शुक्रवार, जून 29, 2007

इंटरनेट/ब्लागजगत की आचारसंहिता के कुछ विचारबिन्दु

मैने सबसे पहले १९९९ के आस पास इंटरनेट का प्रयोग प्रारम्भ किया था । उसके कुछ महीनों बाद ही मेरे किसी मित्र ने मुझे एक पुस्तक की पी.डी.एफ़. फ़ाईल दी थी जो एक तरीके से इंटरनेट की आचारसंहिता थी । उस पुस्तक को पढने में मुझे मुश्किल से १ घंटा लगा था लेकिन उसके दिशानिर्देशों को मैं आज भी उपयोग में लाता हूँ ।

इंटरनेट पर आपका आचरण काफ़ी हद तक आपके व्यक्तित्व और सोच को दर्शाता है । कारपोरेट जगत में तो ये और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इंटरनेट पर की गयी एक जरा सी गलती कभी कभी आपके पूरे कैरियर को चौपट कर सकती है । अमेरिका में न्याय-विभाग अभी तक ईमेल सम्बन्धी प्रकरण से उबरा नहीं है जहाँ उन्होने गलती से अथवा जानबूझ कर कुछ महत्वपूर्ण ईमेल डिलीट कर दी थीं ।

ईमेल फ़ारवर्ड करना आमतौर पर सभी लोग बुरा मानते हैं (कुछ अपवादों को छोडकर) लेकिन इसमें भी कई प्रकार के वर्गीकरण हैं ।

१) कुछ लोग ऐसे होते हैं जो मौका लगते ही आपको कुछ भी फ़ारवर्ड कर देंगे; फ़ूलों का गुलदस्ता, यूरोप के फ़ोटो, प्यार जताने के १०० तरीके, दुनिया के १० अजूबे और बाकी सभी कु्छ ।

२) आपको कुछ लोग ऐसे मिल जायेंगे जो फ़ूलों का गुलदस्ता तो फ़ारवर्ड नहीं करेंगे लेकिन "सिद्धिविनायक मन्दिर का फ़ोटो"/"साईं बाबा का दुर्लभ फ़ोटो"/"तुम और हम दोनों आई. पाड जीते"/"मुफ़्त में पैसा कमायें" तुरन्त फ़ारवर्ड कर देंगे ।

३) इसके अगले पायदान पर जो लोग होते हैं जो बाकी कुछ तो नहीं पर कुछ विशेष चीजें जरूर फ़ारवर्ड करते हैं । उनको लगता है ये चीजें वास्तव में महत्वपूर्ण हैं और इनको फ़ारवर्ड करना कुछ गलत नहीं है । उदाहरण के लिये, "फ़ैक्ट्स टू मेक यू प्राउड अबाउट इंडिया"/ "किसी कारगिल/अक्षरधाम आपरेशन में शहीद हुये वीर के बारे में जानकारी"/ "सीमेन्स बैंगलौर में काम करने वाली किसी काल्पनिक महिला के बच्चे के लिये अस्थिमज्जा दान करने की अपील"/ " बिल गेट्स इस शेयरिंग हिज वैल्थ" आदि आदि ।

४) ये पायदान सबसे अलग होता है, और इस पायदान के लोग केवल "आनलाईन पिटीशन"/"हस्ताक्षर अभियान"/"ताजमहल को वोट दें" फ़ारवर्ड करते हैं ।

५) (इस पायदान में मैं भी आता हूँ) कुछ लोग किसी अन्य विषय से सम्बन्धित जानकारी (संगीत/इतिहास/कला/विज्ञान आदि) से सम्बन्धित "सत्य/रोचक" जानकारी अपने कुछ ऐसे मित्रों को फ़ारवर्ड करते हैं जो उनके हिसाब से इस जानकारी को रोचक/ज्ञानपद्र समझेंगे । चूँकि इस श्रेणी में मैं भी आता हूँ, इस श्रेणी के कुछ अलिखित नियमों (मेरे हिसाब से) की बात करते हैं ।

क) ऐसी ईमेल केवल उन्ही को भेजे जिनको आप व्यक्तिगत तौर पर जानते हों । अंगूठे का नियम हो सकता है कि आपने सम्बन्धित विषय पर उनसे पिछले दो महीने में कम से कम एक बार बात की हो । आपके पास उनका पता और फ़ोन नंबर हो ।

ख) दो-तीन बार ईमेल भेजने के बाद कभी बात होने पर उस ईमेल का जिक्र करें । अगर आपको दो या उससे अधिक बार ये सुनने को मिलता है कि "यार, मेल दिखी थी लेकिन इतना व्यस्त था कि पढ नहीं सका", तो इसे आप सभ्य भाषा में ये समझें कि उनको आपकी भेजी हुयी जानकारी में कोई रूचि नहीं है । आपको उन्हे दोबारा ऐसी ईमेल नहीं करनी चाहिये ।

ग) ऐसी ईमेल एक सप्ताह में दो बार से अधिक न करें ।

घ) अगर आपकी भेजी गयी जानकारी आपकी ईमेल के पाठकों को रोचक लगी होगी तो उनमें से कुछ निश्चित ही वापस ईमेल करके आपको धन्यवाद देंगे ।

ड) कभी भी धन्यवाद करते समय सभी लोगों को ईमेल न भेंजे, केवल सम्बन्धित व्यक्ति को ही प्रेषित करें ।
आप इन पाँचो पायदानों में से किस पायदान पर खडे हैं ? चाहे तो अपनी टिप्पणी के माध्यम से मुझे बता सकते हैं ।

मैने जब आचारसंहिता वाली पुस्तक पढी थी तो उसमें ब्लाग से सम्बन्धित कोई जानकारी नहीं थी । मैं अपने विचार से ब्लाग सम्बन्धी कुछ "अंगूठे के नियम" बता रहा हूँ । मेरी राय में इन्हे अपनाकर फ़ालतू के विवाद से आसानी से बचा जा सकता है ।

१) आपके ब्लाग पर टिप्प्णी भले ही दिखाई सबको दे, लेकिन एक प्रकार से वो आपके साथ व्यक्तिगत संवाद है । आप टिप्पणी के जवाब ईमेल से दे सकते हैं, लेकिन आम तौर पर टिप्पणी का जवाब आपके खुद के ब्लाग पर आपकी टिप्पणी से दिया जा सकता है । आप पर हुयी किसी व्यक्तिगत टिप्पणी/आक्षेप की जवाबदेही सिर्फ़ आपकी है । आपके मित्र अपनी टिप्पणी के माध्यम से उसका जवाब दे सकते हैं लेकिन इससे सदैव बचने का प्रयास करना चाहिये, वरना आपके मित्रों पर भी आक्षेप लगने की सम्भावना रहती है और फ़िर वो एक संवाद न रहकर व्यक्तिगत झगडा बन जाता है । आप पर लगाये गये किसी आक्षेप पर अपने किसी मित्र/अन्य पाठक द्वारा किसी जवाब की आकांक्षा नैतिक तौर पर गलत है । इस पचडे में पडना या न पडना उनका व्यक्तिगत मामला और आप इसे अपने सम्बन्धों की कसौटी न ही बनायें तो अच्छा है ।

२) किसी भी ब्लाग पर की गयी टिप्पणी को ब्लाग पर स्थान देने का फ़ैसला ब्लाग के मालिक के अधिकारक्षेत्र में आता है । हिन्दी ब्लागजगत में जहाँ टिप्पणियों का काफ़ी मोल है मेरी समझ से कोई भी ऐसा नहीं करेगा लेकिन अगर ऐसा हो तो आपकी नाराजगी नितांत अनुचित है । निश्चित रूप से पुन: टिप्पणी न करने अथवा उस ब्लाग को न पढने के लिये आप स्व्तन्त्र हैं, लेकिन इस मुद्दे का जवाब एक पोस्ट के माध्यम से सबको सुनाकर देना मेरी समझ से अनुचित व्यवहार होगा ।

३) ठीक इसी प्रकार, किसी टिप्पणीकर्ता की टिप्पणी के जवाब में लिखी गयी पोस्ट में टिप्पणीकर्ता का नाम बार बार लेना और अत्यधिक भावुक होना भी गलत है । ऐसे संवाद/जवाब के लिये व्यक्तिगत ईमेल कहीं बेहतर है । संवाद की समाप्ति के बाद आप एक पोस्ट में अपने वार्तालाप के मुख्य बिंदुओं को संक्षेप में लिख सकते हैं (दूसरे संवादी से उस संवाद को छापने की अनुमति के बाद) ।

४) जैसा कि रवि रतलामीजी ने बताया था कि इंटरनेट पर आपका लिखा हुआ कुछ भी लम्बे समय तक बना रह सकता है इसलिये अपने गुस्से को सदैव काबू में रखें । एक आदर्श नियम हो सकता है कि आप लिखते समय संयम रखे और पढते समय दिल को एकदम खुला रखें और अपने विवेक का प्रयोग करत हुये यथासंभव छोटी बातों को नजरअन्दाज करें ।

ये कुछ ऐसे विचारबिन्दु हैं जो मैं पिछले काफ़ी समय से आप सबके सम्मुख रखना चाह रहा था । आप अपनी प्रतिक्रिया टिप्पणी के माध्यम से दे सकते हैं ।

साभार,
नीरज रोहिल्ला

मंगलवार, जून 26, 2007

हमारे दौडने-भागने के किस्से

मित्रों आज आपको अपने पुराने दिनों की कुछ बातें बताते हैं । ये बात तब की है जब हम रासायनिक अभियांत्रिकी पढ रहे थे (अभी भी वही पढ रहे हैं) । लेकिन ये बात आज से लगभग सवा आठ साल पुरानी है, हम अपने कालेज में प्रथम वर्ष में थे और वार्षिक खेल कूद प्रतियोगिता आयोजित हो रही थी । इस प्रतियोगिता में अभियांत्रिकी की सभी शाखायें आपस में संघर्ष करती थी और उनमें से एक विजेता घोषित होती थी । जाहिर है हर साल "मैकेनिकल" वाले ही विजेता बनते थे क्योंकि वो संख्या में ज्यादा थे और हथौडा भी ढंग से चलाने में माहिर थे :-)

जब विभिन्न ट्रैक प्रतियोगिताओं के लिये नाम लिखा जा रहा था तो हम भी पँहुच गये और १०० मीटर, २०० मीटर, ११० हर्डल रेस, ४०० मीटर, ४ * १०० मीटर रिले, ४ * ४०० रिले और १५०० मीटर में अपना नाम लिखा आये । नाम लिखने वाले ने एक बार सूची की ओर देखा और फ़िर हमारी ओर एक नजर डाली । हमने कहा कि हाँ अपना ही नाम लिखा रहे हैं परेशान न हो ।

खैर वहाँ बैठे सब लोग हँस दिये और हमारे ब्राँच कैप्टन ने हमारे कन्धे पर हाथ रखकर कहा कि जीतना ही सब कुछ नहीं होता, प्रतियोगिता में भाग लेना ज्यादा जरूरी है । हमें बडा अफ़सोस हुआ कि और तो और हमारा ब्राँच कैप्टन ही हम पर भरोसा नहीं कर रहा है ।

पहले दिन सब दौडों के प्रतिभागियों की छंटनी होकर हर दौड में लगभग ६-८ प्रतिभागी बचने थे । पहली रेस १०० मीटर, समय के हिसाब से हमारा नंबर चौथा; दूसरी रेस २०० मीटर हमारा नंबर तीसरा; तीसरी रेस १०० मीटर हर्डल और उसमें भी हमारा नंबर तीसरा । उसके तुरन्त बाद हमारा ब्राँच कैप्टन दौडता हुआ आया और बोला गुरू कहाँ छुपे हुये थे अब तक । उन्होने कहा कि बस अपनी ब्राँच की इज्जत अब तुम्हारे हाथ में है पिछली बार पीछे से प्रथम आये थे इस बार कुछ करके थोडा तो आगे बढाओ ।

उसके बाद बाकी लोग भी बधाईयाँ देने आ गये और हम भी अपनी ब्राँच में थोडा सेलिब्रिटी जैसे बन गये । पहले दिन की शाम को ११० मीटर हर्डल रेस का फ़ाइनल मुकाबला था और अपनी किस्मत दगा दे गयी । रेस के बीच में एक बाधा को कूदकर जैसे ही पैर नीचे पडा हम अपना सन्तुलन खो बैठे थे और पैर में अच्छी खासी मोच आ गयी थी । ब्राँच कैप्टन ने एक बार फ़िर कन्धे पर हाथ रखा और कहा कि "बैटर लक नेक्स्ट टाइम" ।

मोच के कारण दूसरे दिन हम दौडने के बिल्कुल भी काबिल नहीं थे । सारी प्रतियोगितायें हमारी आँखो के सामने होती रहीं और हम मन मसोस के रह गये । १०० मीटर रेस का फ़ाइनल तीसरे दिन की शाम को प्रतियोगिता के समापन से ठीक पहले मुख्य अतिथि के सामने होना था । हमने अपने टूटे पैर की खूब सेवा की, गरम पानी में नमक डालकर सिंकाई की, मूव/आयोडेक्स की पूरी डिबिया पैर पर उडेल दी और रेस से तुरन्त पहले हम "दर्द निवारक गोली" खाकर ट्रैक पर खडे थे । एक बार फ़िर हमारे ब्राँच कैप्टन ने हमें "बैस्ट आफ़ लक" कहा । ६ लोगों की दौड में हमारा नंबर रहा "चौथा", अपने जख्मी पैर के बावजूद ।

कोई ईनाम भले ही न मिला हो लेकिन अपनी ब्राँच वालों ने हमारे प्रयास की खूब सराहना की और हमें भी अच्छा लगा । उसके बाद अगले तीन सालों तक हमने अपनी ब्राँच के लिये विभिन्न दौडों में कई पदक बटोरे ।

अब जब बात चली ही है तो मैं अपनी सबसे पसंदीदा दो दौडों का किस्सा सुनाता हूँ । पहली थी ४ * ४०० रिले रेस; इसमें मैं आखिरी में दौडने वाला था और जब मुझे बैटन मिला तो हम तीसरे स्थान पर थे लेकिन हमने भी वो दौड लगायी कि चक्कर पूरा होने से पहले प्रथम स्थान पर आ गये थे । इस दौड के समाप्त होने पर मेरे कई मित्रों ने (जो दूसरी ब्राँच में थे ) मुझे कन्धे पर उठाकर मैदान में खूब घुमाया ।

दूसरी दौड ४०० मीटर रेस थी, इस रेस में मैने अपने निकटतम प्रतिद्वन्दी को लगभग १५ मीटर की लीड से परास्त करके अपने कालेज का रेकार्ड (५४ सेकेण्ड्स ) सेट किया था ।


समय बीतता गया और पहले आई. आई. एस. सी., बँगलौर और फ़िर चावल विश्वविद्यालय (राइस यूनिवर्सिटी) में अध्ययन के दौरान ट्रैक से वास्ता बिल्कुल छूट गया । कभी कभी यूँ ही राइस के कैम्पस के चारों ओर (४.८ किमी) दौड लिया करते थे फ़िर वो भी छूट गया ।


अभी दो महीने पहले मैं एक ऐसे समूह के संपर्क में आया जो हर बुधवार को १० किमी दौडते हैं और फ़िर कालेज पब (वलहाला) में बैठकर बीयर पीते हैं । उनमें से अधिकतर लोग कई मैराथन (४० किमी ) दौड चुके हैं । उनमें से एक व्यक्ति के उकसाने पर मैने भी फ़िर से दौडना प्रारम्भ कर दिया है ।

अभी मैं हफ़्ते में केवल २० किमी दौड रहा हूँ (बुधवार को १० और सोमवार और शुक्रवार को ५ ) । ह्यूस्टन में मैराथन दौड जनवरी में होती है, अगर सब कुछ ठीक रहा तो इस बार कम से कम आधी मैराथन तो अवश्य दौडूँगा । फ़िलहाल तो दौडने में बहुत ही मजा आ रहा है, बस दुआ कीजिये कि सब कुछ ऐसे ही चलता रहे ।

इस बीच मेरा वजन जो १५ मिलीग्राम बढ गया था, दौडने के कारण फ़िर से बराबर हो गया है :-)

शनिवार, जून 23, 2007

एक कविता खोजने का प्रयास!!!

बचपन में (शायद कक्षा ६ में) एक कविता पढी थी । आज उसकी केवल कुछ पंक्तियाँ ही याद हैं । आशा करता हूँ कि ब्लाग जगत में शायद किसी के पास ये पूरी कविता हो, अगर आपके पास इस कविता के बाकी अंश हैं तो अपनी टिप्प्णी अथवा ईमेल से सूचित करें ।

कुटिल कंकडों की कर्कश रज,
घिस घिस कर सारे तन में,
किस निर्मम निर्दय ने मुझको,
बाँधा है इस बंधन में ।

फ़ाँसी सी है पडी गले में,
नीचे गिरता जाता हूँ,
बार बार इस महाकूप में,
इधर उधर टकराता हूँ ।

सोमवार, जून 18, 2007

यायावरी की बाद चिट्ठा बाँचन: हाय हम क्यों न हुये मशहूर

हम वैद्यजी की शैली में कह रहे हैं, "ईश्वर से हमारा विश्वास उठता जा रहा है" । आप पूछेंगे क्यों ? तो लीजिये एक पूरी लम्बी पोस्ट लिखकर समझा रहे हैं ।


सबसे पहला तो ये कि हमने हिन्दी ब्लागजगत में अवतरण करने में थोडी देरी करके अपना बडा नुकसान कर लिया था । ब्लागस्पाट पर दाखिला तो बहुत पहले ले लिया था लेकिन ये सोचते थे कि "यूँ ही ऐं वें लिखकर क्या करेंगें ?" हम "ऐं वें लेखन" के चक्कर में पडे रहे और लोग "ऐं वें" लिखकर चिट्ठाजगत के "ताऊ और भीष्म पितामह" बन गये। सबका "ऐं वें लेखन" हम पढ तो बराबर रहे ही थे; और कुछ कविताओं वाले चिट्ठों ने तो नींद छीन ली फ़िर भी हम टिपियाये कि "मन के भावों को क्या खूबसूरती से उकेरा है" । ध्यान दीजियेगा कि ये वही समय था जब हिन्दी चिट्ठाकार "तुम मुझे मुल्ला कहो, मैं तुम्हे हाजी कहूँगा" वाला खेल चला रहे थे । अरे अभी भी नहीं समझे क्या? वही "पाँच प्रश्नों वाला खेल"


हमने सोचा कि चलो अभी भी बहुत देर नहीं हुयी है, हमहु थोडा नाम कमा लें । चहकते हुये इधर उधर टिपियाते रहे, दो तीन पोस्ट भी चाँप दी । लेकिन किसी की नजर भी नहीं पडी, एक बार तो यहाँ तक सोचा कि खुद ही पाँच सवालों के जवाब दाग देते हैं किसे याद होगा कि इससे किसी ने पूछा कि नहीं । लेकिन नहीं, ईमानदारी मार गयी हमें, हम चुपचाप प्रतीक्षा करते रहे कि आज की टिप्पणी पढकर कोई तो कुछ पूछेगा लेकिन नतीजा वही "सिफ़र" । हद तो तब हो गयी कि कुछ लोग बेहद आलसी निकले । उनसे किसी ने पाँच सवाल पूछे और इस सिलसिले को बढाने के बदले उन्होने ये कहकर हमारे अरमानों का गला घोंट दिया कि अब सभी चिट्ठाकार लपेटे जा चुके हैं और अब ये सिलसिला बन्द कर दिया जाये । ऐसे लोगों तो हम कैसे समझायें कि अगर सब मेल फ़ारवर्डिंग करने वाले ऐसा ही सोचने लगें तो चल लिया मेल फ़ारवर्डिंग का व्यापार । हम क्या समझायें कि क्या गुजरी हमारे नाजुक दिल पर ....


समय बीतता गया और हमने इस दुख को अपने सीने में जब्त कर लिया । लेकिन भगवान हमारे साथ एक खेल और खेल गया । हम राजा बबुआ बनकर १६५० मील लम्बी कारयात्रा पर क्या निकले लोगों ने मौका ठांसकर कारसेवा पूरी कर दी । किसी ने थोडा बवाल मचाया, किसी ने विचारों की अभिव्यक्ति की हवा फ़ूँकी और किसी ने "जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध" कहकर बवाल को हवा देकर पूरा आग का गोला बना दिया । हम उहाँ गाडी चलाते रहे और लोग यहाँ रातोरात मशहूर हो गये । हमें तो मौका ही नहीं मिला बताने का कि हम किस तरफ़ हैं या फ़िर हम तीसरा मोर्चा बनाने की सोच रहे हैं ।

यात्रा पर निकलने से पहले हम सोच रहे थे, जितने समय में हम वापिस आयेंगे मुद्दा सुलगकर तैयार हो चुका होगा और हम एक धकापेल लम्बी सी पोस्ट छापकर इतिहास में अपनी जगह सुरक्षित कर लेंगे । पर हाय तकदीर को ये मंजूर न था, जब तक लौट के आये हैं आग के शोले जल चुके हैं । जिनको धरना देना था बोरिया समेटकर जा चुके हैं । इस्तीफ़े तो अब जेब में छत्तीस लोग लेकर घूम रहे हैं । अब इस मुद्दे पर कुछ भी लिखा तो नाम तो नहीं होगा उल्टा लोग कहेंगे भईया जित्ता बोलना था बोल चुके अब ज्यादा चिल्ल पों न मचाओ और घर जाओ ।


ईश्वर ने ये मौका भी हमारे हाथ से छीन लिया । सोचा था कि पहले नारद वाले मुद्दे पर थोडा यश बटोरेंगे और फ़िर यायावरी के नाम पर दो तीन पोस्ट छापकर कम से कम दो महीने की ब्लागिंग का मसाला तो मिल ही जायेगा । और फ़िर बाजार में एक बार साख बन गयी तो टिप्पणियाँ तो आती ही रहेंगी । पर हाय री किस्मत ऐसे नसीब कहाँ हमारे ।


अब तो घुटनों पर जोर डालकर मुद्दे निकालनें पडेंगे और लोगों को जबरदस्ती पढवाना पडेगा । चलो तकदीर में यही लिखा है तो यही सही....



गुरुवार, जून 14, 2007

वाह रे पी. एन. ओक के "तेजोमहालय"

आज सुरेश जी की "ताज महल" और "तेजो महालय" वाली पोस्ट पढी और अपने आपको इस पोस्ट को लिखने से रोक नहीं सका ।

सबसे पहले उस विवादित पुस्तक के लेखक के बारे में बात करते हैं । पुरूषोत्तम नारायण ओक (पी. एन. ओक) अपने आपको एक इतिहासविद कहते अवश्य हैं लेकिन वो इतिहास विषय पर अपने शोध के लिये कम और "कांस्पिरेसी थ्योरीज" के लिये ज्यादा जाने जाते हैं । ये भी बात विचारणीय है कि पी. एन. ओक ने अभी तक किसी भी "peer reviewed journal" में अपना कोई खास शोधकार्य नहीं छापा है ।

तेजो महालय थ्योरी के अलावा भी उनके कुछ निम्न विचार हैं ।

क्रिस्चिनियटी (Christianity) = कॄष्ण स्तुति
मेक्सिको = माल्यावर्त
मक्का में काबा वास्तव में एक शिव मंदिर है ।
७८६ को अगर आप अरबी में लिखें तो उल्टी तरफ़ से पढने पर कुछ विद्वान(ओक और वर्तक सरीखे) उसमें "ओम" की झलक देख सकते हैं ।

तेजोमहालय थ्योरी पर मेरे कुछ विचार इस प्रकार हैं ।

१) मान लीजिये आपने कभी "ताज महल" का नाम नहीं सुना, अब मैं आपको एक भव्य इमारत का नाम "तेजो महालय"/"तेजो महलया" बताता हूँ । क्या आप इस नाम को सुनकर ये कह सकते हैं कि ये किसी मन्दिर का नाम है ? क्या मन्दिरों के नाम ऐसे होते हैं ? क्या ऐसा कोई और उदाहरण है ? क्या इस नाम से पता चलता है कि ये एक प्राचीन शिव मंदिर है ?

क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि "तेजो महालय", "ताज महल" को अपभ्रंश करके किसी भी तरीके से एक संस्कॄतनिष्ठ शब्द बनाने का प्रयास है ?

२) यदि आपने पी. एन. ओक की पूरी किताब पढी हो तो आप पायेंगे कि खुद पी. एन. ओक अपने तथ्यों में उलझ कर रह जाते हैं । कभी वो इसे एक शिव मंदिर तो कभी एक "राजपूती महल" बताते हैं ।

३) बाबर ने "राम मंदिर" का विध्वंस करके "बाबरी मस्जिद" का निर्माण किया था । ये बात अयोध्या के आस पास की किवदंतियों में खूब प्रचलित है और ये बात तत्कालीन एतिहासिक दस्तावेजों में दर्ज है । ऐसा कैसे हो सकता है कि उसके सैकडों वर्षों बाद हुयी इस घटना को वहाँ (आगरा/मथुरा) की जनता और इतिहास दोनों बडी आसानी से भूल गये । आगरा/मथुरा की लोककथाओं में इस प्रकार की किसी भी घटना का उल्लेख नहीं है । इतने भव्य मंदिर का इतने भव्य मकबरें में बदलाव की एतिहासिक घटना को लोग यूँ ही नहीं भूल सकते ।

४) ताजमहल से बिल्कुल सटा हुआ "ताज संग्रहालय" है । यदि आप वहाँ जायेगें तो आपको ताज महल के निर्माण सम्बन्धी कई दस्तावेज देखने का अवसर मिलेगा जो ताज महल की जमीन से लेकर पत्थरों की खरीद और मजदूरों के वेतन सम्बन्धी बातों का उल्लेख करते हैं ।

५) अगर शाहजहाँ ने एक मंदिर को तोडकर ताज महल बनवाया भी तो क्या वो इतना बडा बेवकूफ़ होगा कि मूर्तियों को एक कमरे में बंद करके छोड देगा जिससे बाद में कभी भी वो निकाली जा सकें ? एक बादशाह के लिये मूर्तियों को किसी अन्य जगह भेजना निश्चित ही बडा मुश्किल कार्य रहा होगा ।

"कांस्पिरेसी थ्योरिस्ट" आमतौर पर इस प्रकार के तर्क ज्यादा देते हैं जिनकी सामान्यत: पुष्टि न हो सके । तर्क का एक बडा सरल सा सिद्धान्त होता है; अगर आप आम राय के खिलाफ़ तर्क कर रहे हैं तो उसकी पुष्टि की जिम्मेवारी खुद आपकी होती है । उदाहरण के तौर पर क्या मैं ऐसा कह सकता हूँ कि "चाँद मक्खन का बना हुआ है, और अगर आप नहीं मानते तो साबित करिये कि चाँद मक्खन का बना हुआ नहीं है" ।


आज के लिये बस इतना ही, अगली बार बात करेंगे "राम सेतु" की और जानेंगे कि कैसे कुछ स्वयं स्थापित इतिहासविद बनकर लोगों को इस बात पर गलत तर्क परोस रहे हैं ।

साभार,
नीरज


चलते चलते: कल सुबह मैं अपने एक मित्र के साथ १४०० मील की कार यात्रा पर निकल रहा हूँ, इसलिये शायद दो दिनों के लिये संजाल पर आना संभव न हो सके । आप सभी लोगों के चिट्ठे पढने की पढास बहुत कष्ट देगी । यात्रा के बाद उसके विवरण पर भी एक पोस्ट अवश्य लिखी जायेगी ।