शनिवार, जुलाई 21, 2007

वाद-विवादी भारतीय


आज आप लोगों से इंटरनेट पर अपने कुछ अनुभव आपके साथ बाँट रहा हूँ । पिछ्ले कुछ महीनों से मैं रेडिफ़ (www.rediff.com) पर लिखे जाने वाले लगभग सभी लेख और उनके नीचे लिखे पाठकों की टिप्पणियाँ पढ रहा हूँ । यही नहीं, और्कुट पर भी विभिन्न समूहों (Indian History, India, Hinduism, etc.) में होने वाले वाद-विवाद पर भी नजर रखता रहा हूँ । कुल मिलाकर मैं इस निष्कर्ष पर पँहुचा हूँ कि हम भारतीयों को वाद-विवाद में बडा सुख मिलता है । इस वाद-विवाद का उद्देश्य किसी आम सहमति अथवा परिणाम पर पँहुचना नहीं बल्कि केवल वाद-विवाद सुख होता है ।

तुमने ५ पंक्तियों का तर्क दिया है तो मेरा जवाब १० पंक्तियों का होगा । इंटरनेट पर वाद-विवाद में कुछ ट्रेंड भी देखने तो मिलते हैं । आम तौर पर ऐसा लगता है कि लगभग हर लेख पर वाद-विवाद की परिणति एक ही होती है । वाद-विवाद किसी एक तर्क से प्रारम्भ होकर आपस में गाली गलौज पर होते हुये इस स्तर पर उतर आता है कि बस पूछिये मत ।

पहले मैं आर्कुट पर भारतीय इतिहास नामक समूह में काफ़ी हद तक सक्रिय (पढने और लिखने दोनों) था । प्रारम्भ में वहाँ पर कुछ अच्छे विषयों पर विचार विमर्श हुआ परन्तु समय के साथ वहाँ पर भी वाद-विवाद का स्तर इतना गिर गया कि अब वहाँ जाने का मन भी नहीं करता । धीरे धीरे मुझे एहसास हुआ है कि इंटरनेट पर किसी विवाद में समय बिताने की अपेक्षा दोनों पक्षों से सम्बन्धित कुछ विश्वसनीय लेख अथवा पुस्तक पढना ज्यादा उपयोगी है । और अब मेरी भूमिका केवल एक तटस्थ दर्शक की रह गयी है । हाँलाकि बहुत से लोग "जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध" कहकर उकसाने का प्रयास करते हैं, लेकिन हम अपने आप को तटस्थ दर्शक बनाये हुये हैं ।

रेडिफ़ (Rediff) पर विभिन्न लेखों पर दी गयी टिप्पणियों को अगर आप लम्बे समय तक पढेगें तो आप अपने साथ एक खेल खेल सकते हैं । सुबह एक लेख पढिये और भविष्यवाणी कीजिये कि इस विषय पर टिप्पणियाँ क्या रंग दिखायेंगी । यकीन मानिये, ये काम बहुत मुश्किल नहीं है ।

मसलन, अगर किसी NRI से सम्बन्धित कोई खबर है तो वाद विवाद "भारतीयों में स्वयं के गौरव की कमी/सरकार की अमेरिका की चापलूसी/राजनीति में भ्रष्टाचार" जैसे मुद्दों को छुयेगी ।

क्रिकेट से सम्बन्धित खबर होने पर वाद विवाद "दक्षिण/ उत्तर/ बंगाल/ दिल्ली/ फ़िरंगी कोच/ क्रिकेट में पैसा/ हाकी की दुर्दशा" जैसे मुद्दों तक पँहुचेगा ।

साहित्य से संबन्धित किसी भी खबर पर मराठी/बंगाली/हिन्दी/तमिल के नाम पर जूतम पैजार होना आम बात है ।

इन सभी के बीच में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो वाद-विवाद को सही दिशा देने की कोशिश करते हैं लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में दब कर रह जाती है । आप कह सकते हैं कि अगर ऐसे अधिक लोग हों तो सम्भवत: वाद-विवाद को संयत (Moderate) किया जा सकता है । परन्तु ऐसे वाद विवाद से क्या हासिल है ? मेरी राय में अपनी ऊर्जा को सहेज कर किसी अन्य दिशा में लगाना कहीं अधिक फ़ायदेमन्द होगा ।

7 टिप्‍पणियां:

  1. आप सही कह रहे हैं और लगता है हिन्दी ब्लॉगजगत पर भी अब यह शुरू हो गया है... वाद विवाद प्रियता...

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  2. सही कह रहे हैं।अब तो यही कुछ है।

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  3. "कुल मिलाकर मैं इस निष्कर्ष पर पँहुचा हूँ कि हम भारतीयों को वाद-विवाद में बडा सुख मिलता है । इस वाद-विवाद का उद्देश्य किसी आम सहमति अथवा परिणाम पर पँहुचना नहीं बल्कि केवल वाद-विवाद सुख होता है ।"

    पूरी तरह सहमत.

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  4. भैया जुगाली करने का सुख सिरफ़ गऊ माता ही नही लेती!!!
    बस कहना ही है, किसी समाधान की सोचना थोड़े ही है, इसे कहते हैं वैचारिक जुगाली करना, यही सबसे पसंदीदा शगल है!!

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  5. स‌त्यवचन, अब हम भी यह बात स‌मझ गए हैं कि इंटरनैट स‌भ्य बहस‌ के लिए उचित स‌्थान नहीं। इसलिए अब वाद विवाद की स‌ंभावना वाली बहस‌ों में भाग नहीं लेते।

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  6. स्मरण कराने के लिये शुक्रिया! ये प्रतिज्ञा आज से कुछ महीनों पहले की थी कि किसी भी फालतू बहसबाजी में शामिल नहीं हुंगा पर हाल के दिनों में मैं पलट कर जवाब देने के चक्कर में पुनः फंस बैठा। अब ये पक्का इरादा है कि किसी भी बहसबाजी से किनारा रहेगा, चाहे जो भी हो जाये।

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