रविवार, जुलाई 08, 2007

चल के दो कदम जो निकला बस्ती से बाहर !

गुस्ताखी माफ़, आज बहुत दिनों के बाद फ़िर से काव्य का रूख किया है । यूँ ही बेतरतीब लफ़्जों को छापते में थोडी शर्म भी हो रही है ।

चल के दो कदम जो निकला बस्ती से बाहर,
मुर्दा बदन को किसी ने छू लिया हो जैसे ।
सुरमई सूरज से महकती मिट्टी की सौंधी खुशबू,
बारिश से धुली शाखों पर दमकते पत्ते,
और उन पत्तों पर जिन्दादिल चिडियों का शोर ।

मेरी लाचारी को रुक कर ताकती दो गिलहरियाँ,
फ़िर भागकर गुम होती शाखों की हरियाली में ।
मानो नन्हें हाथों से मुझे ही बुला रही हों,
कि आओ कुछ बात करें, कुछ बात करें ।

बोलने की ख्वाहिश में गले तक उमडे गूंगे जज्बात,
सीने में अटकी सांसो में जाने क्यों खो जाते हैं ?
कभी बोलना इतना भी दुश्वार नहीं था ।

आँखो की जुबान होती है, मैने तो नहीं सुनी,
बन्द बोझिल थकी आँखे भी कुछ बोलती हैं क्या?
जज्बातों को भी आवाज की बैसाखी चाहिये ।

ये खामोशी, ये सच्चाई अब बर्दाश्त न होगी,
झूठ छुप नहीं पाता, तार तार हो जाता है,
बेहतर है फ़िर से बस्ती का ही रूख करें ।

नीरज रोहिल्ला,
८ जुलाई, २००७

6 टिप्‍पणियां:

  1. अरे, इतनी बेहतरीन रचना लिखी है और शरमा रहे हो तो कई तो डूब ही मरेंगे, बहुत बढ़िया. लिखते रहो.

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  2. मेरी लाचारी को रुक कर ताकती दो गिलहरियाँ,
    फ़िर भागकर गुम होती शाखों की हरियाली में ।
    मानो नन्हें हाथों से मुझे ही बुला रही हों,
    कि आओ कुछ बात करें, कुछ बात करें ।

    बहुत अच्छा है।

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  3. बस्ती के बाहर निकलने में चकाचौन्ध लगती ही है. और मन फिर खोल में घुस जाने को करता है.
    बहुत बढ़िया लिखा है.

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  4. वाह! बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति है। और आप इसे बेतरतीब पुकारते हैं???

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  5. बेहतरीन रचना… सागर की लहरों की तरह…
    हम तो खो गये…।

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  6. बहुत खूब नीरज। शाबाश। और लिखो। god bless you.

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