बचपन में (शायद कक्षा ६ में) एक कविता पढी थी । आज उसकी केवल कुछ पंक्तियाँ ही याद हैं । आशा करता हूँ कि ब्लाग जगत में शायद किसी के पास ये पूरी कविता हो, अगर आपके पास इस कविता के बाकी अंश हैं तो अपनी टिप्प्णी अथवा ईमेल से सूचित करें ।
कुटिल कंकडों की कर्कश रज,
घिस घिस कर सारे तन में,
किस निर्मम निर्दय ने मुझको,
बाँधा है इस बंधन में ।
फ़ाँसी सी है पडी गले में,
नीचे गिरता जाता हूँ,
बार बार इस महाकूप में,
इधर उधर टकराता हूँ ।
शनिवार, जून 23, 2007
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कविता तो नही याद है, शीर्षक शायद 'घड़ा' था।
जवाब देंहटाएंइसके लेखक कौन है
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हटाएंGhade ki Atmkatha iska shirshak he
हटाएंइसके बाद की कविता प्रस्तुत है।कविता का शीर्षक था 'घट की व्यथा'
हटाएंऊपर नीचे तम ही तम है,
बंधन है अविलंब यहाँ,
यह भी नहीं समझ में आता,
गिरकर में जा रहा कहाँ,
भगवन हाय उबार मुझे लो,
तुम्हें पुकारू मैं कब तक!
आर्त्तनाद हुआ तुरंत निमग्न नीर में,
चढ़ा जा रहा हूँ ऊपर,
परिपूरित गौरव लेकर,
उऋण हो सकूँगा क्या तमसे,
यह नव जीवन भी देकर!
Correct but title is wrong correct title is only 'ghat' h
हटाएंकविता का शीर्षक ''घट''
हटाएंलेखक सियाराम शरण गुप्त
मिश्रा जी शायद नही सही पहचाना,घडा ही है
जवाब देंहटाएंघड़ा नहीं'घट'था शी्र्षक
हटाएंयाद नहीं आ रहा. बता इसलिये दिया कि कहीं भरोसे में न रह जाओ. :)
जवाब देंहटाएंSumitranandan pant
हटाएंमुझे भी पता नहीं है…पर यह कविता जरुर अच्छी है…।इसे प्रस्तुत करने का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंkuch na ho toh gooogle maharaj ki sharan main jao...usko sab pata hain...try karke dekh lo waise mil toh jana chahiye......maine try kiya mujhe toh nahi mila:)....aap karo shayad mil jaye:)
जवाब देंहटाएंwaise mujhe toh peechle saal ke lessons ke naam bhi nahi yaad aapko chatti class ki itni saaro pankityaaaan yaad hain :O
kya khaaya hain bachpan main?
oh and on second thought ye kavita kaun hain;)
जवाब देंहटाएंकविता का शॅर्षक है घट
जवाब देंहटाएंसातवीं क्लास में थी।
हमको याद भी है पूरी लेकिन नेट पर देखिये पूरी है।
कुटिल कंकडों की कर्कश रज,
जवाब देंहटाएंघिस घिस कर सारे तन में,
किस निर्मम निर्दयी ने मुझको,
बाँधा है इस बंधन में।
फांसी सी है पड़ी गले में,
नीचे गिरता जाता हूँ,
बार बार इस महाकूप में,
इधर उधर टकराता हूँ।
ऊपर नीचे तम ही तम है,
बंधन है अवलम्ब यहाँ,
ये भी नहीं समझ में आता,
गिरकर मैं जा रहा कहाँ।
काँप रहा हूँ विवश करूँ क्या,
नहीं दीखता एक उपाए,
ये क्या ये तो श्याम नीर है,
डूबा अब डूबा मैं हाय।
चला जा रहा हूँ ऊपर अब,
परिपूरित गौरव लेकर,
क्या उऋण हो सकूँगा मैं,
ये नवजीवन भी देकर?
-- सुमित्रानंदन पन्त
dhanyavaad
हटाएंधन्यवाद। मै बहुत समय से इस कविता को ढूॅढ रही थी
हटाएंSumitra nanndan pant nahi, kavita Siyaram Sran gupt ne rahi hai
हटाएंRight Right,Right
हटाएंइस कविता को सुमित्रा नंदन पन्त ने नहीं, मैथिलीशरण गुप्त के अनुज सिया राम शरण गुप्त ने लिखा है
हटाएंसही कहा है।
हटाएंकविता का शीर्षक 'घट '।
जवाब देंहटाएंभगवन हाय उबार मुझे लो तुम्हें पुकारू में कब तक
जवाब देंहटाएंहुआ तुरन्त निमग्न नीर में आर्तनाद करके तब तक।
..डूबा अब डूब में हाय के बाद..ये और है..याददाश्त पर आधारित..यदि
भगवान हाय उबार मुझे लो
जवाब देंहटाएंतुम्हें पुकारूं मैं जब तक
हुआ तुरंत निमग्न नीर में
आर्त नाद करके तब तक
आज देश की जनता व इकोनॉमि की यही हालत। कविता शायद मैथिली शरण गुप्त ने लिखी है
जवाब देंहटाएंKavi ka nam Tha Siyaram saran gupt
जवाब देंहटाएंनीचे ऊपर तम ही तम है,
जवाब देंहटाएंनहीं कोई अवलम्ब यहाँ ।
नहीं दीखता कोई उपाय ,
गिरकर मै जा रहा कहाँ ।
भगवन् हाय उबार मुझे लो,
तुम्ह पुकारुँ मै जब तक ।
हुआ तुरन्त निमग्न जल से ,
परिपूरित गौरव लेकर ।
हिंदी साहित्य के सृजन हाथों यह कविता मुझे चालीस वर्षों से भी ज्यादा समय से प्रेरणा दे रही है जीवन में कभी ऐसा समय भी आता है जब व्यकति समय के हाथों मजबूर हो जाता है वो चाहकर भी उन परिस्थितियों से निकल नहीं पाता है ऐसे समय में यह कविता अत्यन्त प्रेरणा दायक है।
जवाब देंहटाएंकरता चरित हो सकूंगा मैं तुमसे यह।।।।।।।
जवाब देंहटाएंइस कविता के कवि का नाम याद नहीं लेकिन कविता मुझे अक्षरशः शीर्षक सहित कंठस्थ है जो इस प्रकार है
जवाब देंहटाएंमिट्टी का घड़ा
कुटिल कंकड़ों की कर्कश रज
मल मल कर सारे तन में
किस निर्मम निर्दय ने मुझको
बांधा है इस बंधन में
फाँसी सी है पड़ी गले में
नीचे गिरता जाता हूँ
बार बार इस अंधकूप में
इधर उधर टकराता हूँ
ऊपर नीचे तम ही तम है
बंधन है अवलंब यहॉं
यह भी नहीं समझ मे आता
गिरकर मैं जा रहा कहाँ
काँप रहा हूँ भय के मारे
हुआ जा रहा हूँ भ्रयमान
ऐसे दुखमय जीवन से हा
किस प्रकार पाऊँ मैं त्राण
सभी तरह हूँ विवश करूँ क्या
नहीं सूझता एक उपाय
यह क्या, यह तो अगम नीर है
डूबा अब डूबा मैं हाय
भगवन आन बचा लो अब तो
तुम्हें पुकारूँ मैं जब तक
हुआ तुरंत निमग्न नीर में
आर्तनाद करके तब तक
अरे कहाँ वह गई रिक्तता
भय का भी अब पता नहीं
गौरव वान हुआ हूँ सहसा
बना रहूँ तो क्यों न यहीं
पर मैं ऊपर चढ़ा जा रहा
उज्ज्वलतम अब जल लेकर
तुमसे उऋण नहीं हो सकता
यह नवजीवन भी देकर
Purtya galat h
हटाएंलेखक का नाम सुमित्रानंदन पंत है
हटाएंगिरकर में ...........
जवाब देंहटाएंकॉप रहा हूँ विवश करू क्या,
नहीं दिखता कोई उपाय,
हाय! ये क्या ये तो श्याम नीर है,
डूबा अब डूबा में हाय,
आर्तनाद..........
ये पद्य छूट गया था।
सत्य हैं.
हटाएंकल्पना रामानी जी को धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंYh kvita hamne 5th me pdhi thi ssgupt or ms gupt ne likhi hai
जवाब देंहटाएंसियाराम शरण गुप्त की कविता हैं एसा स्मरण हैं.
जवाब देंहटाएंसुमित्रा नंदन जी ने शायद इसी विषय पर फिर से लिखी हो, क्यूंकि सियाराम जी की भाषा इतनी संस्कृतनिष्ठ नहीं थी, पंक्तियों में बदलाव भी लगता है. एसा संभव है कि मूल कविता अथवा संदर्भ संस्कृत से हो जहां अनेक कवियों ने कलम चलाई हो.
इसका शीर्षक मिट्टी का घड़ा ही याद हैं.
जवाब देंहटाएंपूरी कविता को फिर से एक्त्रित करके पुराने परिप्रेक्ष्य से फिर से दोबारा लिखा जाय तो अच्छा रहेगा
जवाब देंहटाएंकविता का शीर्षक घट सियाराम शरण गुप्त ने लिखा है पूरी कविता इस प्रकार है|
जवाब देंहटाएंकुटिल कंकडो़ की कर्कश रज
घिसघिस कर सारे तन में
किस निर्मम निर्दय ने
मुझको बांधा हैं इस बंधन में
फांसी सी है पडी़ गले में
नीचे गिरता जाता हूँ
बार बार इस महा कूप में
इधर उधर टकराता हूँ
ऊपर नीचे तम ही तम है
बंधन है अवलंब यहाँ
कुछ भी नही समझ में आता
गिरकर मैं जा रहा कहाँ
काँप रहा हूँ विवश करू क्या
नही सूझता एक उपाय
यह क्या यह तो स्यामनीर है
डूबा अब डूबा मैं हाय
भगवन हाय उबार मुझे लो
तुम्हे पुकारू मैं जब तक
हुआ तुरंत निमग्न नीर मैं
आर्तनाद करके तब तक
चढ़ा आ रहा हूं ऊपर को
परिपूरित गौरव लेकर
उऋण हो सकूंगा क्या तुम से
यह नवजीवन भी देकर
सियाराम शरण गुप्त , सुमित्रानंदन पन्त दो के नाम पर ही ये कविताकोश पर उपलब्ध नहीं है।
जवाब देंहटाएंhttp://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE_%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%A3_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4
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जवाब देंहटाएंये कविता पढ़ी थी पर याद नहीं है। इस अध्याय में अवलम्ब और अविलम्ब के अन्तर पर भी एक प्रश्न था वो भी याद. इसमें एक मित्र ने अविलम्ब लिख दिया जो गलत है।
जवाब देंहटाएंसभी उत्तर पढ़कर , मुझे ये लगता है "भगवन हाय उबार मुझे लो" वाली पक्तियों के स्थान गलत हो गया है (पर पूर्ण विश्वास से नहीं कह सकता ). मेरे विचार से सही क्रम ये है।
कुटिल कंकडों की कर्कश रज,
घिस घिस कर सारे तन में,
किस निर्मम निर्दयी ने मुझको,
बाँधा है इस बंधन में।
फांसी सी है पड़ी गले में,
नीचे गिरता जाता हूँ,
बार बार इस महाकूप में,
इधर उधर टकराता हूँ।
ऊपर नीचे तम ही तम है,
बंधन है अवलम्ब यहाँ,
ये भी नहीं समझ में आता,
गिरकर मैं जा रहा कहाँ।
काँप रहा हूँ विवश करूँ क्या,
नहीं दीखता एक उपाए,
ये क्या ये तो श्याम नीर है,
डूबा अब डूबा मैं हाय।
भगवन् हाय उबार मुझे लो,
तुम्ह पुकारुँ मै जब तक ।
हुआ तुरंत निमग्न नीर मैं
आर्तनाद करके तब तक।
चला जा रहा हूँ ऊपर अब,
परिपूरित गौरव लेकर,
क्या उऋण हो सकूँगा मैं,
ये नवजीवन भी देकर?
कुटिल कंकडों की कर्कश रज, घिस घिस कर सारे तन में, किस निर्मम निर्दयी ने मुझको, बाँधा है इस बंधन में। फांसी सी है पड़ी गले में, नीचे गिरता जाता हूँ, बार बार इस महाकूप में, इधर उधर टकराता हूँ। ऊपर नीचे तम ही तम है, बंधन है अवलम्ब यहाँ, ये भी नहीं समझ में आता, गिरकर मैं जा रहा कहाँ। काँप रहा हूँ विवश करूँ क्या, नहीं दीखता एक उपाए, ये क्या ये तो श्याम नीर है, डूबा अब डूबा मैं हाय। चला जा रहा हूँ ऊपर अब, परिपूरित गौरव लेकर, क्या उऋण हो सकूँगा मैं, ये नवजीवन भी देकर? - सुमित्रानंदन पन्त
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