आज पंकज की पोस्ट ने पढते पढते बहुत भावुक कर दिया। वैसे तो फ़्रेंडशिप डे जैसे त्योंहारों की कोई जरूरत नहीं लेकिन अकेलेपन में बैठे बैठे जब पुराने दिनों को याद करते करते आंखे नम हो जायें तो कोई चारा नहीं।
वैसे तो जरूरत नहीं है इन त्योंहारों की लेकिन एक मौका मिल जाता है आंख बन्द करके पुराने दिनों को जीने का और शायद कोई कसक कहीं कम सी हो जाती है।
बाकी भी बहुत यादें हैं जो जेहन के किसी बक्स में बन्द हैं, शायद किसी और रोज निकल के चौंका दें।
खैर, चिट्ठे पर बहुत पर्सनल कभी नहीं लिखता लेकिन शायद ये क्रम जल्दी ही तोडना पडे, तब तक के लिये एक ऐसा नगीना सुनिये जो हमारे दिल के बहुत करीब है।
हाय दईया,
कहाँ गये वे लोग, बृज के बसईया...
न कोई संगी, न कोई साथी...
न कोई सुध का लेवईया...
कहाँ गये वे लोग....
स्वर लहरी फ़िर से मुंशी रजीउद्दीन और उनके बेटों फ़रीद अयाज और अबु मोहम्मद की हैं।
रविवार, अगस्त 01, 2010
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