अनीताजी ने अनूप जलोटाजी के स्वर में रामचरितमानस सुनने की आकांक्षा व्यक्त की थी । उनके आदेश पर एक प्रसंग प्रस्तुत कर रहा हूँ । यदि अन्य पाठकगण इसे पसन्द करेंगे तो ये कडी आगे भी जारी रहेगी ।
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दो०-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥२६५॥
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तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥१॥
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥२॥
जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥३॥
बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई॥४॥
दो०-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥२६६॥
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बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥१॥
लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥
हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥२॥
कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥३॥
रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥४॥
दो०-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥२६७॥
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खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा॥१॥
देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥२॥
सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥३॥
बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥४॥
दो०-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।
धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥२६८॥
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देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥१॥
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥२॥
आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं॥
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥३॥
रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥४॥
दो०-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर॥
पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥२६९॥
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समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥
सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥१॥
अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥२॥
अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥३॥
मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥४॥
दो०-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥२७०॥
मासपारायण, नवाँ विश्राम
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नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥१॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥२॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥३॥
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥४॥
दो०-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार॥
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥२७१॥
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लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तौरें। देखा राम नयन के भोरें॥१॥
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू ।
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥२॥
बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥३॥
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥४॥
दो०-मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥२७२॥
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बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥१॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥२॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥३॥
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥४॥
दो०-जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥२७३॥
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कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥
भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू॥१॥
काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥२॥
लखन कहेउ मुनि सुजस तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥३॥
नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥४॥
दो०-सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥२७४॥
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तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥१॥
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥२॥
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥३॥
उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥
न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥४॥
दो०-गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥२७५॥
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कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥१॥
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥२॥
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही॥३॥
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाढ़े॥
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥४॥
दो०-लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥२७६॥
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नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥१॥
जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥२॥
राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसकाने॥
हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी॥३॥
गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं॥
सहज टेढ़ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मौहीं॥४॥
दो०-लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥२७७॥
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मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
टूट चाप नहिं जुरहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥१॥
जौ अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड़ गुनी बोलाई॥
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥२॥
थर थर कापहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होइ बल हानी॥३॥
बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा॥
मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसैं॥४॥
दो०- सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥२७८॥
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अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥१॥
बररै बालक एकु सुभाऊ। इन्हहि न संत बिदूषहिं काऊ॥
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी में नाथ तुम्हारा॥२॥
कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई॥
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥३॥
कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
एहि के कंठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं काह कोपु करि कीन्हा॥४॥
दो०-गर्भ स्त्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥२७९॥
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बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती॥
भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥१॥
आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्र बिहसि सिरु नावा॥
बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥२॥
जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥
देखु जनक हठि बालक एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू॥३॥
बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृप ढोटा॥
बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥४॥
दो०-परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥२८०॥
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बंधु कहइ कटु संमत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा॥१॥
छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही॥
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसकाहिं रामु सिर नाएँ॥२॥
गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू॥
टेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू॥३॥
राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
जेंहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानि आपन अनुगामी॥४॥
दो०-प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥२८१॥
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देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा॥१॥
जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥२॥
हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा॥३॥
देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥४॥
दो०-बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम॥२८२॥
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निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु॥१॥
समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥२॥
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा॥३॥
राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना॥४॥
दो०-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥२८३॥
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देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ॥१॥
छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना॥
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥२॥
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥३॥
राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥४॥
दो०-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात॥२८४॥
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जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥१॥
रविवार, मार्च 23, 2008
शनिवार, मार्च 22, 2008
परदेश की होली का आँखो देखा हाल !!!
राईस विश्वविद्यालय में भारतीय विद्यार्थी संघ ने हर साल की तरह इस बार भी होली का आयोजन किया । इस प्रविष्टी में हम आपको इस भव्य आयोजन का आंखो देखा हाल तस्वीरों के साथ पेश कर रहे हैं ।
कल रात को हम अपने तीन अन्य मित्रों के साथ बालीवुड की बहुचर्चित फ़िल्म "रेस" देखने गये । फ़िल्म के बारे में फ़िर कभी लेकिन रात को सोते सोते २ बज गये । सुबह १०:२० मिनट पर अलसाई आंखों से नींद खुली और याद आया कि आज तो सुबह १० बजे होली खेलने जाना था । बिस्तर पर ही अजदकी मुद्रा में दो बार पलटी मारने के बाद हाथ में मोबाईल आया । दोस्तों को फ़ोन लगाया तो पता चला कि हम ही सबसे पहले उठ गये थे, कई दोस्तों को दोस्ती का वास्ता देकर होली खेलने जाने को राजी किया । एक पुरानी सी टी-शर्ट, थोडे से फ़टे जूते और एक नया सा पायजामा पहनकर हम होली के रंग में रंगने के लिये निकल पडे ।
मेरे दोनो रूममेट में से कोई भी अपनी कार निकालने को तैयार नहीं था (एक की गाडी में तेल खत्म हो गया था तो दूसरी की में कुछ और गडबड थी :-) )। लिहाजा हमें अपने गरीब रथ को निकालना पडा और दोस्तों को ताकीद की कि कई सारे पुराने अखबार रख लो जिससे कि वापिस लौटते समय कपडे बचें तो सीट पर अखबार बिछाकर बैठ जाना वरना अखबार लपेटकर घर आ जाना :-)
जब कालेज पँहुचे तो वहाँ का दॄश्य अवर्णनीय था । एक बडे से हरे मैदान पर ७-८ लोग खडे होकर भीड जमने का इन्तजार कर रहे थे । हमने दूर से ही हाथ हिलाकर अपने आने का संकेत दिया तो देखा कि वो सभी हाथों में पानी से भरे गुब्बारे और बाल्टी में पानी लेकर हमारी तरफ़ आने लगे । हमने उनको कहा कि थोडा सब्र करो हम खुद ही तुम्हारे पास आये जाते हैं । पहले हमें गुलाल में स्नान कराया गया और उसके बाद ३-४ बाल्टी पानी डाला गया । तब तक मैदान में पानी से कीचड जैसा कुछ नहीं बन पाया था । बदन में थोडी तरावट आ गयी तो हमने भी बाकी लोगों को रंग लगाकर, गले लगाकर होली की बधाईयाँ दी ।
इसके बाद लोग आते रहे और सभी रंग, पानी और पानी भरे गुब्बारों से उनका स्वागत करते रहे । बीच बीच में कुछ विदेशी भी हमारे हल्ले में शामिल हुये और फ़िर जल्दी ही पतली गली से निकल लिये । तभी एकमत (ये हमारा ही था) से निर्णय लिया गया कि इस बार प्राकृतिक रूप से होली खेली जायेगी । पानी के दोनों पाईपों का बहाव मैदान के एक हिस्से पर केन्द्रित करने के उपरान्त थोडे ही प्रयास से मिट्टी और पानी से समागम से गीली मिट्टी कीचड जैसी दिखने लगी । अब चूँकि मिट्टी और पानी दोनो प्राकृतिक तत्व हैं इसमे मिलावट का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता है । सभी लोगों ने ध्वनिमत से हमारी सोच का समर्थन किया और हमें पहला शिकार आता दिखायी दिया ।
हमारे परममित्र होली खेलने सपत्नीक आ रहे थे । उनको मिट्टी में लेटाकर और ऊपर से ढेर सारा पानी डालकर इस महान Environmentally Friendly होली का श्रीगणेश किया गया । देखने लायक बात थी कि उनकी पत्नी ने उनको जमीन पर लेटाने और ऊपर से पानी उडेलने में हम सबका भरसक सहयोग किया । इतने पर पत्नीजी की अन्य सहेलियों ने पत्नीजी को मिट्टी में बैठाकर रंग लगाने का कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया था ।
अब किसी का कभी भी नम्बर लग सकता था । १५-२० लोगों की भीड किसी भी शख्स का नाम ले लेती थी और तुरन्त उसका हैप्पी बर्थडे मन जाता था । हमारे पुराने अनुभव ने हमें बताया कि ऐसे में जितना जल्दी नंबर लग जाये उतना अच्छा होता है । यही सोचकर जब हमारे नाम का उद्घोष हुआ तो हम स्वयं ही कीचड में जाकर बैठ गये, एक हाथ से पानी का पाईप पकडा और अपने आप को गीला कर लिया । आस पास वाले १-२ लोगों ने हम पर ३-४ बाल्टी मिट्टी का पानी डाला और हमारा होली संस्कार सम्पन्न हो गया । इसके बाद हमें किसी का भी होली संस्कार करने का लाइसेंस भी मिल गया था ।
तुरन्त नये नये तरीके आजमाये जाने लगे । दोस्तों को साथ बैठाकर, पति पत्नी को साथ बैठाकर, रिसर्च इंट्रेस्ट के हिसाब से लोगों को बैठाकर सबका होली संस्कार किया गया । मजे की बात थी कि कोई जोर जबरदस्ती नहीं थी :-) सब कुछ एक पूर्ववत घोषित कार्यक्रम की तरह चलता चला जा रहा था । इस प्रकार पानी, मिट्टी, गुलाल, मिट्टी, फ़िर गुलाल, फ़िर पानी और अन्त में कीचड के साथ सबका होली संस्कार सम्पन्न हुआ ।
अन्त में तस्वीरें जिससे सनद रहे ।
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Technorati Tags होली,के,रंग
कल रात को हम अपने तीन अन्य मित्रों के साथ बालीवुड की बहुचर्चित फ़िल्म "रेस" देखने गये । फ़िल्म के बारे में फ़िर कभी लेकिन रात को सोते सोते २ बज गये । सुबह १०:२० मिनट पर अलसाई आंखों से नींद खुली और याद आया कि आज तो सुबह १० बजे होली खेलने जाना था । बिस्तर पर ही अजदकी मुद्रा में दो बार पलटी मारने के बाद हाथ में मोबाईल आया । दोस्तों को फ़ोन लगाया तो पता चला कि हम ही सबसे पहले उठ गये थे, कई दोस्तों को दोस्ती का वास्ता देकर होली खेलने जाने को राजी किया । एक पुरानी सी टी-शर्ट, थोडे से फ़टे जूते और एक नया सा पायजामा पहनकर हम होली के रंग में रंगने के लिये निकल पडे ।
मेरे दोनो रूममेट में से कोई भी अपनी कार निकालने को तैयार नहीं था (एक की गाडी में तेल खत्म हो गया था तो दूसरी की में कुछ और गडबड थी :-) )। लिहाजा हमें अपने गरीब रथ को निकालना पडा और दोस्तों को ताकीद की कि कई सारे पुराने अखबार रख लो जिससे कि वापिस लौटते समय कपडे बचें तो सीट पर अखबार बिछाकर बैठ जाना वरना अखबार लपेटकर घर आ जाना :-)
जब कालेज पँहुचे तो वहाँ का दॄश्य अवर्णनीय था । एक बडे से हरे मैदान पर ७-८ लोग खडे होकर भीड जमने का इन्तजार कर रहे थे । हमने दूर से ही हाथ हिलाकर अपने आने का संकेत दिया तो देखा कि वो सभी हाथों में पानी से भरे गुब्बारे और बाल्टी में पानी लेकर हमारी तरफ़ आने लगे । हमने उनको कहा कि थोडा सब्र करो हम खुद ही तुम्हारे पास आये जाते हैं । पहले हमें गुलाल में स्नान कराया गया और उसके बाद ३-४ बाल्टी पानी डाला गया । तब तक मैदान में पानी से कीचड जैसा कुछ नहीं बन पाया था । बदन में थोडी तरावट आ गयी तो हमने भी बाकी लोगों को रंग लगाकर, गले लगाकर होली की बधाईयाँ दी ।
इसके बाद लोग आते रहे और सभी रंग, पानी और पानी भरे गुब्बारों से उनका स्वागत करते रहे । बीच बीच में कुछ विदेशी भी हमारे हल्ले में शामिल हुये और फ़िर जल्दी ही पतली गली से निकल लिये । तभी एकमत (ये हमारा ही था) से निर्णय लिया गया कि इस बार प्राकृतिक रूप से होली खेली जायेगी । पानी के दोनों पाईपों का बहाव मैदान के एक हिस्से पर केन्द्रित करने के उपरान्त थोडे ही प्रयास से मिट्टी और पानी से समागम से गीली मिट्टी कीचड जैसी दिखने लगी । अब चूँकि मिट्टी और पानी दोनो प्राकृतिक तत्व हैं इसमे मिलावट का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता है । सभी लोगों ने ध्वनिमत से हमारी सोच का समर्थन किया और हमें पहला शिकार आता दिखायी दिया ।
हमारे परममित्र होली खेलने सपत्नीक आ रहे थे । उनको मिट्टी में लेटाकर और ऊपर से ढेर सारा पानी डालकर इस महान Environmentally Friendly होली का श्रीगणेश किया गया । देखने लायक बात थी कि उनकी पत्नी ने उनको जमीन पर लेटाने और ऊपर से पानी उडेलने में हम सबका भरसक सहयोग किया । इतने पर पत्नीजी की अन्य सहेलियों ने पत्नीजी को मिट्टी में बैठाकर रंग लगाने का कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया था ।
अब किसी का कभी भी नम्बर लग सकता था । १५-२० लोगों की भीड किसी भी शख्स का नाम ले लेती थी और तुरन्त उसका हैप्पी बर्थडे मन जाता था । हमारे पुराने अनुभव ने हमें बताया कि ऐसे में जितना जल्दी नंबर लग जाये उतना अच्छा होता है । यही सोचकर जब हमारे नाम का उद्घोष हुआ तो हम स्वयं ही कीचड में जाकर बैठ गये, एक हाथ से पानी का पाईप पकडा और अपने आप को गीला कर लिया । आस पास वाले १-२ लोगों ने हम पर ३-४ बाल्टी मिट्टी का पानी डाला और हमारा होली संस्कार सम्पन्न हो गया । इसके बाद हमें किसी का भी होली संस्कार करने का लाइसेंस भी मिल गया था ।
तुरन्त नये नये तरीके आजमाये जाने लगे । दोस्तों को साथ बैठाकर, पति पत्नी को साथ बैठाकर, रिसर्च इंट्रेस्ट के हिसाब से लोगों को बैठाकर सबका होली संस्कार किया गया । मजे की बात थी कि कोई जोर जबरदस्ती नहीं थी :-) सब कुछ एक पूर्ववत घोषित कार्यक्रम की तरह चलता चला जा रहा था । इस प्रकार पानी, मिट्टी, गुलाल, मिट्टी, फ़िर गुलाल, फ़िर पानी और अन्त में कीचड के साथ सबका होली संस्कार सम्पन्न हुआ ।
अन्त में तस्वीरें जिससे सनद रहे ।
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(भारतीय विद्यार्थी संघ की अध्यक्षा अनुभा गोयल का होली संस्कार)
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(भारतीय विद्यार्थी संघ के उपाध्यक्षा गौतम किमि का होली संस्कार)
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(कहीं कोई जबरदस्ती नहीं, सभी पूरी मौज के मूड में थे)
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(अब दोस्तों के साथ थोडी जोर जबरदस्ती तो चलती ही है)
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(सभी होली की उमंग में घर से हजारो मील दूर, लेकिन सभी एक परिवार की तरह)
हमें उचककर अपना फ़ोटो खिंचवाते हुये देखा जा सकता है :-)
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(होली के रंग में देसी क्या और विदेशी क्या सब मस्त थे)
ध्यान दें मेहमानों को पूरे सम्मान से साथ बिना मिट्टी के होली का आनन्द लेने की छूट थी :-)
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(मौका मिले और सारी लडकियाँ एक साथ फ़ोटो न खिंचवायें, ऐसा हुआ है कभी? )
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(होली खेलने के बाद बढिया मिठाई का मजा ही कुछ और था)
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(अब दोस्तों के साथ थोडी जोर जबरदस्ती तो चलती ही है)
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(सभी होली की उमंग में घर से हजारो मील दूर, लेकिन सभी एक परिवार की तरह)
हमें उचककर अपना फ़ोटो खिंचवाते हुये देखा जा सकता है :-)
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(होली के रंग में देसी क्या और विदेशी क्या सब मस्त थे)
ध्यान दें मेहमानों को पूरे सम्मान से साथ बिना मिट्टी के होली का आनन्द लेने की छूट थी :-)
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(मौका मिले और सारी लडकियाँ एक साथ फ़ोटो न खिंचवायें, ऐसा हुआ है कभी? )
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(होली खेलने के बाद बढिया मिठाई का मजा ही कुछ और था)
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