मंगलवार, अक्तूबर 27, 2009

हिन्दी ब्लागिंग का प्रसार दीप्ति के माध्यम से भी हो सकता है !!!

आज अपने चिट्ठे पर किसी और की पुरानी पोस्ट प्रकाशित कर रहा हूँ। दीप्ति ध्यानी कालेज में हमसे दो वर्ष कनिष्ठ थीं और कम्प्यूटर साईंस की छात्रा थीं। कालेज में शायद ही कभी उनसे बात हुयी हो लेकिन कालेज से निकलने के बाद बातचीत शुरू हो गयी। दीप्ती भी आज की उस युवा पीढी से ताल्लुख रखती हैं जिन्हे बात बात पर पथभ्रष्ट और संस्कृतिविहीन मान लिया जाता है अगर हम अपने व्यवहार से उसको गलत साबित न करें तो। यानि की संस्कृति सम्पन्न सिद्ध करने की जिम्मेदारी हमारी बनती है। खैर ये विषयान्तर हो जायेगा...दीप्ति के चिट्ठे का नाम है Forgot to grow up!!!

एक और महत्वपूर्ण बात ये कि कुछ ही दिनों पहले दीप्ति और अंशुल पुनेथा का विवाह होना पक्का हुआ है और ये दोनो ६ फ़रवरी को अपने दाम्पत्य जीवन का प्रारम्भ करेंगे। दीप्ति और अंशुल को मेरी ओर से ढेर सारी शुभकामनायें।


दीप्ति ने अभी कुछ दिन पहले बडी मेहनत करके हिन्दी में एक पोस्ट लिखी और उस पोस्ट के भावों को संक्षेप में लिखने के स्थान पर मैं उसकी इज़ाजत से पूरी पोस्ट ही यहाँ छाप रहा हूँ। आशा है आगे भी दीप्ति हिन्दी अथवा हिन्दी/अंग्रेजी मिश्रित पोस्ट लिखती रहेंगी।
अगर आपको टिप्पणी देने की इच्छा हो तो दीप्ति की पोस्ट पर ही दें। दीप्ति को इस पोस्ट को लिखने में कई घंटे लग गये और वो सुबह के ४:३० बजे तक लिखती रही। बहुत मेहनती लडकी है, ;-)

आज शुक्रवार की शाम है.....ऑफिस में विशेष काम था नहीं, तो हमारे दिमाग में भांति भांति के विचार आने लगे; जब से नौकरी करना शुरू किये हैं, शुक्रवार नामक इस दिवस ने ज़िन्दगी में एक अलग ही स्थान प्राप्त कर लिया है; शुक्रवार की शाम आते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है, आगे दो दिन की छुट्टी है....ऐसे लगता है मानो बस इन्ही दो दिन का इंतज़ार था..अब हम विश्व विजय कर लेंगे....वो सारे काम, जिनका चिटठा लिए हम हफ्तों से घूम रहे हैं; इसी सप्ताहंत में सभी का निर्वाह करके, आनंद और कर्त्तव्य परायणता की चरम सीमा को छू लेंगे...:) अगर पिछले दो सालों पर नज़र डालें तो विरले ही ऐसे सप्ताहंत रहे हैं जहाँ हमने खुद से किये गए कुछ वायेदों को निभाया है; अमूमन शनिवार और रविवार घर पे ही आराम फरमाते हुए, बचे हुए कुछ कामों को थोडा सा अंजाम के और करीब पहुंचाते हुए निकल जाते हैं; किन्तु शुक्रवार की शाम को जो मन मयूर में माहौल होता है..उसमे कोई विशेष अंतर नहीं आया है ..:)...आज ऐसे ही मन में विचार आ रहा था...कि क्या शुक्रवार सचमुच इतना मत्वपूर्ण होता है??? ....सांख्यिकी को अगर ध्यान में रखा जाए तो ९०% लोग ऐसे होंगे जो सप्ताह में इतना काम करते हैं, जिसे की सामान्य ऊर्जा स्तर से इति की ओर पहुँचाया जा सकता है ..और जिसके बाद २ दिन के अविघ्नकारी अवकाश की आवश्यकता नहीं होती....किन्तु हमारा मन मस्तिष्क इस तरह से यंत्रस्थ किया जा चुका है कि अगर ऊपर से निर्देश आ गए की इस शनिवार/ रविवार आपको ऑफिस आना पड़ सकता है, तो हम मानसिक रूप से ही इतने थक जाते हैं कि काम क्या ही हो पाता है....

Ok, as I write this post i realise, that I have lost all my grip over Hindi..:(...framing one sentence is taking more than 2 minutes, which by all standards is too too much, needless to mention the help from some random site and kind souls like N. I remember, there use to be a time when I was more of a Hindi person. Writing in our mother tongue came all very naturally. In addition to scoring highest marks in Hindi literature and grammar ..I use to be an active member of Hindi debate and writing club..:( .English was something which needed efforts, I still remember my first essay in English in class IV....I was disqualified from participating in a district level essay competetion as I committed some gross mistakes in my writing on "The Gulf War"-1991 (mistakes are too embarrassing to be mentioned here..:))....the remainder of this post has to be in Hindi...no matter how much time it takes.... "Shukra hai Shukravaar hai" can take a back seat...I guess I am more tempted to go down the "Hindi" memory lane :)

हमारी पीढी के अधिकाँश उत्तर भारतीय बच्चों की तरह हमारे घर में भी हिंदी का ही वर्चस्व था; हमारी मातृभाषा गढ़वाली है, और अक्सर माँ एवं पिताजी गढ़वाली में वार्तालाप करते पाए जाते हैं; किन्तु रोजमर्रह कि ज़िन्दगी में, और आसपास के वातावरण में भी हिंदी ही सबसे प्राभाव पूर्ण भाषा थी; हमारी माताजी संस्कृत/ हिंदी कि अध्यापिका हैं, दोनों ही भाषाओं में निपुण हैं, एवं पिताजी अलाहबाद विश्वविद्यालय से स्नातक तो हिंदी या यूँ कहिये काफी शुद्ध हिंदी में घर में वार्तालाप हो जाया करता था... मुझे याद आता है जब मेरे भाई बहिन का कक्षा १० का परिणाम आया...और वो अपेक्षा के अनुसार नहीं था; हमेशा की भाँती दोनों समझदार बच्चे सो गए...:) सोये रहेंगे तो पिताजी के प्रवचन कम सुनने मिलेंगे.....पिताजी ने शुध्ध हिंदी में कटाक्ष किया....

" ये पलायनवादी दृष्टिकोण कोई विशेष मदद नहीं करता है जीवन में"..:D
उनके मुह से ऐसे वाक्य अक्सर सुनने मिल जाया करते थे...
" दीप्ति, तुम में व्यवहारिक ज्ञान और विवेक कि कमी है "......
" मेरी बातें तुम्हे अभी कटु लगेंगी, पर बेटा, सत्य यही है कि देर से उठने वाले जीवन में बहुत आगे नहीं जाया करते"
"समय समय पे आत्म विश्लेषण अति आवश्यक है"

ऊपर लिखीं बातों को हमने जीवन में कितना अपनाया, इस पे तो टिपण्णी नहीं करुँगी ....पर घर में शुध्ध हिंदी कोई बहुत दूर कि चीज़ नहीं थी....माताजी अक्सर हमारे गलत उच्चारण को सही कर देतीं थीं.....फूल (phool) ओर फूल (fool) में अंतर करना उन्होने ही सिखाया.....मौसियों और चाचियों ने जब अपने बच्चों के कठिन नामों (जैसे: कनिष्क) को गलत हिंदी में लिखा तो माताजी ने आगे बढ़के "श" और "ष" में अंतर बताया...कक्षा ६ से १० तक, नवीन भारती, पराग, स्वाति (हमारी हिंदी पुस्तकें) के सभी गद्य और कविताओं का भावार्थ, प्रसंग और भी न जाने क्या क्या, को अत्यंत भावपूर्ण तरीके से लिखवाने में माताजी ने कोई कसर न रख छोड़ी ; हमने भी हिंदी में उच्चतम अंक पाके, उनको गौरवान्वित किया....और १ हिंदी अध्यापिका कि सुपुत्री होने का कर्त्तव्य पूर्ण रूप से निभाया..:) खैर, कहने का तात्पर्य ये है कि आसपास अच्छी हिंदी का माहौल था.....कक्षा ११ तक हम हिंदी वाद विवाद प्रतियोगिताओं में न केवल भाग लिया करते थे..बल्कि प्रथम या द्वितीय स्थान प्राप्त करके विद्यालय के गौरव को बढाते थे... (इन प्रतियोगिताओं में शीर्षक कुछ ऐसे होते थे: भारतीय राजनीति में धर्मं का हस्तक्षेप-कितना उचित/ अनुचित) ऐसे विषयों का ६वीं कक्षा में न तो सिर समझ आता था न पैर ..:) ८-१० पन्नों का १ झुंड हमें पकडा दिया जाता था......"बेटा, ये बोलना है...."...हम ख़ुशी ख़ुशी कर्तव्यपरायणता से उसे याद कर लेते थे....और किसी भी प्रतियोगिता में जाके.....मंडल/ जिले के हिंदी विद्वानों के सामने पूरे आत्मविश्वास एवं भावनाओं के साथ उगल दिया करते थे.....(Dias के पीछे hearbeats कितनी तीव्र गति से दौड़ रही होती थीं; इसका अनुमान शुक्र है किसी को कभी नहीं हुआ:) )

आज जब पीछे देखती हूँ तो याद पड़ता है...घर में १ रामायण हुआ करती थी....किसी हिंदी गाइड कि तरह दिखने वाली वो पुस्तक, २-३ भागों में थी.....हमने कक्षा २-३ में....पूरी रामायण (उत्तर रामायण सहित) ऐसे ही यहाँ वहां डोलते हुए पढ़ डाली थी (कहने कि आवश्यकता नहीं है..कि पुस्तक अत्यंत सरल हिंदी में थी)..... थोडा और बड़े हुए तो घर में रखे सभी शिवानी के उपन्यास (शिवानी हिंदी कि १ बहुचर्चित लेखिका हैं- उनकी सुपुत्री मृणाल पाण्डेय कुछ समय पहले तक हिंदी समाचार वाचिका थीं) पढ़ डाले; रुचि का १ कारण ये भी था कि सभी कहानियां/ उपन्यास गढ़वाल/ कुमाऊं का बड़ा ही रोचक वर्णन करते थे;

जब तक हम कक्षा १० में थे, घर में हिंदी अखबार नवभारत टाईम्स आया करता था; अखबार के मुख्य उपभोग्कता हमारे पिताजी थे, जो कि किसी भी दिन हिंदी भाषा से ज्यादा प्रेम/ तालुक रखते थे; स्कूल से आते ही, हम बिना change किये पहले पूरा अखबार पढ़ते....लोकल से ले कर विदेशी ख़बरों तक में सामान रुचि हुआ करती थी....फिर कक्षा ११वीं में ये अहसास हुआ, कि reading an English newspaper would any day be more beneficial:))..तो घर में टाईम्स ऑफ़ इंडिया भी आने लगा.....उसमे भी हमारी रुचि बस सन्डे टाईम्स में ही रहती थी....बाकी का अखबार अक्सर खाना खाते हुए बिछाने के काम आता था या अपनी अलमारी में किताबों के नीचे बिछाने के..:) इसी बीच हमने कहीं Readers' Digest और CSR देख लीं..:)..तो घर में वो भी आने लगीं.....ये दोनों ही बड़े मन से पढ़े जाते थे.... (Readers' Digest deserves a complete post in itself-its one of the most captivating reads I have ever come across).
खैर, हिंदी भाषा से ताल्लुक शायद वहीँ तक था; इधर हम घर से बाहर निकले जीवन में कुछ कर दिखाने के लिए..:P...उधर मातृभाषा से तार टूटने से लगे....इंजीनियरिंग कॉलेज में आके पहले दो साल तो "कुछ भी नहीं पढ़ा"..:D..उसके बाद जब लगा कि अब आगे क्या.......तो MBA रुपी जीव सामने दिखाई पड़ा........बस....तब से जो अंग्रेजी भाषा से नाता जुडा है..आज आलम ये है कि......इस पोस्ट को लिखने में इस साईट से लेके श्री N का सहारा लेना पड़ा......फाइनल इयर में The Hindu , आसपास पायी जाने वालीं सभी अंग्रेजी magazines पढ़ी जाने लगीं.....हर वो लेख जो कि कठिन हो, जिसका सिर, पैर ना समझ आ रहा हो....उसपे शोध होने लगा... TOI का एडिटोरिअल जो मैं पूरे होशो हवास में मुश्किल ही पढ़ती हूँ कभी, पूरी शिद्दत एवं तल्लीन्त्ता से रुचि लेके पढ़ा जाने लगा...

जीवन तो इन सब में पता नहीं कितना सुधरा है....पर इतना ज़रूर है कि....हिंदी से कहीं नाता टूट गया लगता है इस बार घर गए, तो प्रेमचंद की गोदान रखी मिली १ शेल्फ में पूरे जोश से उसे तुंरत बैग में डाला. ..ये पढ़नी है....आज ६ महीने हो गए हैं किताब लाये हुए घर से......मुश्किल से ५० पन्ने पढ़ पाए हैं...:( रुचि पूरी है...पर पढने की गति इतनी चरमरा गयी है कि अब उठाने का मन ही नहीं करता....:( भाषा कोई भी हो..अपने आप में बहुत आदरणीय होती है .....किन्तु मातृभाषा में जब लिखने/ पढने में कठिनाई होने लगे तो कहीं ये बात दिल को अखरती ज़रूर है;
PS:
१. Thanks to N, for being the शब्द kosh for writing this post :)
२. गोदान शीघ्रातिशीघ्र ख़तम कर ली जायेगी.....कितना भी समय क्यूँ न लगे...:)
३. शीर्षक का लेख से कोई सम्बन्ध नहीं है....शीर्षक twitter से उठाये गए कुछ वार्तालापों का मिश्रण है:)
४. पूरे लेख में पूर्णविराम की जगह ";" लगाना पड़ा है...:( ब्लॉग पूर्णविराम दिखा नहीं रहा है पोस्ट :(
ये लेख लिखते हुए सुबह के ४:३० हो गए.....निम्न वर्णित गीत ने काफी साथ दिया tempo बनाये रखने में.....इसे अवश्य सुने.....:)
http://www.youtube.com/watch?v=XJJv83-5EyQ
cheers :)

दीप्ति ध्यानी

सोमवार, अक्तूबर 26, 2009

अक्टूबर का गीला दिन, किशोरी और हमारी वापिसी !!!

आज सुबह नींद खुली तो देखा कि झमाझम बरसात हो रही है। ११ बजे तक पडे ऊँघते रहे और तर्क दिया कि जब घडी का आविष्कार नहीं हुआ होगा तो लोग रोशनी देखकर ही उठते होंगे और अभी रोशनी से लग रहा है कि सुबह का ५ बजा है। 

जब आत्मा पर बोझ बढने लगा और भूख से पेट सिकुडने लगा तो उठे, तैयार हुये और देखा कि घर में खाने का एक दाना भी नहीं है। खुश हुये कि चलो अब पका पकाया खायेंगे, बरसात में भीगते एक रेस्तराँ से खाना खाकर भीगते हुये अपने गरीब-रथ तक पंहुचे। आप सोच रहे होंगे कि हमने साथ में छाता क्यों नहीं लिया । हमने भी यही सोचा और अपने अजायबखाने रूपी घर में ५ मिनट तक छाता खोजा भी, लेकिन उसके बाद निष्कर्ष निकाला कि या तो रूममेट उठाकर ले गया होगा, अथवा किसी को उधार देकर भूल गये होंगे अथवा लैब में पडा हमारी डेस्क की शोभा बढा रहा होगा।

खैर झमाझम बारिश के बीच में अपने गरीब-रथ का बाजा चालू किया तो मानो बादलों के बीच बैठी श्रीमती किशोरी अमोनकर इसी क्षण का इन्तजार कर रही थीं। उनके स्वर से जब "मेहा झर झर बरसत रे" सुना तो तुरन्त पोस्ट लिखने का मन भी बना लिया। अपने रथ को एक कोने में रोककर बरसात के बीच में "मेहा झर झर बरसत रे" का आनन्द लिया और उसके बाद अपनी लैब में नमूदार हुये। आप भी इस गीत को सुनिये।



अब पोस्ट लिखने के बहाने पिछले कुछ महीनों का लेखा जोखा भी दे दें। ८ सितम्बर को जब हम भारत आये थे तो सोचा था कि ये करेंगे वो करेंगे, इससे मिलेंगे, उससे मिलेंगे आदि आदि इत्यादि। लेकिन ये सभी चुनावी वादे/विचार साबित हुये। और समझ भी आया कि हर काम को भारत यात्रा पर टाल देना अच्छी बात नहीं है क्योंकि घर वाले भी ऐसे ही चुनावी वादे कर चुके होते हैं।

जाहिर है घर वालों के वादे वादे होते हैं और हमारे वादे भांग के नशे में कहे गये शब्द अथवा ब्लागर मीट में लिये गये संकल्प, ;-) इसके चलते हमारे कई वादे कत्ल हो लिये। दिल्ली में रचना से मिलने का कार्यक्रम था जो सिर्फ़ फ़ोन पर बातचीत पर सीमित रह गया। गाहे बगाहे (ताना-बाना) वाले विनीत से बात करके मन खुश हुया और उनके शोधकार्य के बारे में सुनकर बहुत अच्छा लगा। पी.डी. तो भरे बैठे थे, हमने फ़ोन पर पहले ही माफ़ी मांग ली और उनके तलवार उठाने के पहले ही उनकी शादी की बात करके मामले को नया मोड दे दिया। मुम्बई वासी अभय तिवारी जी से बात हुयी और पता लगा कि वो असल में फ़रूखाबादी हैं और चूंकि हम एक बार फ़रूखाबाद गंगा नहाने जा चुके हैं तो उन पर अपनी करीबी जाहिर कर दी। उनसे नियमित लिखने का वायदा भी लिया गया। ज्ञानदत्त पाण्डेय जी के फ़ोन की घंटी बजाने के प्रयास कई बार असफ़ल रहे, सम्भवत: वो व्यस्त रहे हों अथवा अनूप जी ने हमें गलत नम्बर दे दिया हो अथवा ये BSNL वालों का हमारी उनसे बात न होने देने का षणयन्त्र (षणयंत्र ?) रहा हो।

खैर इस बार भी घर वालों ने ध्यान नहीं दिया और हम कुंवारे ही रह गये, ;-)
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फ़िर भी कम निकले।

इस छुट्टियों में हिमालय यात्रा की गयी लेकिन उसकी रिपोर्ट अंकुर वर्मा के जिम्मे...

ह्य़ूस्टन वापिसी के बाद:

भारत में जब तक रहे दौडने से रिश्ता टूट चुका था, फ़िर से रिश्ता जोडने की कोशिश अभी भी चल रही है। ९ अक्टूबर की रात को ह्य़ूस्टन लौटते ही हमने ११ अक्टूबर की सुबह १० मील (१६ किमी) वाली दौड दौडने का निश्चय किया। जैट लैग के चलते न तो ठीक से सो पाये और १ दिन में न ही थकान उतर पायी। खैर सुबह दौडना शुरू किया तो ३ मील तक तो ठीक था लेकिन उसके बाद टांगो ने विद्रोह कर दिया। बडे कष्ट में अगले ७ मील गुजरे और जिस दौड को ७० मिनट में समाप्त करने की इच्छा थी वो ७१ मिनट और २१ सेकेंड्स में समाप्त हुयी। ये फ़ोटो गवाह है कि हमने आखिरी ७ मील किस दर्द में पूरे किये।

(आऊच, बहुत दर्द हो रहा है)


इसके बाद हमने अगले दो हफ़्ते धीरे धीरे दौडने से अपना टूटे रिश्ते के तार धीरे धीरे जोडे और कल एक हाफ़-मैराथन (२१.१ किमी) दौडी। ये दौड अच्छी रही क्योंकि इसमें हमने अब तक का अपने सर्वोत्तम समय दर्ज किया। हमने इसे १ घंटा ३२ मिनट और ५६ सेकेंड्स में पूरा किया। हाफ़-मैराथन के लिये हमारा पिछला सबसे अच्छा समय १ घंटा ३४ मिनट और ४१ सेकेंड्स था। इस दौड के अंतिम ३ मील कष्टप्रद रहे लेकिन हमने अपने मित्र और ट्रेनिंग पार्टनर डेविड पाईपर को ४० सेकेंड्स से पीछे छोडा। ध्यान रहे पिछली २ दौडों में डेविड ने हमारी वाट लगा रखी थी, ;-) अब मामला बराबरी पर है।
अगली दौड २५ किमी की है जो २ हफ़्ते बाद है, जैसा कि हम आपस में कहते हैं The bet is ON David...

कल की दौड के सबक हैं कि हमें अपनी रनिंग फ़ार्म को सुधारना है। कन्धे सीधे रहने चाहिये और कदम एकदम मशीनी एकुरेसी के साथ पडने चाहिये। हम तीन फ़ोटो दिखाते हैं। एक हमारा है, एक डेविड का है और एक ट्वांग का है जो हमारे स्तर से बहुत ऊँचे धावक हैं तेज रफ़्तार पर भी उनकी रनिंग फ़ार्म देखिये, देखकर ही मन खुश हो जाता है।


चलिये, अब विदा दीजिये...अब नियमित पोस्ट छापते रहेंगे, अगर कोई पढने वाला है तो, ;-)


                   (७१९ नंबरी नीरज)


                  (२२३४ नंबरी डेविड)

          (और ३८ नंबरी ट्वांग, क्या बात है)