इसके लिये जमीन पर पूरा ब्लू प्रिंट सरीखा बना हुआ था और लकडी के हर ढांचे पर उसका नंबर अंकित था । बस E1 को E1 के स्थान पर रखकर E2 और E3 से जोड मिलाते हुये कीलें ठोंककर अपने स्थान पर जमा दो । कील ठोंकने के तीन इन्तजाम थे । बडी कीलों (तकरीबन २.५ इंच लम्बी) के लिये Nail Gun थी । इस Nail Gun को आप एक स्टेपलर की तरह समझ लें जो लकडी में लम्बी लम्बी कीलों को एक झटके में लगा देती थी । दूसरी Nail Gun इससे भी खतरनाक थी, इसका काम लम्बी (तकरीबन ३.५ इंच लम्बी) कील को लकडी से होते हुये कंक्रीट के चबूतरे में फ़िक्स करना था । इसके क्रियाविधी एकदम बन्दूक के जैसी थी, इसमें बन्दूक की मैगजीन की तरह बारूद की एक मैगजीन लगती है । ट्रिगर दबाने से बारूद में विस्फ़ोट होता है और इससे उत्पन्न हुआ दवाब कील को लकडी से होती हुये कंक्रीट में पैबस्त कर देता है । इसके बाद वाला काम सबसे मेहनत का था जिसमें छोटी छोटी कीलों (१.५ इंच) को हाथ के हथौडे से नियत स्थान पर बैठाना था । जैसा कि आप ऊपर वाले चित्र में देख सकते हैं । आज मैने कम से कम १२०-१५० कीलों को अपने मजबूत हाथों से उनके स्थान पर लगाया :-)
आज ह्यूस्टन की गर्मी अपने चरम पर थी और तापमान लगभग ४० डिग्री और आद्रता (Humidity) ६० प्रतिशत थी । हम लोगों के लिये ठंडे पानी का बंदोबस्त था । आज ४ अलग अलग मकानों पर काम चल रहा था और विभिन्न समूहों के लगभग ८० लोग काम पर लगे हुये थे । कुछ लोग सपरिवार आये हुये थे जिनसे मिलकर बडा अच्छा लगा । ह्यूस्टन की एक बडी दुकान (Mattress Firm) के लगभग २५ लोग साथ में आये हुये थे जिसमें काफ़ी लडकियाँ भी थी जो कन्धे से कन्धे मिलाकर लकडी उठा रही थीं और कील पर बेरहमी से हथौडा पटक रही थीं :-)
हम लोगों ने खुली धूप में सुबह ७ बजे से दोपहर १२ बजे तक काम किया और फ़िर "हैबिटेट फ़ॉर ह्यूमैनिटी" वालों ने गर्मी के चलते काम बन्द करवा दिया । इसके बाद हम सब लोगों ने साथ बैठकर अपने सैंडविच खाये और फ़िर घर वापिस लौट गये । हमारे स्कूल के साथियों ने अगस्त में फ़िर से एक बार यहाँ आकर काम करने का फ़ैसला लिया और सभी ने इसे ध्वनिमत से स्वीकार किया । बाकी आप फ़ोटो देखकर खुद ही समझ जायेंगे ।
जब ये मकान बनकर पूरी तरह तैयार हो जायेगा तो कुछ ऐसा दिखेगा ।
नीरज भाई आपने बड़े काम की पोस्ट लिखी है.
जवाब देंहटाएंभारत में सस्ता घर बड़ी समस्या हो गयी है. देश के कुछ हिस्सों में ऐसे प्रयोग हुए हैं लेकिन ऐसे प्रयोगों को ज्यादा विस्तार नहीं मिला है.
शहरों में तो बड़ी समस्या जगह की है लेकिन गांवों में अपना आशियाना न बना पाने का सबसे बड़ा कारण धनाभाव है. अगर ऐसी तकनीकि भारत के गांवों को मिल जाए तो गरीबी का प्रतीक बन चुके ग्रामीण आबादी की बड़ी समस्या का निदान हो जाएगा. इसका हमारे भारत की ग्रामीण आबादी और उसके पलायन पर भी असर होगा. आज भी अधिकांश लोग शहरों से पैसा कमाकर लौटते हैं तो घर बनाने में निवेश करते हैं. फिर भी बिल्डिंग मैटिरियल इतना मंहगा है कि सपना सपना ही रह जाता है.
भारत में घर बनाने की अपनी तकनीकि है और हर इलाके की एक विशिष्ट शैली और विधा है. उसको संभालते हुए नयी तकनीकि और सस्ते मैटिरियल की बात जोड़ दी जाए तो क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकते हैं.
आशा है आप आगे भी इस विषय पर लिखेंगे. और कोई सामग्री, जानकारी उपलब्ध हो और आप उपलब्ध कराएंगे तो खुशी होगी.
sanjaytiwari07@gmail.com
ओह, भारतीय मानसिकता में पहले मैं शीर्षक गलत पढ़ गया - "एक दिन की मजदूरी की सजा!"
जवाब देंहटाएंजब पूरा पढ़ा और चित्र देखे, तब कपाट खुले।
क्या बढ़िया काम है। "हैबिटेट फ़ॉर ह्यूमैनिटी" जैसी संस्था यहां हो तो हम भी यह महत्वपूर्ण अनुभव लेना चाहेंगे।
वाह, अच्छा लगा आपका अनुभव... हम भी कुछ ऐसा पोस्ट करेंगे पर पहले कुछ कर तो लें :-)
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे नीरज भाई. आपने तो हमारा माथा गर्व से ऊंचा कर दिया.
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