अधिकांश लोग मानते हैं कि मनुष्य में निरपेक्ष रूप से सोचने समझने की शक्ति है और प्रयास करके वो नीर-क्षीर करने में सक्षम है । इस कल्पना के केन्द्र में पूर्वधारणा (assumption) है कि किसी भी विषय पर ज्ञान/जानकारी मुक्त रूप से उपलब्ध है । मुक्त रूप से मेरा तात्पर्य है कि विषय के पक्ष और विपक्ष दोनों के लिये जानकारी बिना किसी भेदभाव के उपलब्ध है । यह एक आदर्श स्थिति है और ऐसी विषयवस्तु की केवल कल्पना ही की जा सकती है । जैसे ही इस आदर्श स्थिति से भटकाव प्रारम्भ होता है व्यक्ति की नीर-क्षीर करने की प्रवत्ति और क्षमता पर बाहरी कारकों का प्रभाव महत्वपूर्ण हो जाता है ।
किसी भी विषय पर मत प्रचार (प्रोपागेंडा) करने के लिये इन कारकों का शोषण करना पडता है । शोषण अर्थात जन सम्पर्क के माध्यमों पर अपना एकाधिकार बनाने का प्रयास करना जिससे कि दूसरी विचारधारा का गला घोंटा जा सके । मत प्रचार भी कई चरणों में किया जाता है । पहले चरण में विषयसामग्री बनायी जाती है । प्रोपागेंडा फ़ैलाने का सबसे महत्वपूर्ण नियम है कि विषयसामग्री विस्तारपूर्ण हो और अधिक से अधिक विचारबिन्दु दे । विचारबिन्दु विषय के बारे में कम और पढने वाले की मानसिकता/सोच और सांस्कृतिक विचारों को ध्यान में रखकर लिखे जाते हैं । प्रत्येक विचारबिन्दु अपने आप में अधूरा होता है, परन्तु यदि पढते समय आपके मन में संदेह न हो तो ऊपरी तौर पर आप इससे सहमत होते दिखते हैं । विचारबिन्दु आपस में असम्बद्ध (डिसकनेक्टेड) और मूल विषय से विसंगति लिये होते हैं । विषयसामग्री का विस्तार इसलिये आवश्यक है जिससे कि जागरूक पाठक प्रस्तुत किये तर्कों को सत्यापित करने का प्रयास न करे । पाठक को विश्वास में लेने के लिये अक्सर सर्कुलर रेफ़रेंसिग का प्रयोग किया जाता है । सर्कुलर रेफ़रेंसिग से आशय है कि बीस लेख अगर एक दूसरे का रेफ़रेंस दें तो हर लेख में कम से कम बीस रेफ़रेंस होंगे ।
एक बार मसौदा पूरा हो गया तब दूसरे चरण में इसको वितरित करने का कार्य किया जाता है, इसमें कार्यकर्ताओं/धन इत्यादि कि सबसे अधिक आवश्यकता होती है । इंटरनेट की क्रान्ति आने से ये कार्य थोडा आसान हो गया है । जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ आज हर कोई अपने को किसी भी विषय का विशेषज्ञ बता सकता है, अपना लिखा अगर आप peer reviewed जनरल/पत्रिकाओं में प्रकाशित नहीं कर सकते तो एक वेबसाईट खोलिये, अपनी पूरी सामग्री वहाँ पर रखिये और प्रचार प्रारम्भ कर दीजिये ।
प्रोपागेंडा फ़ैलाने के दूरगामी प्रभाव होते हैं । एक बार अगर आप अपनी बात फ़ैलाने में सफ़ल हो गये तो लोग जी जान लगा लें जन मानस से उसको निकालना बडा कठिन होता है । यही कारण है कि सैक्षिक/सैद्धांतिक अथवा व्यवसायिक, लगभग हर क्षेत्र में आपको प्रोपागेंडा दिखायी दे जायेगा (अगर आप देखना चाहें तो ) ।
ऐसे लेखों से बचने के उपाय:
१) अगर किसी विषय पर आपकी जानकारी कम है तो सन्तुलित/परिमित (Conservative) दिशा लेनी चाहिये । अर्थात अच्छे प्रकाशन की पुस्तक को किसी व्यक्तिगत लेख से ज्यादा तरजीह देनी चाहिये ।
२) अच्छी जानकारी जुटाने के लिये आलस्य न करें, किसी विषय पर शोध करने के लिये विश्वविद्यालयों के पुस्तकालय इंटरनेट पर की गयी सर्च से ज्यादा मुफ़ीद स्थान हैं ।
३) आइन्स्टीन के भौतिकी के अतिरिक्त किसी अन्य विषय पर लिखे लेखों को आँख मूंदकर सत्य मान लेना आत्महत्या जैसा होगा । अक्सर किसी एक विषय के प्रकाण्ड विद्वान दूसरे विषय में पक्षपाती (Prejudiced) हो सकते हैं इसीलिये अपने विवेक का प्रयोग करें ।
४) बहुत से लोग इतिहास/दर्शन/साहित्य/कला पर अपनी खुद को सोच को शोध का रूप देनें का प्रयास करते हैं । इन विषयों पर भी शोध करने के लिये विषय की पृष्ठभूमि और शोध कौशल की उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी कि भौतिकी अथवा गणित में शोध करने के लिये होती है।
इस लेख पर आप अपने विचार अपनी टिप्पणियों के माध्यम से बता सकते हैं ।
नीरज रोहिल्ला
१५ जुलाई, २००७
रविवार, जुलाई 15, 2007
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पढ़ लिया अब. सिर्फ आइन्स्टीन-और बाकि?? सब विवादित?
जवाब देंहटाएंगहन विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंज्ञान स्वयं में एक सत्ता संरचना है इसलिए उसके अपने पदसोपान हैं अत: ज्ञान को पवित्र, निष्पक्ष आदि मानने के अपने खतरे हैं- इसी प्रकार माध्यमों को भी अंतिम मानने के जोखिम हैं- अच्दा किया जो आप आगाह कर रहे हैं।
अच्छा लिखा है। खासकर यह निष्कर्ष-आइन्स्टीन के भौतिकी के अतिरिक्त किसी अन्य विषय पर लिखे लेखों को आँख मूंदकर सत्य मान लेना आत्महत्या जैसा होगा ।
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