सोमवार, जुलाई 23, 2007

शेखर: एक जीवनी, के कुछ अंश

अज्ञेयजी कृत "शेखर: एक जीवनी" की भूमिका के कुछ अंश आपके लिये प्रस्तुत हैं ।
... क्या ये "जीवनी" आत्म-जीवनी है ? यह प्रश्न अवश्य पूछा जायेगा । बल्कि शायद पूछा भी नहीं जायेगा, क्योंकि पाठक पूर्व-धारणा बनाकर चलेगा । हिन्दी में जहाँ प्रत्येक कवि अपनी स्त्री को लक्ष्य करके लिखता है, जहाँ वियोग की कविता इतने भर से प्रमाणिक मान ली जाती है कि उसे अमुकजी ने अपनी पत्नी के देहान्त के बाद लिखा है, वहाँ ये आशा करना व्यर्थ है कि "शेखर" जो केवल एक जीवनी ही नहीं, एक व्यक्ति की अपने मुँह कही हुई जीवनी है, उसके लेखक की जीवनी नहीं मान ली जायेगी । मुझे याद है, तीन वर्ष पहले जब मेरी एक कविता "द्वितीया" छपी थी, तब उसके कई पाठकों ने मुझे सम्वेदना के पत्र लिखे थे और एक ने यहाँ तक लिखा था कि "मुझे आपसे पूरी सहानुभूति है, क्योंकि स्वयं उसी परिस्थिति में होने के कारण मैं आपकी अवस्था बखूबी समझ सकता हूँ । पत्र के सम्पादक जी ने भी (यद्यपि कुछ मजाक में) पूछा था कि आपका पहला विवाह तो हुआ नहीं दूसरी पत्नी से यह झगडा कैसा?"

ऐसे व्यक्तियों को यदि प्रमाण मिल जाये कि मैने बिना एक भी विवाद हुये दूसरे विवाह की बात लिख दी है, तो वे समझेंगे कि उन्हें धोखा दिया गया है । यह कहते हुये खेद होता है- किन्तु बात है सच - कि आजकल का अधिकांश हिन्दी साहित्य और आलोचना एक भ्रान्त धारणा पर आश्रित है कि आत्म-घटित (आत्मानुभूत नहीं क्योंकि अनुभूति बिना घटित के भी हो सकती है ) का वर्णन ही सबसे बडी सफ़लता और सबसे बडी सच्चाई है । यह बात हिन्दी के कम लेखक समझते या मानते हैं कि कल्पना और अनुभूति-सामर्थ्य (sensibility) के सहारे दूसरे के घटित में प्रवेश कर सकना, और वैसा करते समय आत्मघटित की पूर्व-घटनाओं को स्थगित कर सकना - Objective हो सकना- ही लेखक की शक्ति का प्रमाण है ।

इसके विपरीत लेखकों में ऐसे अनेक मिल जायेंगे जो ऐसी अनुभूति (मैं फ़िर कहता हूँ कि आत्म-घटित ही आत्मानुभूत नहीं होता पर-घटित भी आत्मानुभूत हो सकता है यदि हममें सामर्थ्य है कि हम उसके प्रति खुले रह सकें,) को परकीय, सेकेण्ड हैण्ड, अतएव घटिया और असत्य कहेंगे । ऐसे व्यक्तियों के लिये टी. एस. इलियट की उस उक्ति का कोई अर्थ नहीं होगा जो वास्तव में इसका एक मात्र उत्तर है : "There is always a separation between the man who suffers and the artist who creates; and the greater the artist the greater the separation." (भोगनेवाले प्राणी और सृजन करने वाले कलाकार में सदा एक अन्तर रहता है; और जितना बडा कलाकार होता है उतना ही भारी यह अन्तर होता है ।)

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लेकिन यह एक लम्बा विषयान्तर हो गया है और मुझे मानना पडेगा कि इलियट के कथनानुसार मैं बहुत बडा आर्टिस्ट हो सका हूँ । शेखर का एक भी पात्र नहीं है जो न्यूनाधिक मात्रा में एक संश्लिष्त चरित्र Composite character नहीं है, तथापि मेरी अनुभूति और मेरी वेदना शेखर को अभिसिंचित कर रही है । और यह अभिसिंचन ऐसा है कि उससे यह कहकर छुटकारा नहीं पाया जा सकता कि अन्ततोगत्वा सभी गल्प-साहित्य आत्मकथा-मूलक है, अपने ही जीवन का चित्रण नहीं तो प्रक्षेपण (Projection) है, अपने स्यात की कहानी है । ‘शेखर’ में मेरापन कुछ अधिक है; इलियट का आदर्श (जिसकी महानता मैं मानता हूँ) मुझसे नहीं निभ सका है । शेखर निस्संदेह एक व्यक्ति का अभिन्नतम निजी दस्तावेज a record of personal suffering है, यद्यपि वह साथ ही उस व्यक्ति के युग-संघर्ष का प्रतिबिम्ब भी है । इतना और ऐसा निजी वह नहीं है कि उसके दावे को आप "एक आदमी की निजी बात" कहकर उडा सकें; मेरा आग्रह है कि उसमें मेरा समाज और मेरा युग बोलता है कि वह मेरे और शेखर के युग का प्रतीक है; लेकिन इतना सब होते हुये भी मैं जानता हूँ कि यदि इस उपन्यास का सूत्रपात दूसरी परिस्थिति में और दूसरे ढंग से (और शायद दूसरे अधिक समर्थ हाथों से !) हुआ होता तो उस भूमिका की आवश्यकता नहीं रहती...और न ही इसकी सम्पूर्ण उपेक्षा करते हुये पाठक के यह कहने की गुंजाइश रहती कि शेखर में घटनाओं की तो बात ही क्या स्थान भी लेखक के देशाटन की परिचर्चा से मेल खाते हैं । (यद्यपि यह कहने के लिये लेखक को मेरे सम्बन्ध में विशेष रूप से जानकार होना पडता ।)....

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"शेखर : एक जीवनी" के इन अंशों को लिखने का मेरा उद्देश्य ये कहना है कि दोहरी व्यक्तित्व/जीवन जीने का मौलिक अधिकार एक लेखक को भी है । किसी लेखक के व्यक्तिगत जीवन में घटित हुयी किसी घटना के आधार पर उसके स्रजित साहित्य की भर्तस्ना करना लेखक पर अत्याचार होगा और उसके लेखन के प्रति बेईमानी ।

असल में सुजाताजी की पोस्ट, (निजी कितना निजी है और कब तक) पर टिप्पणी करने के बाद सोचा कि अपने मन्तव्य को इस पोस्ट के माध्यम से स्पष्ट करूँ । यहाँ पर ये भी स्पष्ट कर दूँ कि इस संवाद में मेरी रूचि पूर्णतया सैद्धान्तिक (Theoretical) है । जिस विवाद के संदर्भ में सुजाता जी ने अपनी पोस्ट लिखी थी उस विवाद के संदर्भ में मेरी इस पोस्ट को न माना जाये । कुछ अनजाने में ही सही लेकिन एक सार्थक संवाद प्रारम्भ हुआ है । आपकी क्या राय है?

क्या किसी लेखक और लेखन को उसी प्रकार अलग किया जा सकता है जिस प्रकार हम अन्य व्यवसायों और व्यवसायी को अलग करके देखते हैं । किसी वैज्ञानिक के निजी विचार कि धरती केवल ६००० वर्ष पुरानी है अथवा जैव विकास का सिद्धांत (Theory of Evolution) असत्य है के बावजूद उसके
शोधपत्रों को शंका की नजर से नहीं देखा जाता । फ़िर एक लेखक के साथ ऐसा बर्ताव क्यों जबकि वो दावा नहीं करता कि उसके विचार सत्य हैं , वो तो खुलेआम कहता है कि उसके विचार कल्पना की उडान हैं ।


नीरज रोहिल्ला,
२३ जुलाई, २००७

7 टिप्‍पणियां:

  1. "किन्तु बात है सच - कि आजकल का अधिकांश हिन्दी साहित्य और आलोचना एक भ्रान्त धारणा पर आश्रित है कि आत्म-घटित (आत्मानुभूत नहीं क्योंकि अनुभूति बिना घटित के भी हो सकती है ) का वर्णन ही सबसे बडी सफ़लता और सबसे बडी सच्चाई है ।"

    कई बार जिसपर घटती है वह अनुभूति नहीं करता. यह तो आपकी सेंसिबिलिटी पर भी निर्भर करता है. हर आदमी हर क्षेत्र में समान अनुभूति रखता हो - यह भी जरूरी नहीं.

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  2. अच्छा किया आपने कुछ अंश देकर. वैसे पढ़ा था फिर भी अच्छा लगा.

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  3. शुक्रिया इसे यहाँ बाँटने का !

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  4. आभार. अच्छा लगा.

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  5. अच्छा किय इसे यहां पेश किया।

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  6. बेनामी9:34 am

    Subha prabhat


    kaise ho..neeraj


    kushi hui yaha dekh kar


    Sampark main rahna

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  7. भावुकता की इतनी बड़ी विडम्बना को इतनी सहजता से अभिव्यक्त कर पाना सबके बस की बात नहीं है। बहुत से लोग समस्त ज्ञान को व्यक्तिगत अनुभव से कम प्रामाणिक समझते हैं। :(

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