बुधवार, अक्टूबर 31, 2007

इलाहाबाद में संगम और ज्ञानगंगा में डुबकी

बनारस से हम सुबह ९ बजे के आस-पास इलाहाबाद आ गये थे । अंकुर के मामाजी के घर सामान रखने के पश्चात चाय नाश्ता किया गया । इसके तुरन्त बाद ज्ञानदत्त पाण्डेयजी से सम्पर्क स्थापित कर शाम को पाँच बजे मिलने का समय निश्चित कर लिया गया । तत्पश्चात मैने ह्यूस्टन में अपने रूम-मेट अंकुर श्रीवास्तव के पिताजी से सम्पर्क साधा और उन्होनें हमें संगम स्नान करने की सलाह दी । बनारस में एक दिन रूकने के बाद भी हम काशी विश्वनाथ मंदिर (बडा वाला) नहीं देख पाये थे और केवल बी.एच.यू. कैम्पस वाले काशी विश्वनाथ मंदिर को देखकर ही संतोष कर लिया था । इसीलिये इलाहाबाद आकर मैं कम से कम संगम स्नान तो करना चाहता ही था । इस बार हमारे मित्र अंकुर ने कहा कि वो संगम नहीं जायेगा क्योंकि उसे वहाँ के पण्डों से बडा भय है । हमने यही बात जब अंकल को बतायी तो उन्होने कहा कि वो रोज सुबह शाम संगम नहाने जाते हैं और वो हमें अपने साथ ले जाकर संगम स्नान करायेंगे । आधे ही घंटे में वो हमको लेने आ गये और हम उनके साथ अपने जीवन के पहले संगम स्नान करने के लिये चल पडे ।

संगम तट पर नाव वालों से उन्होने जब उन्हीं की भाषा में बोलना प्रारम्भ किया और श्राप देकर भस्म कर देने का डर दिखाया तो नाव वाला सही दाम पर हमें नाव पर ले जाने को तैयार हो गया । गंगा और यमुना के संगम पर हमने जी भरकर स्नान किया और उन्होने हमें कई पौराणिक कथायें एवं "अष्टावक्र गीता" के बारे में भी बताया । हम लोगों ने गंगा के जल प्रदूषण एवं सरकारी इन्तजामों पर भी चर्चा की । इसके बाद अंकल ने अपने थैले में से शुद्ध चंदन घिसकर हमारा तिलक किया । जरा फ़ोटो में गौर फ़रमाईये :-)

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इसके बाद हमने एक दक्षिण भारतीय भोजनालय में जमकर भोजन कियाIMG_2083 और ह्यूस्टन से लेकर बी.एच.यू और एन.आई.टी. इलाहाबाद तक की चर्चा की । तय योजना के तहत हमने अपने रूम-मेट अंकुर की बीच बीच में जमकर तारीफ़ की :-) इसके बाद अंकल ने अपने घर ले जाकर अपने स्कूटर की चाभी हमारे सुपुर्द कर दी जिससे शहर में घूमने और आवारागर्दी करने में हमे तनिक भी समस्या न हो । हमने ध्यान दिया कि अंकल के स्कूटर की टंकी भी लगभग पूरी भरी हुयी थी जिससे मन और अधिक प्रसन्न और चिंतामुक्त हो गया :-) यहाँ पर एक बात बताते चले जिससे कि सनद रहे । मथुरा, कानपुर और बनारस की सडकों के बुरे हाल को देखते हुये हमें इलाहाबाद की सडकें एकदम हेमाजी के गालों की तरह लगीं । इतनी सपाट और गड्ढे मुक्त सडकें देखकर मन प्रसन्न हो गया और हमारे मुँह से बरबस ही निकल उठा "साधुवाद स्वीकार करें ।"

इसके बाद हमने कुछ समय अंकुर के मामाजी के घर पर बिताया और अंकुर की बहनजी ने हमें इलाहाबाद सिविल लाइन्स का चक्कर लगवाया । इस बीच समय द्रुत गति से चलता रहा और शाम होने को आ गयी । हमें ज्ञानदत्तजी के साथ मिलने के अपने वायदे का ध्यान आया और मैं अंकुर के साथ ज्ञानदत्तजी के घर पर चाय-नाश्ता करने के लिये निकल पडे । हमने ज्ञानदत्तजी के घर जाने के रास्ते का नक्शा साथ में ले रखा था इसीलिये कोई खास परेशानी न हुय़ी और हमने ज्ञानदत्तजी के घर पर दस्तक दे दी ।

ज्ञानजी से मिलकर हिन्दी ब्लागिंग के रूप पर चर्चा हुयी । ज्ञानजी ने महसूस किया कि अगर प्रौद्योगिकी के विषय पर हिन्दी में लिखना है तो फ़िर हिट्स और टिप्पणी की चिन्ता छोडकर लिखना होगा । इसके अलावा हिन्दी ब्लागिंग में अंग्रेजी के शब्दों को ठेलने को लेकर भी हम एक मत थे । मैने उनसे अपने मन की बात कही कि अधिकांश लोग हिन्दी ब्लागिंग में अपने शौक की वजह से हैं और इस पर हिन्दी की सेवा करने का दम्भ भरना बेईमानी है ।

बातों बातों में ये भी पता चला कि ज्ञानदत्तजी ने बिट्स पिलानी (BITS PilaniIMG_2089) से अभियांत्रिकी की शिक्षा प्राप्त की थी और ये भी कि उन्होनें अपनी कक्षा १२ की परीक्षा राजस्थान से वहाँ की मेरिट लिस्ट में आकर उत्तीर्ण की थी । लेकिन हमें ये बताने का मौका न मिला कि हम भी १२ की परीक्षा में उत्तर प्रदेश की मेरिट लिस्ट में ११ वें पायदान पर थे और फ़ार्म भरने में हमारी खुद की जरा सी गलती के चलते बिट्स पिलानी में दाखिला न मिल पाया था :-)

हमने ज्ञानजी से रेलवे के लाभ में लालूजी की भूमिका के बारे में बताया तो उन्होनें स्पष्ट कहा कि इसमें लालूजी का इतना ही हाथ है कि उन्होनें रेलवे अधिकारियों को उनकी योजनाओं का क्रियान्वन करने में खुला हाथ दिया और हस्तक्षेप नहीं किया । इसके अलावा रेलवे की कुछ स्थानीय समस्याये जो पूर्वी उत्तर प्रदेश से सम्बन्धित थी पर भी चर्चा हुयी ।

ज्ञानजी से भविष्य के ऊर्जा स्रोतों के विषय पर लम्बी बातचीत हुयी और मैने उन्हे "गैस हाइड्रेट्स" के बारे में बताया । गैस हाइड्रेट्स पर ज्ञानजी एक पोस्ट लिखने का वायदा पहले ही कर चुके हैं । जैविक ईधनों के विकास पर मैने अपने नकारात्मक विचार भी व्यक्त किये कि किस तरह कुछ देशों में खाद्य पदार्थों का जैविक ईधन में प्रयोग करने से खाद्य पदार्थों के दाम बढ रहे हैं जिससे गरीब जनता काफ़ी बुरी तरह प्रभावित हो रही है । इसके अलावा दक्षिणी अमेरिकी देशों में जंगलों को काटकर जैविक ईधन के लिये खेती किये जाने से पर्यावरण सम्बन्धी समस्यायें सामने आ रही हैं ।

इस सब के बीच में चाय-नाश्ता का दौर निर्बाध रूप से चलता रहा और श्रीमती पाण्डेयजी से भी बात-चीत करने का अवसर मिला । हम सभी ने जेनरेशन गैप पर अपने अपने अनुभव सुनाये । ज्ञानजी को हमने अपने दौडने के किस्से सुनाये और उन्होनें जल्दी से विषय बदल डाला जिससे हम उन्हें दौडा न पाये । इस पूरे घटनाक्रम के लिये फ़ुरसतियाजी शक के घेरे में हैं और ऐसी सम्भावना है कि ज्ञानजी को इस विषय के बारे में पूर्व सूचना मिल चुकी थी :-)

बातें करते करते काफ़ी समय बीत चुका था और ज्ञानदत्तजी से आज्ञा लेकर भविष्य में पुन: मिलने की आशा के साथ हम अपने घर के लिये निकल पडे । रास्ते में एक जगह रामलीला का मंचन हो रहा था जहाँ मैने ये चित्र भी लिया । 

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मंगलवार, अक्टूबर 30, 2007

मथुरा से कानपुर की यात्रा और एक ब्लागर मीट का विवरण

अपनी पिछली पोस्ट में मैने हवाई अड्डे से मथुरा तक आने के बारे में लिखा था । मथुरा में घरवालों के सानिध्य में दो दिन गुजारने के पश्चात मैने उन्हे अपने कानपुर, बनारस और इलाहाबाद की प्रस्तावित यात्रा के बारे में बताया । मेरी उम्मीद के विपरीत घरवाले आराम से तैयार हो गये, शायद सोचा हो कि थोडा धरम-करम करके लडका बुरी संगत से निकल जाये और कानपुर में रहने वाले मेरे मित्र अंकुर वर्मा की घर में बडी ही उत्तम छवि भी थी, सम्भवत: इसके चलते ही इजाजत मिल पायी ।

मैने अपने जीवन में पहली बार अपने पैसे खर्च कर भारतीय रेल की वातानुकूलित सेवा का लाभ उठाया :-)

मथुरा से कानपुर जाने वाली गाडी अपने निर्धारित समय से २० मिनट पहले प्लेटफ़ार्म पर खडी थी लेकिन उसके दरवाजे बन्द थे । नियत समय पर दरवाजे खुल गये और हमने अपनी सीट पर कब्जा जमा लिया और आज पास के माहौल का जायजा लेने लगे । सामने एक विदुषी सी दिखने वाली महिला ने कहा कि उनकी ऊपर वाली सीट है और अगर मुझे कोई विशेष परेशानी न हो तो मैं अपनी नीचे वाली सीट उनसे बदल लूँ । मैने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और इस प्रकार उनसे बातचीत भी प्रारम्भ हो गयी । उन्होने ये भी कहा कि रेलवे को ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये जिससे कि महिलाओं और वृद्ध नागरिकों को निचली सीटों पर वरीयता दी जाये । मैने उनकी बात पर अपना सिर हिलाया जिसे उन्होने मेरी सहमति समझकर कहा कि इतने कामन सेंस की बात रेलवे को समझ में क्यों नहीं आती है । बाद में पता चला कि वे मथुरा में चलने वाले दिल्ली पब्लिक स्कूल में इतिहास की अध्यापिका हैं ।

इसी बीच अन्य यात्री गणों ने भी अपना अपना स्थान ले लिया और एक बार फ़िर से बातचीत का दौर प्रारम्भ हो गया । वातानुकूलित डिब्बों में जिस प्रकार लोग अपनी ही टशन में रहते हैं वैसा यहाँ कुछ भी नहीं था । सामने कक्षा ११ का एक विद्यार्थी बैठा था जिसने मुझसे कुछ विज्ञान सम्बन्धी प्रश्न पूछे और मैने भी उसके ज्ञान को टटोला । कुल मिलाकर बाते करते हुये १ घंटा हो गया और अभी तक रेलगाडी मथुरा से तनिक भी नहीं खिसकी थी । मैं इस बात से बडा प्रसन्न हुआ क्योंकि गाडी के कानपुर आने का समय सुबह चार बजे का था और लेट होने की स्थिति में गाडी पाँच बजे के बाद ही कानपुर पँहुचेगी । चूँकि रात के ग्यारह बज चुके थे हम सभी लोगों ने सोने का उपक्रम किया और शीघ्र ही मैं नींद के आगोश में मधुर सपनों में खोया हुआ था । जब नींद खुली तो पता चला कि कानपुर स्टेशन आने ही वाला है और अगले दस मिनट में मैं कानपुर स्टेशन पर था । वहाँ से आई. आई. टी. कानपुर के लिये आटो रिक्शा लेकर अगले एक घंटे में मैंने अपने मित्र के रूम पर दस्तक दे दी ।

उसके बाद मैने रासायनिक अभियांत्रिकी के कई प्रोफ़ेसरों और छात्रों के साथ अपने और उनके शोधकार्य के सन्दर्भ में बातचीत की एवं वहाँ की प्रयोगशालाओं का जायजा लिया । इस सब कार्यक्रम के बीच में मुझे याद आया कि अनूपजी को फ़ोन भी करना है, अनूपजी को फ़ोन करके उनसे शाम को मिलने का कार्यक्रम पक्का किया गया । पहले सोचा था कि हम खुद ही अनूपजी के घर पर जा धमकेंगे लेकिन फ़िर हमने अनूपजी कि सरल हृदयता का फ़ायदा उठाकर उनसे होस्टल में आकर हमें ले जाने का निवेदन किया जो उन्होनें सहर्ष ही स्वीकार कर लिया । अनूपजी के घर के रास्ते में कई बार ट्रैफ़िक ने हमारा दिल दहलाया लेकिन अनूपजी इससे बिना प्रभावित हुये कुशलता से कार चलाते हुये अपने घर ले आये ।

अनूपजी के घर मे घुसते ही हमें वह बगीचा दिखा जहाँ अभय तिवारी जी ने अपने क्रिकेट के जलवे दिखाये थे, अफ़सोस हमें ऐसा कोई मौका नहीं मिला :( बातचीत का दौर शुरू हुआ, अनूपजी ने हमारे साथी अंकुर वर्मा में भावी ब्लागर बनने की संभावनायें टटोली । इस बीच चाय का दौर शुरू हुआ और अनूपजी ने अंकुर को फ़ुरसतिया टाइम्स के कुछ अंक दिखाये जिन्हे उन्होने शाहजहाँपुर में लिखा था । अंकुर ने फ़ुरसतिया टाइम्स के गुप्त रोगों सम्बन्धी विज्ञापन को देख कर धीरे से टिप्पणी की "अनूपजी की ओब्जर्वेशन बडी चाँपू है, ऐसा केवल वो ही लिख सकता है जो आस पास के माहौल को बडे ध्यान से देIMG_1981खता हो ।" हमने अंकुर से चाँपू शब्द की व्याख्या बाद में पूछ्ने का सोचा और फ़िर भूल गये :-)

 

इस बीच अनूपजी ने हमारे शोध के सन्दर्भ में कुछ सवाल पूछे जिसे मैं और अंकुर आसानी से टाल गये । अंकुर और अनूपजी के बीच में आई. आई. टी. के आईटी ठेला के बीच में भी कुछ बातचीत हुयी जिसमें हमें कुछ खास समझ नहीं आया । फ़िर कार्यक्षेत्र में होने वाले कुछ भ्रष्टाचार की भी बात हुयी जिस पर अनूपजी ने एक पोस्ट (फ़ुरसतिया)  लिखने का वादा किया । इस बीच उनकी कई दिनों से कोई फ़ुरसतिया पोस्ट न आने पर हमने अपनी शिकायत दर्ज की, जिस पर वो थोडे से संजीदा हो गये ।

हमने अनूपजी को दौडने की सलाह दी जिसको वो पूरी कुशलता से डक कर गये । हमने श्रीमती शुक्ला (शुक्लाइनजी) को भी ब्लाग शुरू करने की सलाह दी जिस पर उन्होने कहा कि ये तो कुछ कामIMG_1983 करते नहीं अब हमने भी लिखना शुरू कर दिया तो घर कैसे चलेगा :-)। फ़िर ये भी पता चला कि अनूपजी के सुपुत्र ह्रितिक रोशन के बडे वाले पंखे और कूलर हैं । उन्ही के सुपुत्र के शब्दों में "ह्रितिक रोशन से मिलने के लिये उनके घर के बर्तन माँजने को भी तैयार हूँ ।"

इस बीच हमने अनूपजी को पाडकास्टिंग के बारे में थोडा समझाया और उन्हे उनके लेपटाप में  Ram  बढवाने की सलाह दी । इसके पश्चात मुंबई से अभय तिवारी जी का फ़ोन आ गया और उनसे फ़ोन पर बातचीत हुयी । साथ ही अभयजी ने हमें मुम्बई आने का न्योता भी दिया ।

इसी प्रकार बात चीत करते करते काफ़ी समय बीत गया और विदा करते समय अनूपजी ने अंकुर को "राग दरबारी" और मुझे "गालिब छुटी शराब" की एक प्रति अपने हस्ताक्षर सहित भेंट दी जिससे हम उसे किसी अन्य को भेंट न कर सकें । तत्पश्चात अनूपजी ने मुझे और अंकुर को वापिस आई. आई. टी. के हास्टल छोडा और भविष्य में फ़िर मिलने की उम्मीद के साथ हमने अनूपजी को विदा दी ।

उसी दिन रात में ट्रेन के द्वारा हम बनारस/इलाहाबाद के लिये रवाना हो गये जहाँ हमें ज्ञानदत्त पाण्डेयजी से मिलने का मौका मिला जिसका विवरण अगली पोस्ट में अर्थात कल देंगे ।

 

चलते चलते आई. आई. टी. कानपुर के एक अत्यन्त बुद्धिमान शोधार्थी के हास्टल रूम की कुछ तस्वीरें । ये महाशय बडे सरल हृदय हैं और इलेक्टानिक्स में थ्योरिटिकल रिसर्च कर रहे हैं । थ्योरी में काम करने के कारण होस्टल का रूम ही इनका कर्म/धर्म क्षेत्र है । उस शोधार्थी की प्राइवेसी के लिये उनका नाम अथवा चित्र नहीं दिया जा रहा है ।

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सोमवार, अक्टूबर 29, 2007

भारत में अब तक के बारह दिनों का व्यौरा: भाग १

१५ अक्टूबर की दोपहर को मन में उमडते विचारों के साथ घर से निकले । चार घंटे में न्यूयार्क पंहुचे और उसके बाद १४.५ घंटे की लगातार हवाई-यात्रा करते हुये १६ अक्टूबर की रात को इन्दिरा गांधी अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर रात को ९:०० बजे उतरे । उतरने के बाद आव्रजन जाँच कराने के बाद जब अपना सामान बटोरने गये तो ३० मिनट इन्तजार करने के बाद भी हमारे बक्से कहीं नहीं दिखे । कान्टीनेन्टल वालों को पूछा तो उन्होने कहा पता लगाते हैं और इसके बाद अगले १५ मिनट में हमारा बोरिया बिस्तर हमें सौंप दिया गया ।

मैं ह्यूस्टन से अपने एक आगरा के मित्र के साथ आया था और हम दोनों को ही हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से सुबह ६:०० बजे स्वर्ण-जयन्ती एक्सप्रेस पकडनी थी । अब सोचा गया कि रात को १०:१५ बजे से सुबह ६ बजे तक का सफ़र कैसे तय किया जाये । हमने सुझाव दिया कि प्री-पेड टैक्सी लेकर रेलवे स्टेशन चलते हैं और बाकी का कार्यक्रम वहीं तय किया जायेगा । मेरे मित्र भी एकदम बिन्दास थे और कहा कि कुछ नहीं तो रेलवे प्लेटफ़ार्म पर ही रात गुजार देंगे । टैक्सी वाले भैया ने तीन-चार रेड लाईट आराम से तोडकर हमें जल्दी ही निजामुद्दीन ला पटका जबकि हमें जरा भी जल्दी नहीं थी । रेल्वे-स्टेशन सूना पडा था क्योंकि रात १०:५० की अन्तिम ट्रेन के बाद सुबह ५ बजे तक कोई ट्रेन नहीं थी । हमने भी दो बैंच झपटी और दोनो मित्र उन पर अजदकी मुद्रा (फ़ुरसतिया एट. आल. २००७) में पसर गये । एक बक्सा सिर के नीचे तकिये की तरह और दूसरा पैरों के नीचे दबाकर सामान की चिंता को हवा में मच्छरों के भरोसे उडाकर सोने का प्रयास करने लगे ।

मेरे मित्र ने इस बीच प्लेटफ़ार्म के तीन-चार चक्कर लगाकर हर चीज का सूक्ष्मता से निरीक्षण कर निष्कर्ष निकाला कि अभी भी कुछ बदला नहीं है सिवाय चाय और परांठो के दाम के । I.R.C.T.C.के काउन्टर से १० रूपये वाली चाय और ३५ रूपये का एक आलू का परांठा निपटाकर मैने भी उसके निष्कर्ष पर सहमति की मोहर लगा दी । इसके बाद मैने प्लेटफ़ार्म का एक चक्कर लगाया कि अगर कोई दुकान खुली हो तो वेदप्रकाश शर्मा का कोई उपन्यास खरीदकर रात काट ली जाये । लेकिन अफ़सोस कि I.R.C.T.C. के काउन्टर के अलावा सभी दुकाने बन्द थी ।

हमने जैसे तैसे सोने का उपक्रम करते हुये सुबह ५:३० बजे तक का समय काटा और अपनी ट्रेन में सवार होकर मथुरा पँहुच गये । मथुरा में दो दिन बिताने के बाद हम मथुरा से कानपुर> बनारस> इलाहाबाद> कानपुर> दिल्ली> नोएडा> दिल्ली> नोएडा होते हुये फ़िर से मथुरा आ गये । इस दौरान कानपुर में हमे अनूपजी और इलाहाबाद में ज्ञानदत्त पाण्डेयजी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिसकी चर्चा हम कल विस्तार से करेंगे ।

रेफ़रेन्सेज: 

  1. देख रहे हैं जो भी किसी से मत कहिये, फ़ुरसतिया, १९ जून २००७

गुरुवार, अक्टूबर 18, 2007

मथुरा से एक छोटी सी पोस्ट !!!

प्यारे ब्लागी साथियों,
मैं घर पर आराम से आ गया हूँ। इंटरनेट कनेक्शन १-२ दिन में चालू हो जाएगा उसके बाद तो रोज ही एक पोस्ट ठेल देंगे, घर पर कुछ खास काम तो है नहीं। :-)

जम कर खातिर हो रही है, काश थोडी खातिर मैं अपने साथ वापिस ले जा पाऊँ।

अगली पोस्ट में विस्तार से लिखेंगे, ये पोस्ट इस बात की सनद है कि साईबर कैफे के धीमे इंटरनेट कनेक्शन के बाद भी पोस्ट ठेली जा सकती है :-)

भारत में मेरा सम्पर्क क्रमांक है, ०९७१९६१८२७९

साभार,
नीरज

शुक्रवार, अक्टूबर 12, 2007

दौड़ने संबन्धी जानकारी

मुझे दौडना बेहद पसंद है। अफ़सोस है कि चाहकर भी उतना नहीं दौड़ पाता जितना दिल करता है। शायद जल्दी ही मैं भी हफ्ते में कम से कम ३०-३५ मील दौडना शुरू करूं, आमीन !!!

दौड़ने के लिये कुछ टिप्स:

१) अगर आप नहीं दौड़ते हैं तो आज ही शुरू कीजिये और देखिये आप कितना आनंद प्राप्त करते हैं।
२) १०० मीटर से लेकर २० मील तक दौड़ने वाले सभी धावक होते हैं। आप जितना भी दौडें आनंद से दौडें। अगर साथ में कोई साथी मिल जाये तो सोने पे सुहागा।
३) दौड़ते समय ढीले कपडे पहनें और बिना अच्छे जूतों के कभी ना दौडें।
४) अच्छे जूते का चुनाव करते समय किसी अनुभवी व्यक्ति से राय ले सकते हैं।
५) अगर आपके जूते का नंबर X है तो (X+0.5) से (x+1.0) नंबर का जूता पहनकर दौडें।
६) दौड़ते समय शरीर में जल की कमी न रखें।
७) प्रारम्भ में सदैव धीरे धीरे दौडें।

दौड़ते समय की तीन अवस्थाओं में अंतर करना सीखें।

१) थकान:

थकान का अहसास दौड़ने के अलग अलग चरणों में अलग अलग प्रकार से होता है। शुरू के दिनों में ज़रा सा दौड़ते ही थकान लगने लगती है। आप स्वयं से कहते हैं बस अब नहीं होता, थोडा पैदल चल लूं और फिर दौडना शुरू करूंगा। थोडा पैदल चलने के बाद ज़रा सा दौड़ने पर ही दम फूलने लगता है और अगर आप दौडना स्थगित कर दें तो आप फिर सामान्य हो जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर ये सभी थकान के लक्षण हैं और ये लक्षण आपकी शारीरिक बनावट, अभ्यास और दौड़ने के अनुभवों पर निर्भर करते हैं।


२) दर्द:

नया नया दौड़ना प्रारम्भ करने वाले अपने आलस्य के कारण थकान को दर्द समझते हैं और दौडना बंद करके सामन्य रुप से चलकर अपना मार्ग समाप्त करते हैं। इससे कोई नुकसान नहीं होता है और थोड़े दिनों के बाद उनका आलस्य समाप्त हो जाता है।

कभी कभी अनुभवी धावक दर्द को केवल थकान मानकर दौड़ते रहते हैं और बेवजह ही अपने दर्द को चोट में तब्दील कर लेते हैं। दौड़ते समय जरूरी नहीं कि केवल आपके पैरों की मांसपेशियों में ही दर्द हो। तलुवे, पंजे, टखने, घुटने और क़मर में दर्द होने की संभावनाएं अधिक हैं लेकिन इसके अलावा आपके कंधे, गर्दन और पेट में भी दौड़ने से दर्द हो सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि आप अपने किसी भी दर्द को मामूली न समझें। दर्द का सीधा सा अर्थ है कि आपको रूक कर इसके बारे में विचार करने की आवश्यकता है। दौड़ते समय दर्द होने के मुख्य कारण हो सकते हैं:

अ) अच्छे जूते पहनकर न दौडना
ब) अच्छे जूते पहनकर न दौडना (जानबूझकर दो बार लिखा गया है )
स) दौड़ने से पहले हाथ पैरों का व्यायाम (Stretching) न करना
द) दौड़ते समय शरीर का संतुलन सही होना
ध) दौड़ते समय शरीर में आवश्यक जल/Electrolytes की कमी
न) भोजन करने के तुरंत बाद दौडना

३) चोट:

यदि आपको दौडना पसंद है तो ईश्वर न करे आपको ये दिन देखना पडे। दौड़ने संबन्धी चोट दो प्रकार की होती हैं। अचानक से लगी हुयी चोट, जिसको आप अपनी सावधानी से टाल सकते हैं। और दूसरी लंबे समय तक किसी दर्द की अवस्था को नजरअंदाज करने के फलस्वरूप विकसित हुयी चोट। दूसरे प्रकार की चोट ठीक होने में लंबा समय लेती है और इसके पुनः लौटने की संभावना भी बनी रहती है। कई बार धावक अपनी चोट को पूरी तरह से ठीक नहीं होने देते हैं जिसके कारण उन्हें अधिक कष्ट झेलना पड़ता है।

मैंने एक बार एक बडे अनुभवी धावक से कुछ टिप्स मांगी थी तो उन्होने कहा

१) हाईड्रेट हाईड्रेट हाईड्रेट: अर्थात पानी की कमी न रखो।
२) अपनी सभी चोटों को अत्यधिक गम्भीरता से लो।

अभी के लिए बस इतना ही, अगली बार आपको दौड़ने की कुछ और टिप्स और इसके ढ़ेर सारे फ़ायदे बतायेंगे जिससे युवाओं को काफी फायदा हो सकता है :-)

ये हफ्ता कटता क्यों नहीं ??? + दौड़ो भागो खुश रहो !!! :-) :-) :-)

आज शुक्रवार हो गया है। बस तीन दिन, और उसके बाद (१५ अक्टूबर को) मैं देश के लिए रवाना हो जाऊँगा। लेकिन देश जाने के कारण दो महत्वपूर्ण गतिविधियों में भाग नहीं ले पाऊँगा। भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री ए पी जे अब्दुल कलाम १८ अक्टूबर को मेरे विश्वविद्यालय में एक भाषण देने आ रहे हैं। इस बात की काफी संभावना थी कि अगर यहाँ होता तो उनसे एक व्यक्तिगत मुलाक़ात भी हो जाती लेकिन अफ़सोस...

दूसरा ये कि अमेरिकी सरकार के वाणिज्य विभाग ने भारतीय विद्यार्थियों को अमेरिका में उच्च-शिक्षा के लिए बढावा देने हेतु एक वीडियो बनाने का निश्चय किया है। इसके लिए उन्होने कई प्रमुख विश्वविद्यालयों से सम्पर्क स्थापित किया है जिसमें से राईस विश्वविद्यालय भी एक है। इस वीडियो में हर कालेज में से चुने हुये भारतीय विद्यार्थियों के साक्षात्कार होंगे जिसे एक डीवीडी के रुप में प्रयोग किया जाएगा। राईस ने इस कार्य के लिये मेरा चयन किया था मगर अफ़सोस कि वाणिज्य विभाग की कैमरा टीम २२ अक्टूबर को आ रही है और मैं इसमे भाग नहीं ले सकूंगा और मेरे स्थान पर एक अन्य भारतीय विद्यार्थी का साक्षात्कार लिया जायेगा :-(

चलिये कोई बात नहीं, अब मुद्दे की बात पर आते हैं जिसके लिये हमने ये पोस्ट लिखी है। कुछ महीने पहले मैंने अपने दौड़ने भागने के किस्सों पर एक पोस्ट लिखी थी। पिछले महीने मैंने एक रिले दौड़ में भाग लिया था। इस दौड़ की विशेषता थी कि रास्ता बहुत ही ऊंचा नीचा और पहाड़ी जैसा था। हमारी टीम में चार सदस्य थे, दो लड़के और दो लडकियां और प्रत्येक सदस्य को २ मील (३.२ किमी) दौड़ना था। बिना किसी प्रैक्टिस के हमारी टीम ने नौवां स्थान प्राप्त किया जो काफी अच्छी बात थी। ये और भी महत्वपूर्ण इसलिये था कि लगभग ५ सालों के बाद मैंने किसी प्रतियोगी दौड़ में हिस्सा लिया था। २ मील दौड़ने में मुझे १५ मिनट लगे थे जो दौड़ के रास्ते को देखते हुये एक अच्छा समय था। हमारी टीम ने इस दौड़ को १ घंटा ७ मिनट और ४ सेकेंड्स में पूरा किया था।

अब आपको मिलवाते हें John Fredrickson से। जॉन ने १५ वर्ष की उम्र से सिगरेट पीना शुरू किया था, अपने चरम पर वो लगभग ३ डिब्बी सिगरेट रोज पीया करते थे (अमेरिका की एक डिब्बी में २० सिगरेट होती है) । जब जॉन ४० वर्ष के थे तब डाक्टर ने उन्हें बताया कि वो फेफडे की एक बीमारी से ग्रसित हैं जिसका कारण उनका धूम्रपान करना था। डाक्टर ने जॉन को लगभग एक साल का समय दिया था, बस यहीं पर जॉन ने अपनी जीवटता से सबको चकित कर दिया। जॉन ने जीवन में पहली बार दौड़ना शुरू किया, पहली बार केवल १०० मीटर दौड़ने में ही जॉन के हौसले पस्त हो गये थे। लेकिन उन्होने हिम्मत नहीं हारी और सिगरेट पीना छोड़ने के साथ दौड़ना जारी रखा। कुछ ही वर्षों में जॉन अपनी फेफडे की बीमारी से मुक्त हो चुके थे। और आपको ये जानकार प्रसन्नता होगी
कि पिछले हफ्ते जॉन ने अपने ८२ वीं मैराथन दौड़ पूरी की।

अभी इतना ही लेकिन आगे और भी है। इस लेख की अगली कडी में आप सब जानेंगे दौड़ने संबन्धी अन्य जानकारियां जैसे:

१) दौड़ते समय थकान, चोट और दर्द में फर्क कैसे करें।
२) दौड़ने का सबसे सुरक्षित तरीका क्या है ।
३) दौड़ने के अन्य फायदे क्या हैं ?
४) दौड़ने और बीयर पीने का क्या संबंध है :-)
आदि आदि...

रविवार, अक्टूबर 07, 2007

गद्य और पद्य लेखन में कन्फ्यूजन!!!

डिस्क्लेमर: ये पोस्ट मूलतः मौज लेने के लिए लिखी गयी है, कवि ह्रदय वाले लोग अन्यथा न लें | कवि अगर अन्यथा ले लें तो चिंता की कोई बात नहीं है |

कुछ दिन पहले विचारार्थ नाम के चिट्ठे पर राजकिशोरजी का "विवाह पर कुछ विचार" नामक लेख पढ | जैसे ही पढ़ना प्रारम्भ किया घोर कन्फ्यूजन ने घेर लिया कि ये लेख पद्य है या गद्य ? फिर लेख की लम्बाई और बीच बीच में पूर्ण विराम देख कर लगा कि हो न हो ये गद्य लेखन ही है | आप भी देखिए:

"जर्मनी की सबसे चमक-दमक वाली नेता गैब्रील पॉली

ने अपने चुनाव घोषणापत्र में यह प्रस्ताव शामिल कर

हड़कंप मचा दिया है कि विवाह की मीयाद सात वर्ष

होनी चाहिए। सात वर्ष के बाद भी कोई युगल अपने

वैवाहिक संबंध को बनाए रखना चाहता है, तो उसे

इस संबंध की अवधि बढ़ाने की सुविधा मिलनी

चाहिए। पॉली की उम्र पचास वर्ष है। उनका दो बार

तलाक हो चुका है। तलाक के लिए जिम्मेदार कौन

था, नहीं मालूम। इसकी खोज करने की जरूरत भी"...


लेख की लम्बाई, कविता के शिल्प पर मेरी जानकारी बहुत ही कम है इसीलिये अगर एक पंक्ति में ८-१० शब्द हों और कुल मिलाकर १६-२० पंक्तियां हों तो मैं उसे बिना वाद विवाद के कविता मान लेता हूँ । अगर ऊपर दिए हुये उदाहरण में से पूर्ण विराम और अर्ध विराम हटा दिये जायें तो क्या ये एकदम आधुनिक कविता नहीं बन जायेगी और शायद "हिन्द-युग्म" अथवा और कहीँ छपने को भेजी जाये तो प्रकाशित भी हों जाये :-) ईस्माइली लगा दी है इसलिये अन्यथा लेने की नहीं हो रही है।


ऐसा ही एक और उदाहरण देखें विचारार्थ की आज की पोस्ट से:

"भारत सरकार 2 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा

दिवस के रूप में मान्यता दिलाने में सफल रही, इस

पर वे ही खुश हो सकते हैं जो गांधी को ठीक से नहीं

जानते। यह सच है कि गांधी जी आखिरी सांस तक

यही कहते रहे कि सत्य और अहिंसा, यही मेरे दो

मूल मंत्र हैं। लेकिन सत्य को निकाल दीजिए, तो

अहिंसा लुंज-पुंज हो कर रह जाएगी। महात्मा और जो

कुछ भी थे, लुंज-पुंज नहीं थे। न वे लुंज-पुंज व्यक्ति

या बिरादरी को पसंद करते थे। बल्कि उनकी शिकायत

ही यही थी कि भारत के लोगों द्वारा हथियार रखने

पर पाबंदी लगा कर अंग्रेजों ने इस देश के लोगों को

नामर्द बना दिया। मर्द और नामर्द की शब्दावली आज

की नारीवादियों को पसंद नहीं आएगी। लेकिन गांधी

जी मर्द थे, मर्दवादी नहीं थे। वे तो अपनी संतानों की

मां और बाप, दोनों बनना चाहते थे। महात्मा की पौत्री

मनु गांधी की एक किताब का नाम है, बापू मेरी मां।"...


राजकिशोरजी के दोनो लेख काफी विचारोत्तेजक हैं इसीलिये उनके चिट्ठे पर जाकर इन लेखों को पढ़ना न भूलें |

शनिवार, अक्टूबर 06, 2007

एक अन्तराल के बाद फ़िर से चिट्ठा लेखन!!!

पिछ्ले लगभग १ महीने से चिट्ठा लेखन बन्द पडा था हालाँकि इस बीच चिट्ठे पढने का कार्य अवश्य चल रहा था । अभी कुछ दिन पहले शास्त्रीजी ने अपनी किसी टिप्पणी में कहा था कि किसी भी सक्रिय चिट्ठे को हफ़्ते में एक बार अवश्य छपना चाहिये । मैं शास्त्रीजी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ, और अब सम्भवत: आगे चिट्ठा लेखन करता रहूँगा । ये बताना भी महत्वपूर्ण है कि मुझे अपना चिट्ठा लेखन बीच में क्यों बन्द करना पडा था । इसका मुख्य कारण मेरी (Academic) व्यस्तता और अन्य कार्यों (जैसे एक लम्बी दौड़ की तैयारी में दौड़ना, अन्य समितियों (शोध-कार्य के अतिरिक्त) में अधिक कार्य का होना ) का अचानक आवंटित समय से अधिक समय की माँग करना था ।

अभी अगले ९ दिनों में भारत यात्रा का भी योग है, जिसकी वजह से पुराने अधूरे कार्यों को समाप्त करने का प्रयास चल रहा है अन्यथा छुट्टियों में भी घर से काम करना पडेगा । इसके अतिरिक्त पिछले कुछ दिनों से एक प्रश्न भी मन को विचलित कर रहा था कि मैं क्यों लिखूँ ? मैं अब भी नहीं मानता कि मेरे ब्लाग लेखन से हिन्दी की कुछ सेवा होती है या अलबत्ता मैं हिन्दी की सेवा के प्रयोजन से ब्लाग लिखता हूँ । हिन्दी ब्लाग लेखन और चिट्ठे बाँचना मेरी व्यक्तिगत रूचि है । इसी रूचि के चलते कुछ ऐसे सम्बन्ध भी बने हैं जिन्होनें मेरी सोच को काफ़ी प्रभावित किया है ।

मैं ब्लाग लेखन क्यों करूँ ? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात है तो मैं मुख्यत: विवादित मुद्दों से दूर ही रहता हूँ । अपने द्वारा अर्जित ज्ञान को बाँटने की बात है तो संगीत के अलावा ऐसे किसी मुद्दे पर मैने अभी तक कुछ लिखा ही नहीं है (तेल/गैस उद्योग पर एक साधारण सी पोस्ट का अपवाद छोडकर) । अगर ब्लाग लेखन को रोजमर्रा के मशीनी जीवन से मुक्ति कहूँ तो उसके लिये भी मैं काफ़ी अन्य गैर-पाठ्यक्रम (Extra-Curriculum) गतिविधियों में संलग्न हूँ । ये सभी बहाने काफ़ी थे एक महीने तक ब्लाग लेखन से विमुख रहने के लिये ।

खैर अब वापिस आये हैं लेकिन आज की पोस्ट में अपनी बक-बक कम और आप लोगों से कुछ सवाल करने हैं ।

१) पहली समस्या है कि भारत में रहकर घर में इन्टरनेट की सुविधा प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका क्या है ? मेरे पास अपना लैपटाप होगा, घर में एक BSNL की लैंड-लाईन है और मोबाइल भी हैं | इन सब औजारों के साथ क्या और कैसे मिलाया जाये कि इन्टरनेट चालू हो सके | मेरा घर मथुरा में है इसीलिये ब्राड-बैंड अभी वहाँ आया है कि नहीं पक्का नहीं पता | क्या कोई ऐसा सर्विस प्रोवाइडर भी है जिससे केवल एक महीने के लिए इन्टरनेट लिया जा सके ? संभवतः मुझे घर से ही अपने शोध-कार्य के सिलसिले में बड़ी फाइल्स इधर-उधर सरकानी पड सकती हैं, इसीलिये शायद काफी ज्यादा बैंड-विड्थ की जरूरत पडेगी (१ महीने में लगभग १ G.B.)।

२) दूसरा प्रश्न दिल्ली वालों से है। दिल्ली में हिंदी पुस्तकें खरीदने के लिये अपनी मन पसंद जगह बताइये, जहाँ पर सुगमता से अच्छा साहित्य मिल सके |

३) तीसरा प्रश्न आप सभी लोगों से है | अगर आप किसी को हिंदी की दो पुस्तकें खरीदने के लिये कहेंगे तो वो पुस्तकें कौन सी होंगी ?

तो देर किस बात की है, फ़टाफ़ट अपने जवाब हमें १४ अक्टूबर से पहले भेज दीजिये |