भवत: आप में से कुछ लोगों ने इस वेबसाईट का भ्रमण किया हो ।
http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/welcome.html

मैं पिछले कई महीनों से इस वेबसाईट को धीरे धीरे करके पढ रहा हूँ । भारत सरकार के द्वारा निस्संदेह यह एक सराहनीय प्रयास है । आज इस वेबसाईट को भ्रमण करते करते अमीर खुसरो पर तो जैसे ज्ञान का खजाना ही मिल गया । अमीर खुसरो का जिक्र मैने अपनी कव्वाली वाली पोस्ट में किया था । इस वेबसाईट पर अमीर खुसरो के बारे में जानकारी १९ पृष्ठों में उपलब्ध है । आसानी के लिये मैने इस जानकारी को एक फ़ाईल में समायोजित करने का प्रयास किया है । इस फ़ाईल को आप MS Word or PDF दोनों रूपों में प्राप्त कर सकते हैं ।

MS word format के लिये यहाँ चटका लगायें ।

PDF format के लिये यहाँ चटका लगायें ।


अमीर खुसरों पहेलियों के लिये बहुत प्रसिद्ध हैं | आज अनूपजी के अंदाज में मैं आपको अमीर खुसरो की कुछ पहेलियाँ पढवाता हूँ ।

मेरी पसंद :

(१) बूझ पहेली (अंतर्लापिका)

यह वो पहेलियाँ हैं जिनका उत्तर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप में पहेली में दिया होता है यानि जो पहेलियाँ पहले से ही बूझी गई हों। जैसे -

(क) गोल मटोल और छोटा-मोटा, हर दम वह तो जमीं पर लोटा।
खुसरो कहे नहीं है झूठा, जो न बूझे अकिल का खोटा।।

उत्तर - लोटा।

यहाँ पहली पंक्ति का आखिरी शब्द ही पहेली का उत्तर है जो पहेली में कहीं भी हो सकता है। इन पहेलियों का उत्तर पहेलियों में ही होता है। खुसरो की बूझ पहेलियों के भी दो वर्ग बनाए जा सकते हैं। कुछ में तो उत्तर एक ही शब्द में रहता है जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं। दूसरी पहेली में कभी-कभी उत्तर के लिए दो शब्दों को मिलाना पड़ता है। जैसे –

(ख) श्याम बरन और दाँत अनेक, लचकत जैसे नारी।
दोनों हाथ से खुसरो खींचे और कहे तू आ री।।

उत्तर - आरी। यहाँ दूसरी पंक्ति के आखिरी शब्द 'आ' और 'री' को मिलाने से उत्तर मिलता है।

(ग) हाड़ की देही उज् रंग, लिपटा रहे नारी के संग।
चोरी की ना खून किया वाका सर क्यों काट लिया।
उत्तर - नाखून।

(घ) बाला था जब सबको भाया, बड़ा हुआ कुछ काम न आया।
खुसरो कह दिया उसका नाव, अर्थ करो नहीं छोड़ो गाँव।।

उत्तर - दिया।


(ञ) नारी से तू नर भई और श्याम बरन भई सोय।
गली-गली कूकत फिरे कोइलो-कोइलो लोय।।
उत्तर - कोयल।

(च) एक नार तरवर से उतरी, सर पर वाके पांव
ऐसी नार कुनार को, मैं ना देखन जाँव।।
उत्तर - मैंना।

(छ) सावन भादों बहुत चलत है माघ पूस में थोरी।
अमीर खुसरो यूँ कहें तू बुझ पहेली मोरी।।
उत्तर - मोरी (नाली)

(२) बिन बूझ पहेली या बहिर्लापिका, इसका उत्तर पहेली से बाहर होता है। उदाहरण –
(क) एक नार कुँए में रहे, वाका नीर खेत में बहे।
जो कोई वाके नीर को चाखे, फिर जीवन की आस न राखे।।
उत्तर – तलवार
(ख) एक जानवर रंग रंगीला, बिना मारे वह रोवे।
उस के सिर पर तीन तिलाके, बिन बताए सोवे।।
उत्तर - मोर।

(ग) चाम मांस वाके नहीं नेक, हाड़ मास में वाके छेद।
मोहि अचंभो आवत ऐसे, वामे जीव बसत है कैसे।।
उत्तर - पिंजड़ा।

(घ) स्याम बरन की है एक नारी, माथे ऊपर लागै प्यारी।
जो मानुस इस अरथ को खोले, कुत्ते की वह बोली बोले।।
उत्तर - भौं (भौंए आँख के ऊपर होती हैं।)

(ञ) एक गुनी ने यह गुन कीना, हरियल पिंजरे में दे दीना।
देखा जादूगर का हाल, डाले हरा निकाले लाल।
उत्तर - पान।

(च) एक थाल मोतियों से भरा, सबके सर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।
उत्तर – आसमान

(३) दोहा पहेली

कुछ पहेलियाँ अमीर खुसरो ने ऐसी भी लिखीं जो साथ में आध्यात्मिक दोहे भी हैं।

उदाहरण -

(क) उज्जवल बरन अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान।
देखत मैं तो साधु है, पर निपट पार की खान।।
उत्तर - बगुला (पक्षी)

(ख) एक नारी के हैं दो बालक, दोनों एकहि रंग।
एक फिर एक ठाढ़ा रहे, फिर भी दोनों संग।
उत्तर - चक्की।

(ग) आगे-आगे बहिना आई, पीछे-पीछे भइया।
दाँत निकाले बाबा आए, बुरका ओढ़े मइया।।
उत्तर – भुट्टा

(घ) चार अंगुल का पेड़, सवा मन का फ्ता।
फल लागे अलग अलग, पक जाए इकट्ठा।।
उत्तर - कुम्हार की चाक

(ञ) अचरज बंगला एक बनाया, बाँस न बल्ला बंधन धने।
ऊपर नींव तरे घर छाया, कहे खुसरो घर कैसे बने।।
उत्तर - बयाँ पंछी का घोंसला

(च) माटी रौदूँ चक धर्रूँ, फेर्रूँ बारम्बर।
चातुर हो तो जान ले मेरी जात गँवार।।
उत्तर – कुम्हार

(छ) गोरी सुन्दर पातली, केहर काले रंग।
ग्यारह देवर छोड़ कर चली जेठ के संग।।
उत्तर - अहरह की दाल।

(ज) ऊपर से एक रंग हो और भीतर चित्तीदार।
सो प्यारी बातें करे फिकर अनोखी नार।।
उत्तर – सुपारी

(झ) बाल नुचे कपड़े फटे मोती लिए उतार।
यह बिपदा कैसी बनी जो नंगी कर दई नार।।
उत्तर - भुट्टा (छल्ली)




अमीर खुसरो के बारे में दी गयी फ़ाईल को सहेजकर फ़ुरसत में पढना न भूलें । आपकी सेवा में एक बार फ़िर से लिंक प्रस्तुत हैं ।

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इस पोस्ट पर अपनी राय आप अपनी टिप्पणी के माध्यम से दे सकते हैं ।

सोमवार, अगस्त 20, 2007

कव्वाली : भाग १

इस प्रविष्टी को मैं पिछले एक महीने से थोडा थोडा करके लिख रहा था कल यूनुसजी के चिट्ठे पर कव्वाली के बारे में पढकर/सुनकर लगा कि अब और देर करना उचित नहीं है । समाँ बँधा हुआ है और इसीलिये आप सब के लिये पेश है कव्वाली पर एक विशेषांक । इसको हम दो भागों में प्रस्तुत करेंगे । पहले भाग में कव्वाली के इतिहास और कव्वाली की १३०० से अधिक वर्षों की यात्रा का जिक्र करेंगे । दूसरे भाग में हम हिन्दी फ़िल्म संगीत के पिटारे में से कुछ कव्वालियाँ लेकर हाजिर होंगे । इसी भाग में हम हिन्दी फ़िल्म संगीत में कव्वालियों के सरताज संगीत निर्देशक “रोशन” की बात करेंगे ।

१) कव्वाली: इतिहास एवं तकनीकी पक्ष की जानकारी

कव्वाली का आगाज मुस्लिम धर्म के सूफ़ी पीर/फ़कीरों ने किया था । इसकी शुरूआत ईरान में आठवीं और नवीं शताब्दी में हुयी । आठवीं और नवीं शताब्दियों में ईरान और अन्य मुस्लिम देशों में धार्मिक महफ़िलों का आयोजन किया जाता था जिसे “समाँ” कहा जाता था । “समाँ” का आयोजन धार्मिक विद्वानों (शेख) की देख-रेख में होता था । “समाँ” का उद्देश्य संगीत/कव्वाली के माध्यम से ईश्वर के साथ सम्बन्ध स्थापित करना होता था ।

ईरान से चलकर कव्वाली भारत में आयी और भारत के सूफ़ी संतो ने कव्वाली को लोकप्रिय बनाया । इसमें चिश्ती संत “ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती” (११४३-१२३४) और उनकी विचारधारा के सम्बद्ध सूफ़ी संत “शेख निजामुद्दीन औलिया”(१२३६-१३२५) का प्रमुख योगदान रहा । इसके बाद “अमीर खुसरो” (१२५३-१३२५) ने भारतीय संगीत और लोक भाषाओं का समायोजन करके कव्वाली को अपने समय की संगीत की एक विकसित और लोकप्रिय विधा के रूप में स्थापित किया । औरंगजेब के समय में कव्वाली गाने वालों को राजकीय संरक्षण समाप्त हो गया था और कई कव्वालों और संगीतकारों ने सांकेतिक रूप से अपना विरोध दिखाने के लिये अपने वाद्य-यंत्रों को जमीन में दफ़न कर दिया था । बहादुरशाह जफ़र के समय में कव्वाली फ़िर से उभरकर सामने आयी ।

प्रार्थना/भजन इत्यादि की तरह कव्वाली में भी शब्दों की मुख्य भूमिका होती है, लेकिन कव्वाली की विशेष संरचना के कारण शब्दों/वाक्यों को अलग अलग तरीके से निखारकर गाया जाता है और हर बार किसी विशेष स्थान पर ध्यान केंन्द्रित करने से अलग अलग भाव सामने आते हैं । लेकिन जैसे जैसे कव्वाल शब्दों को दोहराते रहते हैं शब्द बेमायने होते जाते हैं और सुनने वालों के लिये एक पुरसुकून एहसास बाकी रह जाता है जहाँ जाकर वो आध्यात्मिक समाधि (Spiritual Ecstasy) में खो जाते हैं। यही कव्वाली की सफ़लता की पराकाष्ठा होती है जब गाने और सभी सुननें वाले Trans State प्राप्त कर लेते हैं । कव्वाली को गाते समय कव्वाल को ध्यान रखना पडता है कि अगर कोई गाने वाला अथवा सुनने वालों मे से कोई आध्यात्मिक समाधि (Spiritual Ecstasy) में पंहुच जाये तो कव्वाल की जिम्मेदारी होती है कि वो बिना रूके हुये कुछ ही शब्दों को साथ में तब तक दोहराता रहे जब तक वो व्यक्ति वापस पूर्व अवस्था में नहीं आ जाता है ।


२) कव्वाली की संरचना: कव्वाली अन्य शास्त्रीय संगीत की महफ़िलों से भिन्न होती है । शास्त्रीय संगीत में जहाँ मुख्य आकर्षण गायक होता है कव्वाली में एक से अधिक गायक होते हैं और सभी महत्वपूर्ण होते हैं । कव्वाली को सुनने वाले भी कव्वाली का एक अभिन्न अंग होते हैं । कव्वाली गाने वालों में १-३ मुख्य कव्वाल, १-३ ढोलक, तबला और पखावज बजाने वाले, १-३ हारमोनियम बजाने वाले, १-२ सारंगी बजाने वाले और ४-६ ताली बजाने वाले होते हैं । सभी लोग अपनी वरिष्ठता के क्रम में बायें से दाँये बैठते हैं, अर्थात अगर आप सुननें वालो को देख रहे हैं तो सबसे वरिष्ठ कव्वाल सबसे दाहिनी ओर बैठे होंगे ।

• कव्वाली का प्रारम्भ केवल वाद्य यंत्र बजाकर किया जाता है । ये एक प्रकार से सूफ़ी संतों को निमन्त्रण होता है क्योंकि ऐसा विश्वास है कि सूफ़ी संत एक दुनिया से दूसरी दुनिया में भ्रमण करते रहते हैं ।

• इसके बाद मुख्य कव्वाल “आलाप” के साथ कव्वाली का पहला छन्द गाते हैं; ये या तो अल्लाह की शान में होता है अथवा सूफ़ी रहस्यमयता लिये होता है । इसको बिना किसी धुन (Rhythm) के गाया जाता है और इस समय वाद्य-यंत्रो का प्रयोग नहीं होता है । इस “आलाप” के माध्यम से कव्वाल एक माहौल तैयार करते हैं जो धीरे धीरे अपने चरम पर पँहुचता है ।

• आलाप के बाद बाकी सहायक गायक अपने अपने अंदाज में उसी छंद को गाते हैं । इसी समय हारमोनियम और Percussion Instruments (तबला, ढोलक और पखावज) साथ देना प्रारम्भ करते हैं ।

• इसके बाद कव्वाल मुख्य भाग को गाते हुये महफ़िल हो उसके चरम तक पँहुचाते हैं । कुछ कव्वाल (नुसरत फ़तेह अली खान) कव्वाली के मुख्य भाग को गाते समय किसी विशेष “राग” का प्रयोग करते हैं और बीच बीच में सरगम का प्रयोग करते हुये सुनने वालों को भी कव्वाली का एक अंग बना लेते हैं ।

• कव्वाली का अंत अचानक से होता है ।


कव्वाली गाते समय कव्वालों और साथियों के ऊपर पैसे उडाने की भी प्रथा है । आदर्श स्थिति में कव्वाल इससे बेखबर रहते हुये अपना गायन जारी रखते हैं लेकिन कभी कभी कव्वाल आँखों के माध्यम से अथवा सिर हिलाकर उनका अभिवादन भी करते हैं । इस प्रथा को बिल्कुल भी बुरा नहीं माना जाता है ।

पुराने समय में कव्वाली केवल आध्यात्मिक भावना से गायी जाती थी लेकिन आधुनिक काल में (पिछली कई शताब्दियों से) कव्वाली में अन्य भावनाये भी सम्मिलित हो गयी हैं । इनमें दो महत्वपूर्ण हैं; पहली “शराब की तारीफ़ में” और दूसरी “प्रियतम के बिछोह की स्थिति” । आम तौर पर एक कव्वाली की अवधि १२-३० मिनट की होती है । आजकल के दौर में कव्वाली की लम्बी अवधि उसकी लोकप्रियता घटने का मुख्य कारण है । इसी कारण बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कव्वाली की लोकप्रियता घटी थी और “गजल” के लोकप्रियता अचानक बढी थी ।

अगर आप अभी तक मेरे साथ हैं तो आपसे एक प्रार्थना है । मैने खोजकर संगीत की दॄष्टि से समृद्ध दो कव्वालियाँ आपके लिये चुनी हैं । जब भी समय मिले इन दोनों कव्वालियों को अपने अंतर में अनुभव करने का प्रयास कीजियेगा ।
ये दोनों कव्वालियाँ लगभग ९ और १३ मिनट की अवधि की हैं इसीलिये इनको Buffer होने में थोडा समय लग सकता है ।
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इसके दूसरे भाग में हम आपके लिये हिन्दी फ़िल्म संगीत के खजाने में से कुछ चुनिन्दा कव्वालियाँ लेकर आयेंगे । इस प्रविष्टी के बारे में आप अपने विचार टिप्पणी के माध्यम से हमें बता सकते हैं ।

शनिवार, अगस्त 18, 2007

एक चमेली के मँडवे तले, दो बदन प्यार की आग में जल गये ।

नसीरूद्दीनजी ने अपने "दो आखर" पर जब "एक चमेली के मंडवे तले" का जिक्र किया तो फ़िर अहसास हुआ कि ब्लाग जगत पर अच्छी शायरी की आरजू करने वालों की कमी नहीं है । इसी बात पर मैं उसी नज्म को दो अलग अलग अंदाजों में पेश कर रहा हूँ ।

इस नज्म को बडी खूबसूरती से आशा भोंसले और मोहम्मद रफ़ी जी ने फ़िलम "चा चा चा (१९६४)" में गाया था । संगीत निर्देशक इकबाल कुरैशी जी थे । इस गीत सबसे बडी खूबी है कि गीत के बहुत बडे हिस्से में आशा और रफ़ी की आवाजें साथ साथ चलती हैं और एक सच्चे युगल गीत का अहसास पैदा होता है । तो लीजिये जनाब सुनिये और खुद ही फ़ैसला कीजिये ।

सभी लोगों से माफ़ी चाहता हूँ, पता नहीं इस नज्म को अपलोड करने पर ये अपने आप "फ़ास्ट फ़ारवर्ड" Mode में चलने लगी है । इसको सुधारने का प्रयास कर रहा हूँ, तब तक कॄपया थोडा सब्र करें ।

समस्या तो हल हो गयी है लेकिन अब आप नीचे दिये लिंक पर चटखा लगायेंगे तो ये आपको दूसरे पेज पर ले जायेगा जहाँ आप इस नज्म को ठीक से सुन सकते हैं । इस कष्ट के लिये माफ़ी चाहता हूँ ।

DoBadanPyarKiAagMe...

इसी नज्म को जगजीत सिंह ने अपने ही अंदाज में गाया है । मेरी समझ में जगजीत सिंह के गाये हुये मधुरतम गीतों में से ये एक है । अब आप इसका भी लुत्फ़ उठायें ।

Ik Chamelii Ke Man...


ये प्रस्तुति आपको कैसी लगी, अपनी टिप्पणी के माध्यम से जरूर बतायें ।

साभार,

सोमवार, अगस्त 13, 2007

अब अक्सर चुप चुप से रहे हैं !!!

इयत्ताजी की साहिर लुधियानवीजी के बारे में आज की पोस्ट पढी तो सोचा क्यों न साहिरजी की ये गजल आपको सुनवायी जाये । लीजिये साहेबान, पेश-ए-खिदमत है जगजीत सिंह की नाजुक आवाज में ये गजल...

Ab_Aksar_Chup_Chup...



इसी के साथ अपनी जल्दी ही आने वाली कुछ पोस्टों (इसकी हिन्दी कौन सुझायेगा :-) ) की जानकारी,

१) सरदार अली जाफ़री के टी. वी. धारावाहिक कहकंशा के संगीत पक्ष पर कुछ जानकारी और कुछ अच्छी गजलें/नज्में

२) सूफ़ी कव्वाली के बारे में कुछ रोचक जानकारियाँ ।

अब चलते चलते, साहिरजी की एक और गजल सुनवाये बिना मन नहीं मानेगा । ये गजल है:
"किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फ़िर भी" । इस गजल के एक अशार को इयत्ता जी ने अपने चिट्ठे पर लिखा था, पेश-ए-खिदमत है जगजीत सिंह की आवाज में ये गजल...

Kisii_Kaa_Yun_To_H...



अपनी टिप्पणियों के माध्यम से अपनी राय जरूर बताते रहें ।

परीक्षण पोस्ट (कॄपया अनदेखा करें) !!!

इस पोस्ट में मैं कुछ परीक्षण करना चाहूँगा जैसे कि mp3 फ़ाईल अपलोड करना इत्यादि । youtube.com का लिंक अपनी पोस्ट पर देना तो आ गया है । गूगल वीडीयो के लिये अभी थोडी मेहनत और करनी पडेगी । बिन्गो, लगता है गूगल वीडीयो भी फ़तेह हो ही गया है । अब फ़िनिश्ड प्रोडक्ट देखते हैं ।

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साभार,
नीरज

रविवार, अगस्त 05, 2007

यौन शिक्षा: दो टूक बातें !!!

डिस्क्लेमर: इस लेख में मैने जरा भी Politically Correct रहने का प्रयास नहीं किया है । अगर आपको मेरी भाषा से आपत्ति हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ ।

शास्त्रीजी ने अपने पिछले दो लेखों में अमेरिका में दी जा रही यौन शिक्षा का उदाहरण देकर विचार व्यक्त किया था कि जब यौन शिक्षा से अमेरिका की समस्यायें हल नहीं हुयी तो भारत की कैसे होंगी । मैं शास्त्रीजी के आँकडों से सहमत हूँ लेकिन उनके निष्कर्षों से पूरी तरह असहमत । भारत में यौन अपराधों का एक बडा हिस्सा कभी आँकडों में आता ही नहीं है, फ़िर आप दोनो आँकडों की तुलना कैसे कर सकते हैं ?

अमेरिका में यौन शिक्षा के बावजूद यौन अपराधों के बढने के कई अलग कारण हो सकते हैं, उसके आधार पर यौन शिक्षा को ही गलत ठहराना हास्यास्पद है । और भी बहुत लोगों के मुँह से इस प्रकार के वाक्य सुने हैं कि हमारे विद्यार्थियों को "भोग नहीं योग की शिक्षा की आवश्यकता है" । इस प्रकार के तर्क देने वालों को सबसे पहले यौन शिक्षा देनी चाहिये जिससे कि वो समझ सकें कि असल में यौन शिक्षा भोग की शिक्षा नहीं है ।

आज के वातावरण में भारत में यौन शिक्षा की आवश्यकता बहुत अधिक है । उन्मुक्त जी ने अपने चिट्ठे पर यौन शिक्षा के बारे में बहुत उपयोगी दो लेख लिखे हैं । मैं एक बार फ़िर से उन लिखों की कडी यहाँ दे रहा हूँ जिससे कि लोग फ़िर से उन्हे पढ सकें ।

पहला लेख
दूसरा लेख

हम अपने आप मान लेते हैं कि बडे होते युवा अपने आप यौन शिक्षा किसी न किसी माध्यम से प्राप्त कर लेते हैं । "फ़िर हमें भी तो किसी ने नहीं पढाया था..." जैसे तर्क देकर आप क्षणभर के लिये तो खुश हो सकते हैं लेकिन इससे समस्या का हल नहीं निकलता । यहाँ चिट्ठाकारों में से कितने ऐसे हैं जिन्हे किसी ने यौन शिक्षा दी थी या स्वयं जिन्होने अपने बच्चों के साथ इस विषय पर बात की है ? बडे होते युवा रंगीन पन्नों की किताबों से उल्टा सीधा ज्ञान प्राप्त करते हैं और उन्ही प्रकार की किताबों के "कासे कहूँ" जैसे पन्ने पढकर अपनी समस्याओं/सवालों के जवाब तलाश करते हैं । "हस्तमैथुन" जैसे विषय पर ही युवाओं को अधकचरी जानकारी उपलब्ध होती है और इस प्रकार की अधूरी जानकारी के कारण बहुत से युवा अपराधग्रस्त/Confused रहते हैं |

यौन शिक्षा के साथ सबसे बडी समस्या है कि लोग इसका अर्थ बडा ही सीमित समझते हैं । भारत और भारतवासियों के साथ सबसे बडी समस्या ये है कि हम आधी समस्याओं को नकार कर उनसे पीछा छुडाने की बात करते हैं । मुझे याद नहीं कि चिट्ठाकार कौन थे लेकिन उन्होने अपने चिट्ठे पर लिखा था कि इन्दौर भी अब एक बडा नगर बन गया है जहाँ अब विद्यार्थी M.M.S. क्लिप बनाने लगे हैं । सिर्फ़ इन्दौर ही क्या बहुत से छोटे बडे नगरों में M.M.S. स्कैण्डल्स की बाढ आयी हुयी है और इंटरनेट पर ये सुलभता से उपलब्ध हैं । जिन किसी को भी मेरी बात पर भरोसा न हो वो मुझसे व्यक्तिगत संपर्क करें और मैं उन्हे वेबसाईटों के पते देने तक को तैयार हूँ । ऐसे मामले बहुत हद तक स्वयं दूर हो जायेंगे जब लडके और लडकियों दोनो को यौन सम्बन्धों के बारे में जागरूक बनाया जा सकेगा ।

दूसरा हमारा सामाजिक ढाँचा ऐसा है कि इसमें हर कदम पर सेक्स/व्यक्तिगत संबन्धों के बारे में दोहराभास है । उदाहरण के तौर पर बहुत से युवा लडके किसी लडकी से प्रेम सम्बन्ध या फ़िर केवल प्रेमालाप करने के लिये सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है परन्तु उसके परिवार की कोई युवती ऐसा करे तो उसकी खैर नहीं । पडौस की किसी लडकी का किसी लडके के साथ चक्कर चल रहा हो तो ये मजा लेकर बात करने वाली बात है और हमारे खानदान में तो ऐसा हो ही नहीं सकता । कितने ऐसे So called पढे लिखे युवा हैं जो स्वीकार कर सकते हैं कि उनकी स्वयं की बहन का कोई प्रेमी हो सकता है ? कितने ऐसे हैं जो ये जानने के बाद दोस्तों के साथ उस लडके को पीटने नहीं चले जायेंगे ? इस प्रकार के सामाजिक ढाँचे के कारण बहुत से यौन अपराध घटित होते हैं । आधे मामलों में लडकी चाहकर शारीरिक सम्बन्धों के बारे में अपने प्रेमी को स्पष्ट जबाव नही दे पाती है क्योंकि उसके मन में भी कहीं अपराधबोध और आवाज उठाने पर स्वयं की बदनामी होने का डर होता है ।

मेरा घर मथुरा जैसे एक छोटे नगर में है और मेरा वहाँ साल/दो साल में महीने भर के लिये जाना होता है लेकिन मेरे उम्र के पडौस में रहने वाले लोग बडे प्रेम से अपने प्रेमालापों के किस्से सुनाते हैं, उनकी कौन सी लडकी कितने महीने के लिये उनकी प्रेमिका बनी । मैं ये भी जाँच चुका हूँ कि उनकी बाते कोरी गप्प नहीं है । अब प्रश्न उठता है कि क्या यौन शिक्षा इन समस्याओं को हल कर सकती है ?

यौन शिक्षा का अर्थ केवल सेक्स की शिक्षा देना ही नहीं है बल्कि ये भी है:

१) किसी जानकार अथवा अनजान व्यक्ति का किसी भी बहाने से उनके शरीर का अवांछनीय स्पर्श उनके विरूद्ध एक अपराध है ।
२) प्रेम सम्बन्ध होने के बावजूद भी किसी भी अवांछनीय कृत्य का विरोध करना आपका अधिकार है ।
३) किसी भी समय अपने आस पास के वातावरण में सजग रहकर आप स्वयं आधे यौन अपराधों को कम कर सकते हैं, लेकिन इसके लिये जागरूकता की आवश्यकता है ।

साभार,

गुरुवार, अगस्त 02, 2007

सभी चिट्ठाकारों से HIV सम्बन्धी एक काल्पनिक प्रश्न

मुझे ठीक से याद नहीं है कि ये प्रश्न मेरे सामने कहाँ आया था । लेकिन चूँकि मुझे ये एक अच्छा मनोवैज्ञानिक प्रश्न लगा था इसीलिये आप सभी की राय पूछ रहा हूँ । दूसरा कारण है कि व्यस्तता के कारण कुछ लिख नहीं पा रहा हूँ तो सोचा कि इस छोटी से पोस्ट के माध्यम से आप सब से बात की जाये । अब काम की बात अर्थात प्रश्न पर आते हैं ।

मान लीजिये कि आपकी सन्तान की आयु १६ से १९ वर्ष के बीच में है । आप उसके लिये कालेज का चुनाव कर रहे हैं । आपको पता चलता है कि जिस कालेज के बारे में आप सोच रहे हैं वहाँ:

१) कालेज में HIV संक्रमित विद्यार्थी (लडके और लडकियाँ) भी पढते हैं ।
२) कालेज प्रशासन उन विद्यार्थियों की संख्या अथवा पहचान गुप्त रखता है ।
३) स्थिति को और वास्तविक बनाने के लिये मान लीजिये कि कालेज में पढने वाले लडके और लडकियाँ के बीच शारीरिक सम्बन्धों की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता ।

आपसे प्रश्न है:

१) क्या आप इस जानकारी के बाद भी अपनी संतान का दाखिला उस कालेज में करायेंगे ?

२) क्या आप कालेज प्रशासन से HIV संक्रमित विद्यार्थियों की संख्या के बारे में बताने को कहेंगे ?

३) अब जिन चिट्ठाकारों की संतान/सम्बन्धी/जान-पहचान के लोग इस उम्र के विद्यार्थी हैं । क्या वो मानते हैं कि उनकी समझ में वे युवा विद्यार्थी HIV संक्रमण के बारे में इतनी जानकारी रखते हैं कि स्वयं को वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में HIV संक्रमण से बचा सकें ?

आप अपनी राय टिप्पणी के माध्यम से बता सकते हैं ।


साभार,
नीरज रोहिल्ला