सोमवार, मई 14, 2007

पौराणिक कथाओं और इतिहास के भँवर के बीच में फ़ँसा भारत (पहली किस्त)!

डिस्कलेमर: यहाँ पर प्रचारित विचार मेरी सोच प्रदर्शित करते हैं । स्वयं को इतिहास का एक आलोचक अथवा एक इतिहासविद के रूप में प्रसारित करने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं है। संभव है मेरे तर्क त्रुटिपूर्ण हों, यदि आपको ऐसा लगे तो आप अपनी टिप्पणी के माध्यम से अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं ।


इतिहास विषय मुझे सदा से अपनी ओर आकर्षित करता रहा है, लेकिन हमेशा से तारीखों को याद रख पाने की अक्षमता के कारण मैं कभी भी इतिहास में अच्छे अंक प्राप्त न कर सका। फ़िर कक्षा १० के बाद इतिहास से वास्ता छूटता गया। लेकिन अभी पिछले तीन सालों से इतिहास की ओर मेरा झुकाव फ़िर से बढा है। इस बार न तो तारीखें याद रखने का पचडा है और न ही आचार्यजी की छडी का दर्द। मेरी रूचि ईसा पूर्व के भारतीय इतिहास के परिपेक्ष्य में जन्मी और पोषित हुयी सभ्यताओं में है। इनमें मुख्य रूप से सिंधु/सरस्वती सभ्यता, वैदिक सभ्यता और इन सभ्यताओं के मध्य एशिया की सभ्यताओं के साथ के सम्बन्ध का विषय बडा ही रोचक है।

इस विषय का वैज्ञानिक अध्ययन काफ़ी कठिन है। कारण है कि ईसा पूर्व के भारतीय इतिहास में Mythology (पौराणिक कथायें) इस प्रकार घुली मिली हैं कि किसी पौराणिक ग्रन्थ के सत्य और कल्पना को अलग कर पाना अपने में एक भगीरथ कार्य है। कहीं कहीं पर इन दोनों के बीच का अन्तर बडा ही महीन है और भावनाओं के आवेग में कई इतिहासविद अपने स्वयं के विश्वास को बिना किसी प्रमाण के इतिहास के रूप में प्रतिपादित करने में जरा भी नहीं चूकते। इसके अलावा भी हमने इतिहासकारों को विभिन्न खेमों में बाँट रखा है। अगर आप मेरे साथ नहीं हैं तो आप मेरे विरोधी हैं की मानसिकता ने इतिहासविदों के कई खेमें बना दिये हैंआपने कोई ऐसी बात कही जो दूसरे के विचारों से भिन्न है तो पलक झपकते ही आपको कम्युनिस्ट अथवा संघी कह दिया जाएगा।

जहाँ एक ओर विद्वान हैं जो मानते हैं कि हिन्दू धर्म लाखों करोडों वर्ष पुराना है तो वहीं दूसरी ओर के लोग सभी धार्मिक ग्रन्थों को मात्र कल्पना की उडान से अधिक नहीं समझते। मेरी समझ में सत्य इन दोनों रास्तों के कहीं बीच में है पर विडम्बना है इस बीच के रास्ते पर कोई चलना ही नहीं चाहता। यहाँ तक तो ठीक था लेकिन इस अंतर्जाल ने सब गडबड कर दिया है। अब तो हर कोई इतिहासकार बन सकता है, आपकी योग्यता भले ही कुछ भी न हो लेकिन एक वेबसाईट बनाइये और अपना सारा अधकचरा ज्ञान वहाँ पटक दीजिये। कोई न कोई आपकी वेबसाईट खोजकर विभिन्न चर्चाओं में कट/पेस्ट करना शुरू कर देगा और देखते ही देखते बन गए आप इतिहासविद। इसके लिए एक और शार्टकट भी है, आप ऐसे मुद्दों पर लिखिये जो विवादास्पद हों। गांधी को गाली दीजिये, मैकाले को कोसिये, हर बात में अंग्रेजों की चाल बताइये, और चाहें तो इसके विपरीत भगतसिंह में कमियाँ निकालिये, सावरकर को तोलिये, सुभाष/नेहरू/पटेल के तुलनात्मक अध्ययन के बाद तो आप जो चाहें वो कह सकते हैं। कोई कसर बाक़ी रहे हो छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा तो कहीं नहीं गया है। कुल मिलाकर सब कुछ ऐसा जिससे आपका प्रोपागेंडा फ़ैल सके।

यूँ तो भारत में लगभग ५०००० ईसा पूर्व तक मानवों के रहने के प्रमाण मिले हैं, परन्तु मेरी जिज्ञासा खानाबदोश मानवों में नहीं बल्कि वहाँ से शुरू होती है जब मनुष्य ने सभ्य रूप में एक सामाजिक प्राणी के रूप में रहना प्रारंभ किया। ये विषय बडा क्लिष्ट है, क्योंकि इस अध्ययन के लिये इतिहास को हमारे विश्वास और मान्यताओं से अलग करना पडता है। उदाहरणार्थ, रामायण और महाभारत का ऐतिहासिक महत्व उनके धार्मिक महत्व से पूर्णता भिन्न है। इतिहास निर्मम होता है और केवल प्रमाण स्वीकार करता है। परन्तु ये भी सत्य है कि विश्व की सभी सभ्यताओं में सदैव विजेताओं ने इतिहास लेखन किया है और इस कारणवश वास्तविकता और कल्पना में भेद करना एक दुरूह कार्य है। इतिहासविदों के विचार में "चार बाँस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चौहान" पृथ्वीराज रासो में कवि रंगवरदाई की कल्पना मात्र है । इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है कि पृथ्वीराज चौहान ने इस प्रकार मोहम्मद गौरी का वध किया था।

एक इतिहासविद को इससे कोई कष्ट नहीँ अगर आप विश्वास करते हैं कि रामायण और महाभारत आज से हजारों लाखों वर्ष पूर्व त्रेता एवं द्वापर युग में घटित हुये थे। परन्तु यदि आप महाभारत और रामायण को इतिहास के रूप में प्रतिष्ठापित करना चाहते हैं, तो आपको ठोस प्रमाण देने होंगे। इसके अतिरिक्त ऐसे प्रमाण भी अमान्य होंगे जो तर्क के धरातल पर खडे न हो सकें। अयोध्या और मथुरा नामक नगरों की उपस्थिति रामायण और महाभारत को प्रामाणिक सिद्ध नहीं कर देती। अगर ये सत्य है तो क्या आज से हजारो साल बाद कोई भी ऐसा उपन्यास जो भौगोलिक दृष्टि से ठोस हो सत्य मान लिया जाएगा ? क्या द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखे सभी उपन्यास सत्य हो जायेंगे जो तारीखों की कसौटी पर खरे उतरेंगे ? यहाँ पर ये स्पष्ट कर देना जरुरी है कि मेरी आकांक्षा महाभारत और रामायण को उपन्यास साबित करने की नहीं है, मैं तो केवल एक पक्ष रख रहा हूँ और मेरा उद्देश्य वर्तमान में भारतवासियों की तर्क न करने की प्रवत्ति को उकेरना है।

आशा करता हूँ कि इस पोस्ट के माध्यम से अपने कुछ विचारों से मैंने आपको अवगत कराने का प्रयास किया है, इस पोस्ट की अगली कड़ी में हम कुछ और मुद्दों पर विचार करेंगे।

साभार,
नीरज रोहिला

6 टिप्‍पणियां:

  1. अ‍च्‍छी जानकारी दे रहे है।

    शुभकामनाऐं।

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  2. सरोकार जेनविन हैं..सही हैं.. लगे रहें..

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  3. बढ़िया है। आगे इंतजार है!

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  4. बेनामी7:31 am

    अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।

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  5. नीरज जी, प्रिंट मीडिया मे इस विषय पर बहुत काम हो चुका है कृपया डॉ.लालबहादुर वर्मा की पुस्तक"इतिहास के बारे मे" तथा ई.एच.कार की पुस्तक "इतिहास क्या है (what is history) अवश्य पढें.
    शरद कोकास

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